10 मार्च 1989 को बिहार के कोने-कोने से आए हजारों-हजार गरीब-गुरबों से पटना का गाँधी मैदान सुसज्जित था। लाल-लाल झंडे लहरा रहे थे और ‘आई. पी. एफ. की है ललकार/ नया भारत नया बिहार’, ‘कॉमरेड वीरेंद्र विद्रोही को रिहा करो’ जैसे नारों से गाँधी मैदान सहित पटना के मुख्य मार्ग गुंजायमान थे। मैं भी उस रैली का हिस्सा था। मेरे जीवन की वह पहली रैली थी जिसमें मैं न केवल शामिल था, बल्कि अपने प्रखंड की टीम का नेतृत्व भी कर रहा था। उस रैली के लिए लोग 09 मार्च को ही निकल पड़े थे और शाम होते-होते गाँधी मैदान जनवासे में तब्दील हो चुका था। जाड़ा लगभग जा चुका था। बस उसकी उतरन रह गई थी। हम सब एक-एक चादर और रात और सुबह के खाने के लिए रोटी, लिट्टी घर से लेकर आए हुए थे। गाँधी मैदान का मंच 9 मार्च की शाम से ही गुलजार था। आवश्यक सूचनाएँ और निर्देश उस मंच से समय-समय पर दिए जा रहे थे।
मेरा ध्यान मंच की ओर था। कुर्ता-पैजामा में हल्की दाढ़ी वाले एक युवक को मैं देख-सुन रहा था। वह गा रहा था- ‘माई गोहरावईं उठs ललनवा हो..।’ गायन की पूरी टीम थी मंच पर। देर रात तक गायन चलता रहा -‘किया तोरे घटलऊ बेटा दूध-भात कटोरवा गे जान..।’ पी.एच. डी. के लिए जब बी.एच. यू. आया और ए.बी.हॉस्टल, कमच्छा में रहना शुरू किया तो 09 मार्च1989 की शाम वाले उस दाढ़ी और कुर्ता-पाजामा वाले गायक सरीखा एक युवक उस हॉस्टल में सहसा दिख गया। दो-चार दिन गुजरते-गुजरते राम-सलाम करते सब पूछ डाला और यह कन्फर्म हो लिया कि यह वही युवक है जो उस शाम मंच से ‘माई गोहरावईं’ वाला गीत गा रहा था। यहीं पर मालूम हुआ कि उनका नाम नरेंद्र कुमार था। वह शख्स अब नहीं है।
लखनऊ से अपने गाँव दवनपुर, सोदिया जाते वक्त 16 जून 2002 को बस दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। उनका गाँव दवनपुर, सोदिया प्रयागराज के करछना तहसील में है। तब वे अमर उजाला में कार्यरत थे। 1995 में उनकी शादी लखनऊ में चर्चित कवि और संस्कृतिकर्मी कौशल किशोर की भगिनी आरती श्रीवास्तव से हुई थी। नरेंद्र का जन्म 04 अप्रैल 1964 को हुआ था। उनकी माता का नाम शांति देवी और पिता का नाम संगमलाल श्रीवास्तव है। उनको एक पुत्र भी है जिसका नाम अभिनय कुमार है।
नरेंद्र ने प्रो.अवधेश प्रधान के निर्देशन में बी.एच. यू. के हिंदी विभाग से ‘समकालीन हिंदी कविता में विद्रोह की चेतना’ विषय पर शोधकार्य कर पी.एचडी. की उपाधि भी हासिल की थी। वे हिंदी और अवधी के एक उभरते हुए कवि-गीतकार थे। उनका जीवन महज 38 वर्षों का रहा। उनकी एक कविता-पुस्तक है- ‘अब होगी बरसात’। इस संग्रह में हिंदी-गजलों -गीतों के साथ-साथ अवधी के भी गीत हैं। यह संग्रह जन संस्कृति प्रकाशन, खुसरोबाग रोड, इलाहाबाद से 1990 में प्रकाशित हुआ था। आवरण-चित्र मशहूर कलाकार और कला-समीक्षक अशोक भौमिक का है और भूमिका मशहूर आलोचक मैनेजर पांडेय की लिखी हुई है जिसका शीर्षक है- ‘ वसन्त की आगवानी के गीत ‘। वे एक ऐसे कवि-गीतकार थे जिनका सम्बन्ध जन संस्कृति मंच से था और भोजपुर सहित देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे किसान-मजदूर आंदोलनों से भी लगाव था। वे उन आंदोलनों और उनसे हासिल अनुभवों को गीतों-गजलों में पिरो रहे थे। आमजन की बदहालियों और शासन-व्यवस्था की मनमानियों को कविता का विषय बना रहे थे।
