समकालीन जनमत
ये चिराग जल रहे हैं

जोहारदा की स्मृति और यह माफ़ीनामा

( वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की  श्रृंखला ‘ये चिराग जल रहे हैं’ की  बारहवीं   क़िस्त  में  प्रस्तुत  है  नवीन  जी के पुश्तैनी  हलवाहे  जोहार  दा  के बहाने  कुमाऊँ के सामाजिक  ताना -बाना  की गहरी  पड़ताल . सं.)

 

सन 1968-69 में  जब मैं कक्षा आठ या नौ में पढ़ता था, गुल्लक में बचाए रुपयों से  ‘क्लिक-3’ कैमरा लेकर गर्मी की छुट्टियों में गांव गया था. गांव के पगडण्डी के पास वाला हमारा खेत जोतते हुए जोहार दा मिल गया था. बाएं हाथ में पकड़ी सण्टी के इशारे से बैलों को हाँकते और दाहिने हाथ से हल की मूंठ पकड़े, हल के फाल को करीने से जमीन में दबाये हुए. मुझे सामने देख वह चौंक गया था. अचकचा कर उसके रुकते ही बैल भी थम गये थे.

‘कैसे हो, जोहारदा?’ मैंने पूछा तो झुर्रियों-भरे उसके चेहरे पर मुस्कान थिरक उठी- ‘ओहो, पहा… कब पहुंचे?’

‘ठीक हूँ, जोहार दा. तुम कैसे हो?’

‘द, ठीक ही ठैरे.’ उसने हल की मूंठ फिर सम्भाली- ‘हरदज्यू कैसे हैं? पहा…ह-ह… .’ बैलों को हाँकते हुए वह बाबू के बारे में पूछ रहा था.

मैंने कहा- ‘रुको जोहारदा, तुम्हारी फोटो खींचता हूँ.’

तब उसने कहा था- ‘द, शैपो… मेरी फोटो क्या उतारते हो, इन भिदड़ों (फटे-पुराने कपड़े) की!’

मैंने उसकी फोटो खींची थी, उन्ही भिदड़ों में. 120 एम एम की फिल्म का निगेटिव आकार का वह फोटो मेरे बचपन की अलबम में आज भी सुरक्षित है. श्वेत-श्याम, थोड़ा धुंधला, हल में जुते बैलों के पीछे खड़े, एक हाथ में सण्टी पकड़े जोहारदा की किंचित विस्मय और मंद स्मित वाली फोटो. वक्त के साथ तनिक पीताभ होता हुआ. बाद की गांव यात्राओं में मैंने बेहतर कैमरों से उसकी और भी फोटो खींची लेकिन उस हलकी धुंधली-पीली फोटो की तरह और कोई तस्वीर जीवंत नहीं है. उस फोटो को देखते ही हल की मूंठ पकड़े जोहारदा बोल उठता है.

बरसों हो गये जोहारदा को मरे हुए. यहीं लखनऊ में सुना था. उन दिनों भूले-भटके गांव से जो कोई चिट्ठी आ जाती थी, उसी में लिखी होती थीं गांव की सारी खबरें. किस-किस का ब्याह हुआ, किस-किस के बच्चे हुए, कौन-कौन गांव छोड़ गया, कौन रिटायर हो कर आ गया और कौन गुजर गया. मुझे नहीं, इजा-बाबू को सम्बोधित होती थीं वे चिट्ठियां, जिनका ‘हंस-पराण’ (प्राण) शहर में आ बसने की मजबूरी के बावजूद पहाड़ के उस दुर्गम गांव में ही अटका रहता था. उन चिट्ठियों में हरेक का जिक्र होता था जिससे इजा-बाबू की यादों की गठरी खुल जाती थी. वे नराई से भरे देर-तक गांव-घर के उन लोगों की बातें करते रहते थे.  ऐसी ही एक चिट्ठी में जोहारदा के नहीं रहने की खबर आयी थी.

‘शिब-शिब, जोहार भी मर गया बल,’ इजा ने अपने कमरे में चिट्ठी पढ़ते हुए बाबू से कहा था और मैं अपने कमरे में जाने क्या करते हुए स्टेच्यू बन गया था.

