मोहम्मद उमर
‘उखड़ी हुई खोड़हीं सी सड़कें, ये बारिशों में नदी होने का हुनर रखती हैं। चौराहे के एक तरफ गोश्त की दुकान तो एक तरफ मिठाई की दुकान, गोश्त के दुकान के बगल मौजूद है बिरयानी की दुकान और उसके सामने कभी मौजूद हुआ करती थी एक पान की गुमटी, जो अब वहाँ नहीं है।
पान वाली दुकान सड़क बनने की वजह से वहाँ से उठकर सामने आ चुकी है, बिरयानी और गोश्त वाली दुकान के लाइन में। पान वाले ने लस्सी का धंधा भी शुरू कर दिया है और दुकान में लगी बड़ी सी बारह बजे तक लाइव चलने वाली टीवी ने घर बैठे खलिहर लोगों को कम से कम बहस मुबाहिसा का काम दे दिया है।
वर्ल्ड कप वाले दिन सारा बेगमवार्ड चौराहा इसी गुमटी के छत के नीचे इकट्ठा हो जाता है। मानों ऐसा लगता है कि बरेलवी, शिया, देवबन्दी, अहले हदीस सभी एक छत के नीचे आ चुके हैं।
क्रिकेट जो कर दिखाता था, वो मज़हबी ठेकेदार और मस्जिदों ने न कर दिखाया था। अनवर भाई, जो कि बरलेवी हैं और मक़सूद चचा जो कि कट्टर अहले हदीस हैं और फतवा है, कि अनवर भाई खुदा के यहाँ शिर्क के चलते बख्शे नहीं जाएंगे, दोनों आरसीबी की तरफ से हैं, तो कलीमुल्लाह भाई जो देवबन्दी हैं और जिनके आलिमों का खुला फतवा है, कि शिया मुनाफ़िक़ हैं, आज हुसैन भाई की तरफ से सीएसके के पाले से हैं।
मज़हबों पर जब बात हुई तो बेगमवार्ड चौराहे पर फिरकों को बनते तुरन्त देखा जा सकता है। और पिछले बरस तो अनवर भाई बोल भी पड़े थे, कि ‘बनत हैं अहले हदीस और खाय तो गा रहेन हलुवा सुबरात वाला!..’
मक़सूद चचा झेंप गए थे और किसी तरह कलीमुल्लाह भाई ने सलाम भाई की दुकान का मिल्ककेक आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘यहका उठावें तनी अबहीन हलुवा ठेलुवा भूल जात जइहें!…’
एक बात तो थी, अगर इस किस्म की बहस छिड़ भी जाए तो उसका हल यही होता है कि कलीमुल्लाह भाई की तरह मिल्ककेक जैसा कुछ ताजा पेश कर दीजिए या फिर ऐसे राजनीतिक मुद्दों को उखाड़ लीजिये, जिसमें सभी मुस्लिम एकमत हों।
पूरे बेगमवार्ड चौराहे पर ऐसे एक पान की गुमटी ही बैठकी नहीं है, बल्कि कई जगहें हैं उसी चौराहे पर, जैसे वह बैठकी प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टर साहब की क्लीनिक हो सकती है, जहाँ थोड़ा उठे हुए तबकों के मुस्लिम आते हैं, और क्लीनिक तो लोकसभा की स्थिति में है।
बाकी पान-गुमटी या मिठाई की दुकानें विधानसभा या राज्यसभा। क्लीनिक में अंजर भाई जो बोल दें तो उनकी बातें बेगमवार्ड चौराहे की हवा में एक लंबा सोसा होती हैं। जिस पर तीन-चार दिन बहस हो सकती है।
एक तो अंजर भाई पेशे से वकील आदमी और बेगमवार्ड चौराहे के बैठकी अड्डों के वो बुद्धिजीवी हैं, जो अंग्रेजी के अखबारों को ठीक से समझने की सलाहियत रखते हैं।
डॉक्टर साहब भी थोड़ा बहुत समझते हैं, लेकिन कॉन्फिडेंस में नहीं रहते हैं। कई दफ़े तो अंजर भाई ने कहा भी है कि डॉक्टर साहब दवाइयों की स्पेलिंग्स सीख लें और ये क्या ज़िद है, कि अंग्रेजी ही में दवा लिखेंगे। लेकिन डॉक्टर साहब अंग्रेजी में न लिखें तो मुहल्ला फिर उन्हें डॉक्टर मानेगा? कभी नहीं!