ए. बी.हॉस्टल के जिस कमरे में वे रहते थे, उसको कभी व्यवस्थित नहीं देखा। सब कुछ बिखरा-बिखरा रहता था। पत्रिकाएँ, पुस्तकें सब बिखरी-बिखरी। उसी कमरे में पहली बार मैंने मनमोहन पाठक का बहुचर्चित उपन्यास ‘ गगन घटा घहरानी ‘ देखा था। हंस, वर्तमान साहित्य, कतार, प्रसंग, पहल, समकालीन जनमत, जन संस्कृति, नई पीढ़ी आदि कई पत्रिकाएँ बिखरी पड़ी थीं। पर, उनको जब भी देखा कुछ गुनगुनाते हुए देखा। मेरा परिचय उनसे नया-नया था जो संगठन और विचार की एकता के चलते घनिष्ठता में बदलता जा रहा था। पर,अफसोस कि उसके लिए समय नहीं मिल सका। 1993 के बाद नरेंद्र ने लगभग बनारस छोड़ ही दिया था।
जो गीत गाँधी मैदान के मंच से सुना था वह इस संग्रह में शामिल है। यह गीत 10 दिसम्बर 1983 का लिखा हुआ है। संग्रह की प्रत्येक गजल और गीत के नीचे रचना-तिथि भी दी गई है। इसमें 1982 से 1990 तक के गजल-गीत हैं। रचना-तिथि के साथ रचना-स्थान अंकित होने से कई सूचनाएँ मिल जाती हैं। किसानों और आदिवासियों के बीच कुछ समय तक कार्य करने के अनुभव भी थे नरेंद्र को। वह कार्य करते उनको जेल भी जाना पड़ा था। नरेंद्र की गजलें उस समय पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित हो रही थीं। उनकी बहुत-सी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में होंगी। बहुत-सी उनकी निजी नोटबुक्स वगैरह में होंगी।
संग्रह की भूमिका में मैनेजर पांडेय ने उनकी गजलों को अदम गोंडवी की परंपरा से जुड़ी हुई कहा है। पांडेय जी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है -“वैसे अच्छी गजल कहना जितना मुश्किल है, खराब गजल कहना उतना ही आसान है; इसलिए हिंदी में खराब गजलों की भरमार है। नरेंद्र कुमार की गजलों में भी कच्चापन है, लेकिन उनकी जमीन नई और अनुभूतियों में सहजता है, इसलिए वे आकर्षक लगती हैं। ये गजलें अदम गोंडवी की परंपरा से जुड़ी हुई हैं।”
नरेंद्र हिंदी और अवधी दोनों के गीतकार थे। इस संग्रह में दोनों ही भाषाओं के गीत हैं। पांडेय जी लिखते हैं- ” नरेंद्र के हिंदी गीतों का अपना रूप-रंग है, इनमें कई में गजलों से अधिक जान है।” उनके अवधी के गीतों के बारे में उन्होंने लिखा है- ” नरेंद्र की प्रगीत-प्रतिभा का सहज रूप उनके अवधी गीतों में मिलता है।” और उनका यह भी कहना है कि “नरेंद्र के अवधी गीतों में संघर्षशील किसानों की आवाज सुनाई देती है, लेकिन उस आवाज का अंदाज एक ऐसे कलाकार का है जो किसान आंदोलन का कर्मठ कार्यकर्ता भी है। ये गीत वसंत की आगवानी के गीत हैं।”
बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा कि हिंदी और अवधी के गजलों-गीतों पर बात करने वाले नरेंद्र से लगभग अपरिचित हैं। अवधी के कुछ युवा कवियों से बातचीत में जब मैंने नरेंद्र कुमार का नाम लिया और कुछ पंक्तियाँ सुनाई तो वे चौंक पड़े। संग्रह का नाम लिया तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गईं। तो, कुल मिलाकर कहना यह है कि यह सब होता रहा है इस संसार में। सब कुछ यहाँ सम्भव है। किसी का चर्चा में आना, रहना और छूट जाना भी। फिर, छूटे हुए का चर्चा में आ जाना भी।
