स्मृतिशेष : लेखक—पत्रकार अमरीक
तुम देश छोड़ने का कह रहे थे, दोस्त ! ये क्या किया, तुमने तो दुनिया ही…
—ज़ाहिद ख़ान
जनपक्षधर, जुझारू जर्नलिस्ट और हिंदी—उर्दू—पंजाबी अदब के शैदाई अमरीक अब इस दुनिया में नहीं रहे। बीते शनिवार यानी 5 अक्टूबर को देर रात उन्होंने पटियाला के राजिंदरा अस्पताल में अपनी आख़िरी सांस ली। चार दिन बाद उनके चाहनेवालों को यह चौंका देनेवाली ख़बर मिली। बड़े ही ख़ामोशी से उन्होंने इस दुनिया से अपनी रुख़्सती ले ली थी। यह वाक़ई बेहद दिल दुखा देनेवाली ख़बर है, उन सबके लिए जो उनके लेखन और मीडिया रिपोर्ट—स्टोरी—रिपोर्ताज—आर्टिकल—बुक रिव्यू आदि को पढ़ते—पसंद करते थे, उनके काफ़ी नज़दीकी थे और जिन्होंने अमरीक के साथ कभी काम किया था। वह बीते चार साल से लीवर सिरोसिस, पैंक्रियाज, जॉंडिस, शुगर, सीओआरडी और न्यूरो वगैरह समस्याओं से जूझ रहे थे। एक वक़्त उनके लीवर ने अस्सी फ़ीसद तक काम करना बंद कर दिया था। यहॉं तक कि कई मर्तबा उन्हें ऐसा लगा कि वे अपनी याददाश्त भी खो बैठेंगे। बड़े—बड़े अस्पतालों के डॉक्टरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए। लेकिन उनमें ग़ज़ब की जिजीविषा और जीवट था, जो इतनी गंभीर बीमारियों में मुब्तिला होने के बावजूद, चार साल तक ज़िंदगी और मौत के दरमियान संघर्ष करते रहे। उन्हें इस बात का अच्छी तरह से एहसास था कि ये डोर कब कट जाए, और वे दूर गगन में कहीं खो जाएं। लेकिन अपनी बातों से उन्होंने कभी इस बात का ज़रा—सा भी एहसास नहीं होने दिया। हमेशा ज़िंदादिली से बातें करते थे। अपने काम पर तो बात करते ही थे, साथ ही वे इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं, इसका भी ज़िक्र होता। हमारे कई कॉमन दोस्त थे, जिनमें मकरोनिया पंजाब के आरपी सिंह साहब और अमेठी के मेज़र साहब का ज़िक्र ज़रूर छिड़ता। उनकी बातों को आपस में शेयर कर, हम ख़ूब आनंदित होते। ठहाके लगाते। अमरीक भाई का मोबाइल आना, यानी आधे से लेकर एक घंटे की छुट्टी। वह हमेशा लंबी—लंबी बातें किया करते थे। और मुझे हमेशा ख़ान भाई कहकर संबोधित करते। दरअसल, हमारी दोस्ती की इब्तिदा ही लंबी बातचीत से हुई थी। साल 2016 में मेरी किताब ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ आई। इस किताब को पढ़कर, उनका पहली बार मुझे मोबाइल आया। और तक़रीबन पौन घंटे बात की और आख़िर में उन्होंने यह ताक़ीद की कि ”जब भी पंजाब आएं, तो मुझसे ज़रूर मिलें और मेरे लायक़ कोई भी काम हो, तो बेझिझक बतलाएं।”
बहरहाल, इस बातचीत के तक़रीबन तीन—साढ़े तीन साल बाद अमरीक से दोबारा राब्ता क़ायम हुआ। एक बार फिर उनसे बातचीत शुरू हुई, तो उन्होंने वही जोश—ओ—ख़रोश औैर ज़िंदादिली दिखाई। उन दिनों वे एक साथ कई वेबसाइट और न्यूज पोर्टल मसलन ‘नेशनल हेराल्ड, ‘नवजीवन’, ‘सत्य हिंदी’, ‘जनचौक’ और ‘संवाद’ आदि से जुड़े हुए थे। बाद में इसमें वेबसाइट ‘न्यूजक्लिक’ भी जुड़ी। कोई भी न्यूज रिपोर्ट या स्टोरी लिखते, वह कमोबेश सभी जगह अहमियत के साथ छपतीं। उस वक़्त आलम यह था कि इन सब वेबसाइट में अमरीक की एक दिन में दो—दो, तीन—तीन स्टोरियॉं छपती थीं। उनमें सियासत की गहरी समझ, भाषा की रवानी और लिखने की ग़ज़ब की फ़ुर्ती थी। इसमें सबसे ज़्यादा