चौराहे के चारो तरफ जाने वाली सड़कों और उन सड़कों से निकली गलियों में सघन मुस्लिम आबादियाँ हैं। यह शहर का एक बड़ा मुहल्ला है, जिसमें शहर भर की मुस्लिम आबादी का एक बड़ा हिस्सा बसता है।
लेकिन हो सकता है, कि कुछ लोगों को लगे कि यहाँ आते ही उनकी मुलाक़ात अमां मियाँ या फिर ग़ालिब की ग़ज़लों को पढ़ने वाले या शेरवानी पहने हुए, हाथों में खूबसूरत सी छड़ी लिये हुए किसी खान साहब से हो, तो ये ख़्याल ही गलत है!
यह कोई फ़िल्म या ड्रामे का मुहल्ला नहीं है, जो बेहद नूरानी दिखाई दे, यह कम पढ़े-लिखे निचले तबकों से आने वाले मुसलमानों का मुहल्ला है, जहाँ की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी हिंदी से वाकिफ़ न होगा!
यह वाकई कोई ताज्जुब और हैरतअंगेज बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि शहर के बीचों-बीच बसे इस पूरे मोहल्ले में एक भी सरकारी स्कूल नहीं है।
मुसलमानों में कितने फ़िरक़े बँट गए, जाने कितनी बिरादरियां बँट गईं और पंचों का निर्माण हुआ, लेकिन मुहल्ले में एक स्कूल नहीं बन सका। कभी यह इस मुहल्ले के चुनाव का मुद्दा भी नहीं बन सका।
चुनाव में कमोबेश हर दफ़े जाति-बिरादर देख के सभासद चुने जाते हैं। कोशिश यही रहती है, कि हमारे बिरादरी का नेता जीते, भले ही काम एक न कराए।
बिरादरीवाद ऐसा लोगों के जेहन पर हावी है कि लोग आपसी अख़लाक़ तक को तर्क कर देते हैं। यहाँ तक कि, मारपीट की वजह भी बिरादरीवाद बनती है।
कहना न होगा कि यह कुरआन हदीस सम्मत मुस्लिम व्यवहार नहीं है। बिरादरी की पंचायत लगती है और राइन जैसी बिरादरी में तो हुक्का-पानी बन्द और रिश्ते-नाते तोड़ने की सजा आज भी क़ायम है!
लेकिन बाकी बिरादरियों के हालात भी इससे कुछ खूबसूरत नहीं हैं। यहाँ बिरादरीवाद खुलकर सामने आता है जबकि, बाकी बिरादरियों में यह ढका हुआ होता है।
एक तरफ यह भी कहा जाता है, कि खुदा और उसके रसूल के नज़दीक यह गुनाह है।
लेकिन इस गुनाह का गणित ऐसा है, कि मुसलमानों को सही राह दिखाने का दावा करने वाले उलेमाओं ने भी इस पर कभी कोई कड़ा एक्शन नहीं लिया। कहीं भी दीन हदीस के ख़िलाफ़ काम हो, फ़तवे आते हैं लेकिन जाति बिरादरी पर नहीं।
हमें समझना है कि फ़तवे निकालने से पहले मुस्लिम नेताओं से कोई मशविरा तो नहीं किया जाता!
