निराला ऐसे रचनाकार हैं, जिन्हें भारतीय प्रबोधन या नवजागरण के तत्वों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। यह प्रबोधन वैयक्तिक स्वतंत्रता की चेतना से प्रारंभ होकर आधुनिक राष्ट्र निर्माण और सामाजिक परिवर्तन तक पहुँचता है।
निराला के यहाँ इसीलिए आत्मविस्तार बहुत ज्यादा है। कोई भी निराला को चाहे तो भारतीय संत कवियों, योरोपीय प्रबोधन के रचनाकारों से लेकर योरोपीय रोमांटिक कवियों के साथ मिला कर देख सकता है। रचना के चिंतन तत्व के स्तर पर उनमें एक संबंध बनता दिखता है।
हमारे हिंदी में खैर रोमांटिक कवियों के लिए स्वच्छंदतावाद का प्रयोग अश्लील लगता है, और यह तब और लगने लगता है, जब रोमांटिक कवियों के सरोकार और चिंतन तत्व से परिचय हो जाता है। और स्वच्छंदता को जिस अर्थ में संस्कृत, हिंदी में लिया जाता है, उससे तो और।
संस्कृत, हिंदी में तो ‘स्वतंत्रता’ जैसे पदों से भी एक घबराहट दिखती है। खासकर, प्राचीन सांस्कृतिक गौरव का गान करने वाले बौद्धिकों, आचार्यों, विद्वानों में। वह भी, उनमें ज्यादा जिनके यहाँ प्राचीन सांस्कृतिक गौरव सिर्फ धार्मिक संस्कृत ग्रंथों तक ही सिमटा है।
बौद्धिक जगत में उनकी संख्या भले कम है, लेकिन हिंदीभाषी समाज में उसका असर बहुत अधिक है, इसीलिए इस बात का जिक्र यहाँ किया गया। ‘गजानन्द शास्त्रिणी’ कहानी में यह बात आती है।
निराला ने तो इसका इतना सामना किया है, कि वह दुःख रचनाओं तक में व्यक्त कर दिया है। संदर्भ निकल आया तो ‘देवी’ कहानी का यह अंश देख लिया जाए-
“जिसके लिए मेरी इतनी बदनामी हुई, दुनिया से मेरा नाम उठ जाने को हुआ, जो कुछ था, चला गया, उस कविता को जीते-जी मुझे भी छोड़ देना चाहिए। जिसे लोग खुरापात समझते हैं, उसे न लिखना हो तो लोगों की समझ की सच्ची समझ होगी?… ‘सीता’, ‘सावित्री’, ‘दमयंती’, आदि की पावन कथाएँ आँख मूँदकर लिख सकता हूँ। तब बीवी के हाथ ‘सीता’ और ‘सावित्री’ देकर बगल में, ‘चौरासी आसन’ दबाने वाले दिल से नाराज न होंगे। उनकी इस भारतीय संस्कृति को बिगाड़ने की कोशिश करके ही बिगड़ा हूँ। अब जरूर सँभलूँगा। राम, श्याम जो-जो थे पूजने-पुजाने वाले, सब बड़े आदमी थे। बगैर बड़प्पन के तारीफ कैसी? बिना राजा हुए राजर्षि होने की गुंजाइश नहीं, न ब्राह्मण हुए बगैर ब्रह्मर्षि होने की है। वैश्यर्षि या शूद्रर्षि कोई था, इतिहास नहीं, शास्त्रों में भी प्रमाण नहीं, अर्थात नहीं हो सकता। बात यह कि बड़प्पन चाहिए। बड़ा राज्य, ऐस्वर्य, बड़े पोथे, तोप, तलवार, गोले-बारूद, बंदूक-किर्च, रेल-तार, जंगी-जहाज, टारपेडो, माइन, सबमेंरीन गैस, पल्टन-पुलीस, अट्टालिका-उपवन आदि-आदि सब बड़े-बड़े- इतने कि वहाँ तक आँख नहीं फैलती, इसलिए कि छोटे समझें कि वह कितने छोटे हैं। चन्द्र, सूर्य, वरुण, कुबेर, यम, जयंत, इंद्र, ब्रह्म, महेश तक बाकायदा बाहिसाब ईश्वर के यहाँ भी छोटे से बड़े तक मेल मिला हुआ है”