‘आहा, बहुत ही सीधा आदमी था. कितनी सेवा की उसने गांव भर की.’ बाबू कह रहे थे.

‘भौतै भल मैंस’ ईजा ने जोड़ा था कि बहुत ही भला मानुष था.

फिर वे दोनों मौन हो गये थे. मैं जान रहा था कि वे जोहारदा की स्मृतियों में खो गये होंगे. इधर मैं अपनी अल्मारी खोल कर अपने स्कूली दिनों का अलबम तलाशने लगा था. जोहारदा की मौत की खबर ने मुझे उस फोटो की याद दिला दी थी. अलबम के पन्ने पलटते ही उस छोटे-से, धुंधले-पीताभ फोटो से जोहार दा बोल उठा- ‘द, शैपो… मेरी फोटो क्या उतारते हो…’ कई दिन तक जोहारदा मुझे तरह-तरह से याद आता रहा था.

 

कई बरस बाद, 1990 की वह गर्मियां. तब बाबू को गुजरे भी छह वर्ष हो गये थे. गांव में छूट गये पुश्तैनी मकान को और भी छोड़ देने के लिए लखनऊ से  हम सपरिवार पहाड़ गये थे. पारिवारिक देवों, ग्वल्ल-गुसैं को ‘नांय’ (ढोक, पूजा) देने के बाद हम मकान के ओने-कोने में ठुंसे सामान की तलाशी-सी ले रहे थे. उन पुराने बक्सों के भीतर से निकले कुछ कागज-पत्तरों से अचानक जोहारदा निकल कर सामने खड़ा हो जाएगा, इसकी दूर-दूर तक सम्भावना नहीं थी. उस समय वह हमारी यादों की ऊपरी परतों में कहीं था भी नहीं.

लोहे के एक पुराने बक्से में भरी जाने कब की कॉपियों, चिट्ठियों और कागजों के ढेर की उखेला-पुखेली में एकाएक ही यह रुक्का मेरे हाथ लग गया –

“ मैं कि जौहर राम पुत्र झुस राम ग्राम आमड़ पट्टी कमस्यार जिला अल्मोड़ा वाले ने तुम श्री हरीदत्त पुत्र गोपालदत्त ग्राम रैंतोली पट्टी वल्ला अठिगांव जिला पिथौरागढ़ जी से काम जरूरी के वास्ते एक सौ रुपये (100) कर्ज लिये. इन रुपयों के सूद के बजाय हल दन्याले का काम कर दूंगा काम नहीं कर सका तो रुपये अदा कर दूंगा सनद के लिये टिकटसुदा रुक्का तुमको लिख दिया

नि. जौहरराम पुत्र झुसराम

ब.क. दया कृष्ण तेवाड़ी रैंतोली

दि 26-12-71”

दस पैसे का रसीदी टिकट, साथ में दस पैसे का रिफ्यूजी रिलीफ टिकट और दोनों पर बड़ा-सा स्याही छाप वाला अंगूठे का निशान.

न, रुक्का पढ़कर तुरंत जोहारदा याद नहीं आया. पहले याद आया ‘रिफ्यूजी रिलीफ टिकट” जो बांग्लादेश युद्ध के समय भारत आए लाखों शरणार्थियों के कारण देश पर पड़े आर्थिक बोझ को नागरिकों पर डालने के लिए तत्कालीन इंदिरा सरकार ने लगाया था.

फिर याद आये ब.क. यानी बकलम दया कृष्ण तेवाड़ी. निगाल की कलम वाली वह हस्तलिपि पहचानने में देर नहीं लगी. रिश्ते से मेरे भिनज्यू (फूफा जी) और मेरे पहले शिक्षक. मैं जब तक गांव में रहा, तीन-चार किमी दूर प्राइमरी स्कूल में नहीं भेजा गया, जहां गांव के ज्यादातर लड़के जाते थे. यही भिनज्यू, दया कृष्ण तेवाड़ी मुझे घर आकर पढ़ाते थे. वे हमारी करीबी नदुली बुबु (बुआ) के पति, अवकाशप्राप्त अध्यापक, घर जंवाई के रूप में हमारे पड़ोस में रहते थे.

