जयप्रकाश नारायण
भारत में आरएसएस-भाजपा की डबल इंजन सरकारों ने मुल्क को ऐसी जगह पहुंचा दिया है, जहां सभी लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकता ऐतिहासिक जरूरत बन गई। आज जो हालात बना दिए गए उसे अगर लोकतंत्र के संदर्भ में देखें तो हम तेजगति से अंधकार युग की तरफ बढ़ रहे हैं।
इसका कारण कहीं और ढूंढने की जगह हमें वर्तमान राजसत्ता के अंदर ही तलाशना होगा। लोकतंत्र विरोधी कारक राजतंत्र के अंदर इस हद तक सक्रिय हो गए हैं कि वे आजादी के दौर की सभी उपलब्धियों को दीमक की तरह अंदर-अंदर चट कर रहे हैं।
लगता है अब लोकतंत्र के ऊपरी आवरण के दिन बहुत थोड़े ही बचे हैं। वैसे नई संसद के लोकार्पण के दिन ही पीठ के बगल में चोल वंशीय हिंदू राजा के प्रतीक राजदंड ‘सेंगोल ‘को स्थापित कर खुला संदेश दिया गया है कि भारतीय लोकतंत्र के भीतर से राजशाही (हिन्दू राज्य) का उदय हो रहा है।
28 मई के बाद लगभग संपूर्ण संसदीय विपक्ष संसद के लोकार्पण कार्यक्रम से विरत रह कर लोकतंत्र के अंत्येष्टि में भाग लेने के कलंक से बच गया है। सवाल अब चुनौतियों से भागने का नहीं है। बल्कि उसके सामने रूबरू होकर यह कहने का है कि हम हिंदुत्व कारपोरेट तानाशाही को स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन इसके लिए जो स्थिति बन गई है उसमें किसी एक राजनीतिक सामाजिक संगठन के लिए संभव नहीं है कि वह कारपोरेट तानाशाही का कारगर मुकाबला कर सके। इसलिए समय की मांग है एकजुट प्रयास की।
यक्ष प्रश्न यही है कि विविध विचारों, सामाजिक आधारों और संस्कृतियों में पले-बढ़े राजनीतिक दलों की एकजुटता का आधार क्या हो?
इस समय भारत में दो तरह की ताकतें फासीवाद विरोधी संघर्षों की अग्रिम कतार में हैं।
एक-मुद्दा आधारित जन राजनीति
सड़क, खेत, खलिहान, जंगलों, पहाड़ों, नदियों, विश्वविद्यालयों , संगठित, असंगठित औद्योगिक प्रतिष्ठानों के मजदूर कर्मचारी,( सरकारी गैर सरकारी प्रतिष्ठानों ), दलित , झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लाखों गरीबों से लेकर अल्पसंख्यक( मुख्यत: धार्मिक, जातीय, भाषाई) समूहों से असंख्य सामाजिक, राजनीतिक ताकतें संघर्ष के बीच से जन्म ले रही हैं। जो कारपोरेट फासीवाद के हमले के प्रतिरोध में मोर्चे पर डटी हैं।
अभी तक उत्पीड़न की शिकार आम तौर पर आदिवासी, दलित, मुस्लिम और पिछड़े गरीब परिवारों की महिलाएं होती थीं। लेकिन हिंदुत्व कारपोरेट राज की विचार प्रक्रिया में सेंगोल सामंती पुरुषवादी बाजार दृष्टि के प्रधान होने के कारण अभिजात वर्ग की महिलाएं भी हमले के दायरे में खिंच आई हैं। इन उच्च वर्गीय महिलाओं पर सांस्थानिक यौन हमले की परिकल्पना कुछ वर्ष पहले तक नहीं की जा सकती थी।
लोकतांत्रिक संस्थाओं से न्याय की उम्मीद खत्म हो जाने के कारण अलग-अलग तबकों में सड़कों के संघर्ष द्वारा न्याय हासिल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
