रविवार 1 नवम्बर 2020 को कोरस के फेसबुक लाइव चैट पर दर्शकों की मुलाकात हुई राधिका मेनन और शिवानी नाग से l डॉ. राधिका मेनन दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापिका हैं और शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं l उनके साथ वार्ताकार के रूप में मौजूद थीं शिवानी नाग, जो स्वयं शिक्षा विभाग में ही पढ़ाती हैं l राधिका और शिवानी दोनों ही लम्बे समय से महिला शिक्षा के क्षेत्र से जुडी रहीं हैं और शिक्षा के अधिकार से जुड़े कई आन्दोलनों में काफी सक्रिय रहीं हैं l इस बार कोरस लाइव पर चर्चा का विषय था “नई शिक्षा नीति 2020 और इस नीति में स्त्री-शिक्षा का सवाल, “जैसे कि क्यों महिला आन्दोलन को इस शिक्षा नीति को बेहतर समझने की ज़रूरत है ? नई शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य क्या है ? शिक्षा में महिलाओं के समावेश पर शिक्षा नीति क्या कहती है और क्या ठोस कदम प्रस्तुत करती है ? इस परिचर्चा में इन्हीं कुछ सवालों पर विस्तार से बात की गयी l
दर्शकों का राधिका और वार्तालाप के विषय से परिचय कराते हुए शिवानी बताती हैं की नई शिक्षा नीति में लिंग के सवालों पर अगर हम चर्चा करें तो तीन-चार मुख्य बातें जो हमारे सामने आती हैं, वे हैं –
1- स्कूल शिक्षा के स्तर पर एक जेंडर- इन्क्लुज़न फण्ड के गठन का सुझाव l
2- जेंडर सेंसेटिव स्पेसेस या शिक्षा में लिंग के प्रति संवेदनशील माहौल सुनिश्चित करने के प्रयास की बात l
3- अलग-अलग जेंडर आइडेंटिटी को स्वीकार करते हुए शिक्षण संस्थानों में ट्रांसजेंडर (वे लोग जो अपने बायोलॉजिकल सेक्स से भिन्न होते हैं ) के समावेश की बात l
4- उच्च शिक्षा के स्तर पर लिंग-संतुलन को बढ़ावा देने को एक उद्देश्य मानना l
इन सभी बातों को काफी सराहा गया है तो इन्हीं को मुद्दा बनाते हुए यह देखने की कोशिश की गयी की अगर इस बार की शिक्षा नीति की इन मामलों में करीब से समीक्षा की जाए तो यह दावे कितने आशाजनक नज़र आते हैं और स्त्री-शिक्षा से जुड़े हुए, वे कौन से पहलु हैं, जिन्हें हम इन दावों में कहीं खो दे रहे हैं l राधिका से पहला सवाल इसलिए यह होता है की महिला-शिक्षा के सम्बन्ध में ये सभी बिंदु उन्हें निजी तौर पर कितना आश्वस्त करते हैं और उन्हें इन दावों को पढ़कर महिला-शिक्षा के सुधारीकरण की क्या कोई उम्मीद नज़र आती है ?
जवाब में राधिका कहती हैं कि हमें पहले तो शिक्षा नीति को और जो भी नीतियां आ रहीं हैं. उन सभी के सन्दर्भ में भी देखना चाहिए l साथ ही साथ पहली बात यह की पुरानी शिक्षा नीतियों ने महिलाओं की शिक्षा को किस तरह से देखा है और अभी की नीति उसे कैसे देख रही, यह भी समझने की ज़रूरत है l शुरूआती दौर में तो हम पाते हैं की ये माना गया की महिलाओं की शिक्षा राष्ट्र-निर्माण और समाज के बेहतरीकरण के लिए ज़रूरी है और इसीलिए औपचारिक-शिक्षा को ख़त्म किया जाता है यानी सरकार शिक्षा को लेकर अपने नियमों को कम करने की तरफ बढती है ताकि शिक्षा ज्यादा से ज्यादा महिलाओं तक पहुँच सके l पर हम आज यानी 2020 की शिक्षा नीति में देखते हैं की राज्य सरकारें शिक्षा के क्षेत्र में अपनी भूमिका को पूरी तरह से त्याग रहीं हैं l अब शिक्षा की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निजी संस्थाओं या कंपनियां या फिर गैर-लाभकारी निजी संस्थानों के हांथों में दी जा रही है, जो शिक्षा को अधिकार से ज्यादा उसे खैरात बांटने जैसा ले रहीं हैं l दूसरी एक और बात जो देखने को मिलती है, वह ये है की चाहे कोई भी क्षेत्र हो आप शिक्षा को ले लीजिये या कृषि के क्षेत्र में लाये जा रहे श्रम कानून को देख लीजिये, सभी क्षेत्रों में राज्य सरकार अपनी भूमिका सीमित ही करती जा रही है l अब जैसे जेंडर-इन्क्लूजन फण्ड का ही उदाहरण ले लिया जाये तो इस नीति में यह साफ़ कहा गया है की इस फण्ड को बनाने के लिए जो भी योजनायें या कार्यक्रम होंगे, वे सभी केंद्र सरकार की ओर से आयेंगे न की राज्य सरकारों की तरफ से l यानी स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार की आज्ञा पर राज्य सरकारों को काम करना होगा l और दिलचस्प बात यह है कि इन सभी योजनाओं और कार्यक्रमों की अगर सूची उठाकर देखी जाये तो उनमें कोई भी योजना नई नहीं है l बल्कि यह सूची सभी पुरानी योजनाओं का विलय है, जो नई सूची के नाम से हमारे सामने प्रस्तुत की जा रही है l