फिरकों पर कहते हुए यह कहना महत्वपूर्ण होगा, कि कोई भी जाति या बिरादरी किसी खास फिरके से ताल्लुक रखे, कोई जरूरी नहीं है।
किसी भी बिरादरी का इंसान किन्हीं भी फिरकों से ताल्लुक रख सकता है, यहाँ तक कि, एक ही घर में अलग-अलग फिरकों से ताल्लुक रखने वाले लोग मिल जाएंगे।
फिरका एक किस्म की धारा होती है मज़हब की, और सभी धाराओं के हिसाब से मज़हब को लेकर सबकी अपनी-अपनी व्याख्या है।
बेगमवार्ड मुहल्ले में फिरकों की संख्या चार-पाँच है। ईद-बक़रीद को लेकर फिरकों में कोई भी मतभेद नहीं है, यहाँ तक कि, शिया-सुन्नी का भी इसे मनाने को लेकर कोई इत्तेफ़ाक नहीं है।
लेकिन कुछ और भी त्योहार हैं जिनको लेकर सभी फिरकों में अलग-अलग राय है। इसका एक अच्छा उदाहरण है, कि मोहर्रम को जितने धूमधाम तरीके से बरेलवी या शिया मुस्लिम मनाते हैं, तो बाकी फ़िरकों के मुस्लिम इसे सिर्फ़ एक नए वर्ष के रूप में मनाते हैं।
लेकिन वह ताजिये की प्रथा को लेकर असहमत हैं।
अब इस तस्वीर को बेगमवार्ड मोहल्ले में देखा जा सकता है, कि एक घर ताजिया निकालता है, तो आसपास के घरों के सामने सन्नाटा पसरा होता है।
हाँ, लेकिन, बच्चे एक उम्र तक सभी त्योहारों को मनाते हैं। हमें याद है, कि हम खुद मोहर्रम पर फ़ातेहा के बाद बँटने वाले लड्डू को खाया करते थे।
लेकिन बड़े हुए और पता चला कि वो नेक रास्ते पर चलने वाले मुसलमान नहीं हैं! जानकारी दी गयी, कि समझदारी आने के बाद फ़ातेहा के बतौर जो कुछ बँटे उसे खाना शिर्क करना है।
चाहे सम्बन्धों में कितनी भी मजबूती क्यों न हो लेकिन फ़िरक़ा उससे भी ज़्यादा मायने रखने लगता है अक्सर।
लेकिन कहते हैं कि पेट के भूखों का कोई मज़हब नहीं होता तो फ़िरक़ा बेहद दूर की चीज है। उन्हें क्या, दो रोटियां मिल जाएं खुदा के वास्ते या किन्हीं फिरकों के वास्ते या मजारों की सिन्नी! इनका कोई त्योहार भी नहीं होता!
त्योहार होते हैं अमीरों के लिए, भला इनका गरीबों से क्या वास्ता? ईद आए बक़रीद आए लेकिन किसने देखा है कि यतीम बच्चों ने नए कुर्ते डाले हों अपने बदन पर?
बाप होते हैं तो अरमान होते हैं कि अब्बाजान गैस के गुब्बारे तो दिला ही देंगे और माँ होती है तो ज़िद होती है, कि ईदी से जेब भरनी है। भले ही, छुट्टों के वजन से फट जाए!
गरीबी से दामन आज भी मुक़म्मल तौर पर इस मोहल्ले का नहीं छूट सका है। किसी के लिए रोज़े तीस दिन के होते हैं, किसी के सालों भर में छह महीने!
मुहल्ले में आज भी कुछ बच्चे हैं,जिन्होंने ईद देखी है लेकिन कभी मनाई नहीं है। उनके तन पर कभी नए कुर्ते नहीं आये। लेकिन फ़िक्र किसे है?
ज़कात हो, फितरा हो, कौन देता है? जो देते भी हैं बस रस्मअदायगी की तरह, कि बस किसी तरह खुदा को खुश रखा जाए और परलोक में एक हवेली, हूरों और शहद की नदियों की जुगत की जाए।
चौराहों पर बैठकबाजों के भाषण सुने जाएं तो लगता है कि इस कौम से बेहतरीन हालात किस कौम के होंगे! जहाँ, चौराहों पर खड़े होकर बड़े-बड़े मसले निपटा लिए जाते हैं।
लेकिन कहानी इसके ठीक उल्टी है। मुहल्ला तमाम गड़बड़ियों को पाले हुए चल रहा है। बहुत से लोग आर्थिक स्थिति में बेहद अच्छी स्थिति में हैं। लेकिन पढ़ाई लिखाई शिफ़र है, और तभी तो उनके सामाजिक हालात नहीं बदले।
बिरादरीवाद, फ़िरकापरस्ती ने मिलकर बेड़ागर्क कर रखा है। लेकिन मुस्लिमों ने शादी विवाह और तमाम मसलों पर इसे ऐसे अपना रखा है, कि मानों यह कोई शास्त्रीय विधान है!
