महेश चंद्र पुनेठा
वर्ष 2000 के आसपास की बात है डी0पी0ई0पी0 के अंतर्गत सेवारत शिक्षक प्रशिक्षण में मुख्य संदर्भ व्यक्ति के रूप में काम करने का अवसर मिला। शिक्षण में नए-नए प्रयोगों से परिचित होने की एक तरह से शुरूआत हुई। प्रशिक्षण पैकेज में तमाम नवाचारों में से एक, ‘बाल अखबार’ भी था।लिखने-पढ़ने का शौक होने के कारण यह मुझे बहुत पसंद आया।अपनी रूचि के बहुत करीब लगा। मुझे लिखने-पढ़ने की गतिविधियां बचपन से ही बहुत आकर्षित करती रही हैं।लेखक बनने की एक छटपटाहट बचपन से ही मन रही ,लेकिन कभी कोई ऐसा मंच तथा मार्गदर्शन नहीं मिला कि वह बाहर आ पाए। हमेशा यह अहसास बना रहा कि काश! कोई होता जो इस दिशा में कुछ मार्गदर्शन करता।
मैंने प्रशिक्षण के दौरान इस गतिविधि पर विशेष रूप से फोकस किया। मुझे लगता था बच्चों में रचनात्मकता के विकास के लिए यह बहुत उपयोगी गतिविधि है। प्रशिक्षण के दौरान प्रतिदिन किसी एक प्रतिभागी द्वारा बाल अखबार तैयार कर प्रस्तुत किया जाता था ,जिसे एक चार्ट पेपर पर रचनाएं लिखकर तैयार किया जाता था। इस पर सभी प्रतिभागी अपनी-अपनी प्रतिक्रिया देते थे। इस बात पर विशेष बल रहता था कि बाल अखबार को और बेहतर बनाने के लिए उसमें और कौन-कौन से स्तम्भ होने चाहिए? ऐसा क्या किया जाय कि उसमें बच्चों को अधिक से अधिक करने के अवसर मिल सकें क्योंकि बच्चे सबसे अधिक आनंद खुद करने में महसूस करते हैं।
प्रशिक्षण से लौटने के बाद मैंने भी अपने विद्यालय में बाल अखबार का प्रयोग प्रारम्भ किया। विभिन्न बाल पत्रिकाओं से अच्छी-अच्छी रचनाएं ढूंढकर इसे तैयार करता। कोशिश रहती कि बच्चों को विविध प्रकार की सामग्री पढ़ने के लिए उपलब्ध कराई जाय।उन दिनों अमर उजाला, दैनिक जागरण,उत्तर उजाला आदि दैनिक समाचार पत्रों में बच्चों के लिए साप्ताहिक पन्ने आते थे जिन्हें मैं संकलित करके रख लिया करता था जब ‘बाल अखबार’ नहीं तैयार कर पाता तो उन्हें ही दीवार पर चिपका देता था। बच्चे बाल अखबार को पढ़ने में बहुत रूचि लेते थे। इसमें दी गई माथापच्ची, वर्ग पहेली, अंतर ढूंढो जैसी गतिविधियों में बच्चे खूब आनंद लेते थे लेकिन एकल अध्यापकीय स्कूल में शिक्षणेत्तर कार्यों के बोझ के चलते यह उपक्रम बहुत अधिक लंबा नहीं चल पाया। इसकी सीमा यह थी कि इसे पूरी तरह तैयार कर मुझे ही प्रस्तुत करना होता था। बच्चों के लिए सादे चार्ट पेपर पर लिखना आसान नहीं था। कुछ अपने अनुभव की कमी कहूँगा कि बच्चों की भागीदारी इसमें नहीं करवा पाया। न बच्चों में पुस्तकालय के इस्तेमाल की आदत विकसित कर पाया।
आज लगता है कि यदि बच्चों को पुस्तकालय से जोड़ा होता तो शायद बच्चों की भागीदारी संभव थी। फिर भी जब समय मिलता तो कभी-कभार तैयार कर लेता।धरातल में न सही लेकिन मेरे खयालों में यह बनी रही। मैं उसमें नयापन लाने के बारे में हमेशा सोचता रहता।
मौजूदास्वरूप में पहली दीवार पत्रिका, मैंने कपड़े पर कागज पर लिखी रचनाएं चिपका कर तैयार की, जिसके लिए एक पुराने बैनर का उपयोग किया। इसके ऊपरी और निचले सिरे पर रोलर बोर्ड की भांति दो डंडों का इस्तेमाल किया। वह बहुत आकर्षक बनी। बच्चों ने भी खूब पसंद की, लेकिन उसकी सीमा यह थी कि नए अंक को तैयार करने के लिए पुरानी रचनाएं नष्ट करनी पड़ती, जो मुझे अच्छा नहीं लगा। रोलर बोर्ड में भी यह प्रयोग किया लेकिन उसकी भी यही सीमा थी। मैं बच्चों की हर रचना को संभाल कर रखना चाहता था। हर अंक नए कपड़े या रोलर बोर्ड पर तैयार करना बहुत खर्चीला भी था। प्रारंभिक कक्षाओं के बच्चों के लिए उसे तैयार कर पाना भी बहुत आसान नहीं था। यह प्रयोग भी कभी-कभार तक ही सीमित रहा।नियमित स्वरूप से नहीं ग्रहण कर पाया।