खैर चलिए यह भी उतना महत्वपूर्ण मामला नहीं है, महत्वपूर्ण सवाल तो यह उठता है की इन सभी योजनाओं में लिंग के प्रति संवेदनशीलता और लिंग-संतुलन की जो कल्पना की गयी है, वह कैसी है ? अब इसके लिए ज़रूरी है कि महिला-शिक्षा कैसी हो, इस पर हम अपनी समझ बना लें l स्त्री-शिक्षा का उद्देश्य क्या होना चाहिए, यह तय कर लें l इन्हीं माध्यमों से फिर हम इस शिक्षा नीति का भी विश्लेषण कर सकते हैं l
शिवानी- लिंग-संतुलन और सभी लिंगों के समावेश को सुनिश्चित करने के लिए क्या ठोस कदम उठाये जायेंगे, इस पर भी इस नीति में कोई स्पष्टता नहीं है l ऊपर से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण के साथ-साथ मल्टिपल एक्जिट का सिस्टम भी ला रही है सरकार, तो इससे महिलाओं की शिक्षा और उनका शिक्षा पर जो अधिकार है, वह कितना प्रभावित होगा ?
राधिका- जहां तक लिंग-संतुलन की बात है, इस नीति में में उसे बढाने की बात कही गयी है यानी शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कैसे बढाई जाए, इस पर कुछ बिंदु सामने आते हैं l किन्तु इसे सुनिश्चित कर पाने के जो उपाय बताये गए हैं, वे संदेहास्पद हैं l एक तो सबसे पहले यह कहा गया है की विस्तार ज़रूरी है l परन्तु अगर हम विस्तार करने की ज़िम्मेदारी निजी संस्थाओं के भरोसे छोड़ देंगे तो क्या होगा ? होगा ये की लड़कियों और लड़कों, दोनों की शिक्षा अब उनके परिवारों के निर्णय के ऊपर निर्भर हो जाएगी l इस पितृसत्तात्मक समाज में, जहाँ यह माना जाता है कि लडकियाँ तो शादी के बाद विदा होकर किसी दूसरे के घर चली जाएँगी और माता-पिता की देखभाल सिर्फ लड़के ही करेंगे, खुद-ब-खुद सारा बल लड़कों की शिक्षा पर चला जाता है l अब, जब राज्य सरकारों की भूमिका सीमित हो जाती है तो शिक्षा की ज़िम्मेदारी परिवारों या गैर-लाभकारी निजी संस्थाओं के ऊपर ही चली जाती है l अगर हम यहाँ गैर-लाभकारी निजी संस्थाओं की कार्यशैली को देखें तो जिस तरह से पूरे विश्व में राष्ट्र-निर्माण पितृसत्तात्मक समाजों के द्वारा किया जा रहा है, उसमें लड़कियों की शिक्षा, उनकी आज़ादी अपने आप ही सीमित होती चली जा रही है l अगर महिलाएं विरोध-प्रदर्शनों के माध्यम से अपनी आवाज़ उठती भी हैं तो उल्टा उन पर ही कार्यवाही चला दी जाती है की उन्होंने सवाल क्यों उठाये या प्रदर्शन क्यों किये ? तो अगर शिक्षा को गैर-लाभकारी निजी संस्थाओं के भरोसे छोड़ा जा रहा है तो हम देखने को मिलता है कि वह देश में राजनैतिक और आर्थिक माहौल के हिसाब से दायें-बाएँ होती रहती है l उदाहरण में तनिष्क के प्रचार पर चल रही बहस को ही देख लीजिये l टाटा ग्रुप के एक प्रचार, जिसमें कुछ भी आपत्तिजनक या अपमानजनक नहीं था, को लेकर इतना बड़ा विवाद खड़ा किया गया l विवाद का फल यह हुआ की देश में इतनी सम्मानित और बलशाली कंपनी ने इस बवाल के विरोध में न कोई तार्किक जवाब देना ज़रूरी समझा और न ही कोई कार्रवाई करने का संकेत दिया बल्कि प्रचार वापस ले लिया और एक माफीनामा लगा दिया l जब हम महिलाओं की शिक्षा जैसे ज़रूरी अधिकार की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से ऐसी निजी कंपनियों द्वारा चलाये जा रहे गैर- लाभकारी संथाओं के ऊपर छोड़ देंगे तो कभी किसी दिन किसी बावालिया संगठन ने महिलाओं की शिक्षा को बंद कराने के उद्देश्य से कोई बवाल किया तो ये संस्थाएं तो फ़ौरन अपनी दुकान बंद करके शान्ति से निकल लेंगी l ऐसे में हम इनसे अब और क्या ही उम्मीद कर सकते हैं ?! आप खुद ही सोचिये !
