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एक अंतहीन प्यास और तलाश की कथा विमलेश त्रिपाठी का उपन्यास ‘हमन हैं इश्क मस्ताना’

अनिला राखेचा

हिंदी युग्म द्वारा प्रकाशित विमलेश त्रिपाठी  का ताज़ा-तरीन उपन्यास “हमन हैं इश्क मस्ताना” जितना अद्भुत है उतना ही बेजोड़ है इसका शीर्षक। उपन्यास का यह शीर्षक संत कवि कबीर दास जी के दोहे से लिया गया है-
“हमन इश्क है मस्ताना हमन को होशियारी क्या…
रहें आजाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या!”
अर्थात, हम तो इश्क की मस्ती में हैं हमसे होशियारी क्या करते हो। हम संसार में रहें या संसार से दूर  इसमें लिप्त नहीं होते। यह कथन पूरी तरह उपन्यास के शीर्षक की सार्थकता को बयान करता है।
176 पृष्ठ का यह पेपर बैक उपन्यास एक अलग और विचित्र-सी कथावस्तु को लेकर बुना गया ऐसा उपन्यास है जो बहुतों के द्वारा खारिज किया जा सकता है और बहुत से पाठक इसे हाथों – हाथ भी ले सकते हैं सिर्फ इसी वजह से ही कि कितनी ईमानदारी से एक बहुत बड़ी हकीकत को इसमें बयान किया गया है। रोचकता के ताने-बाने में बुने इस उपन्यास में शुरू से अंत तक कहीं कोई सिलवट नहीं… कही कोई नीरसता नहीं… जिज्ञासा, रोचकता, यथार्थ को आगे लेकर बढ़ते हुए कब यह उपन्यास पाठक के जेहन में आहिस्ता-आहिस्ता समाने लगता है, खुद पाठक भी इस बात से अनभिज्ञ रहता है। डूब जाता है वह इस की कथावस्तु में…। कभी वहाँ वह खुद को उस पात्र के भीतर पाता है या कभी उस पात्र में उसे लेखक का अंतर्मन नजर आता है।

विमलेश त्रिपाठी

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त यह हम शर्तिया कह सकते हैं कि किसी न किसी पाठक के दिल में तो यह बात अवश्य ही आई होगी कि- अरे विमलेश जी ने तो कहीं हमारी ही कहानी तो नहीं कह दी है… क्योंकि हकीकत तो आज के समाज की भी यही है ना… कि इस सभ्य समाज में हममें से पांच इंसानों में से तीन इंसान तो निश्चित तौर पर अमरेश बाबू जैसा ही जीवन जी रहे हैं। न जाने उन्हें किस चीज़ की तलाश है… न जाने उनकी यह कैसी प्यास है… जो कभी खत्म नहीं होती, ना ही कभी बुझती है। उनका सिलसिला चलता रहता है होश संभालने से लेकर जीवन पर्यंत तक… अनवरत…। कभी भी किसी एक चीज में मन रमता नहीं। एक खोज समाप्ति पर तो दूसरी तलाश शुरू हो जाती है। सुकून व शांति की तलाश में भटकता रहता है दरबदर बिल्कुल अमरेश बाबू की तरह…।

इस उपन्यास की शुरुआत ही उपन्यास के नायक अमरेश बाबू की भटकन से, उनकी बेचैनी, उनके अंतकरण की विवशता से होती है। उपन्यास के प्रारंभिक पृष्ठों में फेसबुकिया जिंदगी की कटु सच्चाई को पूरी ईमानदारी के साथ खुले मन से आम बोलचाल की भाषा में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों द्वारा व्यक्त किया गया है।

