पटना। आईएमए हॉल, पटना में 31 मार्च को जन संस्कृति मंच और समन्वय की ओर से ‘स्वदेश की खोज और मुक्तिबोध’ विषय पर परिचर्चा और कवि-कथाकार-विचारक-फिल्मकार देवी प्रसाद मिश्र के एकल काव्य पाठ का आयोजन हुआ।
पहले सत्र में कवि और मनोचिकित्सक डॉ. विनय कुमार ने कहा कि मुक्तिबोध सिजोफ्रेनिक नहीं थे। मुक्तिबोध पर रामजी राय की पुस्तक उनके भीतर उतरने की कोशिश करती है। मुक्तिबोध को पढ़ते हुए हम सृजनात्मकता के विभिन्न पहलुओं को समझ सकते हैं। मुक्तिबोध की कविताएँ एक साथ राजनैतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक हैं।
कवि देवी प्रसाद मिश्र का कहना था कि मुक्तिबोध रामजी राय के घोषणा- पत्र हैं। एक राजनीतिक कार्यकर्ता और कवि के बीच ऐसा संबंध विरल है। हिन्दी पट्टी के इतिहास में शायद कोई ऐसा राजनैतिक व्यक्ति नहीं है, जिसने किसी कवि पर इतना भरोसा किया होगा। यह एक राजनैतिक कार्यकर्ता द्वारा एक कवि में अपने विजन की तलाश करना है। मुक्तिबोध का स्वदेश गांधी का ग्रामीण स्वराज्य नहीं है। वे पुनर्निर्माण नहीं, बल्कि नया निर्माण चाहते हैं।
आलोचक प्रणय कृष्ण ने कहा कि रामजी राय की पुस्तक ‘स्वदेश की खोज ‘ मुक्तिबोध का पाठक बनने की सलाहियत पैदा करती है। इस पुस्तक में निष्कर्ष के बजाय पर्सपेक्टिव (परिप्रेक्ष्य)अधिक हैं। मुक्तिबोध को मार्क्सवाद के सिद्धांतों से अधिक मार्क्सवाद की प्रक्रिया पर भरोसा था। अपने समय की जो उन्नत विचार-व्यवस्थाएँ थीं, उन पर उनकी निगाह रहती थी । वे भारत के शासककर्ता के गुणसूत्रों की पहचान करने वाले कवि हैं। जो भी अपने जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित हैं, दलित-दमित- उत्पीड़ित है, वे उसके ‘स्वदेश’ की खोज के कवि हैं।
पुस्तक ‘ स्वदेश की खोज ‘ के लेखक रामजी राय ने कहा कि देश की खोज गांधी ‘हिन्द स्वराज्य’ में और नेहरू ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ कर रहे थे। अंबेडकर इसे ‘निर्माणाधीन राष्ट्र’ के रूप में देख रहे थे। भगत सिंह साम्राज्यवाद-विरोधी किसान-मजदूरों के राष्ट्र की परिकल्पना कर रहे थे। लेकिन ये सारी खोजें औपनिवेशिक काल में हो रही थीं। मुक्तिबोध के सामने नये बने राष्ट्र के अंतर्विरोध थे। पूंजीवाद और सामंतवाद के गठजोड से बनी व्यवस्था के भीतर से आ रहे फासिज्म की शिनाख्त कर रहे थे और उसके बरखिलाफ एक नये स्वदेश की खोज को अपनी कविता में आयत्त कर रहे थे।
आरंभ में विषय प्रवर्तन करते हुए सुधीर सुमन ने कहा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवादी मानते हैं कि भारत बहुत पहले से बना-बनाया राष्ट्र है, पर मुक्तिबोध इस राष्ट्रवाद की जनतंत्रविरोधी राजनीति और भेदभाव और नफरत पर आधारित समाजशास्त्र की असलियत दर्शाते हैं। उसके सामंती-सांप्रदायिक और पूंजीवादी मंसूबों की शिनाख्त करते हैं और इसी प्रक्रिया में मानवविरोधी तानाशाह फासिस्ट व्यवस्था को बेपर्द करते हैं। मुक्तिबोध नवनिर्मित राष्ट्र में जनतंत्र के प्रश्नों को उठाने वाले सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साहित्यकार और पत्रकार हैं।
पहले सत्र की अध्यक्षता शिक्षाविद् गालिब ने की। मंच पर कवयित्री प्रतिभा वर्मा भी थीं।
दूसरे सत्र में देवी प्रसाद मिश्र का एकल कविता पाठ हुआ। उनका परिचय कवि अंचित ने दिया और कहा कि उनकी कविताएँ नये सौंदर्यशास्त्र की मांग करती हैं। देवी प्रसाद मिश्र ने जनपक्षीय सॉनेट से काव्य पाठ की शुरुआत की, जिसे लोगों ने बेहद पसंद किया। इसके बाद उन्होंने ‘सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का शपथ ग्रहण समारोह’, ‘मुश्किल समय का प्रामाणिक पाठ’, ‘सत्य तक पहुंचना”, ‘अकेले आदमी के लिए, ‘कोई और’, ‘बहुत हो गया ‘करो ना’, ‘करने दो पेशाब मुझे’,’ देह’, ‘उस समय वसंत नहीं था’ आदि कविताओं का पाठ किया। ‘ सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का शपथ ग्रहण समारोह ‘ में उन्होंने तंज किया कि उसे देखकर यह नहीं कहा जा सकता है कि देश में अन्याय था।
अपनी एक कविता में उन्होंने कहा कि ‘जो जितना ही सताया गया है/ वह उतना ही संदेहास्पद क्यों माना गया।’ उन्होंने छंदोबद्ध कविताएँ भी सुनायीं। एक कविता में कहा – मैं उधर नहीं जाऊँगा जिधर जैकारे। दूसरे सत्र की अध्यक्षता लेखक-अनुवादक यादवेंद्र ने की। मंच पर कवयित्री गुंजन उपाध्याय पाठक भी मौजूद थीं।
दोनों सत्रों का संचालन सुधीर सुमन ने किया । धन्यवाद ज्ञापन राजेश कमल ने किया। इस मौके पर सुमंत शरण, अनिल अंशुमन, संजय कुमार कुंदन, प्रतिभा वर्मा, अरविंद, खुश्बू राधा, बालमुकुंद, कुमार मुकुल, पुष्पराज, शुभेश कर्ण, मधुबाला, विभा गुप्ता, रिया, मात्सी शरण, कुमुद कुंदन, रामकुमार, अभिनव, राजन, प्रीति प्रभा, कृष्ण समिद्ध, शोभन चक्रवर्ती, पुनीत, परवेज, अभ्युदय और नवीन कुमार आदि मौजूद थे।