मुस्लिम आपस में कई धड़ों में तक़सीम हैं और अक्सर यह फ़िरकापरस्ती और बिरादरीपन उन्हें आपस में लड़वा देता है।
मुहर्रम में ताजियों पर चादर चढ़ाने निम्न जातियों के गैर मुस्लिम भी आते हैं और एक गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल दिखती है तो दूसरे फिरकों के आलिमों, मुफ़्तियों के तरफ़ से फ़तवा जारी किया जाता है कि इस ताजियादारी में शामिल कोई भी खुदा के यहाँ बक्शा नहीं जाएगा।
भले ही परम्परा हदीस क़ुरान के ख़िलाफ़ हो या उसी से निकली हो लेकिन अगर वह ऐसी सौहार्द की मिसाल पेश करती है तो उनके ख़िलाफ़ फ़तवेबाजी यानी कि साम्प्रदायिक रवैये को अख़्तियार करना है।
लेकिन किसी भी फ़िरक़े में ये फ़तवेबाज गिने चुने ही होते हैं जिनकी बातों पर अक्सर लोग कान नहीं देते हैं। ‘ताजिए के जुलूस में उमड़ी हुई भीड़ में शिया, बरेलवी और ताजिये से असहमति रखने वाले देवबंदी, अहले हदीस सभी होते हैं।’
यह बेहद गलत अवधारणा है कि मुस्लिम कट्टर मज़हबी होते हैं। दरअसल यह सारी कट्टरता बस ऊपरी रूप है और सचमुच में इस समुदाय ने इस देश की संस्कृति और त्योहारों को जिस तरह अपनाया है, सम्भवतः इसकी दूसरी मिसाल दुर्लभ ही होगी।
लेकिन तमाम तत्वों को ग्रहण करते हुए मुस्लिमों ने वह भी ग्रहण कर लिया जो मज़हब के बुनियादी शिक्षाओं के ही ख़िलाफ़ है।
अब इस्लाम अंधविश्वास का एक हद तक खंडन करता है लेकिन बहुलता में मुस्लिमों ने इसे अपना रखा है। ऊपर हमने जाति बिरादरी और फ़िरक़े पर भी यही बात कही थी लेकिन जिस तरह भारत में उसे मुस्लिमों ने अपनाया कि गोया वह कोई बेहद अहम चीज है।
मुस्लिमों ने कुछ भी नहीं छोड़ा, सबकुछ को गले लगा लिया और प्रमाण के रूप में हम मुहल्ले की चंद घटनाओं का उल्लेख करना पसन्द करेंगे।
‘अस्पताल में भर्ती अपने रिश्तेदार की अच्छी सेहत के लिये एक मुस्लिम औरत ने जब आसपास मस्जिद की खोज की कि मौलवी साहब या इमाम साहब से पानी फूँकाकर मरीज को पिलाया जाए।
लेकिन बदकिस्मती से मस्जिद नहीं मिली, सामने एक मंदिर थी। उस ख़ातून ने मंदिर में ही रिश्ते दार की अच्छी सेहत के लिए दुआएं माँगी। क्या यह कट्टरपंथी होने के मिथक को नहीं तोड़ता?’
दरअसल सच तो ये है कि साम्प्रदायिक ताक़ते सिर्फ मज़हब और मज़हब को ही नहीं लड़ाती हैं बल्कि वह मज़हब में भी फिरकों को बनाकर उन्हें आपस में लड़ाती हैं।
मोहर्रम के जुलूस से, बारावफात के जुलूस से, इत्यादि से जैसे कुछ हिन्दू साम्प्रदायिकों को दिक्कत होती है उसी किस्म की दिक्कत या उससे कहीं ज्यादा फ़तवेबाजों को होती है।
मुहल्ले में भिन्न-भिन्न मुस्लिम जातियां एक साथ रहती हैं, बल्कि इसी के साथ यह ज़िक्र भी अप्रासंगिक न होगा कि इसी मोहल्ले कई सौ मुस्लिम घरों के बीच में दो चार दलित के घर भी हैं।
लेकिन इन्हें इस तरह कुछ लोगों ने बाँट रखा है, कि चुनाव और तमाम अवसरों पर बस बिरादरी ही दिखती है।
यह कमी कुछ लोगों को महसूस होती है कि मोहल्ले में बड़ी खामियां हैं लेकिन उन्हें ठीक कैसे किया जाए, इसका कोई हल नहीं है।
कुछ लोग ये भी महसूस करते हैं मौलवियों से छुटकारा पाना होगा लेकिन फिर वो बिरादरी में उलझ जाते हैं। जो बिरादरी से ऊपर उठना चाहते हैं तो फिरकों में उलझ जाते हैं।
इसी मोहल्ले में मज़ार है तो इसी मोहल्ले में मस्जिद भी है और इसी मोहल्ले में ताजिया उठती है तो मस्जिदों से अज़ान होती है।
मज़ारों पर उर्स होता है तो मस्जिदों में बैठक लगती है और किसी घर में मर्शिया होती है तो किसी घर में मिलाद होता है।
आपस में अंतर्विरोध भले ही खूब हों और जाति बिरादरी के नाम पर लाठियां चल जाये लेकिन दलितों के प्रति कुछ उच्च जातीय मुस्लिम को छोड़ दें किसी का रवैया किसी प्रकार के भेदभाव का नहीं है।
चौराहों पर गोश्त और बिरयानी की दुकानों पर हिन्दू भी आते हैं और अक्सर बातचीत में वो शरीक हो जाते हैं। अब जिसको लगता है कि होली खेलने और बिरयानी खाने से धर्म चला जायेगा तो लगा करे।
क्योंकि सौहार्द ही तो धर्म है न कि कट्टरपन। मोहल्ले में गैर मुस्लिमों की भी चंद दुकानें हैं और सभी आपस में घुलमिल गए हैं लेकिन यह घुलनशीलता पोंगापंथी जनों को क्यों फबेगी?
