समकालीन जनमत
स्मृति

दलितों की प्रगतिशील परंपरा के संवाहक मुकेश मानस

इधर एक और बेहद पीड़ादाई खबर आयी कि प्रगतिशील दलित साहित्यकार, जनसंघर्षों में हम सबके साथी युवा कवि, चिन्तक, आलोचक मुकेश मानस (15 अगस्त 1973- 04 अक्टूबर 2021) अब हमारे बीच नही रहे. वे सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर थे. लिखने पढ़ने के शौकीन, जिंदादिल, बहस मुबाहिसे में हिस्सा लेने वाले, यारबाश, जनसंघर्षों के धुर समर्थक और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में मशगूल रहने वाले अपने तरह के व्यक्ति थे. आधुनिक हिंदी कविता, दलित साहित्य, मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद उनकी दिलचस्पी के क्षेत्र थे. आधुनिक हिंदी कविता पर उनकी पुस्तक ‘हिंदी कविता की तीसरी धारा’ काफी चर्चित रही थी. वे जबरदस्त उद्यमी आदमी थे. हमेशा नए तरह से सोचने वाले; नए का सम्मान करने वाले; जोखिम उठाने वाले और रचनात्मकता के लिए किसी भी हद तक जाने वाले शख्स थे. अपने राजनीतिक सांस्कृतिक जीवन की शुरुआत उन्होंने वामपंथी संगठन व ‘नौजवान’ पत्रिका से की थी. वे भगत सिंह को बेहद पसंद करते थे तथा डॉ. अंबेडकर के राजकीय समाजवाद के हिमायती थे.

बाद के दिनों में उन्होंने कई एक्सपेरिमेंटल इनीशिएटिव लिए जिसमें पत्रिका, प्रकाशन और सांस्कृतिक संगठन निर्माण आदि मुख्य थे. उन्होंने ‘मगहर’ नाम से एक पत्रिका निकालना शुरू किया था. ‘मगहर’ नाम से ही सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह किस प्रगतिशील सोच के साथ इस पत्रिका को निकाल रहे थे. वे ‘मगहर’ के संस्थापक, प्रकाशक व संपादक सभी कुछ थे. मगहर के कई अंको में बेहतरीन सामग्री आयी. इसका ‘दलित बचपन’ वाला अंक पाठकों के बीच खासा मकबूल हुआ. उन्होंने आरोही नाम से एक प्रकाशन गृह की स्थापना भी की थी जिसकी टैग लाइन ही थी आरोही-लेखको का अपना प्रकाशन. इसके जरिये उन्होंने नए प्रगतिशील रचनाकारों को सामने लाने का उद्यम किया. यह सही है कि उन्हें छोटा जीवन मिला लेकिन साथ ही यह भी उतना ही सही है कि इस छोटे अंतराल में भी वे काफी सक्रिय रहे. उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता देखने लायक थी. इस सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता के साथ ही उन्होंने काफी बड़ी मात्रा में साहित्य लेखन भी किया.