निराला के इस उद्गार में वह तत्व शामिल है, जिसका ज़िक्र ऊपर हो आया है। अर्थात, राष्ट्र, समाज, संस्कृति को लेकर उनके यहाँ बृहद चिंतन है। बिना उसके संस्कृति का ऐसा अवलोकन संभव नहीं।
मानवतावाद और रोमांटिसिज़्म दोनों में यह तत्व मौजूद है, हालाँकि उनके यहाँ जो राष्ट्र है, वह कोई पूजा करने वाला या पवित्र राष्ट्र नहीं है।
इसी तरह सांस्कृतिक सवाल पर भी गौरव भाव की जगह एक तार्किक, विवेकवादी दृष्टि से उसको देखा गया है। निराला भी मानवतावाद और रोमांटिसिज़्म कि इसी परम्परा में आते हैं। यह परम्परा भारतीय भी है, और वैश्विक भी है। इसे निराला की कहानियों के संदर्भ से ज्यादा ठोस ढंग से समझा जा सकता है।
निराला की प्रारंभिक कहानियाँ स्त्री-शिक्षा और सबलता से जुड़ी हैं। ‘पद्मा और लिली’, ‘ज्योतिर्मयी’, ‘कमला’, ‘श्यामा’, ‘सुकुल की बीवी’, ‘हिरनी’ आदि कहानियाँ अपने शीर्षक में भी स्त्रीवाची हैं। इन कहानियों में स्त्रियों के भीतर शिक्षा और आधुनिकता के प्रति नवीन बोध है, वहीं स्त्रियों के सहज बुद्धि और विवेक तथा मानवीय व्यवहार को मुख्य कथावस्तु बनाया गया है।
स्त्रियाँ दोहरी पीड़ित रही हैं। ऐसे में निराला जब स्त्रियों पर अपनी कहानियाँ केंद्रित करते हैं, तो उनके पास जो इसका विचार है, वह प्रबोधन के साथ-साथ आधुनिक राष्ट्र निर्माण से भी जुड़ा है।
कोई भी आधुनिक राष्ट्र-राज्य उत्पीड़ित समुदायों की मुक्ति और उनके श्रम की भागीदारी से सीधे जुड़ा है। वंश, गोत्र और रक्त संबंधों के बाहर जाकर ही या इसे तोड़कर ही राष्ट्र-राज्यों का उदय हुआ।
इन राष्ट्रों के निर्माण के लिए व्यापक जनसमुदाय और अन्य समाजों की भागीदारी अनिवार्य शर्त थी। इसमें नेतृत्व का सवाल एक अलग प्रश्न है, लेकिन भागीदारी पहली शर्त है, जो बिना इन समाजों की मुक्ति और नवीन चेतना के संभव नहीं।
अर्थात, शिक्षा और श्रम किसी भी आधुनिक राष्ट्र की कोशिका की तरह होते हैं। स्त्री-शिक्षा जहाँ राष्ट्र की छोटी इकाई ‘परिवार’ या स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के आधुनिकीकरण से ताल्लुक रखता है और श्रम, घरेलू व सामाजिक दोनों में भी उनकी भागीदारी रहती है।
श्रम से जुड़ा दूसरा सामाजिक समूह है दलितों का। निराला इसीलिए स्त्री-मुक्ति और दलित-मुक्ति में शिक्षा की भूमिका को, नवीन चेतना को महत्वपूर्ण मानते हैं और इसे अपनी कहानियों के केंद्र में रखते हैं।
ज्योतिर्मयी कहानी का प्रारम्भ देखिए-
