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स्मृति

पाश : सपने हर किसी को नहीं आते

शहादत दिवस (23 मार्च) पर 

‘भगत सिंह ने पहली बार पंजाब/जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से/बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था/जिस दिन फांसी दी गई/उनकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली/जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था/पंजाब की जवानी को/उसके आखिरी दिन से/इस मुड़े पन्ने से बढ़ना है आगे, चलना है आगे’

ये काव्य पंक्तियां पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश की हैं। भगत सिंह को जब फांसी के लिए ले जाया जा रहा था, उस वक्त वे अपनी काल कोठरी में लेनिन की किताब पढ़ रहे थे। फांसी के लिए जाने से पहले उन्होंने किताब के उस पन्ने को, जहां वे पढ़ रहे थे, मोड़ दिया था। पाश ने इस परिघटना को आजादी के संघर्ष को जारी रखने की प्रेरणा के रूप में लिया और अपनी कविता में इसे व्यक्त किया।

23 मार्च शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का शहीदी दिवस है। इन तीन नौजवान क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। इस घटना के 57 साल बाद 23 मार्च 1988 को पंजाब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया। उनका असली नाम अवतार सिंह संधू था। पाश का जन्म नौ सितम्बर 1950 को जालंधर जिले की नकोदर तहसील में तलंबंडी सलेम गांव में हुआ था। पाश के पिता भारतीय सेना में सेवा करते हुए मेजर के पद से रिटायर हुए थे। बीए की डिग्री लेकर पाश ने अपने ही गांव में स्कूल खोला और पत्रकारिता भी करते रहे। 1967 में पाश भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े, बाद में क्रांतिकारी विचारधारा के सम्पर्क में आये और नागी रेडडी गुट के समर्थक रहे, लेकिन हिंसा की राजनीति से अलग रहे। 1978 में पाश का विवाह हुआ। 1985 में वह अमेरिका गये और वहां से ‘एंटी.47’ का संपादन किया। इस पत्रिका के जरिये पाश ने खालिस्तान का जबरदस्त विरोध किया। मार्च 1988 में पाश अमेरिका से छुटिटयां बिताने अपने गांव आये हुए थे। 23 मार्च के दिन खालिस्तान समर्थक आतंकवादियों ने नहाते समय पाश की हत्या कर दी।
यह महज संयोग है, ऐतिहासिक संयोग कि पंजाब की धरती से पैदा हुए क्रांतिकारी भगत सिंह के शहीदी दिवस के दिन ही पाश भी शहीद होते हैं। लेकिन इन दोनों क्रांतिकारियों के उद्देश्य व विचारों की एकता कोई संयोग नहीं है। यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की परंपरा का न सिर्फ सबसे बेहतरीन विकास है बल्कि राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण भी है।
पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। अर्थात पाश ने पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसे दौर में प्रवेश किया जो दूसरी आजादी के क्रांतिकारी राजनीतिक संघर्ष का ही नहीं अपितु नये जनवादी क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन का भी प्रस्थान बिन्दु था। अमरजीत चंदन के संपादन में निकली भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन तो पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था। पाश की इन कविताओं की पंजाब के साहित्य हलके में काफी चर्चा रही। उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष अपने उभार पर था। पाश का गांव तथा उनका इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था। इस संघर्ष की गतिविधियों ने पंजाब के साहित्यिक माहौल में नयी ऊर्जा व नया जोश भर दिया था। पाश ने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रची और इसके ‘जुर्म’ में गिरफ्तार हुए और करीब दो वर्षों तक जेल में रहे। सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए जेल में ढेरों कविताएं लिखीं और जेल में रहते उनका पहला कविता संग्रह ‘लोककथा’ प्रकाशित हुआ। इस संग्रह ने पाश को पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी।
1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने ‘सियाड’  नाम से साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की। नक्सलबाड़ी आंदोलन पंजाब में बिखरने लगा था। साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था। ऐसे वक्त में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए पस्ती व निराशा से उबरने की कोशिश की तथा सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएं की। पंजाब के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों को एकजुट व संगठित करने का प्रयास चलाते हुए पाश ने ‘पंजाबी साहित्य.सभ्याचार मंच ‘ का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर  ‘हम ज्योति’ पत्रिका शुरू की। इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी। चर्चित कविता ‘युद्ध  और शांति’ पाश ने इसी दौर में लिखी। 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह ‘उडदे बाजां मगर’ छपा जिसमें उनकी 38 कविताएं संकलित हैं। पाश का तीसरा संग्रह ‘साडे समियाँ विच’ 1978 में प्रकाशित हुआ। इसमें अपेक्षाकृत कुछ लम्बी कविताएं भी संग्रहित हैं। उनकी मृत्यु के बाद ‘लड़ेंगे साथी’ शीर्षक से उनका चौथा संग्रह सामने आया जिसमें उनकी प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएँ संकलित हैं।
पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव का अर्थात क्रांति और विद्रोह का है। इनकी कविताएं धारदार हैं। जहां एक तरफ सामंतों, उत्पीड़कों के प्रति जबरदस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति अथाह प्यार है। नाजिम हिकमत और ब्रतोल्त ब्रेख्त की तरह इनकी कविताओं में राजनीति व विचार की स्पष्टता व तीखापन है। कविता राजनीतिक नारा नहीं होती लेकिन राजनीति नारे कला व कविता में घुल-मिलकर उसे नया अर्थ प्रदान करते हैं तथा कविता के प्रभाव और पहुंच को आश्चर्यजनक रूप में बढाते हैं.. यह बात पाश की कविताओं में देखी जा सकती है। पाश ने कविता को नारा बनाये बिना अपने दौर के तमाम नारों को कविता में बदल दिया। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘हम लड़ेंगे साथी’ इसका उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें अपने दौर के राजनीतिक नारे का काव्यात्मक रूपान्तरण है। इस कविता की दीर्घजीविता है कि यह आज भी अपने पाठकों को प्रेरित करती है तथा पंजाबी में ही नहीं वरन हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय कविताओं में इसे शुमार किया जाता है।