‘पतंग और चरखड़ी’ उनका पहला कविता संग्रह था; जो 2001 में छपा था. उनका पहला कहानी संग्रह ‘उन्नीस सौ चौरासी’ 2005 में आया था. उसके बाद मेरी जानकारी में 2010 में ‘कागज़ एक पेड़ है’, और ‘धूप खिली हुई’ नाम से दो और कविता संग्रह आये. ‘पंडित जी का मंदिर और अन्य कहानियां’ नाम से उनका एक और कहानी संग्रह 2012 में आरोही प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था. उन्नीस सौ चौरासी, अभिशप्त प्रेम, समाजवादी जी उर्फ प्यारेलाल भारतीय, कल्पतृष्णा, बड़े होने पर, सूअरबाड़ा, दुलारी, औरत, टूटा हुआ विश्वास, शराबी का बेटा और पंडित जी का मंदिर आदि उनकी प्रसिद्ध कहानियां हैं. आलोचना पुस्तक ‘हिंदी कविता की तीसरी धारा’, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली के बाद उनकी एक और किताब ‘दलित साहित्य के बुनियादी सरोकार’ नाम से हाल के वर्षों में आई थी. सामयिक पत्रकारिता पर भी उनकी पैनी नजर थी. उनकी एक पुस्तक ‘मीडिया लेखन: सिद्धांत और प्रयोग’, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, नाम से आई. यह दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच खासी लोकप्रिय रही. उनकी कुछ बुकलेट्स ‘सावित्रीबाई फुले: भारत की पहली महिला शिक्षिका’, ‘अम्बेडकर का सपना’, ‘भगत सिंह और दलित समस्या’ बेहद प्रसिद्ध रहीं. उन्होंने कुछ बेहद महत्वपूर्ण व जरूरी पुस्तकों का अनुवाद भी किया जिनमें ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिंदू’ (2003) कांचा इलैया और ‘इंडिया इन ट्रांजिशन’ (2005) एम. एन. राय की पुस्तकें उल्लेखनीय हैं. उनके कुछ स्वतंत्र लेख भी बेहद पसंद किए गए जिनमें ‘हिन्दी कविता की तीसरी धारा’, ‘दुष्यत कुमार की गज़ल’, ‘अछूत दलित जीवन का अंतर्पाठ’, ‘दलित साहित्य आंदोलन के पक्ष में’, ‘हिन्दी दलित साहित्य आंदोलन: कुछ सवाल, कुछ विचार’, ‘अम्बेडकर का सपना, दलित समस्या और भगत सिंह’, ‘मीडिया की जाति’, ‘सांस्कृतिक कर्म’, ‘नौजवान का रास्ता: भगत सिंह को क्यों याद करें’, ‘फासीवाद, साम्प्रदायिकता और दलितजन’, ‘समाजवाद मांगेंगे, पूँजीवाद नहीं’ आदि प्रमुख हैं.

वे दलितों की प्रगतिशील परंपरा के संवाहक थे. कास्ट, क्लास और जेंडर की तिहरी लड़ाई के समर्थक थे. अपने एक लेख ‘समाजवाद मागेंगे, पूंजीवाद नहीं’ में दलित पूंजीवाद की हिमायत करने वालों की तीखी आलोचना करते हैं और दलितों की सर्वांगीण मुक्ति का रास्ता खोजते हुए बताते हैं कि ‘भारत का पूरा दलित समाज और उसका आंदोलन एक जबर्दस्त संक्रमण काल से गुजर रहा है. पूरा दलित समाज जबरदस्त हिलोरें ले रहा है और उसके दलित आंदोलन में कई तरह के जरूरी सवालों पर विचार-मंथन चल रहा है. इन सवालों में सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल ये है कि दलितों की सर्वांगीण मुक्ति का रास्ता क्या है? लगातार चलने वाले इन बहस मुबाहिसों में एक बात बार-बार निकल कर आ रही है कि दलितों की सर्वागीण मुक्ति एक ऐसे समाज की स्थापना करने में निहित है जिसमें जात-पात न हो, अमीर-गरीब न हो. जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सिद्धांतों पर आधरित हो और जिसमें कोई किसी का शोषण न कर सके, जिसमें सबको फूलने फलने का पूरा मौका और स्वतंत्रता मिले और ऐसा समाज पूंजीवाद तो कतई नहीं हो सकता चाहे, वह अमरीकी पूंजीवाद हो या दलित पूंजीवाद.’

इसी लेख में आगे वे लिखते हैं- ‘इस देश में आज भी अम्बेडकर से बड़ा दलितों का हितैषी कोई नहीं है. अपनी मृत्यु के लगभग 50 वर्षों बाद भी वह दलितों के लिए प्रासंगिक बने हुए हैं बल्कि दलितेत्तर समाजों में भी वह लगातार प्रासंगिक होते जा रहे हैं. कहा जा सकता है कि इस देश के आगामी सुखद परिवर्तनों का आधार भी डा. अम्बेडकर ही साबित होने जा रहे हैं. आजादी के बाद इस देश की व्यवस्था कैसी हो? इस बारे में उनके विचार क्रांतिकारी थे. वे लगातार इस देश की व्यवस्था को एक राजकीय समाजवादी व्यवस्था में बदलने की वकालत करते रहे. उन्होंने भूमि समेत तमाम उत्पादन शक्तियों के राष्ट्रीयकरण जैसी रणनीतियां भी पेश की जो देश को एक समाजवादी व्यवस्था की तरफ ले जाने वाली आधारभूमि को तैयार करने में मददगार साबित हो सकती थी. मगर यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि उनकी इन बातों को दरकिनार कर दिया गया लेकिन आज उनके यही सिद्धांत दलित मुक्ति आन्दोलन के प्राण है.’

