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ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों के निगमीकरण और निजीकरण की तरफ बढ़ती मोदी सरकार

बीते 30 सितंबर को लगभग सभी अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं ने एक खबर प्रकाशित की. उक्त खबर के अनुसार भारतीय सेना ने रक्षा मंत्रालय को सौंपी रिपोर्ट में कहा है  कि ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड द्वारा भारतीय सेना को घटिया गुणवत्ता के हथियार आपूर्ति किए गए,जिसके चलते अप्रैल 2014 से अप्रैल 2019 के बीच 27 सैनिकों और सिविलियनों की जान गयी और 159 घायल हुए. समाचारों के अनुसार सेना की रिपोर्ट में कहा गया है कि उक्त खराब सामग्री के चलते 960 करोड़ रुपये का नुक्सान हुआ. इतनी धनराशि का उपयोग 100, 155 एमएम की होवित्ज़र जैसी तोपें खरीदने में किया जा सकता था.

सेना ने खराब तोपों और आयुध की शिकायत की,यहाँ तक तो समझ में आता है,लेकिन इससे आगे की खबर संशय पैदा करने वाली है. लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं ने लिखा है कि सेना ने खराब गुणवत्ता के समाधान के तौर पर ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड के निगमीकरण की सिफ़ारिश की. खबर के इस हिस्से पर संदेह इस लिए पैदा होता है क्यूंकि ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड के निगमीकरण का अभियान लंबे समय से नरेंद्र मोदी की सरकार चलाये हुए है. 16 जून 2020 को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की कि देश की 41 ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों का निगमीकरण किया जाएगा और इन्हें शेयर बाजार में सूची बद्ध किया जाएगा. निगमीकरण की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार ने एक मंत्रियों का समूह बनाया है,जिसकी अध्यक्षता रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को सौंपी गयी है.

इस तरह देखा जाये तो सेना की रिपोर्ट के आधार पर जिस निगमीकरण के पक्ष में माहौल बनाया जा रहा है,वह पहले से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार  का एजेंडा है. रक्षा क्षेत्र में 100 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफ़डीआई) को पहले ही केंद्र सरकार अनुमति दे चुकी है. इसमें भी ऑटोमैटिक रूट से पहले 49 प्रतिशत एफ़डीआई को अनुमति थी,जिसे अब बढ़ा कर 74 प्रतिशत कर दिया गया. ऑटोमैटिक रूट से आशय है कि इस सीमा तक निवेश के लिए सरकार की अनुमति आवश्यक नहीं है और इस सीमा से ऊपर निवेश सरकार की अनुमति से किया जा सकता है.

इस तरह देखा जाये तो रक्षा क्षेत्र में विदेशी और देसी निजी खिलाड़ियों के लिए रास्ता बनाने के काम में निरंतर नरेंद्र मोदी की सरकार लगी हुई है. सेना की रिपोर्ट उस दिशा में मात्र एक बहाना भर है.

बीते वर्ष अगस्त में देश भर की ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों के 82 हजार से अधिक कर्मचारियों ने निगमीकरण के खिलाफ हड़ताल कर दी तो केंद्र सरकार की ओर से उन्हें आश्वस्त किया गया कि सरकार निगमीकरण के मसले की समीक्षा करेगी. परंतु ऐसा लगता नहीं कि सरकार ने कोई पुनर्विचार किया. वह तो निरंतर उसी दिशा में बढ़ रही है.