तअज्जुब की बात यह है कि टाइप करने से लेकर रिपोर्ट भेजने तक का सारा काम वे अपने मोबाइल से करते थे। और क्या ख़ूब बेहतरीन तरीक़े से करते थे। अमरीक अपने काम से अक्सर सबको हैरानी में डाल देते। राजधानी दिल्ली से लेकर हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और जम्मू—कश्मीर तक जहॉं भी कोई बड़ा सियासी—समाजी घटनाक्रम घटता, वह उस पर विशेष टिप्पणी लिखते। जिसे पूरी तरजीह के साथ यह वेबसाइट और न्यूज पोर्टल पब्लिश करते। लॉकडाउन के समय उन्होंने तमाम न्यूज़ स्टोरी, रिपोर्ट और मज़दूरों के पलायन पर दिल दहला देनेवाले रिपोर्ताज लिखे। यह बात बताना भी लाज़िमी है कि अमरीक, देश के उन इक्का—दुक्का पत्रकारों में शामिल हैं, जिन्होंने किसान आंदोलन पर सबसे पहले क़लम चलाई। इसके अलावा ‘बिजली सुधार विधेयक’ और पराली से संबंधित विधेयक के बारे में भी अपनी रिपोर्टों से उन्होंने लोगों को जागरूक किया। संसद में जब तीन विवादास्पद कृषि कानून आए, तो वह फिर सरगर्म हो गए। और उन्होंने कई न्यूज रिपोर्ट और लेख लिखे। बहरहाल, जब किसानों का आंदोलन चरम पर था, तब वे बेहद बीमार थे। बीमारी के आलम में वे छटपटाते रहते और अक्सर बेबसी के साथ यह कहते, ”आज जब काम करने की बेहद ज़रूरत है, तब वह बीमार हैं। और कुछ नहीं कर पा रहे हैं !”
जम्मू—कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद, अमरीक ने राज्य के राजनीतिक—सामाजिक—आर्थिक हालात को बयॉं करती कई एक्सक्लूसिव स्टोरियॉं,रिपोर्टें और रिपोर्ताज लिखे। जो आज भी इन वेबसाइट पर सर्च की जा सकती हैं। वे बेहद बेख़ौफ़, हिम्मती और अपने विचारों से किसी तरह का समझौता न करनेवाले पत्रकार थे। साम्प्रदायिकता, धार्मिक संकीर्णता और कट्टरता के दुश्मन। यहॉं तक कि पंजाब में जब भी साम्प्रदायिक ताक़तें सर उठातीं, अमरीक उनके ख़िलाफ़ दमदारी से लिखते। डर उनकी डिक्शनरी में नहीं था। साहित्यिक मैगज़ीन ‘पल प्रतिपल’ के संपादक देश निर्मोही की फ़ेसबुक वॉल पर 8 नवंबर, 2022 को अपनी एक पोस्ट में अमरीक ने ख़ुद यह बात लिखी थी, ”परवाह नहीं ! क्योंकि आतंकवादियों की हत्यारी ‘हिट लिस्ट’ में आज भी कहीं न कहीं नाम है और ज़िंदा रहा तो दोबारा शिखर पर होगा (पंजाब और देश के हालात ऐसे ही हैं)।” उनकी इसी पोस्ट पर नज़र डालें, तो पता चलेगा कि उनके पढ़ने का दायरा कितना विस्तृत था और उनकी निगाहें कहॉं—कहॉं तक जाती थीं। ख़ास तौर पर पंजाब के हिंदी लेखन से वे अच्छी तरह से वाक़िफ़ थे। उस पर उनकी गहरी नज़र थी। ”बहुत पहले पंजाब का हिंदी लेखन हाशिए को हासिल हो गया था। यह व्यक्ति विशेष टिप्पणी नहीं है। गुलेरी जी, यशपाल, उपेंद्र नाथ अश्क, मोहन राकेश और रवीन्द्र कालिया और रमेश बत्रा के बाद कुमार विकल, जगदीश चंद्र व विनोद शाही, डॉ.सेवा सिंह और तरसेम गुजराल, डॉ. राकेश कुमार आदि ने अपने-अपने तईं गौरवशाली परंपराओं को मौलिकता के साथ सच्चे साहित्यिक-सांस्कृतिक जन सरोकारी आधार रखे और अपनी अति महत्वपूर्ण एवं हस्तक्षेपकारी अभिव्यक्ति तथा उपस्थिति के लिए ‘आधार प्रकाशन’ को चुना। कुमार विकल का संपूर्ण काव्य आधार प्रकाशन की देन है और इसी तरह जगदीश चंद्र रचनावली। विनोद शाही व डॉ. सेवा सिंह का निरंतर शाब्दिक बहुआयामी चिंतन!”