मुकेश मानस दलित कैपिटलिज्म कि मायावी तस्वीर का सच खोजने की भी कोशिश करते हैं. वे कहते हैं- ‘दलित कैपिटलिज्म में क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा सूटेड-बूटेड, पढ़े लिखे दलितों में से बहुत से दलित पूंजीपति हो जाएंगे. सवाल है बाकी दलित जनता का क्या होगा? क्या ये दलित पूंजीपति दलित जनता के श्रम का शोषण किये बिना मुनाफा कमा पाएंगे? क्या बिना मुनाफा कमाये ये लोग पूंजीपति बने रहेंगे? पूंजी की प्रवृति लगातार कुछ हाथों में सीमित होते जाने की रही है. क्या गारंटी है कि आज जो लाखों लखपति बनेंगे, गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में कल भी बने रह पाएंगे. क्या ये दलित पूंजीपति भी अन्य पूंजीपति से भिन्न रह पाएगे? पूंजीवाद के बारे में सारी दुनिया की जनता का अनुभव यह बताता है कि पूंजीवाद किसी भी देश में जनता के हित में नहीं रहा है. यह जनता का शोषण करने वाली एक खूनी व्यवस्था है. पूंजीवाद का इतिहास शोषण, दमन और नृशंसताओं का इतिहास है क्या गारंटी है कि दलित कैपिटलिज्म इस खूनी खेल में शामिल नहीं होगा. वह मजदूरों किसानों, गरीबों, महिलाओं का शोषण नहीं करेगा. इस बात की गारंटी शायद दलित कैपिटलिज्म के एजेंडे में नहीं है.’ और यह भी कि ‘दलित कैपिटलिज्म की मांग दरअसल एक ऐसी ही समाज व्यवस्था को यथावत बनाए रखने की मांग है जिसमें कुछ अमीर हो और शेष जनता गरीब, जिसमें कुछ शोषक हो और बाकी शोषित; ऐसी व्यवस्था में दलितों की मुक्ति नहीं हो सकती?’ बेहद साफ लहजे में वे कहते हैं, ‘दलितों की मुक्ति का एक ही रास्ता है समाजवाद का रास्ता; अगर किसी से कुछ मांगना ही है तो दलित जनता समाजवाद मागेगी, पूंजीवाद नहीं. समाजवाद में ही दलितों की और शेष शोषित जनता की संपूर्ण मुक्ति होगी, पूंजीवाद में नहीं.’

गोधरा गुजरात के बाद 21वीं सदी के आरंभ में जिस फासीवाद की आहट हमें सुनाई देती है उसे लेकर मुकेश मानस की अपनी गंभीर चिंताएं रही हैं. वे दलित जनसमाज के संदर्भ में फासीवाद और साम्प्रदायिकता की समस्या की समीक्षा करते हैं. ‘फिलहाल’ पत्रिका, मार्च, 2003 में प्रकाशित एक बहुचर्चित व बहु प्रशंसित लेख ‘फासीवाद, साम्प्रदायिकता और दलितजन’, में वे लिखतें है- ‘हिन्दू धर्म के फासीवादी और सांप्रदायिक आचरण का संबंध दलितों के साथ दोतरफा है- जाति के स्तर पर और धर्म के स्तर पर. हिन्दू धर्म की जातिगत श्रेणीबद्धता के कारण दलितों का हर स्तर पर शोषण हुआ है. इस जातिगत अवमानना और शोषण के चलते ही दलित दूसरे धर्मों में गए हैं. इसमें उनकी मुक्ति की छटपटाहट और चाहत झलकती है. आज तथाकथित हिन्दुत्ववादी जब दूसरे धर्मों पर हमला करते हैं तो यह हमला परोक्ष रूप में दलितों पर ही होता है. हिन्दू धर्म के फासीवादी और अमानवीय ढांचे में दलितजन रह नहीं सकते. अगर वे इससे बाहर जाने का प्रयास करते हैं तो उन्हें सताया जाता है. हिंसात्मक तरीके अपनाकर उनका दमन किया जाता है. अभी तक तथाकथित हिन्दुत्ववादी परोक्ष रूप में ही दलितों पर हमला करते रहे हैं. अब वे सीधे-सीधे दलितों पर हमला करने की स्थिति में आ रहे हैं. आरक्षण विरोधी अभियान छेड़कर और धर्मातरण पर रोक लगाकर वे इसकी शुरुआत कर चुके है। इसलिए इस बारे में अब कोई खामख्याली नहीं है. तथाकथित हिन्दू धर्म और हिन्दुत्ववाद अपने समग्र रूप में दलितों का विरोधी है.’ अपनी एक कविता ‘फासिस्ट’ में इसी फासीवादी प्रवृत्ति पर चोट करते हुए वे लिखते हैं- “मैंने कहा/ गंगा गंगोत्री से निकलती है/ उसे अपने इतिहास पर ख़तरा लगा/ उसने मुझे मार दिया/ मैंने कहा/ श्रीराम दिल्ली में रिक्शा चलाते हैं/ उसे अपने धरम पर ख़तरा लगा/ उसने मुझे मार दिया/ मैंने कहा/ ईश्वर आदमी का दुश्मन है/ उसे अपनी शिक्षा पर ख़तरा लगा/ उसने मुझे मार दिया/ मैंने कहा/ हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई हैं/ उसे अपनी नीति पर ख़तरा लगा/ उसने मुझे मार दिया/ उसने मुझे बार-बार मारा है/ मैंने बार-बार उसका चेहरा उघाड़ा है/ दरअसल वो हत्यारा है.”

