हाल के दिनों में सत्तासीन पार्टी की ओर से वैचारिक हमले के लिए शहरी (अर्बन) नक्सल नामक अमूर्त शत्रु को चुना गया तो अचानक लोगों को समझ नहीं आया कि यह क्या होता है । हमेशा की तरह सत्ता के कुछ चाटुकारों ने इसके बारे में किताबें लिख दीं । विवेक अग्निहोत्री नामक एक असफल फ़िल्मकार ने किताब तो लिखी ही, शहरी नक्सलों की सूची बनाने में जुट गए । उनके आवाहन पर कट्टर भाजपाइयों ने जो सूची सुझाई उसमें तमाम लेखक, अध्यापक, पत्रकार, वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल थे । विरोध में ‘हम भी नक्सल’ नारे के साथ ढेर सारे लोग सामने आए।
विवेक अग्निहोत्री की किताब की भूमिका मकरंद परांजपे ने लिखी। लेखक को तो कुछ नहीं मिला लेकिन भूमिका लेखक को शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान की बादशाहत मिल गई । अग्निहोत्री जी ने केरल की बाढ़ के लिए आर्थिक सहायता जुटाने को शहरी नक्सलवाद का काम आगे ले जाने के लिए आवरण भी बताया। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के चुनावों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने वामपंथी छात्र संगठन, आइसा के कार्यकर्ताओं पर हमला करते हुए उन्हें शहरी नक्सल बोला । इस तरह अबूझ किस्म की यह धारणा और पद राजनीति की दुनिया में प्रचलित हो गया। मामला यहीं समाप्त नहीं हुआ बल्कि पिछले दिनों ढेर सारे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को इसी आरोप में पुलिस ने गिरफ़्तार किया । वरवर राव, सुधा भाद्वाज, अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वेर्नान गोन्साल्वेज प्रसिद्ध लेखक आनंद तेलतुम्बड़े जेल में है.
विगत विधान सभा के चुनावों में देश के प्रधानमंत्री ने मुख्य विपक्षी दल पर शहरी नक्सलों के साथ हमदर्दी का आरोप लगाया। इन सबके चलते जानना जरूरी है कि आखिर इस धारणा का सिर पैर क्या है और शासक दल को इस पर हमला करने की जरूरत क्यों पड़ी ।
पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी नामक गांव में किसानों ने 1967 में विद्रोह किया था और जब उसे दबाने के लिए पुलिस आई तो किसानों ने सशस्त्र प्रतिरोध किया। यह प्रतिरोध उस समय तक प्रदेश की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं की पहल पर हुआ था। इस विद्रोह के एक सूत्रधार चारु मजुमदार उसी पार्टी के दार्जिलिंग जिले की कमेटी के सदस्य थे मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी का गठन ही कम्यूनिस्ट पार्टी की कांग्रेस के साथ समझौते की नीति के विरोध में क्रांति करने के लिए हुआ था लेकिन पार्टी के क्रांतिकारियों को नई पार्टी की नीतियों से भी बहुत आश्वस्ति नहीं मिली । नतीजतन अपनी पहल पर उन्होंने विद्रोह शुरू किया था । विद्रोह के क्रम में ये कार्यकर्ता पार्टी नेतृत्व से दूर होते गए और समूचे भारत के क्रांतिकारी तत्वों के सम्पर्क में आए ।