देश की तमाम बातों पर बारह बजे रात तक चर्चा इस मुहल्ले में होती रहती है और कोई मुद्दा रह नहीं जाता। देश की इकोनॉमी और तमाम पहलुओं पर बातचीत होती है।
उन बातचीत में सभी के मतभेद भी रहा करते हैं लेकिन इसका फ़ायदा क्या हुआ देश को, इसे मत पूछिये! बस फ़िक्र देखिये। हाँ, मुस्लिम होने के नाते एक दर्द जरूर रहा कि ‘इस मिट्टी में मिलकर इसी रंग के हो गए लेकिन आज भी यहाँ के न समझे गए।’
तमाम कट्टरवादी लोगों को आज भी ये मोहल्ला नहीं एक छोटा सा पाकिस्तान लगता है, जहाँ से गुज़रते हुए गोश्त और बिरयानी की दुकान देखकर ऐसा नाक सिकोड़ते हैं, कि शायद इसके बाद गंगा स्नान से ही पवित्र करेंगे खुद को।
कुछ अच्छी खासी संख्या में निम्न जाति के समझे जाने मुसलमानों ने व्यावसायिक पेशे को अपना कर अपनी आर्थिक स्थिति बेहतर तो कर ली है लेकिन घर में अभी तो इल्म की लौ न जल सकी है।
शैक्षिक पिछड़ापन भी इस मुहल्ले को पीछे धकेल रहा है। शहर में होते हुए भी यह मुहल्ला एक सरकारी स्कूल और सड़क के लिए तरस गया।
जान पड़ता है, कि शहर के हाकिमों ने इसे पाकिस्तान समझ इसकी खिदमत न की और मुहल्ले के नेताओं ने भी ठेंगा दिखाया लेकिन किसी को कोई सुध नहीं है।
इसका कारण सभी का तमाम क्षेत्रों में पिछड़ा होना है। महिलाओं की स्थिति ऐसी ख़राब भी नहीं है लेकिन उनके बीच शिक्षा का पूरा अभाव है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था उन परिवारों में उतनी ही कठोरता से लागू, जो ऊँची बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं। तमाम विसंगतियों के बावजूद मुहल्ले में तमाम घटनाएं ऐसी हैं जो मुस्लिमों को लेकर प्रचलित मिथकों और भ्रांतियों को तोड़ती हैं।
इन घटनाओं का उल्लेख हम आगे के लेखों में एक कथा शैली में कहने की कोशिश करेंगे।
हमने कुछ घटनाओं को केंद्र में रखा है, जिससे एक आम इंसान देख सके कि कैसे होते हैं मुस्लिम, कैसा होता है उनका मुहल्ला, क्या आज भी वहाँ बाबर और मुगल पैदा होते हैं?
या फिर, आज वह तमाम भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को समेटे हुए जिसमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू शामिल हैं, को लेकर आगे बढ़ रहा है।
लेकिन इसके बावजूद भी पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोगों के लिए यह है तो सिर्फ़ एक- ‘मियों का मुहल्ला’
( मुहम्मद उमर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र हैं। उन्होंने ‘मियों का मोहल्ला’ नाम से एक श्रृंखला शुरू की है, जिसकी पहली कड़ी यहाँ समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत की गयी है)