वर्ष 2009 में ,मैं राजकीय इंटर कालेज देवलथल में आया। यहां पर मुझे माध्यमिक कक्षाओं में बच्चों के साथ दीवार पत्रिका पर काम करने की अच्छी संभावना लगी। जो सही साबित भी हुई। पहला अंक मैंने रोलर बोर्ड पर तैयार किया। नाम रखा ‘नवांकुर’। इस अंक में मैंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से स्तरीय रचनाओं का संकलन कर उन्हें कंप्यूटर में टाईप कर रोलर बोर्ड में चिपकाया। दूसरे दिन स्कूल की दीवार पर लगाया लेकिन बच्चों ने कोई खास रूचि नहीं दिखाई। कुछ कक्षाओं में मैंने बच्चों से उसको पढ़कर प्रतिक्रिया लिखने को भी कहा लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।मुझे निराश हुई। बहुत दिनों तक निष्क्रिय पड़ा रहा। मुझे लगा यह काम आगे नहीं बढ़ पाएगा, लेकिन एक बेचैनी बनी रही। कुछ शिक्षक साथियों की प्रतिक्रिया जरूर उत्साहजनक थी। उन्हें यह प्रयोग अच्छा लगा। उन्होंने प्रशंसा भी की।
फिर एक दिन कक्षा 12 में हिंदी के आवेदन में शमशेर बहादुर सिंह की ‘उषा’ कविता पढ़ा रहा था ,उसके अभ्यास कार्य के अंतर्गत बच्चों से कविता बनाकर कक्षा में काव्य पाठ का आयोजन करने संबंधी एक गतिविधि थी। प्रातःकालीन दृश्य पर एक कविता लिखनी थी। मैंने बच्चों से लिखने को कहा। कुछ बच्चों ने अच्छी कविताएं लिखी थी। मैंने उन्हें कुछ सुझाव देते हुए अगले दिन पुनः घर से लिख लाने को कहा। दूसरे दिन बहुत सारे बच्चे अच्छी कविता तैयार कर लाए। कक्षा में काव्य पाठ का आयोजन किया गया। मैंने सारी कविताएं जमा करवा ली। उन कविताओं से ‘नवांकुर’ का दूसरा अंक काव्य विशेषांक के रूप में निकाला। इस तरह एक बार फिर सिलसिला प्रारम्भ हो गया।
दूसरे दिन इंटर विज्ञान वर्ग में पढ़ने वाली छात्रा रश्मि बसेड़ा को संपादक बनाया गया। लेखन में उसकी रूचि होने के कारण वह तैयार हो गई। उसने अपना काम संभालते हुए कुछ और बालिकाओं को अपने साथ जोड़ा। सभी कक्षाओं में जाकर मैंने व्यक्तिगत रूप से बच्चों से अपनी रचनाएं देने का अनुरोध किया। बच्चों को लेखन के महत्व के बारे में बताया गया। क्यों, क्या और कैसे लिखना चाहिए? के बारे में कुछ टिप्स भी दिए, लेकिन परिणाम बहुत उत्साहजनक नहीं रहा। गिने-चुने बच्चों ने ही अपनी रचनाएं दी। संपादक मंडल के साथियों ने ही एक-एक,दो-दो रचनाएं तैयार कर अगला अंक निकाला। इस अंक का नाम भी बदल दिया गया। अब उमंग नाम से दीवार पत्रिका निकलने लगी। शिक्षक-अभिभावक संघ की एक बैठक में उसका लोकार्पण किया गया। रश्मि के भीतर उत्साह भी था और प्रतिभा भी। आगामी दो-तीन अंकों तक वह स्वयं बहुत कुछ लिखकर अंक निकालती रही। मैं उसे मदद करता। प्राप्त रचनाओं को चार्ट पर चिपकाने में भी मेरा सहयोग रहता था। विज्ञान वर्ग की छात्रा होने के कारण रश्मि के पास समय कम ही रहता था। शायद उसके कुछ विषयाध्यापकों को भी यह काम पसंद नहीं आ रहा था जिसका उसने अपने मेरे नाम लिखे एक पत्र में थोड़ा संकेत भी किया था बावजूद इस सबके रश्मि कभी-कभार ही सही लेकिन ‘उमंग’ के अंक निकालती रही। बाद में मुझे लगने लगा कि वह मेरा मन रखने के दबाव में ऐसा कर रही है। यह सामूहिक प्रयास न होकर व्यक्तिगत बनकर रह गया।
इस पर रश्मि के साथ विचार-विमर्श कर निर्णय लिया कि इसके लिए बच्चों का एक समूह तैयार किया जाय। इस उद्देश्य से 6 से 12 तक की प्रत्येक कक्षा से ऐसे बच्चों का चयन किया गया जो अपनी कक्षा में पढ़ाई में सबसे बेहतर माने जाते थे।कुछ ऐसे बच्चों को भी चुना गया जिनका हस्तलेख बहुत सुंदर था। उन बच्चों को भी शामिल किया गया जिनकी चित्रकला अच्छी थी। पूरे विद्यालय के लगभग 30-35 बच्चों का एक समूह गठित किया गया जिसे ‘बाल बौद्धिक प्रकोष्ठ’ नाम दिया गया। समय-समय पर इनकी बैठकें आयोजित की गई ,जिसका संचालन बच्चों द्वारा ही किया जाता था। इस समूह ने आपस में बातचीत कर आम सहमति से दस सदस्यीय संपादक मंडल का गठन किया। आपस में भूमिकाओं का वितरण किया गया। अलग-अलग स्तम्भ की जिम्मेदारी अलग-अलग बच्चे को दे दी गई। कोई कहानी-कविता तो कोई चुटकले-पहेलियों , कोई विज्ञान की तो कोई खेल से संबंधित सामग्री का संकलन करता। अब सामग्री संकलन-चयन से लेकर चार्ट में चिपका कर उसे पत्रिका का स्वरूप प्रदान करने की सारी जिम्मेदारी यही समूह करने लगा। कक्षा 11 के छात्र अंकित चौहान को संपादक की भूमिका सौंपी गई। महीने में एक अंक निकलने लगा, लेकिन अभी भी जैसा मैं चाहता था वैसा नहीं हो पा रहा था। बच्चों की भागीदारी बहुत कम ही थी। साभार सामग्री अधिक छप रही थी। विविधता भी कम ही थी। संतोष इस बात का था कि क्रम जारी रहा। बच्चों को स्वयं रचना तैयार करना बहुत कठिन काम लगता था। मैं उन्हें निरंतर प्रोत्साहित करता रहा। उनसे बातचीत जारी रखी। उन्हें पढ़ने के लिए बाल साहित्य देता रहा। उसके महत्व से उन्हें अवगत कराता।
