ममता सिंह
पेंगुइन बुक्स से आये अद्भुत उपन्यास ‘द काइट रनर’ के लेखक ख़ालिद हुसैनी का जन्म अफगानिस्तान के काबुल शहर में हुआ था। 1980 में वे अमेरिका चले गए। ‘द काइट रनर’ उनका पहला उपन्यास है, जो चालीस देशों में प्रकाशित हुआ और अंतरराष्ट्रीय बेस्टसेलर के रूप में अपनी कामयाबी दर्ज़ कराई।
‘द काइट रनर’ किताब के शीर्षक को देखकर पहले लगेगा कि यह महज़ पतंग और पतंगबाज लड़कों की कोई शरारती कहानी होगी जिसमें थोड़े आँसू, थोड़ी मुहब्बत का तड़का होगा ।शुरुआती पृष्ठ इसी अवधारणा को पुष्ट करते हैं पर जैसे जैसे आप आगे पढ़ते जाएंगे एक अद्भुत कहानी मिलेगी जो एक परिवार से होते हुए एक देश ही नहीं वरन समस्त विश्व की कहानी बन जाती है।
ख़ालिद हुसैनी ने इस उपन्यास को यूँ लिखा जैसे कोई महीन कशीदाकारी हो, जिसमें एक-एक धागे, रंग, बुनावट को इधर उधर नहीं किया जा सकता । इस उपन्यास को पढ़कर हम सबक भी ले सकते हैं कि कैसे एक हँसता खेलता, बेहतरीन देश कट्टरता, नफ़रत और राष्ट्रवाद की भेंट चढ़ जाता है । वह देश जो सदियों पुरानी अपनी संस्कृति-सभ्यता के लिए अलग पहचान रखता था।
उपन्यास शुरू होता है 1975 की सर्दियों से जब बारह साल का एक बिन माँ का अमीर बच्चा आमिर, जो कि उच्च और विजेता पश्तून जाति था, खुद से एक साल छोटे हसन,जो कि खुद भी बिन माँ का बच्चा था, के साथ खेलने के दृश्य से । हसन भी मुसलमान था पर नीची जाति हज़ारा मुसलमान होने के कारण वह लोगों की उपेक्षा और
नफ़रत का केंद्रबिंदु बना रहा । हालांकि हसन के मालिक यानी आमिर के पिता बहुत दयालु इंसान थे, किंतु वह हसन को अन्य लोगों की नफ़रतों से नहीं बचा पाते थे।
उपन्यास का एक बड़ा पैरा इंसान की चालाकी, उसे गुलाम बनाकर रखने और इतिहास को मनमर्ज़ी से बदलने, छुपाने, बताने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है-“बरसों तक मैं हज़ारा लोगों के बारे में बस यही जानता था कि वे मुगलों के वंशज हैं और थोड़ा बहुत चीनी लोगों की तरह दिखते हैं। स्कूल की किताबों में बस उनका ज़िक्र भर मिलता है, जिनका हवाला चलते-चलाते दिया रहता है। उन्हीं दिनों एक दिन जब मैं बाबाके स्टडी रूम में उनका सामान उलट-पुलट रहा था तो मुझे अम्मी की एक पुरानी इतिहास की किताब मिली। इसे खोरामी नामक ईरानी ने लिखा था।मैंने उसकी धूल फूंकी, उस रात लोगों की नज़र बचाकर उसे अपने बिस्तर में ले गया और यह देखकर हैरान रह गया कि उसमें हाज़रा की तारीख़ पर पूरा एक अध्याय है।हसन के लोगों पर पूरा एक अध्याय। मैंने पढ़ा कि मेरे लोगों ने यानी पश्तूनों ने हाज़रा लोगों को सजाएं दी हैं, उन्हें सताया है।उसमें लिखा था कि हाज़रा लोगों ने पश्तूनों के खिलाफ 19वीं सदी में उठ खड़े होने की कोशिश की।लेकिन पश्तूनों ने उन्हें बयान नहीं किये जा सकने वाले खून खराबे में कुचल दिया। किताब के मुताबिक पश्तूनों की तरफ से हज़ारा लोगों पर किये जाने वाले जुल्म की एक वजह यह थी कि पश्तून सुन्नी मुसलमान थे,जबकि हज़ारा शिया थे।”
आमिर के बाबा अमीर, दयालु और प्रगतिशील विचारधारा के थे, उनकी पत्नी सोफिया विश्विद्यालय में फारसी पढ़ाती थीं।
आमिर की पैदाइश के वक़्त ही उसकी अम्मी की मृत्यु हो गई और फिर आमिर अपने पिता की मुहब्बत, तवज़्ज़ो और प्रशंसा के लिए तरसता बच्चा बन गया, अनजाने ही वह हसन से ईर्ष्या करने लगा…हसन जिसके लिए आमिर की हर इच्छा पूरी करना धर्म था।
आमिर अपने बाबा की मुहब्बत पाने के लिए अपने इलाके की पतंगबाज़ी का मुकाबला जीतना चाहता है जिसमें उसका साथ हसन देता है। आमिर मुकाबला जीत जाता है किन्तु उसी दिन नाटकीय घटनाक्रम में हसन के साथ ऐसा कुछ होता है जिससे आमिर और हसन दोनों की ज़िंदगी बिखर जाती है।