नदुली बुबु के नाम से चार और बुबुओं की याद आ गयी. सबसे पहले मुसै बुबु जो ठीक हमारे पड़ोस में रहती थी. ऊखल वाली छोटी-सी कोठरी थी उसका ठिकाना. वह बहुत चतुर और इधर की उधर करने वाली मानी जाती थी. महिलाएं उसके सामने बात करने से घबराती थीं. किसी भी घर की गोपनीयता उघाड़ देने में उसे महारत हासिल थी. पता नहीं उसका असली नाम क्या था. कद में बहुत छोटी लेकिन कतर-ब्योंत में माहिर होने के कारण ही उसको ‘मुसै’ (चुहिया) कहते होंगे. अनुली और देबुली बुबु हमारे घर से दूर गांव के पार वाले हिस्से में रहती थीं. वे बहुत मीठा बोलती और सबसे प्यार करती थीं. परदेसी बच्चों को गले लगा कर लाड़ करतीं. गांव की अकेली महिलाओं का रात-बेरात साथ देना, हारी-बीमारी में साथ रह जाना जैसे उनकी ड्यूटी हो. चौथी, नदुली बुबु थी जो अपने कमरे या मकान की सीढ़ियों में ही बैठी रहती. वे बहुत चिढ़-चिढ़ी थीं और जाने किस-किस को बकती रहतीं. उनकी एक बहू साथ में रहती, जिनके पति परदेस में नौकरी में थे. बहू नदुली बूबू की सेवा करती मगर सास से हर समय गालियां खाती. दूसरा बेटा-बहू गांव नहीं आते थे. इन्हीं नदुली बुबु के पति थे मेरे पहले मास्टर साहब दया कृष्ण तेवाड़ी. बाकी चारों बुबु बाल विधवा या परित्यक्ता थीं, इसलिए भाइयों ने उन्हें मायके में शरण दे रखी थी. लेकिन नदुली बुबु क्यों सपरिवार अपने मायके में बसीं, इस पर हमने कभी ध्यान नहीं दिया.

जिस साल गर्मियों में हैजे से मुसै बुबु की मृत्यु हुई, तब मैं गांव में था. किसी तरह उसकी ससुराल खबर भिजवाई गई. कुछ दिन बाद उसका एक भतीजा आया और उसकी गठरी-वठरी समेट ले गया. उस ससुराल में, जहां मुसै बूबू कभी नहीं रही या शादी के बाद कुछ दिन रही होगी, उसकी गति-क्रिया की गई, उसका श्राद्ध करके छूत बहाई गई. उसके नाम पर दान-दक्षिणा और भोज दिया गया. जीते जी उसकी कभी कोई खबर नहीं लेने वाले ससुरालियों ने यह सब इसलिए किया कि उन्हें उसका भूत परेशान न करे. मायके में जहां उसने पूरा जीवन बिताया, सुख-दुख में परिवारों का साथ दिया, वहां किसी को न छूत लगनी थी, न भूत ने तंग करना था. नदुली बुबु भाग्यशाली थी कि वह मायके में भी अपने परिवार के साथ थी.

तेवाड़ीजी बहुत बूढ़े किंतु सख्त मास्टर थे. जरा-सी गलती पर दोनों कान एक साथ बहुत जोर से मरोड़ देते थे. मैं अपने दोनों कानों की तनिक टेढ़ी लवों का दोष उन्हीं पर मढ़ता रहा हूं. पढ़ाते बहुत अच्छा थे. गांव में उनकी बहुत इज्जत थी. मास्टर होने के कारण और उससे ज्यादा दामाद होने के कारण. चिट्ठी लिखवाने, पढ़वाने, हर लिखत-पढ़त में सलाह लेने, गवाह बनने, आदि के लिए उन्हें याद किया जाता. झुकी कमर लिए खंखारते हुए वे हर जगह पहुंच जाते. तेवाड़ी जी की मृत्यु की खबर भी हमें चिट्ठी से लखनऊ में मिली. मास्टरी से रिटायर होने के कई साल बाद भी उनकी पेंशन शुरू नहीं हुई थी. वे बराबर लिखा-पढ़ी करते थे. उस साल उन्हें खबर दी गयी कि पेंशन शुरू होने वाली है. कुछ कागजी औपचारिकता के लिए उन्हें नैनीताल हाजिर होना पड़ेगा, जहां वे अध्यापक रहे थे. तेवाड़ी जी खुशी-खुशी नैनीताल गये थे. वहीं प्राण छूट गये.