नरेंद्र जब गीत रच रहे थे, उस वक्त तक गोरख पांडेय और विजेंद्र अनिल के गीत भोजपुर सहित देश के अन्य हिस्सों में न केवल पहुँच चुके थे, बल्कि आंदोलनों के कंठहार बन चुके थे। अपनी-अपनी मातृभाषाओं में जुझारू जनता के बीच के रचनाकार गीत-गजल रच रहे थे। गीतों में जनता की माली हालत, जनसंघर्षों की जरूरत, उनके औचित्य, टेकनीक, संघर्ष के सौंदर्य आदि को अभिव्यक्त कर रहे थे। कुछ नफासतपसन्द ऐसे गीतों को ललकार, आवाहन आदि के गीत कहकर उनके सौंदर्य और महत्व को खारिज कर रहे थे। गोरख के गीतों को लेकर भी उनके इसी तरह के विचार थे। पर, वे गीत थे कि जन के बीच गहरे पैठ चुके थे और अपनी सार्थकता रच रहे थे। भोजपुरी, मगही, अवधी जैसी भाषाओं में इस तरह के गीत रचे जा रहे थे।
नरेंद्र के हिंदी सहित अवधी के गीत भी उसी दौर के हैं। नरेंद्र के अवधी के गीतों पर गोरख के भोजपुरी गीतों का प्रभाव है और इसे नरेंद्र ने खुद स्वीकार भी किया है। उनका गोरख पांडेय से भी कई बार मिलना-जुलना रहा है।
बाबा नागार्जुन की एक बहुचर्चित कविता है ‘भोजपुर’। बाबा ने भोजपुर के किसान-आंदोलन के प्रति अपनी सम्बद्धता और प्रतिबद्धता इस कविता में प्रकट की है। नरेंद्र का भी एक अवधी गीत है जिसमें भोजपुर के किसान-आंदोलन के प्रभाव की गूँज है-
” हमका भोजपुर से चुनरी मँगावs पिया
खून में रँगावs पिया ना।
नान्ह चिरइन के डेरा
डाले बाज बा बसेरा
अपने हथवा धनुहिया उठावs पिया
खून में रँगावs पिया ना।”
इस संग्रह में अवधी के 17 गीत हैं। एक गीत जिसका शीर्षक है ‘ कहाँ ग बिहान पिया।’ नरेंद्र इस गीत को खूब झूमकर सुनाते थे। आजादी के बाद आम आदमी, खासकर मजदूरों-किसानों की जीवन-स्थितियों में लंबे समय तक कोई बदलाव नहीं आता है। नरेंद्र लिखते हैं-
“जबसे मिली आजादी- ढेर बढ़ी बरबादी
दूनो जून नाहीं खाइ के ठेकान पिया
कहाँ ग बिहान पिया ना।”
इस गीत में आजादी के बाद की असह स्थितियों की केवल तीखी आलोचना ही नहीं है, अपितु जनगोलबन्दी और जनसंगठन की जरूरत को भी महसूस किया गया है। भूमिहीनों को भूमि संगठन और संघर्ष से ही हासिल हो सकती है। इज्जत-प्रतिष्ठा भी-
“आपन संगठन बनावs घर-गाँव के जगावs
तबई होये सबके खेत-खलिहान पिया
कहाँ ग बिहान पिया ना।”
जिस खेत-खलिहान की बात इस गीत में है, वह यूँ ही नहीं आई है। भूमि के सवाल को लेकर भोजपुर सहित पूरे बिहार में 1980 के बाद आंदोलनों और संघर्षों की निरंतरता देखी जा सकती है। इस संघर्ष में अनेक अगुआ नेताओं और कार्यकर्ताओं को शहादतें भी देनी पड़ी हैं।
गोरख भी ‘सपना’ गीत (भोजपुरी) में लिखते हैं –
‘ अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा
त खेत भइलें आपन हो सखिया।’
इस बात को भोजपुरी के कवि दुर्गेन्द्र अकारी थोड़ा और फरियाकर कहते हैं-
