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खैनी खिलाओ न यार! उर्फ़ मौत से चुहल (सखा, सहचर, सहकर्मी, कॉमरेड महेश्वर की एक याद)

अपने प्रियतर लोगों- कृष्णप्रताप (के.पी.), गोरख, कामरेड विनोद मिश्र, महेश्वर पर चाहते हुए भी आज तक कुछ नहीं लिख सका।

पता नहीं क्यों? इसकी वज़ह शायद उनसे एक जरूरी दूरी नहीं बन पाई आज तक, ताकि उसे देख सकूँ। शायद वे सब लोग स्मृतियों में आज भी वैसे ही साथ रहते-चलते चल रहे हों जैसे तब।

शायद यह भी कि ये चारों लोग मिल कर स्मृति का एक वृत्त बन जाते हैं, इस तरह कि अलगा कर इनमें से किसी एक पर नहीं लिखा जा सकता।

आज महेश्वर की पुण्य-तिथि है। स्मृतियां घहराती आ रही हैं सो दोस्तो मैं सबको छोड़-छाड़ एक की एक बात लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।

महेश्वर मज़ाक भी खूब करते थे । मज़ाक का लहज़ा भी व्यंग्य लिए हुए। यहां तक कि उसी व्यंग्यात्मक लहज़े में मौत से भी मज़ाक कर लेने से वे बाज़ नहीं आते थे।

डेढ़ पसली के तो थे ही, ऊपर से उनकी सेहत पहले भी खराब रहा करती थी लेकिन जीवट के अद्भुत धनी। बीमारी के बिस्तर पर पड़े हुए भी उस जीवट की तुरसी काबिले गौर है-

“रणभूमि में सिर्फ़ गिरा हूं…/हारा नहीं हूं/झुकी नहीं है मेरी पताका/न टूटा है कड़ी से कड़ी चोट सहने का दमखम।”

पता नहीं क्या बीमारी थी लेकिन जब पता लगा हम सब के होश ही उड़ गये। दोनों किडनियां फेल। फेल ही नहीं एक्सरे में वे दिखीं तक नहीं, जैसे वे कभी थी हीं नहीं।

डॉक्टर भी परेशान कि ये आदमी शराब भी नहीं पीता, सिगरेट भी कभी-कभार एक-दो ही। फिर क्यों हुआ ऐसा कि किडनी नदारत!?

परिजनों ने खाने-पीने-सोने और सेहत की चिंता छोड़ दिन-रात पार्टी वर्क में लगे रहने को इसकी वज़ह करार दिया, तो महेश्वर के शब्दों में ‘शुभचिंतकों’ ने उनकी ‘अराजक’ जीवन शैली को।

खैर! इस बीच चेन्नई के हॉस्पिटल में कई तरह के चेकअप और डायलसिस का सिलसिला जारी ही था कि इसी बीच एक चेकअप के दौरान यह पता लगा कि उन्हें जन्मजात बैकफ़्लो की बीमारी है, जिसका पता 12 वर्ष की आयु तक लग जाए तो दवा से ठीक हो सकती है अन्यथा ज़िन्दगी के साथ ही जाती है। यही उनके किडनियों के पूरी तरह गल जाने की वज़ह है।

महेश्वर को जब यह जानकारी मिली तो उस दिन उनके जितना खुश दुनिया में शायद ही कोई रहा हो। बोले- देखा, पार्टी जीवन देती है और ये हमारे घर और रिश्तेदार उसी को ज़िन्दगी लेने वाला बताये जा रहे थे और हमारे ‘शुभचिंतक’ उनका तो कहना ही क्या। उन्होंने अपने उन ‘शुभचिंतकों’ पर एक कविता भी लिखी- “आ गए हमारे शुभचिंतक”।

डायलसिस में दर्द का मंजर यूँ रहता था कि जिस दिन डायलसिस होती उस दिन दिनभर वे दर्द में जम रहते। लेकिन चेहरे पर उभर आई दर्द की लकीरों के सिवा और किसी तरह से उसकी अभिव्यक्ति नहीं होने देते।

हां इसे भी उन्होंने उन्हीं दिनों अपनी दर्द नामक कविता में पूरी शिद्दत और गहनता से व्यक्त किया-
” वह आता है/सन्नाटे को तोड़ती/एक बेरहम आहट की तरह/नसों को रस्सी की तरह/बट देता है …./वह आता है/तो प्रार्थना के शब्द भी/आते हैं उसके साथ/वह एक ही सूत्र में/पिरो देता है/अनास्था और विश्वास/उसका आना नहीं छोड़ता है/कोई पदचिन्ह/उसकी सिर्फ़ शुरुआत होती है/और अंत?/ओह, अभी वो बाकी है/आदमी के हाथ
(“मनुष्य को निर्णायक होना चाहिए”)