तो, वह रुक्का पढ़ कर यही तेवाड़ी जी सामने आ खड़े हुए और मैंने फौरन उनसे अपने खूब मरोड़े गए कानों का बदला लेना शुरू किया- ‘ओहो, दया कृष्ण तेवाड़ी जी, आप तो जरा-सी गलती पर हम बच्चों के कान बेदर्दी से ऐंठ दिया करते थे; लेकिन यह रुक्का लिखने में खुद आपने क्या किया? न कहीं अर्द्ध विराम, न पूर्ण विराम! आप तो बहुत सख्त मास्टर थे.’ फिर ध्यान आया कि सन 1971 में हमारे तेवाड़ी जी इतने वृद्ध हो चुके थे कि मुझे उनकी गलती पर ताने मारना उनके साथ बड़ा अन्याय लगा. वे गांव में सबके लिए सुलभ एकमात्र पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और हर रुक्के, हर चिट्ठी तथा प्रत्येक मनी-ऑर्डर पर ब. क. (बकलम) और द.ग. (दस्तखत गवाह) के लिए हमेशा उपलब्ध रहे. उन ही का अनुशासन था कि मैं घोटा लगी पाटी पर निंगाल की खत कटी कलम से सुलेख लिखा करता था. आज तक मेरे सुंदर हस्तलेख की तारीफ होती रही है तो उसका श्रेय आदरणीय पं. दया कृष्ण तेवाड़ी जी ही को जाता है. और फिर, उन्हें दिवंगत हुए भी तो जमाना बीत गया.

क्षमा कीजिए, तेवाड़ी जी और मेरे श्रद्धा-सुमन स्वीकार कीजिए.

लेकिन यह प्रसंग तो जोहारदा का है.

तो, वह रुक्का जब दूसरी बार पढ़ा तब जोहारदा सामने आ खड़ा हुआ. आहा! यह जौहर राम पुत्र झुस राम तो हमारा वही जोहारदा है! तो उसका नाम जौहर राम था, जैसा कि पं दया कृष्ण तेवाड़ी जी ने लिखा है! या हो सकता है उसका नाम जवाहर राम हो, जो बोलचाल में जौहर राम या जोहार राम हो गया हो. यह भी उसी दिन जाना कि अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिले की सीमा हमारे गांव को विभाजित करती थी. नया जिला बनने पर हम पिथौरागढ़ जिले में आ गये और आधा किमी दूर जोहार दा का आमड़ अल्मोड़ा जिले में रह गया था. खैर.

सामान्यतया वह जोहारदा ही कहलाता था. ठेठ गंवई उच्चारण में उसके समवय लोग उसे ‘ज्वेहरी’ कहते थे. कम उम्र वाले कभी उसे ज्वेहरी कह बैठते तो सयाने लोग डांट देते थे- “जोहारदा नहीं कह सकते, तुम्हारे बड़बाज्यू (दादा जी) सानिक है वह.’ लेकिन उसे जोहार बड़बाज्यू नहीं कहा जाता था, जैसा कि हम अपने दादा की उम्र के लोगों से कहते थे. बहरहाल, बड़े लोग भी उसका नाम सम्मान से लेते थे.

अच्छा, तो जोहारदा उस रुक्के से बंधा हुआ हमारा हलवाहा था! उससे पहले कोई जीतराम हमारा हलवाहा था, किसी बाहर गांव का, जो सारे रुक्के छोड़कर कहीं भाभर की तरफ चला गया था. उसकी बहुत धुंधली याद है. उसके जाने के बाद ही बाबू ने जोहार दा को इस रुक्के से बांध कर अपना हलवाहा बनाया होगा. जोहारदा का परिवार हमारे गांव का एक मात्र शिल्पकार परिवार था. छोटे-बड़े चार लड़कों, दो लड़कियों और अपनी पत्नी के साथ वह ऐसे कितने ही रुक्कों से बंधा हुआ होगा. उसके सभी लड़के हल चलाते थे. सिर्फ तीसरे नम्बर के लड़के ने शायद इण्टर तक पढ़ाई की थी और बाद में शहर जाकर नौकरी भी. बाकी सब गांव में रह कर हल चलाते, मजदूरी करते या कभी जंगलात की कटान-चिरान में चले जाते. मुझसे उनकी मुलाकात हर साल गर्मी की छुट्टियों में गांव जाने पर ही होती.