अमरीक ने कोई साढ़े तीन दशक पत्रकारिता की। उनकी पत्रकारिता का आग़ाज़ फ्रीलांस जर्नलिस्ट के तौर पर हुआ। बीच-बीच में उन्होंने ‘अमर उजाला’ और ‘दैनिक जागरण’ के जालंधर संस्करण में नौकरी की। इसके अलावा उन्होंने मृणाल पांडे के संपादन में निकलने वाली ‘हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप’ की मैगज़ीन ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के लिए भी काम किया। यह वह दौर था, जब पंजाब आतंकवाद से जूझ रहा था। अमरीक ने रक्तरंजित पंजाब की कई कहानियॉं लिखीं, जो पत्रिका में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। पंजाब के साथ—साथ वे हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की ज़मीनी रिपोर्टिंग भी करते थे। ‘द संडे मेल’ के वे विशेष प्रतिनिधि रहे। अपने दौर के चर्चित हिंदी अख़बार ‘जनसत्ता’ के लिए भी उन्होंने लिखा। लेकिन आज़ाद ख़यालात और आज़ाद तबीयत हमेशा अमरीक के काम के आड़े आयी, लिहाज़ा किसी बंधन में नहीं बंधे। और वापस फ्रीलांस जर्नलिज़्म की ओर आ जाते। यहीं उन्हें सुकून मिलता। बाद में तो वे पूरी तरह से वेबसाइटों के लिए ही काम करने लगे थे। बीते एक दशक में प्रिंट पत्रकारिता के जो हाल हैं, उसमें वैसे भी अमरीक जैसे पत्रकारों के लिए कोई जगह नहीं रही थी। मुझसे दोस्ती हुई, तो एक बार फिर वह अख़बारों में भी लेख भेजने लगे। और मैं उन वेबसाइट में लिखने लगा, जिसमें वे लिखते थे। अमरीक को हिंदी, उर्दू और पंजाबी अदब से एक जैसी मुहब्बत और उनके जानिब जुनून की हद तक दीवानगी थी। पिछले चार साल उन्होंने गंभीर बीमारियों को झेलते हुए गुज़ारे, लेकिन जब भी बात होती, किताबों और मैगज़ीनों का ज़िक्र ज़रूर आता। बीमारी में कुछ अरसा लिखना छूटा, पर उन्होंने कभी पढ़ना नहीं छोड़ा। हिंदी, पंजाबी और अंग्रेज़ी ज़बान के आधा दर्जन से ज़्यादा अख़बार अमरीक के घर आते थे। जिन्हें वे रेगुलर पढ़ते। बीमारी के आलम में भी उनके सिरहाने किताबें होतीं। एक मर्तबा उन्होंने मुझे अपने घर की तस्वीर भेजी, उस तस्वीर में चारों तरफ़ अलमारियों की शेल्फ़ में किताबें सजी हुई थीं। और वे उनसे घिरे हुए चेयर पर बैठकर, इत्मीनान से कोई किताब पढ़ रहे थे। अमरीक के फ़ेसबुक पेज पर भी जो तस्वीर लगी हुई है, उसमें भी वे किताबों के बीच पढ़ते हुए दिखाई दे रहे हैं।