इस प्रक्रिया का जीवंत प्रमाण चारु मजुमदार के लिखे आठ लेखों से मिलता है जिन्हें पार्टी की पत्रिका देशव्रती में प्रकाशित किया गया था । इन लेखों को लोकप्रिय शब्दावली में ‘आठ दस्तावेज’ भी कहते हैं । इन लेखों में चारु मजुमदार ने माकपा की कतारों को क्रांतिकारी दायित्व की याद दिलाई इसी विद्रोह की ऊर्जा से अखिल भारतीय कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी समन्वय समिति का गठन हुआ। इसी समिति के आवाहन पर हुए महासम्मेलन में मार्क्सवादी लेनिनवादी कम्यूनिस्ट पार्टी का गठन हुआ । इसी पार्टी को लोकप्रिय भाषा में माले कहा जाता है।
इस धारा ने हमारे देश में कम्यूनिस्ट क्रांति के सवाल को मजबूती के साथ पेश किया। इसी के चलते तत्कालीन माहौल में युवकों में मौजूद विक्षोभ के आकर्षण का केंद्र नक्सलबाड़ी बन गया । शहरों में युवकों में ‘ग्रामे चलो’ का अभियान चला । अर्थ था कि भारत के कृषि प्रधान देश होने के कारण गांव के किसान ही क्रांति की ताकत बनेंगे । असल में नक्सलबाड़ी में जिस विक्षोभ का विस्फोट हुआ वह कोई स्थानीय परिघटना नहीं था । पश्चिम बंगाल में खाद्यान्न संकट के चलते उग्र प्रदर्शन तो हो ही रहे थे । डाक-तार और रेल में भी हड़तालों की लहर पैदा हुई थी । स्पष्ट है कि देश में शासन के विरुद्ध व्यापक विक्षोभ था । खाद्यान्न संकट का मतलब कि कृषि क्षेत्र की हालत ठीक नहीं थी । इस परिस्थिति में संगठित विद्रोह नक्सलबाड़ी में प्रकट हुआ । उस समय से अब तक जब भी शासन के विरोध में व्यवस्था के आमूल बदलाव की आकांक्षा पैदा होती है तो प्रेरणा के लिए विद्रोही इस विचारधारा की ओर देखते हैं । अपने इसी चरित्र के चलते यह आंदोलन पिछले पचास वर्षों से लगातार शासन के लिए खतरे की घंटी भी बना हुआ है ।
बहुतेरे लोग इस आंदोलन को समूची दुनिया में व्याप्त साठ के दशक का भारतीय संस्करण भी समझते हैं । इस सवाल पर मतभेद हैं क्योंकि नक्सल आंदोलन में नव-वाम की जगह मार्क्सवाद की लेनिनवादी धारा का विकास अपनाया गया । जहां नव-वाम की निरंतरता में पश्चिमी मार्क्सवाद के ढेर सारे विद्वानों का उभार हुआ वहीं नक्सल धारा ने तीसरी दुनिया के चीनी और अन्य मार्क्सवादी विचारकों से अपने को जोड़ा । नव-वाम की पश्चिमी धारा में शिक्षा संस्थानों में ही क्रांति करने की चेष्टा हुई वहीं नक्सलबाड़ी में शिक्षा संस्थानों से बाहर निकलकर किसानों से एकरूप होकर उनको क्रांतिकारी ताकत के बतौर खड़ा करने पर जोर दिया गया था । दुनिया के विद्यार्थी आंदोलनों के लिए बहुत ही अनुकरणीय इस कदम ने किसी भी मुल्क में बदलाव की प्रक्रिया में विद्यार्थी समुदाय की भूमिका को उजागर किया ।
संयोग से 2018 में ही मंथली रिव्यू प्रेस से बर्नार्ड डि’मेलो की किताब ‘इंडिया आफ़्टर नक्सलबाड़ी: अनफ़िनिश्ड हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ है । जिस समय भारत में अर्बन नक्सल का इतना प्रचार हो रहा है उस समय इस किताब का छपना मानीखेज है । लेखक जब फ़्रंटियर नामक पत्रिका में लिखने के लिए सामग्री जुटा रहे थे उस समय उनकी मुलाकात एक नक्सली कार्यकर्ता से हुई थी । उस कार्यकर्ता की मौत की खबर से किताब की भूमिका शुरू होती है । तब वे मजदूर किसान संघर्ष समिति के नेता थे । लेखक को ग्रामीण लोगों के साथ उनका घुलाव याद है । मौत के समय वे माओवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य थे । उनकी तरह के लोग ही इस किताब की प्रेरणा हैं । साथ ही लेखक ने अशोक मित्र को भी याद किया है । उनका राजनीतिक लेखन और जीवन, क्रोध, अपमान, सहानुभूति और करुणा का सागर था।