हिंदी शिक्षण के दौरान भी उन्हें अपने विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए प्रोत्साहित करता। छोटी-छोटी कविताएं ,कहानियाँ,निबंध, लेख ,यात्रा वृत्तांत , जीवन-प्रसंग आदि तैयार करवाता। समय-समय पर विद्यालय में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों और आसपास की घटनाओं की रिपोर्टिंग करने के लिए कहता। बेहतर रचनाओं को दीवार पत्रिका में प्रस्तुत किया जाता। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का जो भी अवसर मिला उसका उपयोग किया गया।
यूनिट टेस्ट में हिंदी में बच्चों को ऐसे विषयों पर लिखने के लिए कहा गया जिसमें वे अपने अनुभव से बहुत कुछ लिख सकते हैं। जैसे, एक बार कक्षा नौ के बच्चों से कहा गया कि अपने जीवन के किसी ऐसे प्रसंग पर लिखें ‘जब उन्हें बहुत खुशी हुई या रोना आया हो’। बच्चों ने बेहद रोचक प्रसंग लिखे। इन प्रसंगों से न केवल बच्चों की भाषायी दक्षता का पता चला बल्कि उनके भीतर झाँकने का अवसर भी मिला। यह भी जानने को मिला कि बच्चे अपने आसपास को कैसे देखते हैं ? अपने बड़ों के प्रति क्या सोचते हैं ? उन्हें जीवन में कौनसी घटना प्रसन्नता देती है और कौनसी दुःख पहुँचाती है ? आदि….आदि।
यह देखा गया कि जो बच्चे आमतौर पर कक्षा में दो-चार पंक्तियाँ भी नहीं लिख पाते थे उन्होंने दो-दो ,तीन-तीन पृष्ठों के अपने संस्मरण लिख डाले। बच्चों द्वारा लिखे गए इन संस्मरणों को भी दीवार पत्रिका में स्थान दिया गया। इस बीच कक्षा नौ के बच्चों से ‘मेरी किताब ’ भी बनावायी गई। जिसके अंतर्गत बच्चों को लगभग तीस विषय दिए गए जिन पर उन्हें अपने विचार तथा अनुभव लिखने थे। ये सारे विषय ऐसे थे जिनमें बच्चे अपने मन से बहुत कुछ लिख सकते थे। उनको कहा गया कि वे इन विषयों के बारे में लिखते हुए अपनी कल्पनाशीला का भरपूर इस्तेमाल करें और किसी की मदद न लें। उन्हें जितना पता है उतना ही लिखें। विषय ‘मैं कौन हूं’ से लेकर ‘मेरा विश्व’ तक फैले थे। कुछ बच्चों ने इन विषयों पर लिखते हुए अपनी बहुत अच्छी किताब तैयार की। इन किताबों को अभी भी पुस्तकालय में सुरक्षित रखा गया है। यह क्रम अभी भी जारी है। यह किताब भी दीवार पत्रिका के लिए सामग्री एकत्र करने का अच्छा स्रोत है। जब किसी अंक में विषय-सामग्री पर्याप्त नहीं हो पाती है तो संपादक मंडल इन किताबों से सामग्री का चयन कर लेता है। अब ‘मेरी किताब’ को सामाजिक विज्ञान के प्रोजेक्ट वर्क के रूप में हर वर्ष करवाया जाता है। इस कारण से सभी बच्चे इसे गंभीरता से लेते हैं। आधा-अधूरा जैसा भी हो लेकिन इसको करते जरूर हैं।
दीवार पत्रिका की अब तक की यात्रा में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे। ऐसे अनेक क्षण आए जब लगा कि यह काम आगे नहीं बढ़ पाएगा। बच्चे बहुत कम रूचि लेते थे। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। अंकित के इंटर उत्तीर्ण कर चले जाने के बाद कक्षा दस के छात्र सुनील सामंत को संपादक बनाया गया। शुरू-शुरू में तो सुनील और उसके साथियों ने अच्छा काम किया लेकिन धीरे-धीरे वे उदासीन होते गए। बार-बार कहने के बाद ही नया अंक निकालते। बीच-बीच में कुछ बच्चे जरूर उत्साह दिखाते लेकिन फिर शांत हो जाते। इसके पीछे कौनसे कारण रहे कह पाना मुश्किल है। मैं नहीं चाहता था कि यह काम किसी दबाव में हो क्योकि दबाव में करवाया गया कोई भी कार्य बच्चों की रचनात्मकता में कोई इजाफा नहीं करता । मैंने कहना छोड़ दिया और इंतजार करता रहा। फलस्वरूप अंतराल एक माह से भी अधिक हो गया।दीवार पत्रिका का नया अंक नहीं आया।मुझे खासी निराशा भी हुई।समझ नहीं पा रहा था कि क्या किया जाय?
