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9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस: ‘यह उनसे सीखने का समय है’

राजीव कुमार


प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री और आदिवासी विषयक विद्वान वेरियर एल्विन की किताब ‘ए फिलॉसफी फ़ॉर नेफा’ (1958) की प्रस्तावना तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी।

वेरियर एल्विन के एक सवाल के जवाब में वे लिखते हैं कि ‘मुझे स्वयं यह निश्चित रूप से मालूम नहीं है कि रहन-सहन का कौन सा ढंग सबसे अधिक अच्छा है। कुछ मामलों में मुझे यकीन है कि उनकी जीवन-शैली बेहतर है।

इसलिए स्वयं में उच्चता का भाव लेकर उनके पास जाना या उनसे कुछ करने या ना करने को कहना भारी भूल है। उनसे अपनी नकल करवाने में मुझे कोई दलील या तर्क नहीं दिखाई पड़ता।’

हमारे समाज के बड़े विद्वानों और समाज सुधारकों ने ज्यादातर आदिवासियों को सिखाने और कथित रूप से सभ्य बनाने में ज्यादा रुचि ली है। जबकि आदिवासियों की अपनी एक समृद्ध संस्कृति रही है।

आज पूरी दुनिया पर्यावरणीय असंतुलन से जूझ रही है। कोरोना जैसी महामारी इसी असंतुलन की देन है। आदिवासियों ने उस पर्यावरण से, प्रकृति से हमें प्यार करने का संदेश दिया।

यह संदेश कोरा भाषण नहीं बल्कि उनकी जीवन पद्धति का हिस्सा है। उन्होंने अपने प्यार का सर्वश्रेष्ठ रूप प्रकृति को ही माना। प्रकृति को ही ईश्वर मानते है।

नदी, पहाड़, जंगल, पेड़, सूरज, चाँद आदि की पूजा करना और अपने जीवन में उनके महत्व को बार-बार स्वीकार करने की दृष्टि, वह आदिवासी विश्वदृष्टि है जिसकी आज पूरी दुनिया को जरूरत है।

आदिवासियों का मानना है कि प्रकृति है तो हम हैं, धरती पर जीवन है। आदिवासी दर्शन की स्पष्ट धारणा है कि सरना माँ (प्रकृति) नाराज हुई तो अकाल, महामारी, भूचाल का प्रकोप सहना पड़ सकता है, जिससे पूरी दुनिया तहस-नहस हो जाएगी। इस कोरोना काल में भी क्या हम इस सच को नहीं देख-समझ पा रहे हैं ?

प्रकृति से मिला यह अनुपम जीवन कैसा होना चाहिए? आदिवासी दृष्टि के अनुसार नफरत से रहित, प्रेम पूर्ण जीवन होना चाहिए जो सामाजिक समरसता से भरा हो। आदिवासियों का जीवन दर्शन और जीवन पद्धति सामाजिक समरसता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

समाज की सबसे विकसित स्थिति वह होगी या है जहाँ स्त्री,पुरूष, बच्चे,वृद्ध,शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम करार दिए गए लोगों के लिए भी बराबर जगह हो। जहां श्रम का सम्मान किया जाता हो, साझेदारी में यकीन किया जाता हो। ऐसा ही तो है आदिवासी समाज।

स्त्रियों की आजादी और उनके श्रम का सम्मान भी वहाँ गैर आदिवासी समुदाय से बहुत ज्यादा है। धीरे बोलो, ठीक से बैठो, जोर से मत हँसो , जैसी पिछड़ी सोच का अस्तित्व वहाँ नहीं है। समाज के सभी सदस्यों के लिए पर्याप्त जगह है उनके समाज में, सहअस्तित्व ही उनका जीवन-दर्शन है, जिसे गैर आदिवासी समाज को सीखना चाहिए।

अक्सर आदिवासियों को मूर्ख-अशिक्षित और पिछड़ा ही समझा जाता है, पर आदिवासी समुदाय में ज्ञान का सर्वाधिक महत्व है। किसी भी ज्ञान को छोटा-बड़ा भी नहीं समझा जाता। जाल बुनने से लेकर जरूरी औजार बनाने तक की तकनीक जीवन जीने के साथ विकसित हुए हैं।

स्किल्ड इंडिया या तकनीकी दक्षता से पूर्ण जिस शिक्षा की बात आज प्रधानमंत्री कर रहे हैं, उसका सामाजिक और आदि स्रोत आदिवासी जीवन में दिखाई पड़ता है। ‘घोटुल’, ‘धुमकुड़िया’ या ‘गिती-ओड़ा’ जैसी अद्वितीय परंपरा वहाँ रही हैं । जहाँ लड़का और लड़की का भेद नहीं था। वे साथ पढ़ते थे, साथ रहकर शिकार करने, हथियार बनाने-चलाने, कृषि करने की शिक्षा प्राप्त करते थे।

साथ-साथ उन्हें सफाई,अनुशासन, श्रम की महत्ता, सामुदायिक-सेवा, सामाजिक-जुड़ाव, पाम्परिक-प्रशासनिक प्रशिक्षण, अपना सम्मान अर्जित करने और दूसरों का सम्मान करना सिखाया जाता था। वेरियर एल्विन ने इस बेजोड़ व्यवस्था को ‘युवाओं का गणराज्य, कहा था। इसलिए आदिवासी स्वायत्त रहे, उन्हें कोरा समाज और उसका दर्शन कभी पसंद नहीं आया।

आदिवासी समाज-व्यवस्था में पदाधिकारियों- पुरोहितों तक को अपने जीविकोपार्जन के लिए श्रम करना पड़ता है। डब्ल्यू. जी. आर्चर जो 1942-46 में संथाल परगना जिले के डिप्टी कमिश्नर थे, वह संतालों और उनके समतावादी समाज को देखकर आश्चर्यचकित थे।

अपनी किताब ‘द हिल ऑफ फ्लूट्स’ में लिखा है कि ‘संथाल पदाधिकारी असल में अपने समाज के मालिक नहीं बल्कि नौकर होते हैं और वे पूरी ईमानदारी से अपनी भूमिका निभाते हैं।

‘ यह व्यवस्था अंग्रेजों की बाबूशाही को आईना दिखाती थी और आज के पदाधिकारियों को भी सामाजिक प्रशिक्षण के लिए आमंत्रित करती है। नृत्य-गीतों से भरा उनका जीवन, उत्साह, उमंग, आपसी सहयोग की परंपराओं की मिसाल है। उन्हें सिखाने की जगह, उनसे सीखने की कोशिश करनी चाहिए।

आदिवासियों के बारे में एक बात बार-बार कही जाती है कि उनकी सबसे बड़ी त्रासदी है कि दुनिया की सबसे समृद्ध (अमीर) जमीन पर सबसे गरीब लोग रहते हैं। इसे थोड़ा बदल कर कहना चाहिए कि जब तक आदिवासी उस जमीन पर हैं, तभी तक वह समृद्ध है।

 

 

(राजीव कुमार (उपनाम: राही डूमरचीर) कविताएँ भी लिखते हैं। पता- दुमका, झारखण्ड।
फिलहाल मुंगेर(बिहार) के आर. डी. & डी.जे. कॉलेज में अध्यापन।)

 

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