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बर्बादी और विषमता से निर्मित  समृद्धि  के पहाड़ पर बैठा तानाशाह

जयप्रकाश नारायण 

भारत के बारे में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की तरफ से आ रही रिपोर्ट डरावनी लग रही है। एक तरफ मुट्ठी भर लोगों की समृद्धि और मित्र पूंजी  का पहाड़, दूसरी तरफ विषमता और जहालत की खाईं।

सत्तर के दशक में फिलीपींस के तानाशाह मारकोस और उनकी पत्नी इमिल्डा की अय्याशी भरी जिंदगी की खबरें अंतरराष्ट्रीय मीडिया में  चर्चित रहीं। अमेरिकी साम्राज्यवाद के संरक्षण में विषमता के  खतरनाक दौर से गुजरता हुआ फिलीपींस तानाशाह परिवार की अय्याशी भरी जिंदगी से ऊबकर बदलाव के लिए तैयार हुआ था। दक्षिण पूर्व एशिया में ही म्यांमार  गरीबी जहालत और विषमताभरी जिंदगी जीने वाले नागरिकों का देश है। जहां सामाजिक विषमता और पिछड़ेपन के चलते लोकतंत्र स्थायी संकट से ग्रस्त है।

इसलिए कारपोरेट सैन्य तानाशाह गठजोड़  आंतरिक सांप्रदायिक टकराव पैदा कर सामाजिक विद्वेष खड़ा करता रहता है। साथ ही लोकतांत्रिक संस्थाओं को टिकने की इजाजत ही नहीं देता। चुनी हुई सरकारें कारपोरेट सैन्य गठजोड़ के रहमों करम पर ही जिंदा रह पाती है।

धार्मिक और नस्लीय टकराव के बीच  लोकतंत्र पर सैन्य कारपोरट गठजोड की गिरफ्त बनी हुई है।म्यांमार में रोहिंग्याओं का नस्लीय नरसंहार  अंतरराष्ट्रीय चर्चा पा चुका है और तानाशाही इसी टकराव से वैधता पाती है।

अफ्रीका  और पश्चिमी एशिया के अनेक मुल्कों में विषमता व पिछड़ेपन के मध्य से धार्मिक कट्टरता, दरिद्रता और वैश्विक कंपनियों के लूट का कारोबार सुनियोजित योजना के तहत संचालित हो रहा है।

बुरुंडी, नाइजीरिया, रवांडा, सोमालिया जैसे अनेक मुल्क  पिछड़ी कबीलाई चेतना और धार्मिक उन्माद से ग्रसित होने के चलते दानवी कंपनियों के लूट-खसोट और कबीलाई नरसंहारों वाले राष्ट्र बन गए हैं।

यह इतिहास के तथ्य नहीं,  बल्कि वर्तमान  दुनिया का सच है। कारपोरेट  नेतृत्व में बने विश्व के आर्थिक सामाजिक विकास के माडल का यथार्थ है।

1990 के वैश्विक घटनाक्रमों से डब्ल्यूटीओ और विश्व बैंक के नेतृत्व में कारपोरेट पूंजी नियंत्रित विकास की दिशा को भारत ने भी अंगीकार किया। जो उदारीकरण वैश्वीकरण और निजीकरण के नाम से चर्चित है।

2012 तक एलपीजी की गति क्रमिक ढंग से आगे बढ़ती रही।  कारपोरेट लूट की हवस और साम्राज्यवादी पूंजी की तीव्र मुनाफे की आकांक्षा के चलते भारतीय शासक वर्ग ने भी अन्य विकासशील और पिछड़े मुल्कों की तरह विकास का बाजारवादी रोडमैप तैयार किया। उसी राह पर भारत 2014 के बाद कुलांचे भर रहा है।

2019-20 के बाद से आर्थिक विध्वंस की जिस तरह की खबरें आ रही हैं, वह लोकतंत्र के भविष्य को लेकर चिंतित और डरा देने वाली है।