पाश की कविताओं की नजर में एक तरफ ‘ शांति गांधी का जांघिया है जिसका नाड़ा चालीस करोड़़ इन्सानों को फांसी लगाने के काम आ सकता है’ तो दूसरी तरफ ‘युद्ध  हमारे बच्चों के लिए/कपड़े  की गेंद बनकर आएगा/युद्ध  हमारी बहनों के लिए कढ़ाई के सुन्दर नमूने लायेगा/युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा/युद्ध बूढी मां के लिए नजर का चश्मा बनेगा/युद्ध हमारे पुरखों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा’ और ‘तुम्हारे इंकलाब मेें शामिल हैं संगीत और साहस के शब्द/खेतों से खदान तक युवा कंधों और बलिष्ठ भुजाओं से/रचे हुए शब्द, बर्बर सन्नाटों को चीरते हजार कठों से निकलकर/आज भी एक साथ गूंज रहे शब्द’ – यही हजारों कंठो से निकली हुई आवाज पाश की कविता में शब्दबद्ध हुई। पाश की कविताओं में इन्हीं कंठों की उष्मा है। इसीलिए पाश की कविताओं पर लगातार हमले हुए। उन्हें अपनी कविताओं के लिए दमित होना पड़ा।

लेकिन चाहे सरकारी जेलें हों या आतंकवादियों की बंदूकें………. पाश ने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया बल्कि हजारों  शोषित कंठों से निकली आवाज को अपनी कविता में पिरोते रहें, रचते रहे, उनका गीत गाते रहे और अपने प्रिय शहीद भगत सिंह की राह पर चलते हुए शहीद हो गये। 23 मार्च के दिन ही अपना खून बहाकर पाश ने राजनीति और संस्कृति के बीच खड़ी की जाने वाली दीवार को ढहाते हुए यह साबित कर दिया कि बेहतर जीवन मूल्यों व शोषण उत्पीड़न से मुक्त मानव समाज की रचना के संघर्ष में कवि व कलाकार भी उसी तरह का योद्धा है जिस तरह एक राजनीतिक कार्यकर्ता।

क्रान्तिकारी सपने देखता है। वह उसे विचार व कर्म की आंच में पकाता है। वह शहीद होकर भी संघर्ष की पताका को गिरने नहीं देता। उसे अपने दूसरे साथी के हाथों में थमा देता है। शहीद भगत सिंह ने जिस आजाद भारत का सपना देखा था, पाश उसे अपनी कविता में विस्तार देते हैं। पाश की कविता में स्वप्न और संघर्ष का स्थाई भाव है। वे सपनों को जिलाए रखते हैं। पाश के शब्दों में कहें ‘सबसे खतरनाक होता है सपनों  का मर जाना’, पर यह दौर तो इस तरह का है कि सपनों का देखना और उसे पालना  खतरनाक हो गया है। इन्हें पालने वालों के लिए आज दमन व उत्पीड़न है, उनके लिए जेल की काल कोठरी है। असहमति की जगहें सीमित हो गई हैं.  पाश ने कहा था ‘हर किसी को सपने नहीं आते’। जिन्होंने लोकतंत्र को लूटतंत्र तथा जनतंत्र को जोर तंत्र में बदल दिया है, उन्हें सपने आ भी नहीं सकते। भगत सिंह और पाश की शहादत के बीच 57 वर्षों का अंतर है फिर भी ये दोनों क्रांतिकारी योद्धा हमारे अन्दर न सिर्फ सच्ची आजादी के सपने को जिलाये रखते हैं बल्कि राजनीति और संस्कृति की दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित करते हैं, साथ ही अपनी शहादत से ये राजनीति और संस्कृति की एकता में नया रंग भरते हैं। पाश के शब्दों में कहें –
‘हर किसी को नहीं आते/बेजान बारूद के कणों में/सोई आग के सपने नहीं आते…….शेल्फ में पड़े/इतिहास के ग्रंथों को सपने नहीं आते/सपनों के लिए लाजमी है/झेलने वाले दिलों का होना/नींद की नजर होनी लाजमी है/सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते’

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