जोहारदा का सबसे छोटा लड़का बहादुर कुछ परिवारों के जानवर चराने जंगल ले जाता था. जब कभी मैं ग्वालों के साथ जंगल जाता तो देखता कि दूसरे ग्वाले उसे दिन भर खूब सताते थे. वे सब कहीं बैठ कर ताश खेलते या हुक्का-बीड़ी पीते और बहादुर को दौड़ाते रहते. वह सबके जानवरों को देखता. कभी उससे कहते- ‘जा उस गांव से नाशपाती चुरा ला.’ कभी आड़ू  मंगवाते. दिन भर वह उनके आदेशों पर दौड़ता रहता और पकड़ा जाने पर मार या गालियां खाता. एक दिन उसने किसी काम से मना कर दिया तो सबने मिलकर उसकी पिटाई की और गला दबा कर उसके खुले मुंह में थूका. बहादुर को रोता छोड़ वे सब एक गधेरे के पानी से शुद्ध होने गये थे.

 

हर परिवार चाहता था कि उसके खेतों की बुवाई जोहारदा ही करे.

‘जोहरा!’ स्त्रियां उससे निवेदन करतीं- ‘एक-दो दिन बाद आना, लेकिन आना तू ही, हां! किसी लड़के को झन लगा देना.’

उसका कोई बेटा जुताई करने आ जाता तो लोग सतर्क हो जाते. ‘बैलों को ऐसे मत मार खिमुआ,’ उनको बार-बार कहना पड़ता- ‘तेरा बाबू बैलों को एक सिकड़ा नहीं लगाता. तूने सुबह से चार सिकड़े तोड़ डाले.’

जोहारदा की बात ही कुछ और थी. बैल उसके इशारे पर चलते थे और हल का फाल खेत को फर-फर ऐसे चीरता था कि मजाल है जो दो ‘स्यू’ (लकीरों)  के बीच अनजुती धरती रह जाए. बड़े-बड़े मरकहे बैल गांव में थे, जिनको उनके किल (खूंटे) पर सिर्फ उनकी गुस्याणी बांध सकती थी और  जिनके कंधे पर जुआ सिर्फ जोहारदा रख सकता था. कुछ बैल ऐसे पाजी थे कि जुते-जुते बीच खेत में बैठ जाते. जोहारदा जानता था कि किस बैल को सिर्फ पुचकार कर खड़ा किया जा सकता है और कौन ‘भ्यरहान’ नाक में  मिर्च ठूंसे बिना उठता ही नहीं.  जोहारदा जानता था कि किसके खेत कहां-कहां हैं. वह हर ‘ओड़ा’ (विभाजक पत्थर)  पहचानता था और यह भी  कि किस खेत में किस जगह मिट्टी के नीचे बड़ा पत्थर है जो सावधान न रहने पर ‘नश्यूड़’ तोड़ डालता है.

दरअसल, जोहारदा सिर्फ हलवाहा नहीं, अनुभवी, निष्ठावान और समर्पित किसान था. खेत में बीज वह इस खूबसूरती से छिड़कता था कि पौधे बराबर दूरी पर सिलसिलेवार उगते. उसकी बोई फसल अलग से पहचान में आ जाती. वह मौसम का रुख और मिट्टी की तासीर पहचानता था.

‘जोहारदा, मडुवा भाड़ने (बोने) का समय नहीं हुआ अभी?’ स्त्रियां पूछतीं. प्रवासी पतियों की अनुपस्थिति में घर-गृहस्थी से लेकर खेती-बाड़ी तक सब उन्हीं की चिंता जो ठहरी. इसलिए वे जोहारदा से सलाह करती रहतीं. जोहारदा आसमान की तरफ देखने के बाद कहता- ‘पहा.. अभी जल्दी मत मचाओ, ये बादल तो चल-बसंत हुआ..’