इस किताब के कुछ अध्याय पहले ही पत्रिकाओं में छपे थे या व्याख्यान के रूप में प्रस्तुत किए गए थे । लेखक नए आर्थिक माहौल में होड़ करके तरक्की की चाहत रखने वाले भारत और चीन की तुलना भी करते हैं । इसके बाद 2019 में रटलेज से रणवीर समद्दर के संपादन में ‘फ़्राम पापुलर मूवमेंट्स टु रेबेलियन: द नक्सलाइट डीकेड’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका के साथ किताब में कानू सान्याल लिखित परिशिष्ट शामिल है । इसके अलावा चार भागों में तेइस लेख संकलित हैं । पहले भाग में पचास और साठ के दशक के बंगाल की पृष्ठभूमि को स्पष्ट किया गया है । दूसरे भाग में नक्सल दशक का विश्लेषण है । तीसरे भाग में बिहार में उसके आगमन और दस साला मौजूदगी का विवेचन है । चौथे भाग में साहित्यिक-सांस्कृतिक संघर्ष की विवरणिका प्रस्तुत की गई है ।
भारतीय साहित्य के इतिहास में नक्सलवादी आंदोलन का एक विशेष स्थान है । नक्सलवाद को आम तौर पर राजनीतिक आंदोलन की हिंसक धारा के साथ जोड़ा जाता है लेकिन असल में यह स्वातंत्र्योत्तर भारत में किसानों-मजदूरों की मुक्ति का उग्रपंथी आंदोलन है । 1947 की आजादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की निष्क्रियता और पहले प्रधानमंत्री की ‘समाजवादी किस्म के समाज’ के व्यामोह में गिरफ़्तार रहकर किसी न किसी बहाने सरकार के समर्थन की पृष्ठभूमि में बंगाल के नक्सलवादी आंदोलन ने शिक्षित युवा-बौद्धिक समुदाय को तेजी से आकर्षित किया । पहले बंगाल के साहित्यिक जगत पर इसका प्रभाव पड़ा । कारण कि नक्सल नेताओं में एक सरोज दत्त खुद ही बेहतरीन कवि थे। बांगला साहित्य के बाद हिंदी साहित्य भी इसके प्रभाव में आया । हिंदी कवि धूमिल की एक कविता में सबसे पहले इसका उल्लेख मिलता है । कहने की जरूरत नहीं कि धूमिल हिंदी के आधुनिक साहित्य में खास तरह के संक्रमण का प्रतिनिधित्व करते हैं । हिंदी कविता में साठोत्तरी पीढ़ी ने अराजक विद्रोह का मुहावरा विकसित किया था जिसका गहरा असर धूमिल पर है लेकिन उनके साथ ही व्यवस्थित राजनीतिक विरोध की आवाज भी उनकी कविता में सुनाई पड़ने लगती है ।
सत्तर के दशक में नक्सलबाड़ी के प्रभाव से ऐसी चेतना का जन्म हुआ जिसमें किसानों-मजदूरों के सशस्त्र संघर्ष की छाया महसूस की जा सकती है । सबसे पहले हिंदी में आलोक धन्वा की कविताओं खासकर ‘गोली दागो पोस्टर’ और ‘जनता का आदमी’ में इसे देखा और सराहा गया । नक्सल आंदोलन जिस संकट के चलते उपजा था उसे हल न कर पाने और विक्षोभ का दमन करने के लिए देश में इमर्जेंसी की घोषणा हो गई । इमर्जेंसी के उस दौर में भी दूर दराज के इलाकों में ये कवि सक्रिय थे, प्रतिबंधों के चलते उनकी आवाज तत्काल नहीं सुनाई पड़ी लेकिन इमर्जेंसी की समाप्ति के बाद इनका प्रभाव बहुत ही गहरा पड़ा । इसके पीछे इमर्जेंसी की समाप्ति के बाद फैले लोकतांत्रिक उभार का भी बड़ा योगदान था । इमर्जेंसी की पुनरावृत्ति न हो इस हेतु सचेत तौर पर नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए बहुतेरे संगठनों का निर्माण हुआ था ।