” मानती रहें, चूँकि आप ही लोगों ने, आप ही के बनाए हुए शास्त्रों ने, जो हमारे प्रतिकूल हैं, हमें जबरन गुलाम बना रक्खा है; कोई चारा भी तो नहीं- कैसी बात है! कमल की पंखड़ियों-सी उज्ज्वल बड़ी-बड़ी आँखों से देखती हुई, एक सत्रह साल की, रूप की चंद्रिका, भरी हुई युवती ने कहा।”
ज्योतिर्मयी की सहज बुद्धि से निकले तर्क स्त्री संबंधी सामाजिक नियमों या प्रचलनों, रीतियों को पाखंड और अर्थहीन साबित कर देते हैं। वह भले ही उसी में जीती हैं, लेकिन उसके छल-छद्म से अनजान नहीं, बल्कि उसकी परत-दर-परत से भली-भाँति परिचित हैं।
यह कहानी लखनऊ से निकलने वाली ‘सुधा’ मासिक में 1930 ईस्वी की छपी है। यह कहानी स्त्री-संबंधी वर्णवादी पुरुष नैतिकता को, एक स्त्री के सामान्य, सहज तर्कों से बेपर्द करती है।
1930 का दशक वर्णवादी पुरुष नैतिकता के पुनरुत्थान का भी दशक है। इसी दशक में हिंदूवादी और इस्लामिक नैतिकताएँ आधुनिकता के विरुद्ध उठ खड़ी होती हैं और कांग्रेस के भीतर दबाव बनाने लगती हैं या चुनौती देने लगती हैं।
अब निराला की स्त्री-संबंधी कहानियों की वस्तु संवेदना को इससे मिलाकर देखने पर समझ में आएगा कि इसका संबंध राष्ट्र निर्माण के विचार से कैसे है, और वह राष्ट्र भी कैसा राष्ट्र; आधुनिक या पुरातनताओं से भरा हुआ!
निराला ने जाति का सवाल अलग से कई कहानियों में उठाया है, पर स्त्रियों के यहाँ भी इस प्रश्न को उन्होंने ‘प्रेम और विवाह’ के सन्दर्भ में लिया है।
‘पद्मा और लिली’ कहानी में पद्मा ऐसी शिक्षित लड़की है, जो पिता कि जाति संबंधित सोच से अपने को अलग करती है। पद्मा काशी विश्वविद्यालय के कला-विभाग के दूसरे वर्ष की छात्रा है और अंतर्जातीय प्रेम करती है।
ज्योतिर्मयी से अलग वह पढ़ी-लिखी है, लेकिन वह पुरातनपंथी विचारों के विरुद्ध सहज बोध से नहीं बल्कि शिक्षा व उससे आयी नवीन चेतना से खड़ी होती है-
“एक अद्भुत स्थिरता उसमें आ गयी। जिस जाति के विचार ने उसके पिता को इतना दुर्बल कर दिया था, उसी जाति की बालिकाओं को अपने ढंग पर शिक्षित कर, अपने आदर्श पर लाकर, पिता की दुर्बलता से प्रतिशोध लेने का उसने निश्चय कर लिया।”
सामाजिक-सांस्थानिक जकड़बंदी, अतार्किक चलन, परंपरा को तोड़े-छोड़े बिना राष्ट्र नहीं बनता। आधुनिक क्या, प्राचीन काल के राज्य निर्माण भी प्रायः अपने समय के प्रगतिशील तत्वों के साथ ही बड़े राज्य में या स्थाई राज्य में बदलते थे।
निराला ने स्त्री-प्रश्न को जिन कहानियों में उठाया है, उसमें ‘विवाह’ संस्था केंद्र में है। ‘पिता’ संस्था की तो प्रायः कहानियों में निराला ने अच्छे से खबर ली है। ‘विवाह’ और ‘पिता’ दोनों संस्थाओं का सारा कूड़ा स्त्रियाँ ढोती हैं।