इसी दौरान एक दिन कक्षा नौ के दो छात्र-हिमांशु और प्रदीप बसेड़ा पुस्तकालय में आए। उन्होंने दीवार पत्रिका के बारे में पूछा। मुझे उनका पूछना अच्छा लगा।एक आशा की किरण झिलमिलाती हुई दिखी। हिमांशु के प्रश्न में मुझे अपना सपना चमकता हुआ दिखा। मैंने उलाहना के स्वर में कहा कि संपादक मंडल कोई रूचि ही नहीं ले रहा है जिसके चलते नहीं निकल पा रही है। उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि क्या हम निकाल सकते हैं? मेरे लिए यह अप्रत्याशित था। मैं बहुत प्रसन्न हुआ। अंधे को क्या चाहिए ,दो आंखें। वे दोनों मेरे लिए दो आंखों की तरह आए। मैं इसी दिन के इंतजार में था। मैं अपनी आवाज में अतिरिक्त उत्साह भरते हुए बोला-‘‘क्यों नहीं निकाल सकते ,बिल्कुल निकाल सकते हो। मुझे तो ऐसे ही बच्चों की जरूरत है जो अपनी रूचि से इस काम को करें।’’ मैंने उनकी पहल की खूब प्रशंसा की। मैं यही चाहता था कि इस काम को बच्चों पर थोपा न जाय बल्कि बच्चे स्वयं आगे आएं। मेरा मानना है कि कोई भी रचनात्मक कार्य थोपकर नहींं करवाया जा सकता है।
हिमांशु ने वहीं पर अपने अन्य दो दोस्तों को भी तैयार कर लिया। स्वयं संपादक बन गया। वहां उसके कुछ और साथी भी थे ,जिन्होंने इस टीम में शामिल होने की इच्छा व्यक्त की। हिमांशु दृढ़ता से बोला,‘‘ काम करो, नाम अपने आप आ जाएगा।’’ मुझे हिमांशु के ये तेवर बहुत अच्छे लगे और लगा कि वह इस काम को अवश्य आगे बढ़ाएगा। अब तक मेरा यह विश्वास बना हुआ है।
वे उसी समय से ही शुरू हो गये। उन्होंने आपसी विचार-विमर्श से अपनी दीवार पत्रिका का नाम ‘कल्पना’ तय किया। एक साथी को इस नाम से दीवार पत्रिका का हैडर तैयार करने का कार्य सौंप दिया। मैंने दीवार पत्रिका के लिए आई रचनाओं की फाइल उन्हें सौंप दी। कैसे और क्या करना है ? उन्हें पूरी तरह समझाया । वे बहुत जल्दी समझ गए।
हिमांशु की टीम में मुझे अभूतपूर्व उत्साह दिखाई दिया। दूसरे दिन पुस्तकालय का दरवाजा खोलते ही ‘कल्पना’ की टीम वहां पहुंच गई। उन्होंने बताया कि उनका पहला वादन खाली है इसलिए वे दीवार पत्रिका का कार्य करना चाहते हैं।अधिकांश काम वे पहले दिन की कर चुके थे ,दूसरे दिन उन्होंने उसको अंतिम रूप देकर दीवार पर टांग दिया। वे बहुत खुश थे।अपने द्वारा किए सृजन की खुशी क्या होती है ,उनके चेहरे में साफ झलक रही थी। मैंने उनकी खूब पीठ थपथपायी। किसी भी काम में रूचि का कितना महत्व होता है ,इससे प्रमाणित होता है। पहला अंक तैयार होते ही वे दूसरे अंक के लिए भी सामग्री जुटाने में लग गये। उनके उत्साह को देखकर मैं भी बहुत उत्साहित था।होना ही था मेरा मिशन सफल हो रहा था। उस दिन छठे वादन में मैंने कक्षा में उनकी खूब प्रशंसा की। इस आशा से कि अन्य बच्चे भी इस कार्य में अपनी भागीदारी करें। मैंने दीवार पत्रिका निकाले जाने के उद्देश्य पर भी विस्तार से प्रकाश डाला साथ ही दीवार पत्रिका की अब तक कि विकास यात्रा के बारे में भी बताया। बच्चे मनोयोग से मेरी बातें सुनते रहे।
तब से अब तक इस टीम का जज्बा बना हुआ है। यह संपादक मंडल इतना उत्साहित है कि शुरूआत में एक सप्ताह से पहले ही उन्होंने दूसरा अंक तैयार कर दिया। मुझे उनकी इस गति को रोकना पड़ा। मैंने सुझाव दिया कि पंद्रह दिन में एक निकाली जाय। ‘कल्पना’ बाल संपादक मंडल के उत्साह को देख मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मैंने 25.01.14 को अपनी डायरी का पन्ना कुछ इस रूप में लिखा-‘‘कौन कहता है बच्चे पढ़ना-लिखना नहीं चाहते। बशर्ते कि यह उनकी रूचि और आनंद का काम हो। इन दिनों दीवार पत्रिका ‘कल्पना’ के बाल संपादकों के उत्साह को देखकर मैं यह पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि यदि उनकी रूचि का काम हो तो बच्चों को आसानी से उससे जोड़ा जा सकता है। उन पर विश्वास करते हुए उन्हें अवसर दिया जाय तो वे बेहतरीन काम करते हैं। काश! हमारी पूरी पाठ्यचर्या ऐसी होती जो बच्चों में थोपी नहीं जाती बल्कि बच्चे अपनी रूचि के अनुसार उसे चुनते तो स्कूल एक ऐसा स्थान बन जाता जहां बच्चे खुशी-खुशी आना चाहते। उन्हें स्कूल कैद की तरह नहीं खेल के मैदान की तरह लगता। जहां शिक्षक बच्चों को जबरदस्ती कक्षा-कक्षों में नहीं बैठा रहा होता बल्कि बच्चे शिक्षक को खोज रहे होते,उसी तरह जैसे प्यास पानी को या भूखा भोजन को।बच्चा परीक्षा के लिए नहीं बल्कि ज्ञान निर्माण के लिए पढ़ता।किताबें उसकी दोस्त होती।