वाकई आज के इंसान को इस आभासी दुनिया में जीने की ऐसी लत लग गई है कि वास्तविक रिश्ते उसके आगे गौण हो गए हैं। इसी दुनियाँ में रहते – रहते वह यहाँ नए-नए परिचय बनाता है, अपने सच्चे – झूठे चरित्र गढ़ता है। किसी से मिले बिना ही उसके साथ भावनात्मक और शारीरिक स्तर पर भी संबंध बना लेता है क्योंकि इस दुनियाँ में वह ज्यादातर अपना छद्म रुप ही धारण किए रहता है तो उसे किसी प्रकार के लोक – लाज का डर, बदनामी का भय भी नहीं सताता है।
अमरेश बाबू भी एक शादीशुदा इंसान हैं जिन्होंने घरवालों की मर्जी के खिलाफ जाकर अनुजा से प्रेम विवाह किया हुआ है। अब यहाँ सोचने वाली बात यह आती है कि एक अदद बीवी, एक प्यारे से बच्चे के होने के उपरांत भी उनका जीवन इतना उदासीन क्यों हैं ? वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से अमरेश बाबू के जीवन में रिक्तता आ रही है ? और वे भटकते रहते हैं न जाने किस सुख की तलाश में…।
कहने को तो अमरेश बाबू का प्रेम विवाह होता है मगर विवाह के कुछ वर्षों बाद ही क्यों वह प्रेम कपूर के धुएँ की तरह उनके जीवन से काफूर हो जाता है।
इस उपन्यास में अमरेश बाबू की पत्नी अनुजा के चरित्र को ना तो नायिका के रूप में ही उभारा गया है और ना ही खलनायिका के… पत्नी अनुजा अपनी एकरस जिंदगी से परेशान है। उसे अपने लापरवाह- नाकारा पति से हजारों शिकायतें हैं, जिसके कारण कभी जो प्रेम हुआ करता था, वह न जाने दिल के किस आसमाँ में, कहाँ तिरोहित हो गया है…? उसके बदले में उसके हृदय में बची है बस विरक्ति… वितृष्णा… फिर भी वह न जाने कौन से रिश्ते के तहत जुड़ी रहती है अमरेश बाबू से… ऐसा क्या है उन दोनों के जीवन में जो न तो उन्हें प्रेम प्रदान करता है और ना ही विरक्ति। दोनों की ऐसी कौन सी तलाश जारी रहती है कि वे भटकते रहते हैं अपने-अपने खालीपन को भरने के लिए। अपने – अपने तरीके से जिंदगी से जूझते हैं, चिड़चिड़ातें हैं, झल्लाते हैं…।
पत्नी का शुष्क, नीरस, उपेक्षित व्यवहार ही अमरेश बाबू के प्रेम को खोजने का कारण बनता है। पहली बात तो यह कि वह जो बनना चाहते थे उसमें भी पूरी तरह सफलता नहीं हासिल कर पाते हैं और जो नहीं करना चाहते थे वह कार्य उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण आधे – अधूरे मन से करना पड़ता है और परिणाम भी उन्हें आधे – अधूरे ही प्राप्त होते हैं।
युवावस्था में अपने कॉलेज की सहपाठीन कल्पिता द्वारा प्रेम-प्रस्ताव ठुकराया जाना, फिर अनुजा का जिंदगी में आना… उससे प्रेम फिर विवाह…और विवाह के कुछ अंतराल बाद ही अनुजा का व्यवहार परिवर्तन। बात-बात पर अमरेश बाबू पर क्रोध करना, खिजलाना, उन्हें अपमानित करना. उनकी उपेक्षा करना. चीखना-चिल्लाना। ऐसे तनाव भरे माहौल में जीते रहने के कारण ही… अनुजा के खराब बर्ताव के कारण ही, अपनी वीरान जिंदगी में प्रेम के नए रंग भरने हेतु अमरेश बाबू आभासी दुनियाँ के द्वारा मुलाकात हुई “काजू दे” के संपर्क में आते हैं मगर झूठ के काले आकाश तले पनपता प्रेम ज्यादा वक्त टिक नहीं पाता है और बरसात की चंद बूंदों की तरह बरस कर चला जाता है… जिससे तप्त हृदय की आग शांत होने के बजाए और भड़क जाती है और फिर इसी ना-मुकम्मल जिंदगी को मुकम्मल करने की तलाश में उनकी Facebook पर मुलाकात होती है शिवांगी से और साथ ही साथ भोपाल वाली मंजरी से भी।
अमरेश बाबू एक ही वक्त में दो युवतियों के प्रेम में पड़ जाते हैं और आहिस्ता आहिस्ता वे उनकी मन की खुराक बन जाती हैं। पत्नी के होने के उपरांत भी दो-दो प्रेमिकाएं वह भी ऐसी कि एक ने तो ताउम्र उनके अलावा किसी और से विवाह ना करने की कसम खा रखी है और दूसरी सारी परिस्थितियों और सच्चाइयों को जानते समझते हुए भी प्रेम में पड़ी रहना चाहती है पूरी समर्पित भाव से बिना किसी चाहत के…।