यह निराला ने लक्षित किया है। उनके यहाँ लेकिन यह भार ढोती हुई स्त्रियाँ जो ‘पति’ और ‘पिता’ के लिए सारी नैतिकताएँ उठाती हैं, अपने सहज बोध में इसे पहचानती भी हैं। लेकिन ‘पिता’ और ‘पति’ से बाहर उन्हें कुछ दिखाया और बताया ही नहीं गया, इसलिए वह इससे बाहर चाह कर भी नहीं जा पातीं।
निराला की कहानी ‘कमला’ में इस प्रश्न को निराला ने शुचिता, पवित्रता जैसी नैतिकताओं को बेमानी करते हुए उठाया है। इस कहानी में वेदवती का एक संवाद है-
“तुम लोग कमजोर हो, किस्मत को कोसती हो। मैं होती तो, चपत का जवाब दूने कस की चपत कसकर देती- उन्हीं की तरह अपना भी दूसरा विवाह साथ-साथ करती, ऊपर से न्योता भेजती कि आइए जनाबमन्, मेरे शौहर से मुलाकात कर जाइए। तुम्हीं लोगों ने अपने सिर स्त्रियों का अपमान उठा रक्खा है।”
ज्योतिर्मयी कहानी में युवती कहती है-
“आपने इस साल एम.ए पास किया है, और अँग्रेजी में। वहाँ पतिव्रता स्त्रियों की शायद पत्नीव्रत पुरुषों से ज्यादा जीवनियाँ आपने याद कीं!”
दूसरी तरफ निराला के यहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही स्त्रियां हैं, जो ‘प्रेम और विवाह’ दोनों में बराबरी और सम्मान को ऊपर रखती हैं।
निराला के यहाँ ‘प्रेम और विवाह’ को लेकर वर्णवादी पितृसत्तात्मक या पुरुषवादी नैतिकता पर स्त्री पात्र बहुत मुखर हैं। खूब जमकर बात करती हैं।
वह उससे बाहर नहीं जातीं, लेकिन उसे बदलने के लिए लगातार दबाव बनाती हैं
निराला के यहाँ यह सब वास्तविक जीवन स्थितियों के बीच से दिखाया गया है। मात्र विचार रूप में नहीं। ‘प्रेम और विवाह’ संबंधी नैतिकताओं पर प्रेमचंद ने 1936 में गोदान में मेहता-मालती के द्वारा विचार व्यक्त किया है।
लेकिन प्रेमचंद के यहाँ यह जीवन-स्थितियों के भीतर से कहानी-कथा का केंद्रीय विषय नहीं बनाया गया है। नैतिकताओं को लेकर प्रसाद के यहाँ द्वंद्व है, लेकिन वह कुछ तार्किक मानवीय पहलुओं के साथ पीछे ज्यादा जाते हैं। हालाँकि प्रसाद एक काम तो करते ही हैं, कि वे इस प्रश्न को राज्य के साथ जोड़कर देखते हैं।
अर्थात, यह प्रश्न राष्ट्र निर्माण के प्रश्न से जुड़ा हुआ था और यह बहुत महत्वपूर्ण बात है, कि आजादी की लड़ाई के दौरान सामाजिक परिवर्तन की बात राजनीतिक रूप से भगत सिंह और उनके साथियों ने शुरू की।
विवाह संस्था और उसमें स्त्रियों की स्थिति पर वे सब विचलित भी थे और उसकी नैतिकताओं के खिलाफ मुखर भी थे।
इस बात को साहित्य में सबसे पहले रोमांटिक या जिसे छायावाद कहा गया हिंदी में, उन्होंने सबसे पहले पकड़ा। ‘प्रेम और विवाह’ का प्रश्न जितना निजी था, उससे ज्यादा सामाजिक था, इसे इन रचनाकारों ने अपने साहित्य की मुख्य चिंता बनाकर प्रकट भी किया।
निराला के यहाँ तो इस पर सबसे अधिक कथाएँ हैं, क्योंकि सामाजिक परिवर्तन को राष्ट्र निर्माण के लिए जरूरी तत्व वे मान चुके थे या इस वैचारिक स्थित तक वे पहुँचे। ‘सुकुल की बीवी’ तक आते-आते तो वे इस संबंध में बहुत स्पष्ट हो चुके थे।