लेकिन क्या वाकई निगमीकरण या उससे आगे बढ़ कर निजीकरण ही रक्षा क्षेत्र और ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों की समस्याओं का समाधान है ? पुराने तमाम अनुभव तो बताते हैं कि ऐसा नहीं है. इस संदर्भ में सबसे समीचीन उदाहरण बीएसएनएल का है. दूरसंचार के क्षेत्र में सुधार और बेहतरी के दावे के साथ दूरसंचार विभाग का निगमीकरण करके बीएसएनएल यानि भारत संचार निगम लिमिटेड का गठन केंद्र सरकार द्वारा किया गया. 01 अक्टूबर 2000 को जब अटल बिहारी वाजपई के नेतृत्व वाली भाजपा की गठबंध की सरकार ने बीएसएनएल का गठन किया तो तत्कालीन संचार मंत्री और मंत्री समूह के अध्यक्ष रामविलास पासवान ने कर्मचारियों को आश्वस्त किया कि बीएसएनएल की वित्तीय हालत और देश में दूरसंचार नेटवर्क के प्रसार के सामाजिक लक्ष्य का पूरा ख्याल रखा जाएगा. बीस वर्षों में बीएसएनएल की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल है,उसके पास कर्मचारियों को तनख्वाह देने के पैसे नहीं बचे,कर्मचारियों को जबरन वीआरएस दे कर घर भेज दिया गया है, दूरसंचार के नेटवर्क पर निजी कंपनियों का आधिपत्य हो चुका है और बीएसएनएल को 4 जी सेवाएँ संचालित करने की अनुमति तक सरकार नहीं दे रही है.पिछले वर्ष जुलाई में ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों की यूनियनों ने ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों के निगमीकरण के विरोध में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को भेजे पत्र में बीएसएनएल के  निगमीकरण के खराब उदाहरण का हवाला दिया था.

ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों के निगमीकरण का विरोध करते हुए ऑल इंडिया डिफेंस इम्प्लॉईज  फ़ैडरेशन के महासचिव सी. श्रीकुमार ने ऑनलाइन पोर्टल- पीएसयू वॉच में लिखा कि निगमीकृत ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड ब्रिटेन के निजीकृत की गयी रॉयल ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों से भी कमजोर स्थिति में होगा. ब्रिटेन की सरकार ने 1984 में रॉयल ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों का निगमीकरण किया. बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर की सरकार ने रॉयल ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों की अलग-अलग इकाइयों को निजी हाथों में बेच दिया. निजीकरण होने के बाद रक्षा ठेकों के लिए जबर्दस्त प्रतिस्पर्द्धा हुई. लेकिन निजी क्षेत्र द्वारा उत्पादन सुविधाओं में निवेश बंद कर देने के चलते   मिलेटरी इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स की क्षमताओं का क्षरण हो गया. निजीकरण का परिणाम रक्षा क्षेत्र में निजी पूंजी का एकाधिकार हो गया. श्रीकुमार लिखते हैं कि भारत में भी ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों का निगमीकरण,निजीकरण का रास्ता खोलेगा और यह सार्वजनिक धन पर खड़े हो कर रक्षा क्षेत्र में निजी पूंजी का एकाधिकार कायम करेगा.

श्रीकुमार का लेख इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं-  https://psuwatch.com/corporatisation-ofb-uk-rofs-privatisation

पुनः सेना द्वारा रक्षा मंत्रालय को सौंपी उस रिपोर्ट पर लौटते हैं,जिसके हवाले से ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों के निगमीकरण की मुहिम को हवा देने की कोशिश की जा रही है. इस रिपोर्ट के संदर्भ में ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड की द वायर में छपी प्रतिक्रिया में इन आरोपों से साफ तौर पर इंकार किया गया है. ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड ने कहा कि हताहतों की संख्या के केवल दो प्रतिशत की ज़िम्मेदारी उसकी है. बोर्ड ने यह भी कहा कि ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड के इतर अन्य घरेलू और विदेशी स्रोतों से प्राप्त आयुध के कारण 2011 से 2018 के बीच 125 दुर्घटनाएं हुई,जिनका जिक्र तक  नहीं किया जाता.

ये ऑर्डनेंस फैक्ट्रियां भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अधीन आती हैं. यदि इनमें गुणवत्ता ठीक नहीं है तो सरकार उस खराब गुणवत्ता की ज़िम्मेदारी से मुक्त कैसे है ? सीमा पर लड़ते हुए सीने पर गोली खाने वाले सैनिक की वीरता का श्रेय यदि प्रधानमंत्री को है तो सरकारी उपक्रम की खराब गुणवत्ता का ठीकरा भी उनके सिर क्यूँ नहीं फूटना चाहिए ? क्या सरकार सिर्फ इसीलिए चुनी गयी है कि  इस या उस बहाने से वह देश की परिसंपत्तियों को बेचती रहेगी. यह भारत निर्माण नहीं भारत नीलाम मॉडल है. मोदी जी की सरकार सेना के कंधे पर बंदूक रख कर ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों का शिकार करना चाहती है,जिसे कतई स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.

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