जो लोग उस अंधकार में भी लिख रहे थे उनमें से एक कवि गोरख पांडे का जिक्र इसलिए भी जरूरी है कि इस धारा के सांस्कृतिक संगठन ‘जन संस्कृति मंच’ के वे संस्थापक महासचिव थे । शुरू में उनके भोजपुरी गीत प्रकाशित हुए जिनमें संघर्षशील श्रमिक जनता की पीड़ा और आकांक्षा की अभिव्यक्ति उनकी अपनी भाषा में हुई थी । उस दौर में गोरख के ये भोजपुरी गीत इतने लोकप्रिय थे कि स्थानीय लोग बिना लेखक का नाम जाने भी उन्हें गाते थे । ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले’ तथा ‘जनता के आवे पलटनिया, हिलेले झकझोर दुनिया’ जैसे गीत आज भी संघर्षशील लोगों की जुबान पर रहते हैं । उनका गीत ‘समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई’ शासकों के आश्वासन की खिल्ली उड़ाता है और ‘छोटका के छोटहन, बड़का के बड़हन’ कहकर मारक व्यंग्य के साथ समाजवाद के नाम पर स्थापित असमानता के यथार्थ को उद्घाटित करता है. उनकी हिंदी कविताओं में भी छंद और लय की मौजूदगी के चलते उन्हें अपार लोकप्रियता हासिल हुई ।
एक कविता द्रष्टव्य है ‘कविता युग की नब्ज धरो ।/ अफ़्रीका लातिन अमेरिका,/ उत्पीड़ित हर अंग एशिया ,/ आदमखोरों की निगाह में खंजर सी उतरो ।/ उलटे अर्थ विधान तोड़ दो,/ शब्दों से बारूद जोड़ दो,/ अक्षर अक्षर पंक्ति पंक्ति को छापामार करो ।/ श्रम की भट्ठी में गल गलकर,/ जग के मुक्ति अर्थ में ढलकर,/ बन स्वच्छंद सर्वहारा के ध्वज के संग लहरो ।’ गोरख पांडे ने क्रांतिकारी राजनीतिक कविता का जो लोकप्रिय मुहावरा विकसित किया, वह इस धारा के लगभग सभी कवियों की विशेषता बन गई ।
हिंदी में नक्सलबाड़ी के प्रभाव से क्रांतिकारी साहित्य का जो माहौल बना उसके कारण नागार्जुन और त्रिलोचन जैसे सृजनशील प्रगतिशील कवि प्रासंगिक बने । नागार्जुन ने तो कुछ कविताओं के जरिए इस आंदोलन का अभिनंदन भी किया । उनकी छोटी सी कविता ‘प्रतिहिंसा ही स्थायिभाव है मेरे कवि का’ एक तरह से प्रतिरोध की हिंसा का अनुमोदन करती है । उन्हीं की कविता ‘भोजपुर’ हिंदी क्षेत्र में नक्सलवादी आंदोलन का केंद्र बन चुके जिले पर लिखी हुई है और उस भावना को भी अभिव्यक्त करती है । ‘बारूदी छर्रे की खुशबू’ और ‘यही धुँआ’ उनके कवि को ताकत देता है ।
इनकी कविताओं की प्रसिद्धि ने लोकतंत्र के पक्ष में कविता लिखनेवाले रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लोहिया के विचारों से प्रभावित कवियों को भी चर्चा के केंद्र में ला दिया । इसमें से खासकर सर्वेश्वर ने तो दो नक्सल नेताओं- किष्टा गौड़ और भूमैया- की फाँसी के विरोध में कविता भी लिखी और सवाल पूछते हुए कहा ‘चाक कर जो अजदहों का पेट बाहर आ गये, ऐसे दीवाने वतन यूँ ही गँवाए जायेंगे !’ उनकी कविताओं की मांग ही नहीं बढ़ी, उनमें एक क्रांतिकारी तेवर भी दिखाई पड़ा । ‘कुआनो नदी’ की अधिकांश कविताओं में यह विद्रोही भाव प्रतिबिंबित हुआ ।