हमारे अधिकारों का ख्याल जब राज्य सरकारें संवैधानिक मूल्यों के आधार पर रखेंगी तब ही वे सुरक्षित रह पायेंगे वर्ना वे ख़त्म हो जायेंगे और यह एक अहम मुद्दा है, जिस पर यह सरकार कुछ भी ठोस कदम लेते नज़र नहीं आ रही बल्कि राज्य सरकारें भी धीरे-धीरे अपनी जिम्मेदारिओं से पीछे हटती चली जा रही हैं l अब दूसरी बात जो विभिन्न लिंगों को स्वीकार करने और शिक्षा यन्त्र में उनके समावेश को लेकर कही जा रही, उस पर मैं यह कहना चाहूंगी कि सिर्फ कह देने और करके दिखाने में बहुत फर्क है l इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए बजट, फण्ड, इंफ्रास्ट्रक्चर इन सब की ज़रूरत है, पर इसका भी शिक्षा नीति में कोई ज़िक्र नहीं आता l सभी लिंगों के समावेश की जो बात है, वास्तविकता में इसे शिक्षा के हर एक स्तर पर हकीकत कर पाना भी एक लम्बा सफ़र है l सिर्फ स्त्री और पुरुष को हटाकर सभी लिंग लिख देने से यह नहीं हो जायेगा l पुरानी शिक्षा नीतियों में कम-से-कम स्त्री-शिक्षा पर अलग से कुछ प्रावधान तो थे l इस बार तो वह भी नहीं दिखाई पड़ते l अब ऐसा भी नहीं है कि भारत में महिलाओं की शिक्षा का प्रतिशत सौ पहुँच गया है की अब उससे आगे बढ़कर काम करना है सरकार को l ज़रूरी तो बल्कि यह है की उसे सौ प्रतिशत तक पहले पहुँचाया तो जाए l शिक्षा में वीमेन-ड्रॉपआउट रेट बहुत ज्यादा है, इसके बावजूद लड़कियों की शिक्षा पर जोर न देना और सभी लिंगों के नाम के नीचे उसे छुपा देना या दबा देना, स्त्री- शिक्षा के सन्दर्भ में काफी “बैकवर्ड-स्टेप” है l
शिवानी – हम जानते हैं कि हमारे देश में उच्च शिक्षा के स्तर पर महिलाएं कितनी मुश्किल से पहुँच पाती हैं l उम्र के साथ-साथ उन पर अक्सर शादी, बच्चे और घर सँभालने का प्रेशर बढ़ता ही जाता है, ऐसे में दो साल या तीन साल का जो ग्रेजुएशन का कोर्स होता था, वह पूरा न करने पर डिग्री नहीं मिल पायेगी ऐसा कहकर वे कोर्स पूरा कर लेतीं थीं, पर अब मल्टीपल एक्जिट से वह भी गुंजाइश ख़त्म होती-सी लग रही है l इस पर आपका क्या कहना है ?