बाल संपादकों का यह दल आठ-दस दिनों के भीतर दीवार पत्रिका के दो अंक तैयार कर चुका है। इटंरवल की घंटी बजी नहीं कि पुस्तकालय की ओर दौड़ पड़ते हैं। कोई पीरियड खाली हुआ नहीं कि मुझसे पुस्तकालय की चाबी लेने पहुंच जाते हैं और अपनी दीवार पत्रिका के अधूरे काम को आगे बढ़ाने में जुट जाते हैं। एक दिन बारिश के चलते जब अधिक ठंड हो गई तो जल्दी छुट्टी कर दी , सारे बच्चे घर को भागे ,हिमांशु और प्रदीप पुस्तकालय में। उनकी रूचि और आनंद को समझा जा सकता है। बिना कहे अपने काम में जुट जाना ,अद्भुत है। मैं तो बस उन्हें देख गदगद होता रहता हूं।दीवार पत्रिका का एक अंक दीवार पर टंगा नहीं कि दूसरे को बनाने में जुट जा रहे हैं। यहां तक कि इनकी इस गति को देख, मुझे ,इनसे इतने तेज न दौड़ने के लिए कहना पड़ा। दीवार पत्रिका बनाने के लिए गॉनद मेरे द्वारा उपलब्ध कराया जाता रहा है लेकिन इस बार गोंद खत्म होने पर वे खुद खरीदकर ले आए।
अब इन बच्चों ने न केवल पत्रिका बल्कि पुस्तकालय को सजाने-संवारने और व्यवस्थित करने में हाथ बंटाना शुरू कर दिया है। इनकी सक्रियता देखकर अन्य बच्चों के भीतर भी दीवार पत्रिका से जुड़ने और उसमें छपने की इच्छा बलवती होने लगी है। आज कक्षा नौ का एक अन्य छात्र अलग से अपनी दीवार पत्रिका बनाने का प्रस्ताव लेकर मेरे पास आया।फिलहाल मैंने उसे इसी पत्रिका में सहयोग करने को कहा। बाल संपादक दल से मैंने जानना चाहा कि आखिर वह ऐसा क्यों करना चाहता है? तो पता चला कि उसके द्वारा दी गई रचना इस अंक में प्रकाशित नहीं हो पाई इसलिए वह स्वयं की पत्रिका तैयार करना चाहता है। यह अच्छी बात है कि बच्चे अपनी रचना को छपा देखने या दूसरों तक पहुंचाने के लिए इतने उत्सुक हो रहे हें।
यही वह बिंदु है जहां से बच्चे की रचनात्मकता अपनी दिशा तलाश करती है। इतना अधिक उत्साह देखकर कभी-कभी डर भी लगता है कि कहीं पाठ्यपुस्तकों से ध्यान न हटा लें और लोगों को आलोचना करने का बहाना न मिल जाय। वैसे यह पढ़ाई-लिखाई से अलग नहीं है। यह करते हुए कहीं न कहीं उनकी विषय संबंधी जानकारी और भाषायी दक्षता बढ़ती ही है जो उनको हर विषय को अच्छी तरह समझने में मददगार होती है। फिर भी जिस तरह हमारी शिक्षा , परीक्षा केंद्रित और परीक्षा रटन्त केंद्रित हो गई है और बच्चे का मूल्यांकन प्रश्न पत्र में पूछे गए चंद सवालों से ही किया जाता है, ऐसे में डर लगना स्वाभाविक है।इसलिए समय-समय पर मैं उन्हें सचेत भी करता रहता हूं कि अपने विषयों की पढ़ाई के बाद बचने वाले समय में ही इस काम को करें। मुझे लगता है बच्चे मेरी बात को गंभीरता से लेते हैं।
आज संपादक मंडल के साथ अंतिम वादन में एक बैठक की। उनके साथ इस मुद्दे पर बात की कि क्यों और कैसे इस अभियान से अधिक से अधिक बच्चों को जोड़ना है। पहले बाल संपादकों के विचार लिये। उनके विचारों को लिखित रूप से एक नोट बुक में दर्ज भी किया गया। अंत में, मैंने भी अपने सुझाव उनके सामने रखे कि पूरे विद्यालय के माहौल को रचनात्मक बनाएं ताकि विद्यालय का हर बच्चा पढ़ने-लिखने में रूचि लेने लगे। ‘कल्पना’ की टीम को विस्तारित किया जाय ताकि इस अभियान को निरंतरता प्रदान की जा सके। इसके लिए अपनी टीम में अन्य कक्षाओं के बच्चों को भी शामिल किया जाय, विशेषरूप से छोटी कक्षाओं के बच्चों को। कक्षा सात के बच्चों में मुझे बहुत संभावना दिखाई देती है। वे निरंतर पुस्तकालय से किताबें भी ले जाते हैं। इसलिए उन्हें अपनी संपादकीय टीम से जोड़े। मैं चाहता हूं कि एक दिन ऐसा आए कि जब बच्चों में दीवार पत्रिका में छपने की होड़ लग जाय। पत्रिका में छपने वाली सारी सामग्री उनकी खुद की रची हो।
आज एक अच्छी बात यह हुई कि दीवार पत्रिका में एक नया स्तम्भ बच्चों द्वारा स्वयं शुरू किया गया जिसमें हर बार एक अध्यापक का साक्षात्कार दिया जाएगा। मेरे सुझाव देने से पहले ही बच्चों ने यह स्तम्भ प्रारम्भ कर दिया। इसका आशय यह है कि बच्चे लगातार इस ओर भी सोच रहे हैं कि हर अंक में नया क्या दिया जाय ?जिससे पत्रिका और बेहतर बन सके। दीवार पत्रिका में अभी वर्तनी संबंधी गलती बहुत हैं ,आशा है अभ्यास से इसमें कमी आएगी। वर्तनी संबंधी गलतियों को दूर करने और सुंदर लेख के लिए अभ्यास जरूरी है। वर्तनी संबंधी गलतियों का भी पत्रिका में रचनात्मक उपयोग संभव है।मैंने सुझाव दिया कि अगले अंक से यह घोषणा की जाय कि पत्रिका में वर्तनी संबंधी अनेक गलतियां हैं, उन गलतियों को ढूंढिए। सबसे अधिक गलतियों ढूंढने वाले को पुरस्कृत किया जाएगा। साथ ही उसका नाम अगले अंक में सुंदर ढंग से प्रकाशित किया जाएगा। इससे दो लाभ हैं- प्रथम, हर बच्चा पत्रिका की प्रत्येक सामग्री को गौर से पढ़ेगा। दूसरा, संपादक मंडल और लेखकों से जाने-अनजाने होने वाली गलतियों की ओर उनका ध्यान जाएगा जिसके चलते अगली बार से वे उन गलतियों को दुहराने से बचेंगे। इससे उनकी भाषायी अशुद्धियां कम होती जाएंगी।
हिमांशु बसेड़ा खुद संपादकीय लिखने लगा है। ठीक-ठाक लिख रहा है। इसकी तैयारी के रूप में मैंने उसे विभिन्न बाल पत्रिकाओं के संपादकीय पढ़ने की सलाह दी जिससे उसने बहुत जल्दी सीख लिया। स्थानीय समाचारों को भी पत्रिका में स्थान दिया जाने लगा है। साभार सामग्री के स्थान पर बच्चों द्वारा रचित सामग्री को अधिक स्थान दिया जा रहा है। बच्चे अपने आप बनाए कार्टूनों और चित्रों से पत्रिका का खूब सजा रहे हैं। कुल मिलाकर संतोषजनक प्रगति दिखाई दे रही है। बावजूद अभी सुधार की बहुत गुंजाइश है। सामग्री में विविधता नहीं आ पा रही है, न ही अधिसंख्यक बच्चों की भागीदारी बढ़ पा रही है।’’