2001 तक अदानी नामक उद्योगपति को भारत के लोग नहीं जानते थे। संभवतः अडानी समूह की आर्थिक गतिविधियां गुजरात और उसके आसपास तक ही सीमित थी। लेकिन नरेन्द्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद अडानी समूह ने पूंजी संचय और व्यापार के क्षेत्र में  छलांग लगाना शुरू किया।

 

हम सभी लोग जानते हैं, कि  2014 में मोदी भारत विजय की घोषणा के साथ दिल्ली की  सत्ता की तरफ बढ़े तो अडानी समूह की ओर से मोदी के विजय अभियान  के लिए संसाधन मुहैया कराए गए।

इसमें अंबानी सहित अन्य औद्योगिक घरानों का भी बड़ा योगदान था। लेकिन अडानी इस अभियान के शीर्ष पर थे। उन्हीं के हेलीकॉप्टर में सवार होकर मोदी ने 2014 के महाचुनाव अभियान का संचालन किया और दिल्ली की गद्दी पर जा बैठे। जिस कारण कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की परिघटना भारत में नया आयाम ग्रहण की।

2021 आते-आते 2014 से मोदी सरकार द्वारा संचालित योजनाओं और अपनायी गई नीतियों का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक यथार्थ हमारे समक्ष दिखने लगा।

अडानी कई लाख करोड़  के मालिक हो गये हैं। उनकी संपत्ति और आर्थिक साम्राज्य का बहुआयामी विस्तार हुआ। अंबानी भी तेज गति से आगे बढ़ रहे हैं और भारत में पूंजी और संपदा का केंद्रीकरण कारपोरेट घरानों के हाथ में तेजी से हो रहा है।

सभी सरकारी उपक्रम, संस्थान, प्राकृतिक संपदा, खनिज, कच्चे माल खुले आम कौड़ी के भाव कारपोरेट घरानों को सौंपे जा रहे हैं। इस दौर में सौर्य ऊर्जा बंदरगाह हवाई अड्डे, रेलवे, बिजली गैस और अनाज भंडारण सहित खरीद और बिक्री के क्षेत्र में अडानी का लगभग  एकाधिकार कायम हो गया है। आज के भारत के विकास का यथार्थ यही है।

दूसरा यथार्थ  गरीबी, विषमता और बेरोजगारी का चरम पर पहुंचना है। आर्थिक संकट का सर्वव्यापी होते जाना।  84% आबादी के आय का घटना। भुखमरी, कुपोषण, औद्योगिक जड़ता, वेतन का कम होना, उद्योगों के बंद होने के साथ, शिक्षण, स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल हो गया है। महंगाई, उद्योगों की बंदी, सरकारी संस्थानों  के निजीकरण  के साथ ही समाज में भेदभाव मूलक विचारों, व्यवहारों, सांप्रदायिक-जातीय विभाजन संघ भाजपा सरकार द्वारा बढ़ाने की हर संभव कोशिश चल रही है।

महामारी के दौरान और उसके पहले लिए गए क्रूर फैसलों और  जनविरोधी नीतियों ने भारतीय समाज को चौतरफा संकट से घेर दिया है। साथ ही लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण, न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका तक की विश्वसनीयता का घटना और सरकार द्वारा नग्न दुरुपयोग ने भारतीय समाज में आंतरिक असंतोष को गहरा किया है।

अब कानून के शासन की जगह कानून द्वारा शासित किया जाने लगा है।

सत्ता के शीर्ष पर बैठे प्रधानमंत्री के व्यक्ति केंद्रित कार्यशैली, राजशाही रहन-सहन और  लग्जरियस जिंदगी ने भाजपा सरकार के प्रति लोगों के मन में नफरत, आक्रोश, घृणा को जन्म दिया है।