राधिका – यह बहुत दुखद होगा हमारे लिए क्योंकि अब जब हर साल एक्जिट होगा तो यह जो तमाम सामाजिक दबाव है महिलाओं पर, वह और भी बढ़ेंगे l अब बड़े आराम से आपसे यह कहा जा सकेगा की एक साल की पढाई का सर्टिफिकेट लेकर आप एक्जिट करके घर बसा लीजिये फिर जब बाद में समय होगा कभी तो आगे का कोर्स भी कर लीजियेगा l शिक्षा विभाग में होने की वजह से मैं जानती हूँ कि इस तरह से बीच में पढ़ाई छोड़ के जाने वाली लड़कियां या तो कभी लौटकर आ ही नहीं पातीं या आती भी हैं तो इतनी सारी जिम्मेदारियों से लदकर आती हैं की आगे पढ़ पाना बेहद मुश्किल हो जाता है उनके लिए l यह स्थिति तो अब बढ़नी ही है l ड्रापआउट बढ़ेंगे ही इस स्थिति में l
दूसरी बात, हर साल का जो सर्टिफिकेट दिए जाने का मामला है , जिसको बहुत से लोग पॉजिटिव स्टेप की तरह ले रहे, उस पर मेरा सवाल है कि क्या महत्त्व या अहमियत होगी इन सर्टिफिकेट्स की ? इस बात पर नई शिक्षा नीति में कोई साफ़ जवाब नहीं मिलता l जब तीन या चार साल का कोर्स न करके आप सिर्फ एक साल की पढाई का सर्टिफिकेट लेकर जायेंगे नौकरी ढूंढने तो उस सर्टिफिकेट की जांच या परख किस आधार पर की जाएगी ? यह तो शिक्षा तंत्र को बैंकिंग सिस्टम में तब्दील कर देना जैसी बात हुई कि आप क्रेडिट्स कमा कर बैंक में सेविंग करते जाइये और ज़रूरत पड़ने पर अपने क्रेडिट्स निकालते रहिये l पर शिक्षा ऐसे आधे-अधूरे ढंग से तो सुनिश्चित नहीं की जा सकती l खासकर लड़कियों के लिए शिक्षा सिर्फ नंबर लाने और क्रेडिट्स कमाने के लिए नहीं बल्कि उनकी पूरी ज़िन्दगी को बदलने के लिए बहुत ज़रूरी है l शिक्षा सभी के लिए ज़रूरी है किन्तु लड़कियों के लिए विशेषकर ज्यादा है, जिससे वह रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़कर अपने लिए नए रास्ते बना सकें, अपने अस्तित्व को ढूँढ पायें और सार्वजनिक एवं नैतिक स्तर पर आत्मनिर्भर होकर जीवन यापन कर सकें l हम शिक्षा को सिर्फ रोज़गार के उद्देश्य से नहीं देख सकते, उसका स्वरुप बहुत विस्तृत है और उसे विस्तृत नज़रिए से ही देखा जाना चाहिए l
यह जो नई शिक्षा नीति है उसको आप ध्यान से पढ़ें तो पायेंगे कि यह महिलाओं के श्रम और उनके योगदान पर तो बात करती है, किन्तु उनके मौलिक अधिकार, संवैधानिक मूल्य इन सब को पीछे ढकेलती है l महिलाएं और उनकी शिक्षा इस नीति की प्राथमिकता हैं भी, यह भी कहीं स्पष्ट तौर से नज़र नहीं आता l लिंग-संतुलन का उल्लेख भी काफी बाद में आता है, जिसका मतलब है की संवेदनशीलता भी इस नीति के अनुसार तैयार होने वाले शिक्षा तंत्र की प्राथमिकता नहीं है l संवैधानिक मूल्यों में समानता एक बहुत बड़ा मूल्य है पर हमें उसका भी ज़िक्र इस बार की नीति में कहीं नहीं मिलता है l शिक्षा के क्षेत्र में आंगनवाडी, पैरा-टीचर्स और भोजन-माताओं के रूप में बहुत-सी महिलाएं काम करती हैं और उनसे सरकार “निष्काम-कर्म “ यानी की निःशुल्क श्रम के योगदान की ही उम्मीद कर रही है l आप इस नीति के डॉक्यूमेंट में एक और शब्द का उल्लेख पाएंगे, वह है भारतीय पारंपरिक मूल्य l यह कौन से मूल्य हैं ? यह मनुस्मृति के मूल्य हैं या इनका कोई संवैधानिक आधार है ? अगर इनका आधार देश का संविधान है, तब तो ठीक है l लेकिन इसको लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है l समानता, धर्मनिरपेक्षता ये सारे शब्द आपको नहीं मिलते हैं इस नीति के डॉक्यूमेंट में l तो आखिर किन मूल्यों के आधार पर हम हर लिंग के प्रति संवेदनशीलता बढाने की बात कर रहे हैं ! “निष्काम –कर्म” जैसा कोई शब्द हमारे संविधान के संवैधानिक मूल्यों वाले हिस्से में कहीं पढने को नहीं मिलता, तो यह नए शब्द कहाँ से आ रहे हैं ? फिर तो सीधे-सीधे यह बात हुई की बाज़ार के लिए महिलाओं के श्रम का पूर्ण इस्तेमाल किया जाये और वह भी काफी हद तक निःशुल्क, उन्हें उनके उस श्रम का बिना कुछ मूल्य दिए l हम देखते हैं कि यहाँ महिलाओं को किसी एक रोल में फिक्स करने की कोशिश ज्यादा है l या तो वह बहन है या बेटी या बीवी हो सकती है, स्त्री को एक लोकतान्त्रिक नागरिक से ज्यादा एक “रिलेशनल ह्यूमन बीइंग” या सम्बन्धपरक मानव में तब्दील करने की कोशिश की जा रही है l
शिवानी- सभी लिंगों के प्रति संवेदनशीलता की जहां बात होती है, वहीँ आप देख सकते हैं की यह बात भी आती है कि एक स्त्री को शिक्षित करना मतलब आनेवाली एक पीढ़ी को शिक्षित करने जैसा है , जो की फिर से एक समस्यात्मक सन्दर्भ है l एक स्त्री को एक व्यक्ति की तरह न देखकर एक ऐसे ढाँचे में फिट करना और देखना, जिसमे शिक्षा सिर्फ उसके चरित्र का उत्थान करेगी या उसके चरित्र को बेहतर बनाएगी, जिससे की फिर उस स्त्री के आगे की पीढ़ी भी सही निकलेगी, यह सन्दर्भ ही अपने आप में समस्यात्मक है l ऐसे उदाहरणों और सन्दर्भों के साथ हम सभी लिंगों के प्रति कितनी संवेदनशीलता सुनिश्चित कर पाएंगे ?
राधिका-चलिए एक बार को हम मान भी लें की ठीक है महिलाओं के माध्यम से हम पूरे समाज को शिक्षित करने की बात कह रहे हैं l पर यह शिक्षा किस प्रकार की होगी ? यह नई तरह की शिक्षा वैसे तो समानता के आधार पर होनी चाहिए , उसमें सामाजिक न्याय होना चाहिए, सभी को बराबर से आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त होना चाहिए पर ऐसा कुछ इस नीति में कहीं दिखाई नहीं पड़ता l कह सकते हैं कि यह सही मायनों में प्रोग्रेसिव या प्रगतिशील नीति नहीं है l यहाँ महिलाओं के कर्त्तव्य के बारे में तो बहुत कुछ कहा गया है किन्तु उनके अधिकारों के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा रहा है l हम देखते हैं की पहली बार ऐसा हो रहा है की इस नीति में महिलाओं की शिक्षा को लेकर अलग से कोई सेक्शन नहीं है बल्कि उसे सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित वर्ग के साथ जोड़ दिया गया है, जो की फिर महिलाओं की शिक्षा के सन्दर्भ में एक प्रगतिशील कदम नहीं है l सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की महिलाओं को शिक्षा मिलनी चाहिए, यह तो कहा गया है, पर कैसे दी जाएगी इन्हें शिक्षा, इस पर कोई ठोस स्ट्रेटेजी नहीं दिखती l ऑनलाइन एजुकेशन या डिजिटल एजुकेशन पर भी इस नीति में काफी कुछ कहा गया है और उसके फायदे भी बताये गए हैं, पर इस तरह की शिक्षा कमज़ोर और वंचित वर्ग तक पहुंचेगी कैसे, इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिलता है इस नीति में l अब ऑनलाइन एजुकेशन की दिक्कतें तो हम देख ही रहे हैं l फोन और इन्टरनेट की सुविधा की बात हो, कनेक्टिविटी की बात हो या फिर बातचीत के समय और स्वरूप की बात हो, यह सब कुछ सीमित हो जाता है डिजिटल एजुकेशन में l जो पहले से ही पिछड़े हुए और वंचित वर्ग हैं, उनको आप कहें की इस तरह की शिक्षा प्राप्त करिए तो यह सोचना पड़ेगा की क्या ये उनके लिए मुमकिन है ?जो मौजूदा व्यवस्था है, वो तो उन तक शिक्षा पहुंचा नहीं पा रही, ये ऑनलाइन मोड कैसे ही पहुंचाएगा ?! इस तरह से क्या एक लोकतान्त्रिक समाज का निर्माण हो पायेगा, यह फिर एक बड़ा सवाल आ जाता है हमारे सामने ?