दो- विविधता, चूंकि भारत विविधताओं का देश है। जिसमें जाति और धर्म दो ऐसे विभाजन है (जो मूलत: लोकतांत्रिक मूल्यों के निषेध पर टिके हैं )जो चुनावी दौर में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। नागरिक चेतना के प्रदूषित होने की इस मंजिल में जाति और धर्म राजनीतिक निर्णय में महत्वपूर्ण स्थान लेने लगते हैं। इस कारण आज के दौर में पहचान आधारित (अस्मितावादी राजनीति) सामाजिक न्यायवादी क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व प्रायः लोकतंत्र विरोधी जाति और धर्म की धुरी पर घूम रहा है।
भारत असमान विकास वाला देश है। इसलिए कई क्षेत्र आंतरिक उपनिवेश बन गए हैं। जिससे राजनीतिक वैचारिक समरूपता और साझा हितों पर आधारित संघर्ष संभव नहीं हो पाता । विविधता वाले समाज में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की गतिशीलता में अनेक तरह की शक्तियां जन्म लेती रहती हैं। जो लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ सत्ता में हिस्सेदारी और सामाजिक सम्मान के लिए संघर्ष करती हैं।
भारतीय समाज में जाति विभाजन एक ऐसा यथार्थ है, जो राजनीति से लेकर समाज की गतिविधियों को संचालित और नियंत्रित करता है । जिससे सामाजिक संबंध जटिल हो जाते हैं।
भारत विभाजन ने भारत में मुस्लिम विरोधी स्थाई सांप्रदायिक बीज बो दिया है। जिस कारण बतौर धार्मिक समूह मुस्लिम समाज भारत की राजनीति में सभी दौर में एक पक्ष के बतौर मौजूद रहता है। चूंकि भारत में मुस्लिम राजतंत्रात्मक शासन लंबे समय तक रहा है, इसलिए अतीत भी भारत के वर्तमान विभाजनकारी राजनीति का एक महत्वपूर्ण कारक है। जिस कारण हिंदुत्व की राजनीति मुस्लिम विरोध को स्थाई तौर पर विमर्श का मुद्दा बनाये रखती है। जिसके परिणाम हिंसक सांप्रदायिक टकरावों , नरसंहारों, ऐतिहासिक स्थलों के विवाद और विध्वंस के रूप में दिखाई देते हैं।
इसलिए कारपोरेट वित्तीय पूंजी के लिए इस आड़ में छुप जाना बहुत आसान होता है। वह सामाजिक ढांचे को (सोसल इंजीनियरिंग) ढाल बनाकर जाति, धर्म की आड़ में शिकार करती है।
सामाजिक जड़ता का ढीला होना- विकास योजनाओं के विस्तार, पूंजी निवेश, शिक्षा और उद्योग व्यापार का फैलाव और नियमित चुनावी प्रक्रिया से हासिए में पड़े समूहों में सामाजिक, राजनीतिक जागरण आया है। जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत हो सकता था। लेकिन विकास की पूंजीवादी दिशा से जन्मे निम्न पूंजीवादी तत्वों ने सामंती अवशेषों के साथ संश्रय बना लिया। इस गठजोड़ ने नये वजूद में आये राजनीतिक समूहों की लोकतांत्रिक उर्जा को सोख लिया।
इस प्रकिया से निकले हुए निम्न मध्यवर्गीय समूह मूलतः अपने समाज का इस्तेमाल सत्ता प्राप्ति के साथ पूंजी संचय के लिए करते हैं। जिससे समाज के लोकतांत्रीकरण में ठहराव आ गया है।
चूंकि पूंजीवाद मुनाफे की व्यवस्था है। इसकी नाभि में भ्रष्टाचार का अमृत भरा है । इसलिए निम्न पूंजीवादी दलों व राजनीतिज्ञों की पारदर्शिता और शुचिता संदिग्ध होती है। जो सामाजिक, राजनीतिक जीवन में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और अपराध, धर्म, जाति और लुटेरी पूंजी के साथ तालमेल कर जटिल व अंतर्विरोधी संश्रय खड़ा कर लेती है।