यह वही वक़्त था जब रूस का अफगानिस्तान पर हमला और उसके मुकाबले में तालिबान का प्रभुत्व अफगानिस्तान पर पड़ने लगा था। “तूफान की तरह कुछ गरजा। धरती थोड़ा कांपी और हमने गोलियां चलने की आवाज़ सुनी…. हम सुबह होने तक उसी तरह सिमटे रहे।हालांकि गोलीबारी और धमाके घण्टे भर से भी कम देर चले थे लेकिन उन्होंने हमें बुरी तरह डरा दिया था। ऐसा इसलिये था कि हमने कभी गलियों में बन्दूकें चलते हुए नहीं सुना था। वे हमारे लिए परायी आवाजें थीं। अफगानी बच्चों की वह पीढ़ी अभी पैदा नहीं हुई थी, जिनके कान बमों और गोलियों की आवाजों के अलावा और कुछ नहीं जानने वाले थे। खाने के कमरे में आपस में सिमटे हुए और सूरज के उगने का इंतजार करते हुए हममें से किसी को इस बात का पता नहीं था कि जीवन अब पहले की तरह नहीं जिया जा सकेगा। उस तरह जिस तरह अब तक हम जीते रहे थे। अगर उस समय हमारी ज़िंदगी का पूरा अंत नहीं भी हुआ था तो कम से कम यह अंत की शुरुआत थी।अंत, एक आधिकारिक अंत पहली बार 1978 के अप्रैल में कम्युनिस्ट तख्तापलट के साथ होने वाला था। दूसरी बार 1979 में दोहराया जाने वाला था कब उन्हीं गलियों में रूसी तोप दौड़े जिनमें हसन और मैं खेले थे।”
हसन अपने पिता के साथ गाँव लौट जाता है और आमिर को अपने बाबा के साथ अमेरिका भागना पड़ता है।हैरतअंगेज और खौफ़नाक घटनाक्रमों के बीच न चाहते हुए भी आमिर को अपनी वह गलती सुधारने के लिए कई बरस बाद अफगानिस्तान लौटना पड़ता है, जिसे वह सारी उम्र छुपाता रहा। तालिबान के गढ़ में घुसकर कैसे वह अपने जीवन को दांव पर लगाकर एक नन्ही जान को बचाता है, इस उपन्यास का बेहद संवेदनशील हिस्सा है।उसी दौरान हम देखते हैं कि कट्टरता, धर्मांधता, युद्ध सब मिलकर स्वर्ग को भी नर्क बना देते हैं। एक हँसता खेलता देश बर्बाद हो जाता है, साथ ही दफ़्न हो जाती है मानवता, करुणा, प्रेम भी।
‘द काइट रनर’ हर देश के लिए सबक है जो धार्मिक कट्टरता को देश के संविधान से ऊपर रखना चाहते हैं। युद्ध कोई भी जीते, पर हारती सदा मानवता ही है। बेहद ईमानदारी से लिखी गई यह कहानी दर्द, डर, इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसमें सबसे सुंदर बात है कि आख़िर में प्रेम जीतता है। पृष्ठ दर पृष्ठ पाठक के जेहन पर जो डर और दबाव बढ़ता जाता है वह अंत में आकर मुहब्बत के दरिया में बह जाता है। उपन्यास की आख़िरी चंद पंक्तियाँ दिल और आँख को नम करने के लिए काफी हैं, बीच में कहानी का सस्पेंस पढ़कर ही जानना ज़्यादा बेहतर होगा-“यह बस एक मुस्कान थी, और कुछ नहीं। ऐसा नहीं है कि इससे सब कुछ ठीक नहीं हो गया। इससे कुछ भी ठीक नहीं हुआ। यह तो केवल एक मुस्कान थी ।एक छोटी सी चीज़। जंगल में एक पत्ती की तरह, जो एक चौंकी हुई चिड़िया के उड़ने पे काँप उठी हो। लेकिन मैं इसे कबूल करूंगा। खुली बाहों से। क्योंकि जब बसन्त आता है तो पहली बार बर्फ का सिर्फ एक टुकड़ा ही पिघलता है।और शायद मैंने अभी अभी उस पहले टुकड़े को पिघलते हुए देखा है।
मैं दौड़ा। चिल्लाते हुए बच्चों की भीड़ के साथ एक बड़े आदमी की दौड़। लेकिन मुझे परवाह नहीं। मैं दौड़ा और हवा मेरे चेहरे पर लग रही थी। मैं अपने होंठों पर एक मुस्कान लिए हुए दौड़ा जो पंजशेर कि वादी से भी चौड़ी थी। मैं दौड़ा।”
(ममता सिंह कविताएं लिखती हैं, सोशल मीडिया पर बहुत सुन्दर और तार्किक गद्य लिखती हैं । पेशे से शिक्षिका ममता अग्रेसर में सावित्रीबाई फुले के नाम से एक पुस्तकालय भी चलाती हैं ।)