करीब 30 साल पुरानी बात है। भोजपुर में अपने गीतों-नाटकों के जरिये नये तरह के संस्कृतिकर्म की शुरुआत करनेवाली संस्था “युवा नीति” के “गांव चलो” अभियान में भगीदारी करते हुए पहली बार मैं किसान संघर्ष के जिस इलाके में गया, वह संदेश प्रखंड का सोन तटीय इलाका था। संदेश पहला पड़ाव था जहां हमने रात में नाटक किये, गीत गाये। सुबह का नाश्ता और फिर सोन किनारे की सड़क से चलते हुए आगे का सफर। हम चलते-चलते फुलाड़ी नाम के गांव में पहुंचे। सुबह की बात थी। गांव के एक नुक्कड़ पर नाटक-गीत की प्रस्तुति के बाद हम दोपहर के भोजन के लिए एक विशाल प्रांगण वाले घर में पहुंचे। यह घर था हमारे किसान नेता कपिलमुनि चौधरी का। वे शुरुआती दिनों से ही पार्टी में हैं। जाड़े के दिन थे। गुनगुनी धूप खिली हुई। हम 20-25 साथी आंगन में ही पंगत बना बैठे। हर दिशा से थालियों में खाना आने लगा। चावल, रोटी, दाल, सब्जी, चटनी-अचार आदि। कॉ. कपिलमुनि चौधरी एक बड़े खूब सुंदर और भारी-से फूल के कटोरे में खूब अच्छे-से जमी हुई दही लेकर आये। हम सबकी नजर दही से ज्यादा कटोरे पर थी। वे भी इस बात को भांप गए।
कथा एक कटोरा की
इस कटोरे की भी एक कथा निकल आयी। फुलाड़ी गांव भूमिहार जाति के सामंत मालिकों का गांव था। गांव में दलित, मल्लाह व अन्य पिछड़ी जातियों के लोग भी बहुतायत में हैं। कुछ मल्लाह परिवार कलकत्ता में नौ-परिवहन व व्यापार से जुड़े हुए थे। कॉ. चौधरी का परिवार उनमें से एक था। कई पीढ़ियों से चला आ रहा संयुक्त उद्यम था यह। सगे व चचेरे भाइयों का करीब दर्जन भर परिवार एक ही आंगन में आबाद था। कॉ. कपिलमुनि चौधरी इस परिवार के मुखिया ठहरे। छोटे कद, गेंहुए रंग और हंसते चेहरे वाले कपिल जी इस इलाके में गरीबों के लोकप्रिय जननेता थे। देश-विदेश से जो भी आया, इस आंगन में जरूर पहुंचा। स्वीडन से मारिया सदरबर्ग आयी थीं। इस आंगन में एक छमाहे बच्चे को तेल उबटती एक मां की अद्भुत तस्वीर उन्होंने अपने कैमरे में कैद की थी। यह तस्वीर तब “समकालीन जनमत” का बैक कवर बनी थी। अब, उस कटोरे की कथा। कॉ. कपिल जी ने बताया ” यह जौहर दा का कटोरा है। यह कलकत्ता में खरीदा गया था, खास उनके लिए। वे बहुत कम खाते, बहुत कम बोलते, बहुत कम हंसते थे। वे रात-दिन गरीबों की क्रांति में लगे रहते। उठते-बैठते, सोते-जागते सिर्फ उसी की चिंता में डूबे रहते थे। दुबली काया थी। हम उनको इस कटोरे से भर कटोरा दूध जबरन पिलाते। मुश्किल से, जिद ठानकर। यह कटोरा धरोहर है, खास मौकों पर ही यह बाहर निकलता है।
पीली सरसो का खेत बना शहादत का गुलशन
कॉ. सुब्रत दत्त (जौहर) भाकपा-माले के दूसरे महासचिव थे, कॉ. चारु मजुमदार की शहादत के बाद जब राजकीय दमन और अंदरूनी बिखराव से पार्टी के अस्तित्त्व पर ही घोर संकट छा गया था, उस कठिन दौर में उन्होंने यह जिम्मेवारी उठाई और भोजपुर और पटना के समतल मैदानी इलाकों को क्रांति का दुर्ग बना दिया। 