उनका मानना था कि फासीवाद का मुकम्मल जवाब दलितों के पास ही है क्योंकि वह वंचित तबका है और यह भी कि इससे युद्ध में उसे ही नेतृत्वकारी भूमिका निभानी है. वे आगाह करते हुए कहते हैं कि धार्मिक सांस्कृतिक शोषण का जवाब धर्मांतरण कतई नहीं हो सकता है. अपने ‘फासीवाद, साम्प्रदायिकता और दलितजन’ वाले लेख में ही वे लिखते हैं कि ‘हिन्दू धर्म और राजसत्ता के फासीवादी रूप की मार दलितों को ही ज्यादा झेलनी पड़ रही है या उन्हें ही ज्यादा झेलनी है. इसलिए इससे मुक्ति की राह भी उन्हीं को निकालनी है. सांप्रदायिकता और फासीवाद से मुक्ति की राह में धर्म परिवर्तन अब दलित आंदोलन को पीछे ले जाने वाला कदम है. आजकल सारे धर्म इतने विकृत हो चुके है कि उनसे दलितों का कोई भला नहीं होने वाला है. इसका यह मतलब नहीं है कि दलित लोग कोई नया धर्म बना लें.’ यहाँ इस मुद्दे को ठहरकर देखें और विचार करें दलित धर्म की खोज करने वालों और उनकी खोज पर लहालोट होने वाले लगुओं भगुओं की मानसिकता पर तब जाकर सही मायने में इस बात का महत्व समझ आएगा. दलित व प्रगतिशील और जनवादी ताकतों के बीच इत्तेहाद सांप्रदायिकता और फासीवाद से लड़ने में कितना ज़रूरी है वे इसे समझते हैं और जोर देकर कहते हैं कि ‘दलितों को अब इससे आगे का कदम सोचना पड़ेगा. यह कदम क्या होगा जो उन्हें उनकी संपूर्ण मुक्ति की ओर ले जा सके. इस सवाल का जवाब अभी भविष्य की गोद में ही है. मगर यह तय बात है कि सांप्रदायिकता और फासीवाद का मुंहतोड़ और मुकम्मल जवाब दलितों के पास ही है. इस काम में उन्हें ही लगना है. इस काम को वे समाज में मौजूद प्रगतिशील और जनवादी ताकतों के साथ मिलकर ही पूरा कर पाएंगे. मगर फासीवाद और सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष में नेतृत्वकारी भूमिका उन्हें ही निभानी होगी.’