‘जोहारदा, धान पिछड़ रहे हैं, कब बोओगे?’ वह एक लकड़ी या अंगुली से खेत की मिट्टी खुरचता. नमी की गहराई जांचता, फिर सलाह देता. ‘पहा…दो-चार घाम खाने दो अभी मिट्टी को.’

‘पहा’ उसका तकिया कलाम था, जिसके बिना शायद ही एक वाक्य पूरा होता हो.

वर्षा पिछड़ जाती तो वह गांव भर के लिए परेशान होता. आसमान की ओर देख कर बुदबुदाता- ‘क्या मंशा है, पहा… नहीं खाने देता अबकी?’ रास्ते चलते वह खेतों की जांच करता रहता. अंगुली से खोद कर उगते बीजों के अंकुर खोजता और खेत मालिक के दरवाजे पर हाजिर हो जाता- ‘तुम्हारा बीज कुछ खराब लगता है… पहा… थोड़ा-सा अच्छा बीज मंगा कर भिगा देना. दन्याले के समय छिड़कना पड़ेगा.’ अच्छा बीज किसके यहां बचा है, यह सुराग भी वही देता- ‘यो, पहा… सुबदार ज्यू की बौराणी के पास बचा है बिलाड़ (धान की एक किस्म) का अच्छा बीज.’

उस उपराऊं और पथरीली जमीन पर फसल ससुरी अपनी ही जैसी होती थी मगर जोहारदा अपना सारा ज्ञान और अनुभव बांटता फिरता था. इसीलिए तो सब चाहते थे कि हल-दन्याला लगाने उनके यहां जोहारदा खुद आये. वह आता तो सारी चिंता मिट जाती.

परन्तु जोहारदा तो एक ही था न!

बस, एक चीज थी जहां जोहारदा बेईमानी कर बैठता था. वह खाने का बहुत शौकीन था और गुस्याणियों के हाथ का स्वाद पहचानता था. बुवाई के व्यस्त दिनों में जब हर घर से जोहारदा की मांग होती तो वह खुद किसके घर जाएगा, यह सम्बद्ध मालकिन की रसोई की प्रसिद्धि पर निर्भर होता. कुछ घरों के लिए वह नाक-भौं सिकोड़ कर खुश-पुश करता- ‘उनके यहां तो , पहा… मुझसे खाया नहीं जाता.’ ऐसे लोगों के खेतों में वह बेटों को लगा देता. कभी खुद फंस गया तो वहां खाने के बदले बैकर (अनाज) ले आता. रोटियां उसे पसंद नहीं थीं. ‘रोटियों की भी क्या खवाई’, वह कहा करता. स्त्रियां कहतीं- ‘जोहार को खिलाना आसान नहीं.’

हमारे घर में एक बड़ी थाली थी, परातनुमा. उसका नाम ही ‘जोहारदा की थाली’ था. दोपहर में बैलों को चारा-पानी के लिए खोल कर, हाथ-मुंह धोकर, अंगोछे की लंगोटनुमा धोती बांध कर वह चाख का एक कोना लीपता और जीमने के लिए जम जाता. तब इजा उसकी थाली में ढेर सारा भात और भटिया परोस कर रख देती. धिनाली होती तो थोड़ा-सा दही और घी भी, जिसका उसे बेसब्री से इंतज़ार रहता. भुटी खुश्याणी (यली लाल मिर्च)  तो होती ही. कभी हम छुप कर उसका खाना देखते रहते. वह बहुत इतमीनान, चाव और श्रद्धा से खाता. रसोई में जब भात की तौली और भटिया का भदेला आधा हो जाता तो इजा धीरे से कहती- अब जोहार को एक डकार आएगा. ऐसा ही होता. फिर उसकी थाली में और खाना परोसा जाता.

‘पहा-पहा… आनंद हो गया’ वह कहता. खा कर वह फिर उस कोने को लीपता, बाहर जाकर थाली मांजता और चाख के उसी कोने में औंधी करके रख देता. इजा पानी के छीटे डाल कर उसे वहां से उठाती और चमचमाती थाली को फिर से मांजती.