22 अप्रैल 1974 से 29 नवंबर 1975 महज डेढ़ साल और एक महीना का यह जीवन रहा उनका। इंदिरा तानाशाही के सबसे अंधेरे दौर में, आपातकाल में सामंतों की चाकर राज मशीनरी और सेना-पुलिस उनके खून की प्यासी बनी रही। अंततः वे अपनी अत्यंत ही प्रिय भोजपुर की माटी पर ही शहीद हुए। “पुलिस ने गांव-बधार का चप्पा-चप्पा छान मारा था, उनको तलाश नहीं पाई। जब वह लौट गई तो हमने गुपचुप तरीके से ढूंढना शुरू किया। बधार में एक खेत था, खूब घनी-ऊंची सरसो लगी हुई थी। खूब टहक पीले फूल। हमने उन्हें उन फूलों के बीच, चादर में लिपटे हुए सोया हुआ। मृत्यु का कोई लक्षण नहीं दिख रहा था। बस, एक चिरनिद्रा में डूबे हुए। हमने उनको पुलिस के हाथों नहीं लगने दिया। जौहर दा, हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए थे।” – आज ही के उस काले दिन की याद अब भी बिल्कुल ताजी है एक सहयोद्धा के मन में।
एक जाज्वल्यमान सितारा
भाकपा-माले की केंद्रीय कमेटी द्वारा प्रकाशित “कॉ. जौहर की संकलित रचनाएं” की भूमिका एक अल्प अवधि में भारत की सर्वहारा क्रांति में कॉ. जौहर के तीन महान योगदानों की चर्चा के साथ खत्म होती है – कॉ. चारु मजुमदार के निधन के बाद उनके नाम पर चलाने की संशोधनवादी-अराजकतावादी गलत लाइन की शिनाख्त करना, उसे पराजित व चकनाचूर करना तथा सर्वोपरि भारतीय क्रांति की सही लाइन पर आधारित पार्टी का निर्माण व विकास करना। इंदिरा आपातकाल के विरोध में देश की जनता ने एक बड़ी लड़ाई लड़ी थी और उसे पराजित किया था। इस लड़ाई से देश में लोकतंत्र को एक नई ऊंचाई व गहराई हासिल हुई थी। लेकिन, इसके लिए ऐसी सर्वोच्च शहादत किस पार्टी के, किस नेता ने दी? किसी ने नहीं। वे तो लाठी-डंडा खाकर और चार-छह महीने जेल जाकर ही सत्ता तक जा पहुंचे और फिर लोकतंत्र की कब्र खोदने में लग गए। मोदी, नीतीश, रामविलास, लालू प्रसाद – सबके सब। कॉ. जौहर को बहुत ही कम लोग देख-सुन पाए होंगे। उनमें से बहुत सारे लोग अब इस दुनिया में नहीं रहे। थोड़े-से लोग ही अब बचे हुए हैं। उनकी जो भी स्मृतियां हैं, उन्हें जमा कर लेना चाहिए।
कॉ. विनोद मिश्र जब पटना होते तो रात में एसपी वर्मा रोड स्थित लोकयुद्ध कार्यालय में ठहरते थे। उन दिनों अक्सर वे पार्टी जीवन की ढेर सारी पुरानी बातों की चर्चा करते आगे चलकर उन्होंने कुछ को अपने संस्मरणों में दर्ज भी किया। कॉ. जौहर की चर्चा वे बेहद आत्मीयता व संजीदगी से करते। धीमे, हल्के सुरों में। जिस एक बात को वे खूब जोर देकर बोलते वह यह कि “उन जैसा पेशेवर क्रांतिकारी मैंने अपने जीवन में अबतक नहीं देखा, जिन्होंने क्रांति के अलावे किसी अन्य चीज के बारे में सोचा ही नहीं, यहां तक कि नहाने-खाने तक की चिंता भी नहीं।”
दांको का जलता हृदय
पुरानी कथा नया पाठ
“दांको” (दांको, रूसी लोककथाओं का एक पात्र, म. गोर्की की कहानी बुढ़िया इजरगिल में जिसका जिक्र है ) ने अपना जलता हुआ दिल हथेली पर रख और उसे ऊंचा उठा दिया। उसकी तेज रोशनी में लोगों ने फिर से राह चलनी शुरू कर दी और देखते ही देखते नजारा बदल गया। सदियों पहले एक दूर देश में कभी यह घटना घटित हुई होगी। कॉ. जौहर इस नए युग में हमारे इस गरीब व फटेहाल मुल्क में राहत व खुशहाली की राह खोजती जनता के “दांको” हैं। सामने लहराती हुई हरियाली थी और सागर उफन रहा था। “दांको” का जलता हुआ हृदय जमीन पर पड़ा हुआ था। अब भी उससे चिंगारी चिटक रही थी। लेकिन, किसी का भी ध्यान उसकी तरफ नहीं था। “कृतघ्नता एक अभिशाप है, एक छुरा, मूठ तक धंसा हुआ, पीठ में” – हम इसे बखूबी जानते-समझते हैं। भोजपुर की जनता आपके योगदान को कभी नहीं भूल सकती है।
(लेखक भाकपा माले की केन्द्रीय समिति के सदस्य हैं )