आज का संकट- स्वतंत्रता संघर्ष की महान परंपरा और भारत निर्माण की शुरुआती मजबूत आधारशिला के बावजूद फासीवाद का भारतीय लोकतंत्र की सभी संस्थाओं को निगल जाना राजनीतिक विश्लेषकों के लिए पहेली बना हुआ है । खासतौर से वे लोग जो भारतीय संविधान और लोकतंत्र की विभिन्न संस्थानों, शक्तियों पर दृढ़तापूर्वक यकीन करते थे कि हमारे संस्थाओं और संविधान में इतनी शक्ति है कि वे लोकतंत्र विरोधी प्रवृतियों को नियंत्रित कर लेंगे। ऐसे विचारकों की समझ थी कि 70 वर्षों के लोकतांत्रिक प्रयोग से हमारे देश की संस्थाओं ने इतनी शक्ति अर्जित कर ली है कि वे किसी भी तरह से गैर लोकतांत्रिक विचारों, संस्थाओं और संगठनों के हमले से अपने को बचा लेंगे। आज ये उदारवादी इस बदले परिदृश्य को देखकर हतप्रभ हैं।
इसमें मुख्यतः गांधीवादी, सर्वोदयी और जेपी आंदोलन से बनी संस्थाएं, मानवाधिकारवादी, संविधानवादी, सुधारवादी एनजीओ और सामाजिक सुधार के संगठन, पर्यावरणविद, नारीवादी और सामाजिक न्याय और समानता के लिए काम करने वाले व्यक्ति और संस्थायें हैं। जिन्हें इस तरह की स्थिति की परिकल्पना नहीं थी। क्योंकि उनकी समझ थी कि आपातकाल जैसे दौर से भारत अगर बाहर निकल सकता है तो भविष्य में कोई इस तरह का कदम उठाने की हिम्मत नहीं कर सकेगा। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली ऐसी ताकतों का प्रतिरोध करने में सक्षम है।
इंदिरा कालीन आपातकाल और आज के फासीवाद में बुनियादी फर्क – ’70 के दशक में संजय गांधी के नेतृत्व में लंपट गिरोहों का एक छोटा समूह कांग्रेस में सक्रिय था। उस समय तक लोकतंत्र की संस्थाएं और मीडिया ने समर्पण नहीं किया था। जन आंदोलनों, संघर्षों की तूफानी परंपरा का प्रभाव भारतीय समाज में मौजूद था। ऐसे संगठन और व्यक्ति मौजूद थे।जो लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जन आंदोलनों में लगातार सक्रिय रह चुके थे। साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन के दौर के मूल्य, विचार, आदर्श और व्यक्ति भी अभी समाज में सक्रिय थे। जो आपातकाल के विरोध में खड़े हो गए।
लेकिन लगभग 100 वर्षों से धर्म और सांप्रदायिक विभाजन करने वाला हिन्दुत्ववादी संगठन आरएसएस इस देश में काम करते हुए शक्तिशाली हो चुका है । जो लगातार उत्पादन और पुनर्उत्पादन से हजारों ऐसे विध्वंसक मनुष्यों को तैयार कर नफरत के बाजार में उतार रही है। जिनके हजारों नाम रूप रंग है । उनमें बेहतरीन तालमेल के साथ आपसी कार्य और श्रम विभाजन है। जो जन्म से ही लोकतंत्र विरोधी सांप्रदायिक वर्चस्ववादी हिंसक विचारों वाले तत्व होते हैं।
इसके अतिरिक्त भारतीय उद्योग जगत 1975 में विभाजित था। उस समय उत्पादक पूंजी निर्णायक भूमिका में थी। नौकरशाह पूंजी अभी भारतीय समाज पर वर्चस्व कायम नहीं कर पायी थी। आज अनुत्पादक वित्तीय पूंजी विकसित होते हुए विश्व साम्राज्यवादी पूंजी का अभिन्न अंग बन गई हैं और क्रोनी कैप्टलिज्म संस्थागत रूप धारण कर चुका है। जिसने हिंदुत्व की फैक्टरी के साथ गठजोड़ कर लिया है। ये एक दूसरों के हितों की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। मोदी-अडानी गठजोड़ आज साफ-साफ देखा जा रहा है। इसलिए 1975 के आपातकाल और आज की परिस्थितियों में बुनियादी अंतर को हमें अवश्य ध्यान में रखना होगा ।