कुछ मित्र, दीवार पत्रिका से जुड़े अपने अनुभवों में बताते हैं कि विषय सामग्री जुटाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है, लेकिन मुझे यह कभी चुनौती नहीं लगी। शिक्षण के दौरान ही ऐसे बहुत सारे अवसर आते हैं जिन्हें हम विषय सामग्री के स्रोत के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। बस हमें थोड़ा चौकन्ना होना पड़ता है। अपना विषय पढ़ाते हुए मैं उन अवसरों की तलाश करता रहता हूं, जहां पर बच्चों को अपनी मौलिक अभिव्यक्ति करने का मौका मिले। एक बार कक्षा नौ में सामाजिक विषय में ‘निर्धनता’ नामक पाठ पढ़ा रहा था जिसमें निर्धनता की स्थिति और कारणों के बारे में बताया गया है। मैंने इस पाठ को पढ़ाने के बाद बच्चों से अपने गांव के सबसे गरीब आदमी की कहानी लिखकर लाने को कहा। बच्चों को सुझाव दिया कि कहानी लिखते हुए इस बात का ध्यान रखा जाय कि कहानी में उस व्यक्ति के गरीब होने के कारणों को अवश्य उल्लिखित किया जाय। लगभग सभी बच्चे कोई न कोई कहानी लिखकर ले आए। कुछ सामान्य थी तो कुछ कहानियां बहुत लंबी और मार्मिक भी बन पड़ी थी। थोड़े से सुधार के बाद उन्हें अच्छी कहानियों में बदला जा सकता था। मैंने सुझाव दिए और फिर से लिखने को कहा। उसी दौरान यूनिट टेस्ट भी आ गए। मैंने सोचा-क्यों न ,इस बार यूनिट टेस्ट में बच्चों को गरीबी पर एक कहानी लिखने के लिए दे दी जाय। मेरा मानना है कि परीक्षा में हमेशा ऐसे ही प्रश्न क्यों पूछे जाएं जो उन्हें न आते हों, कभी-कभी ऐसे प्रश्न क्यों न पूछे जाएं जो उनके अनुभव क्षेत्र से जुड़े हों। जिनके बारे में वे अच्छी तरह जानते हों तथा उन पर लिखना चाहते हों। जिससे उनकी मौलिकता सामने आती हो।
मेरा यह प्रयोग सफल रहा। बच्चों ने उत्तर में इतनी अच्छी-अच्छी कहानियां लिखी कि मैं पढ़ते ही रह गया। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि बच्चे ऐसा भी लिख सकते हैं। उन्होंने गरीब की स्थिति और गरीबी के कारणों को बहुत तार्किक ढंग से चित्रित किया था। अधिकांश कहानियों में शराब को गरीबी के एक कारण के रूप में रेखांकित किया गया था। परीक्षा का यह तरीका बच्चों को भी पसंद आया। एक बच्चे ने तो अपनी उत्तर-पुस्तिका के अंत में यह अनुरोध किया था कि परीक्षा में उन्हें भविष्य में भी इसी तरह के विषय दिए जाएं। सचमुच लिखने में बहुत आनंद आया।
मैंने पाया कि उन बच्चों को भी जिन्हें कक्षा में सभी शिक्षक फिसड्डी मानते हैं और जड़-मूर्ख कहने में देर नहीं लगाते हैं, उन्हें भी अपने गांव-पड़ोस की कितनी गहरी समझदारी है तथा उसे कितनी बारीकी से देखते हैं। एक ऐसे ही छात्र विजय कुमार टम्टा (जो पिछले वर्ष कक्षा नौ की कक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया था, नशे का शिकार है, बहुत कम स्कूल आता है तथा माता-पिता भी उसकी आदतों से परेशान रहते हैं) की कहानी को पढ़कर में हतप्रभ रह गया। उसने अपने गांव के सबसे गरीब आदमी की कहानी लिखते हुए जिस तरह से गरीबी के दुष्चक्र को सामने रखा ,किसी वयस्क से हम वैसी अपेक्षा नहीं कर सकते।कहानी का सारांश कुछ इस तरह से है-बलवीर एक गरीब ग्रामीण से है जो अपनी बेटी की शादी के लिए अपने बिरादरी के लोगों से कर्ज मांगता है लेकिन कोई तैयार नहीं होता है। अंततः बैंक से उधार लेता है।उसके पास कोई स्थाई रोजगार न होने के कारण कर्ज ब्याज लगने से बढ़ता जाता है। वह इस दबाव में शराब पीना शुरू कर देता है। शराब की अधिकता से उसके गुर्दे खराब हो जाते हैं। डॉक्टर गुर्दे बदलने की सलाह देता है लेकिन उसके लिए धनाभाव के चलते यह संभव नहीं होता है। वह गरीबी की भेंट चढ़ जाता है। इस कहानी को मैंने ‘कल्पना’ के संपादक मंडल को दे दिया। प्रकाशित होने पर अन्य लोगों ने भी उसे खूब सराहा।
उक्त प्रयोग से उत्साहित होकर मैंने कक्षा दस के बच्चों को भी सामजिक विज्ञान से संबंधित कुछ पाठों पर आधारित कहानियां परियोजना कार्य के रूप में लिखने के लिए दी जिससे उन पाठों के बारे में उनकी समझदारी व्यापक हो।वे किताबों को अपने आसपास से जोड़ पाएं। विषय इस प्रकार हैं-
1-अपने गांव-पड़ोस के ऐसे मजदूर की कहानी जो असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हो, कहानी में मजदूर की जीवन-स्थितियों, समस्याओं तथा कार्य के स्वभाव का उल्लेख अवश्य होना चाहिए।
2-गांव-घर के ऐसे व्यक्तियों की कहानी जिसने बैंक से कर्ज लेकर अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार किया हो।
3-किसी बेरोजगार व्यक्ति की कहानी जिसमें बेरोजगारी के कारण और दूर करने के उपाय बताए गए हों।