शिवानी – काफी सारी छात्राओं ने बार-बार अपने अनुभव बांटते हुए ये कहा है कि जब वे विश्वविद्यालय जातीं थीं पढ़ने, तब वही कुछ घंटे होते थे उनके पास ध्यान लगाकर पढ़ाई कर पाने के l ऑनलाइन एजुकेशन के तहत जब स्टडी मटेरियल भेज दिए जाते हैं या क्लास हो रहीं होतीं हैं तो वे सौ प्रतिशत ध्यान लगाकर नहीं पढ़ पातीं l कारण यह होता है कि घर पर घरवालों की उम्मीद यह होती है की वह घर के कामों को ज्यादा प्राथमिकता दें और उसके बाद समय निकालकर पढाई भी कर लें l ऐसे में ढंग से बैठकर पढना बेहद मुश्किल हो जाता है l यह स्थिति सिर्फ छात्राओं की ही नहीं बल्कि छात्रों की भी हो जा रही है l दूसरी बात, इस नीति में स्कूलों के युक्तिकरण की भी बात कही गयी है l हम पहले देख चुके हैं की युक्तिकरण के नाम पर कितने सरकारी स्कूल बंद किये जा चुके हैं l अब इस बार यह युक्तिकरण क्या होगा और कैसा होगा, इन दोनों सवालों पर आपका क्या कहना है ? साथ ही साथ महिलाओं की शिक्षा पर इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा ?
राधिका- सबसे पहली बात तो ये की इस युक्तिकरण की ज़रूरत क्या है ? शिक्षा के अधिकार के तहत ये फैसला किया गया था की स्कूल जो हों वो ऐसी जगहों पर हों, जहां ज्यादा से ज्यादा बच्चों की पहुँच मुमकिन हो l इसको और बेहतर बनाने के लिए फिर कहा गया की स्कूल- काम्प्लेक्स बनाये जायेंगे, जिससे की सभी उम्र और काफी बड़े एरिया के सभी बच्चे एक ही जगह पर जाकर पढाई कर सकें और उस एक निश्चित जगह की फिर कनेक्टिविटी भी अच्छी हो, जिससे ज़्यादातर बच्चे वहां आराम से पहुँच सकें l अब अगर इस सन्दर्भ में लड़कियों की शिक्षा को देखें तो लड़कियों की शिक्षा कोई आसान मामला नहीं है l ये काफी जटिल हो जाता है l उदहारण के रूप मैं हाथरस या गोरखपुर मैं घटी बलात्कार की घटनाओं में हमने पढ़ा की दोनों ही बच्चियों को स्कूल जाते वक़्त परेशान किया जात था l लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज मैं ही एक किस्म के बदलाव की ज़रूरत है और अगर राज्य ही यह बदलाव सुनिश्चित नहीं कर पाती है तो ऐसी स्तिथि मैं बेहतर शिक्षा क्या उनकी शिक्षा ही संभव नहीं है l
अब अगर इस सब के बीच हम विभिन्न जगहों के स्कूल हटा कर सारे स्कूलों को एक ही परिसर या काम्प्लेक्स में ले आते हैं तो हो सकता है कि उस एक निश्चित काम्प्लेक्स तक पहुँचने मैं अगर लड़कियों को सुरक्षा की दृष्टि से किसी मुसीबत का सामना करना पड़ रहा हो तो वे आएँगी ही नहीं और उनके आसपास स्कूल न होने से पढाई कर भी नहीं पाएंगी l इस तरह से काफी लड़कियों की शिक्षा छूट जायेगी या शिक्षा तक पहुँच पाने का रास्ता उनके लिए सदा के लिए बंद हो जाएगा l किन्तु इन सब के बावजूद दुःख की बात यह है कि बड़े पैमाने पर स्कूलों का युक्तिकरण हो रहा है और बहुत से स्कूल बंद किये जा रहे हैं l उदहारणवश आप उड़ीसा में ये होते हुए देख सकते हैं l इसका प्रभाव सिर्फ लड़कियों पर ही नहीं बल्कि शोषित वर्ग के सभी बच्चों पर हो रहा है और उनमे भी प्रमुखता से लड़कियों पर यह प्रभाव, हम अगर आज नहीं तो भविष्य मैं ज़रूर लिंग असंतुलन के रूप में पढेंगे और यह बहुत दुःख की बात है l इसीलिए सिर्फ लिंगों के प्रति संवेदनशीलता हो यह कह देने से कुछ नहीं हो जाता l जेंडर-सेंस्टिविटी की पहले तो सही परिकल्पना करनी पड़ती है, इसीलिए मैं बहुत आशाजनक नहीं हूँ इस मामले को लेकर !