क्या है ये…? क्यूँ है ये…? क्या इसी का नाम प्रेम है, जिसे दर-दर खोजा जा रहा है। कुंठाओं – अवसाद से घिरा मन बार-बार तलाशता है रूहानी प्रेम… और उसे वह प्राप्त होते ही बारी आती है जिस्मानी सुकून की… हर बार, बार-बार, ना जाने कितनी बार…।
विवाह से पहले वह कितने ही प्रेम करे उसे अपराधबोध नहीं होता है, मगर विवाह के बाद जब पहली बार किसी से – मानसिक संबंध बनते हैं तो वह खड़ा पाता है खुद को रिश्ते के कटघरे में.. और उसके बाद तो वह निर्भय हो बड़ी सतर्कता से इस खेल को खेलने लगता है। ऐसे सुकून को पाने के लिए जो कभी मिल ही नहीं सकता। पनप ही नहीं सकता ऐसे रिश्तो में…। धज्जियाँ उड़ जाती है यहाँ “एक निष्ठता” की…। मन भागने लगता है पुन: आदिम समाज की ओर। जहाँ न कोई नियम थे, न कोई विवाह जैसी रीत या संस्था। चाह थी तो बस शारीरिक व मानसिक रुप में मिले संपूर्ण प्रेम की… और इन्हीं सब के मद्देनजर आज का इंसान इस तनावपूर्ण, आपाधापी, अवसाद के वातावरण में लगातार जीते रहने के कारण अपनी जिम्मेदारियों से भागना चाहने लगा है। नकारने लगा है विवाह नाम की संस्था के अस्तित्व को… और तभी तो पनप रहा है, आकार ले रहा है आहिस्ता-आहिस्ता “लिव रिलेशनशिप” का दौर। बस अब सोचने वाली बात तो यह है कि इससे हमारे समाज या मानवीय मूल्यों को कितना खतरा है…।
इस उपन्यास का हर एक किरदार अपने-अपने आधे-अधूरे सच को जीता, उलझन भरी जिंदगी के घूंट पीता, चीखता- चिल्लाता, आँसू बहाता, जिंदगी को पाने की जद्दोजहद करता नजर आता है। एक ऐसी तलाश जो कभी भी पूरी नहीं होती। जिंदगी उनकी अपनी तो होती है फिर भी अपनी नहीं होती… और अंत में खत्म हो जाता है सब कुछ… राख हो जाती है जिंदगी… और इसी राख को वह अपने ही जीवन पर बस मलता रह जाता है शांत, निर्विकार भाव से… खत्म हो चुकी होती है सारी चाहतें, सारा मानसिक संताप… हो जाता है इंसान चेतना शून्य और यही है आज का यथार्थ…।
इस पुस्तक की खासियत यह है कि इसमें अमरेश बाबू का व्यक्तित्व खलनायकों का होते हुए भी वे खलनायक नहीं कहलाते हैं। उपन्यास के सभी पात्र अमरेश बाबू के चरित्र के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं। चार-पांच स्त्रियों के प्रेम में पड़ने के पश्चात भी, उनसे शारीरिक संबंध स्थापित करने के पश्चात भी, अमरेश बाबू के चरित्र को उपन्यासकार ने इस तरह बुना है कि पाठकों की सारी सहानुभूति वे बटोर ले जाते हैं। उनको पत्नी द्वारा प्रताड़ित दिखाया है लेखक ने और यही एक वजह रहती है उपन्यास के नायक की समस्त गलतियों पर बेहतरीन तरीके से पर्दा डालने की।
अमरेश बाबू की पत्नी अनुजा का व्यक्तित्व भी काफी उलझन भरा होता है। वह क्या चाहती है… क्यों अमरेश बाबू से हमेशा लड़ाई करती है…? क्यों अपने दांपत्य जीवन को दांव में लगा अमरेश बाबू से अलग रहना चाहती है? जबकि उपन्यास में बार-बार दर्शाया गया है कि अमरेश बाबू अपनी पत्नी व बेटे अंकु से बेहद प्यार करते हैं। अनुजा का उलझा हुआ व्यक्तित्व ही शायद नायक में समस्त अवगुणों के होने के उपरांत भी उसके चरित्र व व्यक्तित्व को उभारने में सहायक होता है।
जिस प्रकार असंख्य मुद्दों को लेखक ने पुस्तक में समेटा है उससे इसे बेहद जटिल उपन्यास हो जाना चाहिए था, परंतु सरल आम बोलचाल की भाषा और बोधगम्यता के कारण पाठक को भी सभी समीकरण न सिर्फ आसानी से समझ में आते हैं बल्कि अत्यंत रुचिकर भी लगते हैं कुछ घटनाएं ऐसी है जो पाठकों को विचलित कर सकती है मगर समाज में आ रहे बदलाव को समझने में यह उपन्यास काफी मददगार साबित हो सकता है।
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अनिला राखेचा

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