4-किसी ऐसे व्यक्ति की कहानी जो कर्ज जाल में फंसा हो। इस तरह दीवार पत्रिका के आगामी अंको के लिए बहुत सारे अंकों के लिए सामग्री एकत्र हो गई जिसका संपादक मंडल से अपनी सुविधानुसार उपयोग किया।
दीवार पत्रिका के लिए विषय सामग्री कैसे संकलित की जा सकती है? इस संदर्भ में अपनी डायरी के कुछ और पन्ने यहां उद्धरित करना चाहूँगा-
20.02.14
आज सामाजिक विषय में कक्षा नौ को ‘क्रिकेट की कहानी’ शीर्षक पाठ पढ़ाया। बच्चों से इस पाठ को घर से एक बार पुनः पढ़कर ‘क्रिकेट :कुछ तथ्य’ शीर्षक से एक पेज की सामग्री तैयार कर लाने को कहा जिसकी सामग्री सबसे अच्छी होगी उसे दीवार पत्रिका में स्थान दिया जाएगा। मुझे लगता है कि प्रत्येक शिक्षक अपने-अपने विषय से संबंधित कुछ -कुछ सामग्री तैयार करवाएं तो बिना अतिरिक्त प्रयास के ढेर सारी सामग्री तैयार हो जाएगी। साथ ही दीवार पत्रिका विभिन्न विषयों से जुड़ जाएगी। मेरा अनुभव है कि दीवार पत्रिका के लिए सामग्री तैयार कर उसमें स्थान पाने की इच्छा से प्रत्येक बच्चा विषयवस्तु पर अधिक ध्यान देता है जिससे बच्चा पढ़ाई जाने वाली विषयवस्तु को जल्दी से ग्रहण कर लेता है। इसके पीछे यह तर्क है कि सोद्देश्य अध्ययन करते हुए विषयवस्तु से अध्ययनकर्त्ता का जुड़ाव अधिक होता है अर्थात ध्यान का केंद्रण होता है।
11-09-14
दीवार पत्रिका के नए अंक के लिए सामग्री कम थी। हिमांशु ने जानना चाहा कि क्या कुछ सामग्री है? फाइल टटोली। कुछ खास नहीं था। अचानक ‘हिंदी दिवस’ की याद आई। सोचा इस अवसर पर क्यों न कोई बच्चों के बीच परिचर्चा आयोजित करवाई जाय जिसका स्वरूप मौखिक न रखकर लिखित रखा जाय। यह सुझाव मैंने हिमांशु और प्रदीप के समक्ष रखा। उनको सुझाव अच्छा लगा। मैंने उनसे इसका प्रचार-प्रसार करने के लिए कहा लेकिन प्रत्युत्तर में उनका कहना था-सर, अगर आप कह दें तो अधिक अच्छा रहेगा। मैं उनके मतव्य को समझ रहा था। मैंने यह काम अपने हाथ में ले लिया। विषय तय किया गया- शिक्षा का माध्यम हिंदी ही होना चाहिए। ध्यान आया कि 14 सितंबर को रविवार है जिसके कारण उस दिन कोई कार्यक्रम संभव नहीं है। मैंने दूसरा तरीका निकाला । जिस-जिस कक्षा में मेरे वादन थे ,सभी में मैंने ‘हिंदी दिवस कब से और क्यों मनाया जाता है ?’ इस विषय पर विस्तार से जानकारी देते हुए बच्चों के सामने परिचर्चा का विषय रखा-शिक्षा का माध्यम हिंदी ही होना चाहिए। इस विषय के पक्ष-विपक्ष में अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहा।सभी कक्षाओं के बच्चों ने दत्तचित्त होकर इस पर अपने लिखित रूप से विचार रखे। सभी बच्चों ने इसके पक्ष-विपक्ष में तर्कपूर्ण विचार रखे। जिन्हें संपादित कर उन्हें पुनर्लेखन के लिए दे दिया गया। जिन बच्चों के लेख पठनीय नहीं थे लेकिन तर्क महत्वपूर्ण थे उन्हें संपादक मंडल के साथियों ने फिर से लिखा। इस तरह इतनी सामग्री एकत्र हो गई कि उस अंक को हिंदी दिवस पर विशेष अंक के रूप में निकालना पड़ा उसके बाद भी बच गई सामग्री का उपयोग अगले अंक में करने का निर्णय लिया गया। साथ ही यह भी तय किया गया कि आगे से विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दिवसों पर इस तरह की परिचर्चा जारी रखी जाएंगी। इसके दो लाभ हैं-प्रथम, बच्चों को उस दिवस के मनाए जाने के कारणों की जानकारी हो जाती है। दूसरा,दीवार पत्रिका के लिए विषय-सामग्री का संकट नहीं रहता है। माह में एक भी परिचर्चा करवा दी जाय तो बहुत सारी सामग्री एकत्र हो जाएगी।
दीवार पत्रिका निर्माण कार्यशाला
बच्चों में रचनात्मक लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ विशेष प्रयास करने की भी आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए उन्हें लगातार अध्ययन करने के लिए प्रेरित करना तो जरूरी है साथ में लेखन की बारीकियों से भी अवगत कराना जरूरी हो जाता है। इस उद्देश्य से लंबे समय से बच्चों के साथ लेखन कार्यशाला का आयोजन करने का मन विचार में था। अप्रैल 2014 में यह अवसर मिल गया। अधिकांश शिक्षकों की बोर्ड परीक्षा में ड्यूटी लगी थी । शिक्षकों की कमी के चलते नए सत्र की पढ़ाई विधिवत नहीं चल पाई पायी थी। नए सत्र के लिए समय चक्र भी नहीं बन पाया था। बच्चों ने नई कक्षा की पाठ्यपुस्तकें भी नहीं खरीदी थी। मुझे यह अनुकूल समय जान पड़ा।