शिवानी- अभी आपने प्रताड़ना और छेड़खानी की दिक्कतों का उल्लेख किया, उस बात पर मैं पूछना चाहूंगी कि इस विषय पर आपकी क्या राय है ? क्योंकि जितना मैंने इस विषय को समझा है, इस डॉक्यूमेंट में मुझे ऐसी प्रताड़नाओं को रोकने या उनके सन्दर्भ मे कोई डेमोक्रेटिक ट्रांसपेरेंट सेल के गठन की कोई बात नहीं कही गयी है, जब की यह छात्राओं के लिए बहुत ज़रूरी है l अक्सर ऐसी प्रताडनाओं और उत्पीडन की घटनाएं सुनाने मैं आती है जिसमें लड़कियां अपना केस या शिकायत यह कह कर वापस ले लेती हैं की अगर बात घर तक पहुंची तो घर वाले उनका विश्वविद्यालय या कॉलेज आना बंद करवा देंगे l इस पर आपका क्या कहना है ?
राधिका – देखिये यह विश्वविद्यालय नहीं बल्कि स्कूल के स्तर से ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए पर उसकी कहाँ कोई बात हो रही है बल्कि एग्जिट का आप्शन दे दिया गया है की आना है तो आओ वर्ना ओपन और डिस्टेंस लर्निंग से पढ़ो l मतलब पहले ही आप नहीं आने का रास्ता दिखा रहे हैं तो बच्चियां आएँगी ही कैसे ? और जब सभी लिंगों के समावेश पर बात हो ही रही है इस नीति में तो लिंग शिक्षा या जेंडर एजुकेशन का भी तो कोई फण्ड होना चाहिए l पर ये तो तब होगा ना जब राज्य एक पितृसत्तात्मक समाज में मर्दानगी की पूरी कल्पना को ठीक तरह से समझे और उसके प्रत्युत्तर में कोई व्यवस्था बनाये l जब राज्य खुद इस सोच को अपनाने लगे और एक मस्कुलर राष्ट्रवाद का निर्माण करने की ओर बढ़ने लगता है तो हम देखते हैं की लिंगों के प्रति संवेदनशीलता कम होने लगती है l
शिवानी – ट्रांसजेंडर की शिक्षा पर भी इस बार की नीति मैं बहुत कुछ कहा गया है l पर जैसा की हम विश्वविद्यालयों के स्तर पर जे. एन. यू. या ए. यू. डी. में देखते हैं की आई. सी. सी. के तहत ऐसी कमेटी बनायीं भी गयी है जो रीड्रेसल सेल्स की तरह काम करें और वहां पर भी हम एक ही लिंग को प्रताड़ित और एक ही लिंग को अपराधी की तरह ले रहे हैं तो यहाँ ट्रांसजेंडर के समावेश की कोई गुंजाईश पूरी होती दिखाई भी नहीं पड़ती l इस पर आपका क्या कहना है ?
राधिका – एक तो मैं कहना चाहूंगी की ट्रांसजेंडर पर कोई बात हुयी ही नहीं है l उनके सिर्फ नाम का उल्लेख ही मिलता है इस नीति में l और यहाँ ट्रांसजेंडर की शिक्षा पर अधिकार का मामला है तो हम जानते हैं कि ट्रांसजेंडर वर्ग में गरीबी कितनी ज्यादा है और अवसर कितने सीमित हैं l मुझे तो यह समझ नहीं आ रहा की उसको अगर हम निजी गैर-लाभकारी संस्थाओं और उनके दया- भाव के भरोसे छोड़ देंगे तो क्या ही होगा ? एक तो निजी संस्थाएं भी कम हैं और ख़ासकर ट्रांसजेंडर वर्ग के लिए अवसरों के सन्दर्भ में देखें तो कुछ ही क्षेत्र उपलब्ध हैं उनके लिए l बाकी तमाम क्षेत्रों में यह नीति उन्हें अवसर उपलब्ध करा पाएगी इस पर भी कोई स्पष्टता नहीं मिलती l
शिवानी – लिंग संतुलन को सुनिश्चित करने के लिए कुछ स्टेप्स तो बताये गए हैं इस नीति में , पर उनमे कुछ भी नया नहीं है l कहा जा रहा है की लड़कियों के लिए विद्यालयों में बोर्डिंग फैसिलिटी मुहैय्या करायी जायेंगी l जो लड़कियां पहले ही शोषित वर्ग से आती हैं और जिनके बोर्डिंग स्कूलों में शोषण के मामले कई दफे सामने आ चुके हैं, ऐसे मैं क्या इन बोर्डिंग स्कूलों पर एक्शन लिए जाने पर कोई बात कही गयी है ? और क्या ऐसे स्कूलों की संख्या बढाने से महिलाओं की शिक्षा में कोई बढोतरी होगी ?