“दमन कतनो चलइबs रोके हमनी के ना पइबs
जाही दिन जिए मरे के तैयार होई
हई बड़का टोपरवा हमार होई।”
नरेंद्र अपने गीत में इसी अर्थ में संगठन बनाने और घर-गाँव के जगने-जगाने की बात करते हैं। यहाँ यह कहने की जरूरत समझ में आ रही है कि वह दौर ही ऐसा था कि भोजपुरी और अवधी के कवि एक भावभूमि, एक वैचारिक जमीन के गीत रच रहे थे।
नरेंद्र को अवधी लोकगीतों की अच्छी समझ थी। ‘छापक पेड़ छिउलिया’ वाला सोहर जिसमें हिरनी कौशल्या से निवेदन करती है, सुनाते वक्त भाव विभोर हो उठते थे।उन्होंने सोहर, कजरी आदि के फॉर्म को गीत-रचना में अपनाया भी है। सोहर के फॉर्म में एक गीत है -‘खुनवाँ पुकारइ बीरन जागउ’। यह सामान्य पुकार नहीं है। इस गीत में खून पुकार रहा है। खून की यह पुकार वर्गीय एकता की पुकार है। इस पुकार में एक आग्रह है, एक आवाहन है जो हमारी समग्र चेतना को झकझोर देने में समर्थ है। इस पुकार में वंचित-शोषित वर्ग की पीड़ा और प्रतिकार की मार्मिक अभिव्यक्ति हो पाई है-
“जोति-बोइ करेउँ किसनियाँ
बखार मलिका भरतेउँ हो।
लिखी तोहरे लिलारे भुखमरिया
बेगारी कबले खटिबउ हो।”
नरेंद्र के गीतों में गोहार, पुकार, निवेदन बारम्बार मिलेंगे।ये विजेंद्र अनिल के यहाँ भी हैं। गोरख के यहाँ भी। ऐसा जनांदोलनों से जुड़ाव से सम्भव है। गोरख पांडेय अपने एक गीत में कहते हैं- ‘होइहें गरीबे गरीब के सहाई।’ नरेंद्र के गीत भी इसी वर्गीय चेतना, विश्वास और उम्मीद के गीत हैं। अवधी की किसान कविता में भी पूरब की दिशा में ‘लोही’ लगती है और भोजपुरी कविता में भी। दोनों ही भाषाओं के कवियों को इस ‘लोही’ की पहचान है। कविता में जिस ‘लोही’ की पहचान है उसमें जनसंघर्षों की ‘लाली’ सम्मिश्रित है। नरेंद्र की कविताओं में बरसात से वसन्त तक की, रात से प्रात तक कीअंतर्यात्रा है। प्रकृति के अनेक रंग-रूपों का गहन निरीक्षण है और कविताओं में उसका सधा हुआ प्रयोग है। वे समझते हैं कि वर्षा होगी तभी वसन्त आकार ले पायेगा।
नरेंद्र की अनेक गजलें और गीत हिंदी में हैं। संग्रह का शीर्षक गीत ‘अब होगी बरसात’ हिंदी में है। आजादी के बाद बाहर कुछ और भीतर कुछ और का खेल खूब चला है। संविधान और लोकतंत्र के नाम पर जो हो रहा है वह इस प्रकार है –
“संविधान की ओढ़ चदरिया
रखके अपना नाम अँजोरिया
चुपके-चुपके उतर पड़ी है
देखो काली रात- हमारे आँगन में।”
नरेंद्र की अप्रकाशित रचनाओं को खोज-जुटाकर उनका प्रकाशन जरूरी है। अच्छी बात है कि उनकी अधिकांश रचनाएँ उनकी पत्नी आरती के पास सुरक्षित हैं। अवधी के उनके और भी गीत होंगे। अवधी कविता पर काम करनेवाले साहित्यकारों को नरेंद्र की सुधि अवश्य लेनी चाहिए। अवधी कविता के जनधर्मी अध्याय में नरेंद्र की कविताएँ बहुत कुछ जोड़ने में समर्थ हैं।
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संदर्भ:
* अब होगी बरसात- नरेंद्र कुमार, जन संस्कृति प्रकाशन, इलाहाबाद।
* लोहा गरम हो गया है- गोरख पांडेय, जन संस्कृति मंच।
* हमार सुनीं- रमाकांत द्विवेदी रमता, समकालीन प्रकाशन,पटना।
* चाहे जान जाए- दुर्गेन्द्र अकारी,समकालीन प्रकाशन, पटना।