जहां तक रचनात्मक कार्यशालाओं का सवाल है, मेरा मानना रहा है कि बच्चों की प्रतिभा और अभिरूचियों को पहचान कर उन्हें सही दिशा में आगे बढ़ाने ,नए अवसर प्रदान करने, अपसंस्कृति से बचाते हुए उन्हें मानवीय मूल्यों व संस्कृति की सही राह दिखाने, समाज के प्रति बच्चों में सरोकार और संवेदनशीलता और सामूहिकता की भावना विकसित करने के उद्देश्य से इन कार्यशालाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। ये कार्यशालाएं बच्चों को न केवल रचनात्मक वातावरण उपलब्ध कराती हैं बल्कि रचनात्मकता के विविध क्षेत्रों से उनका परिचय भी कराती हैं। बच्चों के भीतर एक नई सोच को जन्म देती हैं। बच्चों को यह पता चलता है कि वे किस-किस क्षेत्र में और कैसे आगे बढ़ सकते हैं।वे कुछ नया करने को प्रेरित होते हैं। अवकाश का रचनात्मक उपयोग हो पाता है। दूर दराज क्षेत्रों में तो इनकी उपयोगिता और अधिक बढ़ जाती है।अनुभव बताते हैं कि यदि बच्चों की सर्जनात्मकता को कम उम्र से ही प्रोत्साहित किया जाय और उन्हें अनुकूल माहौल मुहैया कराया जाय तो उसके परिणाम बहुत सकारात्मक होते हैं।
इधर ऐसी कार्यशालाएं आम होती जा रही हैं पर यहाँ एक सवाल खड़ा होता है कि ये कार्यशालाएं क्या अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल हो रही हैं? यदि नहीं तो उसके पीछे क्या कारण हैं?अधिकतर यह देखने में आता है कि ये कार्यशालाएं अपने उद्देश्य को पाने में असफल रहती हैं उसके पीछे सबसे बड़ा कारण आयोजकों में बालमन की समझ और विभिन्न विधाओं के विशेषज्ञों का अभाव है।इन कार्यशालाओं की कार्ययोजना इतनी लुंजपुंज होती है कि पता ही नहीं चलता कि कार्यशाला का अयोजन क्यों किया गया है?आयोजकों को खुद पता नहीं होता है कि बच्चों को क्या देना चाहते हैं और क्यों? माँ-बाप इन कार्यशालाओं में बच्चों को इसलिए भेज देते हैं कि छुट्टियों में बच्चे उन्हें परेशान न करें।इधर-उधर उछलते-कूदते न रहें। फलस्वरूप कार्यशाला बच्चों को खाली समय में व्यस्त रखने तक सीमित होकर रह जाती हैं।इन कार्यशालाओं और स्कूल की परंपरागत कक्षाओं में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता है। वही कड़ा अनुशासन,दबाब ,डाँट-डपट,जबरदस्ती।बच्चों की आजादी और आनंद का कोई ध्यान नहीं।वही गतिविधियां इन कार्यशालाओं में करवायी जाती हैं जो बच्चे स्कूल में अक्सर करते हैं। प्रतियोगिताओं पर अधिक जोर दिया जाता है। हर गतिविधि के बाद प्रथम-द्वितीय-तृतीय निकालने पर बल होता है।फलस्वरूप पहले दिन कुछ अलग करने-सीखने की इच्छा से आए बच्चे दो-तीन बाद ऊबने लगते हैं। समय प्रबंधन इतना कड़ा होता है कि बच्चे थक कर चूर हो जाते हैं। घर लौटते हुए बच्चों के चेहरे लटके होते हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि इन कार्यशालाओं में रचनात्मकता का कितना विकास होता होगा?
दरअसल ,इन कार्यशालाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि यहाँ बच्चों को आनंद आए। वे खुशनुमा माहौल में अपनी रूचि के विषयों पर अपनी जिज्ञासाओं को शांत कर सकें। आनंददायी गतिविधियां कर सकें जो रचनात्मकता के प्रति एक नया रुझान पैदा कर सके। इसलिए योजना बनाकर कार्यशालाएं आयोजित करने की आवश्यकता है जिसमें विभिन्न विधाओं के ऐसे विशेषज्ञों को बुलाया जाय जो अपनी विधा की गहरी समझ के साथ-साथ बालमनोविज्ञान की समझ भी रखते हों।उनका व्यवहार इतना मित्रवत हो कि बच्चे उनसे अधिकाधिक संवाद करना चाहें।ताकि अपनी जिज्ञासाओं को उनके सामने रख सकें।बच्चों को ऊबाउ और लंबे भाषण न देकर, करने के अवसर दिए जांय। बच्चों को समूह में कार्य करते हुए आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया जाय।प्रतिस्पर्धा से अलग रखा जाय। गतिविधियों को प्रतिस्पर्धा में न बदला जाय क्योंकि इससे बच्चे में व्यक्तिवादी मूल्य का विकास होता है जो बाजारवादी मूल्य है। एक सुंदर समाज ऐसे नहीं बन सकता है। बच्चों को ऐसा न लगे कि उन्हें वहाँ कुछ सिखाया जा रहा है। वे किसी और से निर्देशित न होकर स्वनिर्देशित हों।कुल मिलाकर इन कार्यशालाओं में बच्चों को संवाद,अवलोकन, कल्पना,विश्लेषण और सृजन के अधिकाधिक अवसर मिलने चाहिए। उद्देश्यों के अनुकूल गतिविधियों का संयोजन किया जाय और उसमें निरंतरता लाई जाय।
उक्त बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने ‘दीवार पत्रिका निर्माण कार्यशाला ’ नाम से एक कार्ययोजना तैयार की। कुछ रोचक गतिविधियां भी तैयार कर ली। कोशिश की गई कि गतिविधियां ऐसी हों जिनको करते हुए बच्चों को आनंद आए। यदि आनंद नहीं आएगा तो वे न कुछ सीख पाएंगे और न आगे इस तरह की कार्यशाला में भाग लेंगे। इस कार्यशाला से मेरी अपेक्षा थी कि दीवार पत्रिका को निकालने के लिए एक ठोस टीम तैयार हो सके ताकि दीवार पत्रिका को एक निरंतरता प्रदान की जा सके।इस कार्यशाला से मैं खुद भी सीखना चाहता था कि बच्चों के लिए रचनात्मक कार्यशाला कैसी होनी चाहिए? इससे पहले एक-दो विद्यालयों में अन्य साथियों के साथ इस तरह की कार्यशाला कर चुका था लेकिन अकेले पहली बार कर रहा था। इस कार्यशाला के अनुभवों को मैंने अपनी डायरी में दर्ज किया था।
(उत्तराखंड में दीवार पत्रिका अभियान के संयोजक महेश पुनेठा देवलथल राजकीय विद्यालय में शिक्षक हैं ।सभी तस्वीरें दीवार पत्रिका अभियान के फेसबुक पेज से साभार।)