पानी के छींटे डालना और उसके मांजे बर्तनों को फिर से मांजना हमें विचित्र लगता लेकिन हर बार ऐसा ही होता. खेत में चाय जाती तो जिस गिलास में जोहारदा चाय पीता, उसके साथ भी यही होता. पानी के छींटे डाले बगैर, उसके मांज देने के बावजूद उसे छुआ नहीं जाता था. रास्ते चलते सामने से कोई आ जाता तो जोहारदा काफी दूर से ही पगडण्डी छोड़ कर ऊपर-नीचे हो जाता, चाहे उसे सिंसौण के भूड़ (बिच्छू घास की झाड़ी)  या कांटों पर ही पैर क्यों न टिकाने पड़ते. मगर जब गांव में किसी को छल-छितर (भूत) लग जाता, कोई ‘झसक’ जाता तो इस अस्पृश्य जोहारदा ही को पुकारा जाता. जोहारदा अपना काम छोड़ कर आ जाता. नब्ज देखता और जोर की टुकाव (चीख) छोड़ कर छल-छितर भगा देता. उसकी दो-चार टुकाव से ‘झसके मरीज’ कांपना बंद कर आंख खोल देते. जोहारदा चला जाता तो वहां मौजूद सब लोगों पर पानी के छींटे डाले जाते. कुछ औरतें गोठ जाकर गोमूत्र अपने सिर पर डालतीं.

जोहार दा एक और काम में उस्ताद था- बछड़ों को बैल बनाने में. जवान होते बछड़े के पैर बांध, उसे जमीन पर लिटाकर वह एक गंगलोड़े (नदी का गोल पत्थर) पर उसकी वृषण-थैली टिका कर दूसरे गंगलोड़े से उस पर सधी चोट मारता. बछड़ा तड़पता जिसे गांव के कई पुरुष जकड़े रहते. किसी नस-विशेष को वह पत्थर की चोट से काट देता और कटे वृषण-कोश में दाल व मसालों का लेप लगा देता. बछड़े की नसबंदी की यह बड़ी अमानवीय प्रक्रिया थी लेकिन गांवों में यही प्रचलन में था. उस दिन जोहारदा की दावत होती. उसके जाने के बाद सभी लोगों पर पानी व गोमूत्र के छींटे डालना नहीं भूला जाता.

वह सयाना था, सम्मानित था, गांव वालों का भूत-भय भी भगाता था, फिर भी उसका स्पर्श सवर्णों को पता नहीं कैसे गंदा या अपवित्र करता था कि गोमूत्र के छींटे हर बार जरूरी हो जाते थे.

मुझे जोहारदा की पत्नी की भी हलकी-सी याद है. शायद सरुली नाम था उसका. जोहारदा की तरह वह भी बहुत सीधी और विनम्र थी. बहुत मीठा था उसका बोलना. वह अक्सर बीमार रहती थी. ज्यादा बीमार होने की खबर मिलती तो गांव की औरतें घास-लकड़ी के लिए जंगल जाते हुए घर के आंगन से दूर रुक कर पूछतीं- ‘सरुली कैसी हो?’

‘ऐसी ही हूं, गुस्याणी! तुम ठीक हो? बच्चों की चिट्ठी आयी? कैसे हैं, घर कब तक आ रहे हैं?’ वह अपना हाल भूल कर सबका हाल-चाल लेती. इतनी आत्मीयता के बावजूद सरुली अस्पृश्य थी. ब्राह्मणी उसके दरवाजे पर पड़े अपने ही घर के जैसे मैले-फटे बोरे पर बैठना तो दूर उसे छू भी नहीं सकती थी. दूर से खड़े-खड़े दु:ख-सुख पूछा जाता.