अमरीक जितने संवेदनशील और जुझारू पत्रकार थे, ज़ाती ज़िंदगी में उतने ही मज़ाक़िया और हॅंसमुख इंसान थे। कभी—कभी वे बच्चों जैसी शरारतें करते और मुझसे इन बातों को शेयर कर ख़ूब मज़ा लेते। जैसा कि मैंने अपने लेख में ऊपर ज़िक्र किया है, हमारे दो कॉमन दोस्त आरपी सिंह और मेज़र साहब थे। इन दोनों ही से हम दोनों की बातें होती थीं। इन दोनों शख़्सियात में अलग—अलग ‘ख़ूबियॉं’ हैं। आरपी सिंह साहब नई—नई किताबें पढ़ने के शौक़ीन और उन पर चर्चा करने के लिए मशहूर हैं, तो मेज़र साहब को लतीफ़े सुनाने का शौक़ है। उत्तर प्रदेश से प्रकाशित दैनिक अख़बार ‘जनसंदेश टाइम्स’ मेज़र साहब महज़ इसलिए ख़रीदते हैं कि उसमें लेख के साथ—साथ लेखकों के मोबाइल नंबर भी होते हैं। मेज़र साहब लेख पढ़ते हैं, नहीं मालूम ! मगर लेखकों को मोबाइल ज़रूर करते हैं। मुख़्तसर—सी बातचीत के बाद, सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं। और उनका असल मुद्दा, अपने लतीफ़े सुनाना होता है। लतीफ़े सुनाकर, उनकी रेंकिंग क्या है ? यानी उनमें सबसे अच्छा कौन—सा है ? इस पर भी उनका इसरार रहता है। बहरहाल, अख़बार में अमरीक का लेख छपा, तो वे उनके भी गले पड़ गए। आये दिन उन्हें मेज़र साहब के चुटकुले सुनने होते। अपना दुखड़ा अमरीक ने मुझे सुनाया। मैंने उन्हें बताया, ”मैं ख़ुद इसका भुक्तभोगी हूॅं, लेकिन अब इसकी आदत पड़ गई है। मेज़र साहब का कभी मोबाइल नहीं आता, तब मैं ख़ुद ही उन्हें मोबाइल लगाकर लतीफ़े सुन लेता हूॅं।”अमरीक को शरारत सूझी और उसने मेज़र साहब को आरपी सिंह साहब का मोबाइल नंबर यह कहकर दे दिया कि ”यह मेरे चाचाजी हैं और इनको लतीफ़े सुनने का बेहद शौक़ है।” यह सुनना था कि मेज़र साहब अपने काम पर लग गए। आरपी सिंह साहब ने एक—दो रोज़ तो बड़े सज्जनता और धैर्य से मेज़र साहब के चुटकुले सुने, लेकिन बाद में उनका धैर्य जवाब दे गया। आरपी सिंह साहब ने बदले में मेज़र साहब को वो नॉन—वेज जोक्स सुनाए कि मेज़र साहब ने बचकर अपनी जान बचाई। यह बात अमरीक ने जब मुझे बताई, तो हम दोनों हॅंस—हॅंसकर लोटपोट हो गए। बाद में दोनों से अलग—अलग बातचीत हुई, तो इस बात की तस्दीक़ भी हो गई।
आरपी सिंह साहब से जुड़ा एक क़िस्सा और,जो बड़ा मज़ेदार है। सिंह साहब को अमरीक ‘चाचाजी’ कहता था और वे भी उसे अपना भतीजा ही मानते थे। अमरीक की शदीद बीमारी के बारे में सिंह साहब को पता चला, तो वे बेहद जज़्बाती हो गए। और उन्होंने मुझसे यहॉं तक कहा कि ”अमरीक को मेरी उम्र लग जाए।” अलबत्ता यह बात अलग है कि ख़ुद सिंह साहब कई सालों से ना जाने कितनी ही बीमारियों में मुब्तिला हैं। और इस दुनिया से अपने जाने की रट लगाए हुए हैं, लेकिन अभी तक डटे हुए हैं। अमरीक अपनी बीमारी से कुछ संभला, तो उसने एक नई शरारत आरपी सिंह साहब के साथ की। अपने दोस्तों से यह कहकर आरपी सिंह