राधिका – देखिये इससे तो मुझे लगता है कि महिलाओं की शिक्षा को फायदा होगा और वो बढ़ेगी l पर यह कोई नई योजना नहीं है इसका प्रवाधान पहले से ही था l जरुरत थी तो इस योजना की वैधता और तर्कसंगतता बढ़ाने की l अब इसको बढ़ने का एक ही तरीका था की शिक्षा के अधिकार अधिनियम को जीरो से छः तक कर दिया जाए और फिर चौदह वर्ष से पोस्ट ग्रेजुएशन तक भी l हम लोग तो चाहते हैं कि “के. जी. से पी. जी.” हो जाए ये l मुफ्त समान शिक्षा बहुमतता से सबको उपलब्ध हो और सबको सभी अवसर प्राप्त हो सकें l पर इस तरह की भी कोई बात का ज़िक्र नहीं है l बल्कि किया यह गया है की कुछ जानी मानी संस्थाएं या टोकन इंस्टीट्युशंस जैसे की नवोदय विद्यालय और कस्तूरबा विद्यालय के माध्यम से कहा गया है की इसको बढ़ाएंगे पर इसकी वैधता कितनी होगी , इसको कैसे सुनिश्चित करेंगे ? ये तो बस चुनाव के पहले किये जाने वाले वायदों की तरह की बात है, पर नीति तो ऐसी नहीं होनी चाहिए ना l वह रास्ता दिखाती है की किस तरह की योजनाओं का विकास हो और कैसे हो l अब जैसे 2017 में गैर -निरोध नीति या नॉन डिटेंशन पालिसी को हटा देने की बात हुई l उसमे सुधार किये जा सकते थे, उसको पूरा का पूरा हटा देने की ज़रूरत नहीं थी l अब आप हर लेवल पर एग्जाम लाते हैं और साथ मैं एग्जिट का आप्शन लाते हैं l और यह विश्वविद्यालयों के स्तर पर ही नहीं, स्कूलों के स्तर पर भी किया जा रहा है l अब अगर डिस्टेंस और ओपेन लर्निंग के साथ इतने एक्ज़िट्स हैं तो कहाँ बच्चे पढ़ पायेंगे? काफी बच्चे तो ऐसे ही निकल जायेंगे l और ऐसी कोई रिसर्च या स्टडी नहीं है, जो कहती है की एग्जाम लेने से बच्चे ज्यादा पढ़ने लगेंगे तो एग्जाम का इतना हल्ला क्यों मचाया जा रहा है ? ये प्रणाली कक्षा तीन से ही शुरू कर दी जा रही है, तो इसमें सबसे ज्यादा कौन झेलेगा ? जो बच्चा ट्यूशन की फीस नहीं भर पायेगा या जिसके पास संसाधन नहीं होंगे या जो गरीब हैं या लड़कियां हैं वही तो सबसे ज्यादा परेशान होगा l मेरी स्टडी के आधार पर मैंने देखा है कि एक ही परिवार में कैसे लड़कों को ट्यूशन की सुविधा है और लड़कियों को नहीं है l
अपनी बात समाप्त करते हुए मैं कहना चाहूंगी कि एक बेहतर समाज के निर्माण से इस नीति में मुझे कोई ठोस कदम नज़र नहीं आ रहे हैं l महिलाओं की स्वायत्ता, उनकी आजादी, उनकी समझ कैसी हो वो काफी हद्द तक हमारी शिक्षा नीति पर निर्भर करता है और ऐसा नहीं है कि इसके बेहतरीकरण के रास्ते नहीं हैं l रास्ते पहले ही बन चुके थे पर उनको अब धीरे धीरे बंद किया जा रहा है l ऐसे में ज़रूरी है की जो पुरानी नीतियों में पॉजिटिव एलेमेंट्स या तत्त्व थे महिलाओं की शिक्षा की प्रगति के लिए, उनको कैसे बनाये रखा जाए l इस पर काम करना ज़रूरी है क्यूंकि इससे सिर्फ महिलाओं का ही नहीं बल्कि दूसरे सभी लिंगों और वर्गों की भी उन्नति हो सकेगी l साथ ही साथ हमें ये ख्याल रखने की भी ज़रूरत है की शिक्षा बाज़ार और धार्मिक, सामाजिक परम्पराओं से सीमित न हो l इन बातों पर विचार करना सभी की ज़िम्मेदारी है क्यूंकि महिलाओं की शिक्षा के बिना एक बेहतर समाज का निर्माण नामुमकिन है l
प्रस्तुति: मीनल