‘प्रेम और विवाह’ को लेकर जैनेंद्र बल्कि और आगे बढ़ते हैं, लेकिन उनके यहाँ उतनी वास्तविक जीवन-स्थितियाँ नहीं निर्मित हुई मिलती हैं, जितनी निराला के यहाँ हैं, फिर भी विचार तत्व के रूप में वह बहुत है।
वास्तविक जीवन स्थितियों के अभाव में ही जैनेंद्र की कहानी ‘नीलम देश की राजकन्या’ को मार्कण्डेय ने ‘कहानी वहाँ की’ शीर्षक से आलोच्य विषय बनाया, हालाँकि बाद में उन्होंने अपना यह विचार बदला और माना कि जैनेंद्र ‘प्रेम और विवाह’ के प्रश्न को कथा में आधुनिक विचार के सापेक्ष लाते हैं और इसे अपनी कथा-कहानी में केन्द्रीय वस्तु बनाते हैं।
खुद मार्कण्डेय ने आजादी के बाद इस प्रश्न को सबसे अधिक महत्व दिया है अपनी कहानियों में और वे अंत तक मानते रहे, कि सामाजिक-सांस्थानिक परिवर्तन के बिना आधुनिक राष्ट्र बन ही नहीं सकता। वह एक जटिल संरचना बनी रहेगी। निराला के यहाँ भी यह तत्व मौजूद है।
1929 के लाहौर अधिवेशन के बाद जब भारत की आजादी का अंतिम ड्राफ्ट बना और कैसा राष्ट्र होना चाहिए, यह बात या बहस शुरू हुई तो निराला ने उसमें इसे सामाजिक परिवर्तन से जोड़ कर देखा। निराला स्वयं कांग्रेस के अधिवेशन में मौजूद रहते थे या उसकी खबर बहुत करीब से रखते थे।
सामाजिक परिवर्तन या सांस्कृतिक प्रश्नों से टकराना निराला के यहाँ प्रमुखता पाता है, तो इसीलिए क्योंकि जैसा कि ऊपर हो आया है, कि 1930 के दशक में राष्ट्र निर्माण का प्रश्न ऊपर आ गया था।
भगत सिंह तो खुलकर किसानों-मजदूरों के राज की बात, समस्त तरह के शोषण के खात्मे वाले राज्य की बात उठा चुके थे। साहित्य में इसकी आहट उसी वक्त से सुनी जा सकती है।
प्रेमचंद का ‘गबन’ 1930 के आसपास का ही उपन्यास है। निराला की कहानियाँ लेकिन ढेर सारे सामाजिक आयामों से इस प्रश्न को ज्यादा ठोस आधार दे रहे थे।
इसीलिए ‘प्रेम और विवाह’ ‘पिता और पति’ उनकी कहानियों में आलोचना और यथार्थ के केंद्र में हैं।
‘पिता’ विलायत से पढ़े हों या आधुनिक ब्रिटिश शासन प्रणाली का हिस्सा हों, जज हों, अधिकारी हों, आधुनिक कपड़े और खानपान अपनाते हों, लेकिन वे सोच में सवर्ण हिंदू वर्ण वादी बने हुए हैं।
ऐसा पाखण्ड लिए हुए कई ‘पिता’ हैं। निराला के यहाँ ‘पद्मा और लिली’ में ही है। लेकिन ‘पिता’ से अधिक ‘पति’, ‘प्रेमी’ ज्यादा निशाने पर है निराला की कहानियों में।
प्रेमी या पति अंग्रेजी से एम.ए है, खूब दर्शन की बातें करता है, लेकिन विवाह में वह पिता की आज्ञा और वर्णवादी नैतिकता के साथ ही प्रवेश करना चाहता है।