एक तरफ राजनेताओं, औद्योगिक पूंजीपतियों, नौकरशाहों की फिजूलखर्ची, अय्यासी घृणित स्तर पर बढ़ी है। वहीं महामारी काल में आम जन की तबाही और दरिद्रता भयानक रूप से बढ़ जाने से आत्महत्या, सामाजिक तनाव और टकराव में तेजी से वृद्धि हो रही है ।

भारत की वर्तमान भौतिक परिस्थिति लोकतंत्र, समाज और आमजन के लिए गंभीर चेतावनी सी है।
जिस समय  फोर्ब्स, ऑक्सफॉम या भारतीय सर्वे एजेंसियों द्वारा बेरोजगारी, गरीबी, निर्धनता के डरावने आंकड़े सामने आ रहे हैं,  उसी महामारी के समय में मित्र पूंजीपतियों की संपदा और पूंजी के वृद्धि के क्रूर आंकड़े भी आ रहे हैं। यानी मोदी कालीन नीतियों के  चलते भारत दो विपरीत ध्रुवों के बीच में बुरी तरह से विभाजित हो चुका है, जो भविष्य के लोकतांत्रिक भारत के लिए खतरनाक संकेत है।

पिछड़े और विकासशील देशों में बाजार केंद्रित समाजिक ढांचे का लोकतंत्र से शत्रुता  सर्वविदित है। ऐसे आर्थिक ढांचें में कारपोरेट नियंत्रित बाजार संचालित निरंकुश राज व्यवस्था चलेगी या लोकतांत्रिक।

यह दिखने लगा है, कि मोदी अब एक लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री की जगह तानाशाही पर सवार एकाधिकारवादी, निरंकुश शासक में बदल गए हैं।

हिंदुत्व कारपोरेट गठजोड़ ने भारत के विविधता मूलक समाज को धर्म के आधार पर बुरी तरह विभाजित कर दिया है। इसलिए भारत में लोकतंत्र के भविष्य को लेकर भारत सहित दुनिया में गहरी चिंता है।

उत्तर भारत सहित पांच राज्यों में चुनाव हो रहा है। जहां संवैधानिक पदों पर बैठे लोग नफरती और डरावनी भाषा  का प्रयोग कर रहे हैं। कैराना, मुजफ्फरनगर,  जिन्ना, दंगा, पाकिस्तान जैसे जुमले उछाले जा रहे हैं। कारपोरेट नियंत्रित मीडिया के साथ गठजोड़ कर भाजपा संघ के नफरती विध्वंसक तत्व एक बार फिर सामाजिक तनाव पैदा करने में पूरी  ताकत से जुट गए हैं।

लेकिन जनता की वास्तविक जिंदगी का डरावना संकट और किसान आंदोलन के नेताओं, कार्यकर्ताओं की साधना, तपस्या ने  संघ-भाजपा सरकार के दंगाई एजेंडे को रोक रखा है। जिससे मोदी-योगी-शाह और संघ की विध्वंसक टीम का विभाजनकारी चुनावी अभियान  असफल होने लगा है।

ऐसे समय में संघ द्वारा सांप्रदायिक टकराव के केंद्र को उत्तर भारत से खिसका कर दक्षिणी राज्यों  खासकर कर्नाटक, हैदराबाद में स्थानांतरित किया जा रहा है।  मालाबार  तट पर फैले विस्तृत  मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों को अशांत करने की कोशिश चल रही है। यह एक खतरनाक खेल का संकेतक है ।

उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री  संवैधानिक पद पर होते हुए  चुनाव के परिणामों को भाजपा अनुकूल न होने पर कश्मीर, केरल और बंगाल जैसा बन जाने की चेतावनी देते हुए तनिक भी शर्मिंदा नहीं हो रहे हैं। वे जिस प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, वहां गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, कानून व्यवस्था, आत्महत्या, दलितों, महिलाओं पर जुल्म और अपराध इन सभी राज्यों से कई गुना ज्यादा है।

उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा के नीचे की आबादी 39%, केरल में 1.7%, कश्मीर में 9% है । अपने ही सरकार के आंकड़ों से अनजान यह बकवास कोई   पढ़ा-लिखा व्यक्ति नहीं कर सकता  है। या तो संघ गिरोह के अज्ञानी लोग भारत को नहीं समझते या दंभ, उद्दंडता और सत्ता के घमंड में संघात्मक भारत को हिकारत से देखते हैं। इसलिए इस तरह की अतार्किक भाषा का प्रयोग चुनाव के समय कर रहे हैं।

किसान आंदोलन और छात्रों-युवाओं के जनाक्रोश से तिलमिलाया हुआ संघ-भाजपा राज कारपोरेट हिंदुत्व की ताकत के बल पर और ज्यादा आक्रामक होने की तरफ बढ़ रहा है।  विस्तृत गरीबी और समृद्धि के मध्य टापू पर बैठा कारपोरेट पूंजी नियंत्रित अभद्र भारतीय शासक वर्ग के जनद्रोही चरित्र के कारण परिस्थिति का विकास भारतीय लोकतंत्र के लिए विनाशक बनने जा रहा है।

इसलिए लोकतांत्रिक जनगण को खतरे के संकेत को गंभीरता में लेना चाहिए। क्योंकि सांप्रदायिक रूप से कुशिक्षित, असभ्य, गरीबी, भुखमरी से ग्रसित,  भविष्य के असुरक्षा बोध से कुंठित हो चुका समाज  तानाशाही के लिए उर्वर  होता है ।

संघ परिवार शुरू से ही कठोर और सैन्यवादी एकात्मक विचार-व्यवहार वाला राष्ट्र बनाने के लिए कृत संकल्पित रहा है। आज की परिस्थिति उसके इस परियोजना के लिए बेहतरीन अवसर मुहैया करा रही है।

वर्ण-जाति, धर्म-भाषा, इलाके में विभाजित और विखंडित चेतनायुक्त समाज कभी भी लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हो सकता । उसकी सामाजिक, लोकतांत्रिक चेतना सतही और दिखावटी होती है।

इसलिए आज हमारे लिए दो तरफा काम आन पड़ा है। एक तरफ सामाजिक चेतना के लोकतांत्रीकरण के लिए सांस्कृतिक, सामाजिक अभियानों को तेज करें! दूसरी तरफ, सांप्रदायिक, सामाजिक सौहार्द कायम करें और तीसरा, जनता के बुनियादी सवालों को लेकर किसान आंदोलन के नक्शे कदम पर जनसंघर्षों को ऊंचाई पर पहुंचाएं। इसी राह पर चलकर लोकतंत्र बचाने की लड़ाई को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। तभी हमारा समाज चुनाव के  दौर में लोकतांत्रिक हथियारों का सही दिशा में प्रयोग करते हुए तानाशाही  को चोट देने में सक्षम हो सकेगा।

हम देख रहे हैं, कि 13 महीने के आंदोलन से शिक्षित हुआ किसान, लड़ता हुआ नौजवान और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्षरत दलित और अल्पसंख्यक सहित अन्य कमजोर वर्ग आंदोलनों के बीच से ही एकताबद्ध  हुए हैं ।

वे एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए सबसे ज्यादा सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील और विभाजित इलाके में भी कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ को बड़ी चोट दे सकने में कामयाब हुए हैं ।

आज का चुनावी संघर्ष लोकतांत्रिक तानाशाही बनाम लोकतांत्रिक लोकशाही के बीच में सिमट गया है । पांच राज्यों के चुनाव भारत के लोकतंत्र के भविष्य और हिंदुत्व कारपोरेट गठजोड़ के तानाशाही  से देश को बचाने का फैसला करने जा रहा है। आइए हम भी अपनी भूमिका को सुनिश्चित करें।

(फीचर्ड इमेज गूगल से साभार)

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