नौकरी पर जाते-आते लोगों का बोझा ढोने से लेकर पत्थर खोदने और लकड़ी चीरने के कामों में जोहारदा का परिवार सर्व-सुलभ था. उनके साथ गांव के गरीब सवर्ण स्त्री-पुरुष भी मजदूरी करते. सबको बराबर मजदूरी मिलती, परंतु जोहारदा के परिवार को गोमूत्र के छीटों का जो अतिरिक्त व्यवहार मिलता, वह निश्चय ही अपमानजनक था. पता नहीं जोहारदा इस अपमान को महसूस करता था या नहीं, लेकिन मैं चाहता था कि उसे इस बात पर गुस्सा आये, जो कि उसे कभी आया नहीं.  उसे तब गुस्सा आता था जब कोई बैलों को ठीक से खिलाये-पिलाये बिना हल में जोतने के लिए भेज देता था  या जब कोई उसकी जुताई-बुवाई में बेवजह खोट निकालने लगता था. अपनी सामाजिक स्थिति पर उसे कभी गुस्सा नहीं आया.

बाद में एक समय ऐसा आया जब पड़ोस के गांवों के युवा शिल्पकारों ने ज्यादा मजदूरी मांगनी शुरू की और कुछ ने हल चलाना ही छोड़ने का ऐलान कर दिया. तब भी जोहारदा में कोई परिवर्तन नहीं आया. न उसने ज्यादा मजदूरी मांगी, न ही हल चलाने से इनकार किया. बल्कि, परदेसी पतियों वाली स्त्रियों का वह विश्वस्त सहायक और सलाहकार बना रहा.

जमाना गुजर गया. कभी-कभी गांव जाने पर जोहारदा से भेंट होती. उसका बड़ा लड़का भाबर जाकर बस गया. लड़कियां शादी होकर चली गईं. सबसे छोटा लड़का पढ़-लिख कर शहर में नौकरी करने चला गया और फिर लौटा नहीं. जोहारदा में विशेष फर्क नहीं आया था. उम्र उसके चेहरे पर जितनी छप सकती थी, छप चुकी थी. वह किसी उम्रदार पेड़ की तरह दिखायी देता. बीमार पत्नी उसे जीवन-समर में काफी पहले अकेला कर गयी थी.

मैं नहीं जानता कि मरने के पहले जोहारदा कैसा हो गया था- जर्जर और लाचार, या कि बूढ़े पेड़ की तरह एक रोज वह अचानक ही ढहा होगा. उसकी मौत के बरसों बाद, 1990 में अपने छूटते हुए गांव-घर के उसी चाख में बैठा था मैं, जिसके एक कोने में जोहारदा की बैठी जगह पर और उसके मांजे बर्तनों में इजा पानी के छींटे डालती थी. मेरे हाथ में वही रुक्का था, जिस पर जोहारदा के अंगूठे की निशानी थी, ब. क. दया कृष्ण तेवाड़ी.

इस रुक्के के लिए मैं बहुत शर्मिंदा हुआ था, उस दिन. आज भी उस रुक्के पर नजर पड़ जाती है तो अपराधग्रस्त होता हूँ. क्षमा मांगता हूँ.

माफ करना जोहारदा.

और, आदरणीय पं. दया कृष्ण तेवाड़ी जी, मेरे इस माफीनामे पर द. ग. के लिए आप थोड़ी देर को भी उपलब्ध नहीं हो देंगे?

कहीं से कोई जवाब नहीं आता. अब गांव से कोई चिट्ठी नहीं आती. दो-चार परिवारों को छोड़ कर सारा गांव खाली हो गया. बंद पड़ी बाखलियां खन्यार (खण्डहर) हो रहीं, बल. जिन खेतों में जोहारदा जुताई करता था, वहां जंगल उग आया, बल. बन्दरों-सुअरों के आतंक के कारण वे चंद परिवार भी खेती नहीं कर पाते, बल. महीनों में कभी किसी से मोबाइल पर बात हो जाती है. इस बातचीत में जोहारदा या उसके परिवार का कोई जिक्र नहीं आता.

अपने दूसरे उपन्यास ‘टिकटशुदा रुक्का’ के लिए भी मैं जोहारदा का ऋणी हूं. उसे लिखने के दौरान वह बहुत याद आता रहा. लेकिन एक बड़ी गलती हो गई.

आज पछता रहा हूं कि वह उपन्यास मैंने जोहारदा की स्मृति को समर्पित क्यों नहीं किया!

 

( इस लेख में प्रयुक्त सभी तसवीरें नवीन जोशी के सौजन्य से )

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