शिक्षा तो वह आधुनिक ले रहा लेकिन उसके भीतर के आधुनिक विचार को वह नहीं लेता। वहाँ से पुरातन सांस्कृतिक मूल्य टस से मस नहीं हो रहे हैं। और ना तो वह उससे टकराता है। ‘ज्योतिर्मयी’, ‘कमला’, ‘विद्या’, ‘सुकुल की बीवी’ कहानियाँ इन सवालों से सीधे रूबरू हैं।
निराला, लेकिन ऐसा नहीं, कि सिर्फ इन्हीं सामाजिक संस्थाओं तक अपने को रोके हैं। वह आगे बढ़कर जाति के प्रश्न को लगातार उठाते हैं अपनी कहानियों में।
ऐसा इसलिए कि निराला के यहाँ ‘स्वतंत्रता’ सिर्फ वैयक्तिक नहीं जैनेंद्र और अज्ञेय की तरह, वह सामाजिक भी है।
निराला ‘प्रेम और विवाह’ से आगे ‘जाति’ तक तभी जाते हैं, जैनेन्द्र और अज्ञेय की आधुनिकता में तो ‘जाति’ का प्रश्न नहीं आ पाता।
निराला को प्रेमचंद के साथ रखा जा सकता है, लेकिन निराला के यहाँ प्रेमचंद से ज्यादा व्यापक, प्रामाणिक हिंदी समाज के वास्तविक संदर्भ हैं, व्यौरे हैं।
हिंदी समाज का निराला से बड़ा जातीय रचनाकार कोई नहीं है। ऐसा कहने में कोई हिचक नहीं, भले ही सामने प्रेमचंद हों, तब भी।खैर
निराला की कहानी ‘श्यामा’, ‘चतुरी चमार’, ‘देवी’ में सामाजिक मुक्ति का प्रश्न देखने को मिलेगा। ‘श्यामा’ रंगीला साप्ताहिक, कोलकाता से पहली बार 1932 में छपी, बाद में ‘सुधा’ में, जबकि ‘चतुरी चमार’ और ‘देवी’ ‘सुधा’ में 1934 में छपी। अर्थात 1930 के दशक का पूर्वार्द्ध। यहाँ संदर्भ के बतौर ही इन कहानियों का जिक्र किया गया है, क्योंकि अलग से यह कहानियाँ ज्यादा बातचीत की माँग करती हैं। संदर्भ देने का आशय यह है, कि निराला के यहाँ राष्ट्र-निर्माण का प्रश्न सामाजिक परिवर्तन और चले आ रहे पिछड़े या वर्णवादी सांस्कृतिक मूल्यों के प्रश्न से जुड़ कर आते हैं। इन कहानियों को ध्यान से पढ़ना चाहिए, इसमें देश के साथ सामाजिक हकीकत और संस्कृति का पाखंड मिलेगा। फिलहाल ‘देवी’ कहानी का ही एक अंश-
“एक दिन पगली के पास एक रामायणी समाज में कथा हो रही थी। मैंने देखा बहुत से भक्त एकत्रित हैं। एतवार का दिन था। दो बजे से साहित्य सम्राट गो. तुलसीदास जी की रामायण का पाठ शुरू हुआ, पाँच बजे समाप्त। उसमें हिंदुओं के मँजे स्वभाव को साहित्य सम्राट गो. तुलसीदास जी ने और माँज दिया है, आप लोग जानते हैं। पाठ सुनकर, मँजकर भक्त-मण्डली चली। दुबली-पतली ऐश्वर्य-श्री से रहित पगली बच्चे के साथ बैठी हुई मिली। एक ने कहा, इसी संसार में स्वर्ग और नरक देख लो। दूसरे ने कहा, कर्म के दण्ड हैं। तीसरा बोला, सकल पदारथ है जग माहीं कर्महीन नर पावत नाहीं। सब लोग पगली को देखते, शास्त्रार्थ करते चले गये।”
यह शास्त्रार्थ अब और अश्लील होकर स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी और सबसे बढ़कर शिक्षा-विरोधी मूल्य लेकर ‘न्यू इंडिया’ बनाने के लिए चल रहा है। इसे पहचानिए तो निराला का महत्व अधिक मालूम होगा।