(वरिष्ठ रचनाकार और आदिवासी, दलित और स्त्री मुद्दों पर सक्रिय रहीं सामाजिक कार्यकर्ता रमणिका गुप्ता (22.4.1929 – 26.3.2019) के निधन पर जन संस्कृति मंच शोक प्रकट करता है। प्रस्तुत है डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी द्वारा लिखा यह स्मृति लेख)
अभी 22 अप्रैल 2019 को वे नब्बे वर्ष पूरा करतीं| फरवरी में आयोजित आदिवासी रचनात्मकता हेतु एक सम्मान समारोह में कॉम. वृंदा करात ने घोषणा की थी कि इस बार वे रमणिका जी का जन्मदिन धूमधाम से मनाएंगी.
उस दिन 11 फरवरी की शाम रमणिका जी सीधे अपोलो अस्पताल से आयोजन स्थल पहुँचीं थीं और तबीयत खराब होने के बावजूद खुले आसमान के नीचे काफी देर रुकी थीं और बड़ा जानदार-शानदार भाषण दिया था.
17 फरवरी को समकालीन जनमत पोर्टल पर मेरा एक लेख छपा. लेख रमणिका जी की कविताओं पर केन्द्रित था. रमणिका जी को वह लेख बहुत पसंद आया था.
उन्होंने फोन पर लेख की तारीफ की लेकिन कहा कि लेख और बड़ा हो सकता था. मैंने कई बातें संक्षेप में कहीं थीं. उन्हें विस्तार से लिखना चाहता था.
चार दिन पहले उनका फोन आया. तब वे अस्पताल से डिफेंस कालोनी अपने घर आ गई थीं. 13 अप्रैल को आंबेडकर जयंती के अवसर पर उनसे मिलना तय हुआ.
इस दिन उनके आवास पर रमणिका फाउंडेशन की मासिक गोष्ठी में दलित कवियों का काव्यपाठ रखा गया था. पिछले कई वर्षों से मासिक गोष्ठियों का यह सिलसिला चलता आ रहा है.
रचनापाठ और परिचर्चा के स्वरूप वाली इन गोष्ठियों में युवतर से लेकर वरिष्ठ रचनाकारों तक सभी की शिरकत रही है. इन गोष्ठियों में रमणिका जी की प्राथमिकताओं के अनुरूप आदिवासी, दलित, स्त्री और दलित स्त्री रचनाकारों को खास तरजीह मिलती रही है.
आज 26 मार्च शाम साढ़े तीन के करीब रमणिका जी ने अंतिम साँस ली. उनके कृतित्व का दायरा इतना बड़ा और बहुआयामी है कि आने वाले कई वर्षों तक शोधकर्ता इस काम को करते रहेंगे.
रमणिका जी दरअसल ऐसी शख्सियत थीं जिनकी सक्रियता सिर्फ लिखने तक नहीं थी. वे जुझारू कार्यकर्ता थीं, दूरदर्शी नेता थीं, अंतर्दृष्टि से भरी योजनाकार थीं और कुशल आयोजनकर्ता थीं.
उन्होंने देश भर के आदिवासियों को दिल्ली में रचनात्मक मंच प्रदान किया था. वे दलित मुद्दों पर खुलकर लिखती थीं और विवादास्पद प्रसंगों में खामोशी अख्तियार करने की बजाए खुलकर अपना पक्ष रखती थीं.
बिरसा मुंडा को भगवान मानने का उन्होंने स्पष्ट विरोध किया था. वे आंबेडकर पूजा की मुखालफत करती थीं और अपील करती थीं कि दलित जाति से मुक्त होकर जमात बनें.
महिलाओं के उत्पीड़न को वे भली-भांति समझती थीं और फेमिनिस्ट कार्यकर्ताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रदर्शन-आंदोलन में हिस्सा लेती थीं.
वे मूलतः ऐसी वामपंथी विचारक थीं जो आर्थिक संसाधनों के पुनर्वितरण की राजनीति में जितना यकीन करती थीं उतना ही विश्वास पहचान की राजनीति में भी करती थीं.
सामजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए इन दोनों धाराओं को मिलना होगा, उन्हें इसकी साफ़ समझ थी. आर.एस.एस. की राजनीति से उन्होंने अनवरत लोहा लिया था, मुकाबला किया था.
मेरे जैसे तमाम लेखक उनके संपर्क बनाए रखते थे. पिछले वर्ष 2018 में दलित लेखक संघ ने उन्हें सम्मानित किया था. इसमें मुझे भी अपनी बात रखने का मौका मिला था.
मैंने कहा था कि जिस तरह राहुल सांकृत्यायन की जिंदगी का सारा हिसाब लिया जा सकता है, कुछ उसी तरह रमणिका गुप्ता का जीवन है.
‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका उनकी पहचान के साथ एकमेक होती गई. इस पत्रिका ने हिंदी को न केवल अन्य स्थापित भारतीय भाषाओँ से जोड़ा अपितु झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िसा से लेकर पूर्वोत्तर की तमाम आदिवासी भाषाओँ के साहित्य से हिंदी को समृद्ध किया.
जिजीविषा से भरी रमणिका गुप्ता को चार अक्टूबर 2008 की सुबह प्रथम हृदयाघात हुआ था.
उस वक्त उन्होंने कविता लिखी थी, ‘मैं हवा को पढ़ना चाहती हूँ’. आज उनके न रहने पर उनकी स्मृति को नमन करते हुए उस कविता का यह अंश उद्धृत कर रहा हूँ-
“ मैंने उड़ती हुई हवा से कहा-
‘ तनि रुको और सुनो
अपने प्राणों में बंधी घंटियों की ध्वनि
जो पैदा करती है हर झोंके के साथ
एक नया गीत जिंदगी का
रुको कि अभी शेष है जिंदगी की
जिजीविषा, प्राण और सांस
शेष है धरती, आकाश और क्षितिज!’
और हवा लौट आई
श्वास बनकर और
धड़कने लगी मेरे दिल में…!”
(बजरंग बिहारी तिवारी भारतीय दलित आंदोलन और साहित्य के गंभीर अध्येता के रूप में चर्चित हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख. वर्ष 2004 से दिल्ली से प्रकाशित हिंदी मासिक ‘कथादेश’ में दलित प्रश्न शीर्षक स्तंभ लेखन. दिल्ली के देशबंधु महाविद्यालय में अध्यापन.)