साहब को मोबाइल लगवाए, कि ”सुना है ! आपके पास मर्दानगी बढ़ाने की जड़ीबूटी है, यह जड़ी उन्हें चाहिए।” एक—एककर यह मोबाइल, सिंह साहब के पास इस क़दर आने लगे कि वे आजिज़ आ गए और उन्होंने मोबाइल लगानेवालों को अपनी ‘लतीफ़’ और ‘मुहज़्ज़ब’ गालियों से नवाज़ना शुरू कर दिया। अमरीक ने मुझे जब यह क़िस्सा सुनाया, तो मैं भी उसके फ़ितरती दिमाग़ का क़ाइल हो गया। फिर मुझसे कहने लगा, ”ख़ान भाई ! आप भी सिंह साहब से जड़ी मांग लो।” मैंने मोबाइल लगाया, तो सिंह साहब फ़ौरन भॉंप गए, और उन्होंने हॅंसकर कहा, ”अच्छा ! तो यह अमरीक की शरारत है।”
पिछले दो—तीन महीने से मेरी अमरीक से कोई बातचीत नहीं हुई थी। न कोई व्हाट्सएप मैसेज़ आया था। उसकी तबीयत कैसी है ? कहीं से कोई ख़बर नहीं मिल रही थी। यहॉं तक कि आरपी सिंह साहब को भी मालूम नहीं था कि वह किस हालत में है ? क्योंकि उसने उनका भी मोबाइल उठाना बंद कर दिया था। मेरी अमरीक से जो आख़िरी लंबी बातचीत हुई, वह लोकसभा चुनाव से पहले की है। उस बातचीत में अमरीक एकदम जज़्बाती हो गया। इतना कि वह फूट—फूटकर रोने लगा। और रोते हुए उसके ये अल्फ़ाज़ थे, ”ख़ान भाई ! यह देश अब रहने लायक़ नहीं बचा। चुनाव के बाद अगर मुल्क का निज़ाम नहीं बदला, तो वह यह मुल्क छोड़ देगा !” मैंने उसे दिलासा देते हुए समझाया, ”नाउम्मीद होने की कोई ज़रूरत नहीं। मुल्क के हालात ज़रूर बदलेंगे।” मगर वह उस वक़्त बेहद नाउम्मीद था। पहली मर्तबा मैंने उसे इतना ग़मगीन और परेशान देखा था। इलेक्शन के रिजल्ट आए, अमरीक से मेरी बात नहीं हुई। न उसने मुझसे कॉन्ट्रेक्ट करने की कोई कोशिश की। 8 अक्टूबर को सिंह साहब से बात हुई, तो दस मिनट बाद यकायक बोले, ”अमरीक चला गया !” मैं जैसे नींद से जागा और कहा, ”क्या ?” वे फिर बोले, ”अमरीक मर गया ! मुझे कल ख़बर मिली की उसकी मौत हो गई।” ज़ाहिर है कि इसके बाद, उनसे बात करने में मेरा दिल नहीं लगा। और मैंने मोबाइल काट दिया। बावजूद इसके मुझे इस बात का यक़ीन नहीं हो रहा था। गूगल पर सर्च किया, इस बात का कोई सुराग़ नहीं लगा। दूसरे दिन देश निर्मोही साहब ने जब अमरीक पर अपनी पोस्ट लगाई, तो इस ख़बर की तस्दीक़ हो गई। अविश्वास की कोई वजह नहीं बची थी। अब जब अमरीक पर यह श्रद्धांजलि— लेख लिख रहा हूॅं, तो मेरे ज़ेहन में उसके वही आख़िरी अल्फ़ाज़ गूॅंज रहे हैं, ”ख़ान भाई ! मैं यह देश छोड़ दूॅंगा।” और मेरा दिल रोते हुए कह रहा है, ”तुम देश छोड़ने का कह रहे थे, दोस्त ! ये क्या किया, तुमने तो दुनिया ही छोड़ दी….।”
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