उदारीकरण ( एलपीजी) ने समाज को पूर्णतया बदल दिया है। उदारीकरण के बाद अर्थव्यवस्था में तेज गति से पूंजी प्रवाह हुआ। उपभोक्ता समाज के निर्माण से नागरिकों के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया बाधित हुई है । मनुष्य धीरे-धीरे ऑब्जेक्ट में बदलता गया।
नागरिकों के सियासी और सामाजिक चेतना में भारी गिरावट आयी है। आज का मनुष्य पूंजीवादी आदर्श स्वतंत्रता समानता न्याय और समाजवाद जैसे विचारों से आकर्षित नहीं होता ।समाजवाद जो बीसवीं सदी में समाज और राष्ट्रों की प्रेरक और चालक शक्ति था। अब कोरी कल्पना में बदल दिया गया है। उदारीकरण विकासशील देशों में सीमित लोकतंत्र के विचार के साथ आया।
इसलिए इस दौर में सामाजिक परिवर्तन वाली आदर्शवादी विचारधारा को समाज में ले जाना एक कठिन दौर से गुजरना है। विश्व साम्राज्यवाद के नेतृत्व में सभ्यताओं और अस्मिता के सवाल ने राजनीतिक स्पेस को घेर लिया है। जहां व्यक्ति अपने निजी गुणों आधारित पहचान को खोकर समूह( यानी भीड़ का )का अदना सदस्य बनकर गया है। इसलिए नागरिक स्वतंत्र पहचान का सवाल आज कटघरे में खड़ा है ।
इस बदले हुए समाज में फासीवाद के लिए स्वाभाविक रूप से जगह तैयार है । नागरिक के निजी पहचान खोने के बाद सामूहिक पहचान में जीने के लिए धर्म और जातियों का मैदान पहले से ही हाजिर था। इस स्थिति ने समाज के अलोकतांत्रीकरण तो किया ही साथ ही समाज विरोधी तत्वों को सामाजिक मंचों पर ला बिठाया । आज अगर राजनीति में बेशर्म अवसरवाद दिख रहा है तो उसकी जडें आज के बदले हुए सामाजिक विमर्श और प्रदूषित हुई नागरिक चेतना के अंदर गहरे तक धंसी हुई है। हिंदी पट्टी के राजनीतिक विमर्श को मोटा-मोटी इस तरह परिभाषित किया जा सकता है। जो इस समय फासीवाद की आधारभूमि बनी हुई है।
दक्षिण भारत– इसके अतिरिक्त भारत का भौगोलिक सांस्कृतिक भाषाई विभाजन भी एक बड़ा सवाल है। इस समय दक्षिण भारत अलग तरह से प्रतिक्रिया दे रहा है ।दक्षिण भारत की राजनीति का केंद्रीय संचालक तत्व आमतौर पर उत्तर भारत से भिन्न रहा है या इसके विलोम में सक्रिय रहा है ।लेकिन इस समय फासीवाद के हमले से तमिल कन्नड़ तेलुगू और मलयाली समाज एक नए तरह की जटिलता से रूबरू हैं।जिसमें लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ सांस्कृतिक भाषाई पहचान और सत्ता के केंद्रीयकरण के खिलाफ संघात्मक भारत की रक्षा का सवाल भी है। आज गोदावरी के दक्षिण का भारत सीधे-सीधे हिंदुत्व कारपोरेट फासीवाद से टकराने के मूड में दिख रहा है ।