यह जो नेतृत्वकारी भूमिका दलितों को निभानी है उसके लिए उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन बनाने होंगे क्योंकि सत्ता के संगठनों से वो लड़ाई लड़ी और जीती नहीं जा सकती. इस बात को मुकेश मानस  बखूबी समझते थे. उनके लिए राजनीति और संस्कृति अलग-अलग चीजें नहीं थीं. अपने एक लेख ‘सांस्कृतिक कर्म’ में वे लिखते हैं कि, ‘आज ऐसे संगठनों की कमी नहीं है जो राजनीति और संस्कृति को अलग-अलग चीजें मानते हैं. इनके लिए राजनीतिक कर्म एक बात है तो सांस्कृतिक कर्म दूसरी; दोनों में कहीं मेल मिलाप नहीं. इस तरह के संगठनों में से अधिकतर सरकारी संगठन है. इनके पास अकूत आर्थिक स्रोत सुविधाएं है. इसके बावजूद इनका कर्मक्षेत्र एकदम सीमित ओर संकुचित है. इस तरह के संगठन अपने कामों के जरिए लोगों की रूढ़ियों को और बढ़ाने व उनकी समझ को और भोथरी करने का ही काम करते हैं. दरअसल इस तरह के सांस्कृतिक संगठन सरकार और सरकारी मशीन के पुछल्ले होते हैं. वे सांस्कृतिक कर्म को सरकार की नीतियों और कार्यों की प्रशंसात्मक, काव्यात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति मानते हैं. जिस प्रकार की विचारधारा और राजनीति की सरकार देश की गद्दी  पर बैठती है वे उसी प्रकार की मानसिकता से संस्कृति प्रचार करने लगते हैं. इनको जनता की उन मुसीबतों से कोई मतलब नहीं होता जो अंततः सरकार की गलत नीतियों के परिणामस्वरूप उन्हें झेलनी पड़ती है. ये संगठन अंततः जनविरोधी ही साबित होते हैं.’ इसलिए वे दलितों वंचितों के लिए उनके अपने सांस्कृतिक संगठनों के हिमायती रहे और इसकी कोशिश आजीवन करते रहे.

आज चारों तरफ, युवाओं में व्यक्तिवाद, अवसरवाद और अलग-अलग रहने की मानसिकता छाई हुई है. यही मानसिकता उनकी शोषण के खिलाफ, लड़ने की ताकत को कम करती है. ऐसा मानने  वाले मुकेश मानस ने प्रगतिशील युवा संगठन के लिए 1996 में लिखे अपने लेख ‘नौजवान का रास्ता: भगत सिंह को क्यों याद करें’ में लिखा- ‘भगतसिंह ने कहा था कि अगर कोई सरकार जनता को उसके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दे तो उस देश के नौजवानों का यह कर्तव्य ही नहीं बल्कि अधिकार भी बन जाता है कि ऐसी सरकार की सत्ता को पलट दे. भगतसिंह ने ही कहा था कि नौजवान खुद संगठित होकर और जनता को जागरूक व एकजुट करके ही ऐसी दुनिया बसा सकते हैं जिसमें आदमी, आदमी का शोषण न कर सके. जिस पूंजीवादी व्यवस्था में हम जी रहे हैं वह ही हम सबकी मुसीबतों की जड़ है. पूंजीवादी व्यवस्था का जवाब संगठन, जनवाद और समाजवाद ही हो सकता है. हम संगठित होकर ही इस अत्याचारी पूंजीवादी व्यवस्था से लड़ सकते हैं और अपने आक्रोश, संघर्ष और निराशा को आशा में बदल सकते हैं.’ फासीवाद, साम्प्रदायिकता, जाति, जनतंत्र, राजनीति, संस्कृति, विचारधारा, विमर्श व पूंजीवादी सत्ता उनकी चिंताओं के केंद्र थे. लेकिन उनकी चिंताएं कई बार इस परिधि को लाँघ कर बृहत्तर हो जाती थीं. मानवता, प्रकृति, प्रेम और इकोलॉजी के बारे में भी वे सोचते थे जैसे कोयलगान नामक अपनी एक कविता में कहते हैं कि- “कहाँ गए सब जंगल?/ कहाँ गए सब बाग-बगीचे?/ कहाँ गए सब खूबसूरत फूल?/ जो ये कोयल गा रही है/ दिल्ली जैसे महानगर में रहने वाले/ मेरे जैसे एक कवि के घर में.” इसी तरह अपनी एक और छोटी कविता ‘परिंदे’ में वे कहते हैं कि “उड़ो/ कि तुम परिन्दे हो/ उड़ो/ कि उड़ना तुम्हारा धर्म है/ उड़ो/ कि सारा आकाश तुम्हारा है.” और देखिये आज वह कर्मठ परिंदा उड़ गया है. क्योंकि उड़ना ही उसका धर्म था, सत्य था. ऐसे समय में जब फासीवादी ताकतें मजबूत हो रही हैं मुकेश मानस जैसे जनपरस्त प्रगतिशील योद्धा का जाना दलितों की प्रगतिशील धारा के लिए एक बड़ी क्षति है.

 

 

(लेखक एनसीईआरटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. संपर्क-9999508476, ईमेल/Email: drsarveshmouryancert@gmail.com )

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