मंजुला जी (महेश्वर जी की पत्नी) मैं, इरफान और इलाहाबाद से केके पांडेय व बिहार से दो साथी कामरेड रामनरेश सिंह और पवन , जो उन्हें किडनी देने आए थे, लगातार उनके साथ थे। बीच में महेश्वर के बच्चे और मंजुला जी के पिता भी आये।

कुछ साहित्यकार साथियों ने लिखा- साल-दो साल की वह भी क्रियाहीन ज़िन्दगी के लिए किडनी लेना, महेश्वर के लिए ऐसा जीवन-मोह शोभा नहीं देता। और भी कि खासकर रामजी राय का जसम आदि का काम छोड़-छाड़ कर उनके साथ पड़े रहना कतई ग़लत है।

अब ऐसे दोस्त साहित्यकार ये नहीं जानते कि महेश्वर भी जानते थे कि किडनी ट्रांसप्लांट भी हो जाये फिर भी हद से हद 1 या 2 वर्ष जीना हो पाएगा।

वह भी बेकार बिस्तर पर ही पड़े-पड़े। वे हम लोगों से और यहां तह कि हेड डॉक्टर से भी यही बातें इन्हीं शब्दों और आशय के साथ कहते। कहते थे कि फिर इतने भर के लिए यह सब मैं नहीं करना चाहता।

डॉक्टरों ने और मैंने भी यही कहा, बेशक आपकी बात सही हो सकती है लेकिन मेडिकल साइंस जीवन देने के अपने प्रयोग तो नहीं छोड़ेगा। आपको इसमें बाधा क्यों बनना चाहिए!? महेश्वर ‘आदमी के हाथों इस दर्द के अंत’ पर अपने यकीन के नाते ही शायद कुछ बोले नहीं, बस गहरी खामोशी में गुम रहे।
खैर बात का विस्तार हो रहा है मैं वापस मूल प्रसंग पर लौटना चाहता हूं।

तो ऑपरेशन की तारीख तय हो गई थी। मैं एक काम से तब तक के लिये इलाहाबाद आया था। ठीक ऑपरेशन के दिन लौटा।

स्टेशन पर ही केके ने बताया महेश्वर खैनी मांगेंगे जरूर लेकिन आप उन्हें और रामनरेश जी, जो उन्हें किडनी दे रहे थे, दोनों को डॉक्टर ने मना किया है। मैं हॉस्पिटल पहुंचा।

महेश्वर को ऑपरेशन थियेटर ले जाने की पूर्व तैयारी हो चुकी थी वे बुलावे के इंतज़ार में बाहर बैठे मंजुला जी से कुछ अजीब-सी चुहल कर रहे थे, जिसे सुन दिल फट जाए। यहां उसे भी छोड़ता हूं। और इस बीच उनकी नज़र मुझ पर पड़ी। देखते ही बोले खैनी खिलाओ न यार! मैंने बिना कुछ कहे सीधा इनकार कर दिया।

दुबारा फिर वही बात- खैनी खिलाओ न यार! ये सब मुझे नहीं दे रहे। कह रहे डॉक्टर ने मना किया है। (हंसते हुए) तुम तो जानते हो खैनी मेरी छह वर्ष की उम्र से लंगोटिया यार है और जाते वक़्त उसी से मिलने नहीं दे रहे सब। मेरी आँखें भर आईं और डर भी गया कि अबकी जो इसने मांगा तो मैं इनकार न कर पाऊंगा।

मैं उठा और नीचे बाहर चला गया। लेकिन थोड़ी देर बाद देखता क्या हूं कि मंजुला जी भी नीचे आ गईं और मुझसे बोलीं- ए जी सुनते हैं, उसे दे दीजिए न थोड़ी सी खैनी। मैं तो हैरान रह गया। वे सबसे दृढ़ थीं और वे क्यों हिल गईं!? बोलीं- जानते हैं क्या बोला!? बोला कि ए मंजुला मैं जा रहा हूँ ऑपरेशन कराने।

यह भी तो हो सकता है मैं लौटूं ही न! तो सब लोग ऐसे में जाने वाले की अंतिम इच्छा पूछते हैं, तुम नहीं पूछोगी? मैंने कहा- बताओ! तो बोला कि थोड़ी खैनी खिला दो न!
मैंने अपनी भर आ रही आंखें दूसरी ओर फेर खैनी बनाई और मंजुला जी को थमा दिया उस अपने जिगरी यार को देने वास्ते।

(आज 25 जून, कवि महेश्वर की पुण्यतिथि है, समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने उन्हें याद करते हुए एक संस्मरण लिखा था। जिसे आज पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।)

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