दक्षिण भारत में चले सुधारवादी आंदोलनों के दबाव ने जिस ब्राह्मणवादी राजदंड को अतीत के संग्रहालय में दफना दिया था ।मोदी सरकार ने सैंगोल गणतंत्र की घोषणा कर उसे फिर से जीवित करके दक्षिण भारत को एक बार फिर ब्राह्मणवादी वर्चस्व की तरफ ले जाने की घोषणा द्वारा चुनौती दे दी है। जिस कारण से निश्चय ही दक्षिण भारत फासीवाद विरोधी आंदोलन के लिए मजबूत गढ़ साबित होगा।
आज नारायणगुरु, पेरियार रामास्वामी नायकर, अंबेडकर से लेकर कि दक्षिण भारत में चले जाति विरोधी और वामपंथी आंदोलन की उपलब्धियों को पलट देने के खतरे हैं।
पूर्वोत्तर भारत-पूर्वोत्तर भारत के सात राज्यों पर जब से आरएसएस-भाजपा की पकड़ मजबूत हुई है ।तब से जनजातियों के बीच में बढ़ते सौहार्द और शांति को गंभीर धक्का लगा है। मणिपुर इसका उदाहरण है ।50 दिन से जल रहे मणिपुर पर प्रधानमंत्री के मुख से एक शब्द भी न निकलना किसी गंभीर अनिष्ट का संकेत हैं ।100 से ऊपर लोग मारे जा चुके हैं, हजारों बेघर हैं। गिरजाघरों का सफाई अभियान चल रहा है ।सरकार जन जातियों के बीच में वैमनस्य और अलगाव बढ़ा रही है। सरकार समर्थित हथियारबंद दस्ते समानांतर सत्ता चला रहे हैं। खतरा यह है कि मणिपुर की आग मिजोरम होते हुए अन्य राज्यों की तरफ न बढ़ जाए। जहां कुकी समुदाय के लोग भारी तादात में रहते हैं।
चूंकि असम मिजोरम और असम मेघालय सीमा पर सैनिक बलों में टकराव पिछले दिनों देखे जा चुके हैं। इसलिए पूर्वोत्तर भारत हिंदुत्व कारपोरेट गठजोड़ के विनाशकारी प्रभाव को महसूस करने लगा है । भाजपा में एक बार फिर आदिवासी समाज पर राज कर चुके हिंदू राजघरानों का वर्चस्व बढ़ने लगा है। साथ ही जनजातियों के हिंदूकरण की प्रक्रिया तेज हुई है। जिस कारण जनजातियों में संशय और अलगाव बढ़ रहा है। सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण देश के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
दिल्ली और आसपास-कश्मीर पंजाब के बाद उत्तराखंड की घटनाएं यह दिखा रही हैं कि छोटे राज्यों पर भाजपा का कब्जा कितना विध्वंसक हो सकता है। किसान आंदोलन और महिला पहलवानों की न्याय की लड़ाई ने वस्तुतः दिल्ली के इर्द-गिर्द सामाजिक जीवन में नए तरह के विचार और आवेग को जन्म दिया है। कारपोरेट हितों और अपराधी गिरोहों के संरक्षण की भाजपाई नीति ने दिल्ली के इर्द-गिर्द लोकतांत्रिक आंदोलनों को नई गति दी है। जो भाजपा के “बांटो और राज करो” की नीति से सीधे टकरा रही है।
बिहार में सत्ता बदलाव और कर्नाटक में संघ की विघटनकारी नीति की पराजय से भारत में फासीवाद विरोधी अभियान को नया आवेग दिया है । जिसकी उपलब्धियों से सीखते हुए भारत में बड़े लोकतांत्रिक मंच का निर्माण किया जा सकता है जो भाजपा को सत्ता से बेदखल करने में सक्षम होगा।
वस्तुतः भारत की सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति इसी तरह से आगे बढ़ रही है। इसलिए किसी भी बड़े राजनीतिक गठजोड़ के निर्माण में हमें इन सब विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए भारत में लोकतंत्र बहाली के लिए नई दृष्टि दिशा और दायरा तय करना होगा। येन केन प्रकारेण किसी अवसरवादी गठजोड़ बना लेने से ही फासीवाद को पराजित करना कठिन होगा