उसी माहौल में जिन्होंने कविता लिखना शुरू किया था लेकिन एक पीढ़ी बाद के थे उनमें बल्ली सिंह चीमा ने विपक्ष की कविता की दुष्यंत की याद ताजा कर दी । उन्हीं के साथ के अदम गोंडवी ने लिखा ‘ये नयी पीढ़ी पे मबनी है वही जज्मेंट दे ।/ फ़लसफ़ा गाँधी का मौजूँ है के नक्सलवाद है ॥’ लोकप्रिय लेखन की इस परंपरा में ही भोजपुरी के रमता जी और निर्मोही जैसे लोककवि भी शामिल थे । लेकिन इनसे अलग भी वीरेन डंगवाल, कुमार विकल, दिनेश कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल, पंकज सिंह आदि कवियों ने हिंदी कविता की नक्सल परंपरा की अजस्र धारा को जिंदा रखा है । इस क्रम में उसका फलक विस्तृत हुआ है और पर्यावरण, बेदखली, जाति उत्पीड़न, स्त्री मुक्ति जैसे अन्य सरोकार भी उसकी सीमा में दाखिल हुए हैं ।
कविता के अतिरिक्त कथा साहित्य में विजेंद्र अनिल और मधुकर सिंह की ढेर सारी कहानियों, संजीव के उपन्यास ‘आकाश चंपा’ में और विशेष रूप से सृंजय की कहानी ‘कामरेड का कोट’ में भी इस धारा का साहित्यिक योगदान देखा जा सकता है ।
बांग्ला में नक्सलवादी आंदोलन के प्रभाव से साहित्य-संस्कृति की दुनिया में जो आलोड़न पैदा हुआ उसे ‘मूर्तिभंजन’ के नाम से जाना जाता है । बांग्ला नवजागरण की मूलगामी आलोचना के प्रतीक के रूप में उस नवजागरण के पुरोधाओं की मूर्तियों को तोड़ा गया था । इसे साठ के दशक में दुनिया भर में हो रही सांस्कृतिक क्रांति के भारतीय संस्करण के बतौर भी समझा गया । लेकिन हिंदी में ऐसा कोई मूर्तिभंजन नहीं चला । इसका एक कारण बांग्ला नवजागरण और हिंदी नवजागरण की स्थिति का अंतर भी था । जहां बंगाल में प्रभुत्वशाली संस्कृति के निर्माण में नवजागरण के पुरोधाओं को समाहित कर लिया गया था और इसी कारण प्रगतिशील लेखक संघ का गठन तक नहीं हो सका था, वहीं उसके विपरीत हिंदी क्षेत्र के नवजागरण के पुरोधा प्रभावशाली तबकों द्वारा उपेक्षित रहे थे और मजबूत प्रलेस का गठन हुआ था । इसी कारण हिंदी क्षेत्र में उसके प्रभाव ने जन पक्षधर साहित्यिक हलचलों को मजबूती प्रदान की ।
बांगला और हिंदी के अतिरिक्त देश की एक और भाषा पंजाबी पर भी इसका प्रभाव पड़ा । इस भाषा में लिखे नक्सल साहित्य की सर्वोत्तम उपलब्धि ‘पाश’ थे । उत्तरी भारत से बाहर आंध्र में श्रीकाकुलम का विद्रोह भी नक्सलबाड़ी के प्रभाव में पैदा हुआ था । श्रीकाकुलम विद्रोह ने प्रगतिशील आंदोलन के प्रभाव से बने संगठन ‘विरसम (विप्लवी रचयितालु संघम)’ को पूरी तरह अपने प्रभाव में ले लिया । इसी विद्रोही धारा की जीवित कड़ी गद्दर और वरवर राव हैं जिन्हें शासन की ओर से लगातार परेशान किया जाता है ।
सिद्ध है कि सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के साथ साहित्य में भी नक्सल धारा की उपस्थिति बनी हुई है।
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