दिनेश अस्थाना
उ0प्र0 के गोंडा से भाजपा के बाहुबली सांसद और भारतीय कुश्ती संघ के सर्वेसर्वा ब्रजभूषण शरण सिंह की महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न के आरोप में गिरफ्तारी की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना चल रहा था। प्रसिद्ध धाविका और भाजपा कोटे से राज्यसभा सदस्य पी0टी0 उषा इन पहलवानों को अनुशासनहीन घोषित करके लानत-मलामत झेल रहीं थीं कि 18 मई को प्रसिद्ध मुक्केबाज मैरी काॅम की चीख भारतीय मीडिया में गूंजने लगी, ‘‘मेरा राज्य मणिपुर जल रहा है, बचा लीजिए।’’
यह राज्य इस समय हिंसा की गिरफ्त में है। अबतक 120 से अधिक जानें जा चुकी हैं, 300 से अधिक घायल अस्पतालों में कराह रहे हैं, अनगिनत लाशें अपने वारिसों का इन्तज़ार कर रही हैं और लोग हैं कि स्वजनों के शव लाकर उनका अंतिम संस्कार करने से भी कतरा रहे हैं।
4000 से अधिक घर ज़मींदोज़ हो चुके हैं, 50,000 से अधिक लोग राहत शिविरों में धक्के खा रहे हैं। आग की चपेट में कई प्रभावशाली लोगों के घर भी आए हैं जिनमें राज्य और केंद्र सरकार के विधायक और मंत्री भी हैं, ये मंत्री मणिपुर के कूकी और मेइती दोनों समुदायों के हैं।
समाज के किसी भी हिस्से में किसी घटना के घटने के दो कारण होते हैं- तात्कालिक और राजनीतिक-ऐतिहासिक-भौगोलिक। तात्कालिक कारण तुरंत नज़र आ जाते हैं और उनपर बहसें शुरू हो जाती हैं परन्तु इस धमाके का बारूद एक लंबे समय तक इकट्ठा होता रहता है, तात्कालिक कारण उसमें सिर्फ पलीता लगाते हैं।
मणिपुर की वर्तमान हिंसा के तात्कालिक कारण हैं कूकी आदिवासी और मेइती लोगों के बीच के आपसी मनमुटाव। केंद्रीय इम्फाल में मेइती लोगों की बहुलता है और इसके चारों ओर की पहाड़ियों में कूकी एवं अन्य समुदाय के लोग रहते हैं।
मणिपुर भूमिसुधार अधिनियम के अनुसार पहाड़ी क्षेत्रों में वही लोग ज़मीन खरीद कर बस सकते हैं जो आदिवासी हों। ज़ाहिर है कि यह सुविधा कूकी समुदाय के पक्ष में जाती है क्योंकि वे ही पहाड़ियों में रहनेवाले आदिवासी हैं, मेइती लोग आदिवासी नहीं है इसलिये इस सुविधा से वंचित हैं।
मणिपुर का कुल क्षेत्रफल 22,000 वर्ग किलोमीटर है, यानी उत्तर के एक छोटे से राज्य हरियाणा का आधा। इसका 10 प्रतिशत मैदानी भाग 90 प्रतिशत पहाड़ियों से घिरा हुआ है।
35 लाख की कुल आबादी का 53 प्रतिशत मेइती समुदाय है जिसमें अधिकांश हिंदू हैं परंतु उनमें मुसलमान, बौद्ध एवं स्थानीय सनमाही मतावलंबी भी हैं।
40 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है जिनमें ईसाई कूकी और नगा हैं। ये पहाड़ियों पर तो रहते ही हैं पर इनके मैदानों में बसने पर कोई पाबंदी नहीं है।
पिछले एक लंबे अर्से से देखा जा रहा है कि भाजपा समाज में तफ़रक़ा पैदा करके उसका राजनीतिक लाभ उठाने की अभ्यस्त रही है। ये लोग घोषित तौर पर मुस्लिम-ईसाई विरोधी हैं ही, मौका देखकर ये और भी सामाजिक विभाजन पैदा करके उसका लाभ उठाने के माहिर हैं।
मेइती समुदाय में भाजपा की पैठ है, हांलाकि उनमें मुसलमान भी हैं, और दूसरी ओर कूकी समुदाय ईसाई बहुल है।
पहाड़ी जंगलों में भी अपनी हिस्सेदारी की ग़रज से मेइती समुदाय के लोगों ने खुद को आदिवासी घोषित करने के लिये मणिपुर उच्च न्यायालय में एक याचिका दाखि़ल की और उसपर न्यायालय ने राज्य सरकार को अपना मंतव्य देने के लिये चार सप्ताह का समय दिया।
इस आदेश के विरोध में आदिवासी समुदायों ने और आल ट्राइबल स्टूडेन्ट्स यूनियन अआफ मणिपुर ने 3 मई 2023 को सभी पहाड़ी क्षेत्रों में उनके प्रति सहभागिता दिखाते हुए प्रदर्शन किया था जिसमें इम्फाल घाटी से सटे चूराचांदपुर जिले में मेइती और कूकी समुदायों के बीच खूनी झड़पें हो गईं। कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए भारतीय सेना के 10,000 सिपाही और अर्धसैनिक बल वहां तैनात कर दिये गए।
सूचनायें बाहर न जा सकें इसलिये इंटरनेट सेवायें काट दी गईं, धारा 144 थोप दी गई और हालात के ज्यादा बिगड़ जाने पर कर्फ्यू लगाने और बलवाइयों को देखते ही गोली मार देने के आदेश भी जारी कर दिए गए।
केंद्रीय जांच ब्यूरो ने एक डी0आई0जी0 स्तर के अधिकारी की अगुवाई में इन बारदात की जांच के लिए एक टीम गठित कर दी है। इसके अतिरिक्त वहां के राज्यपाल की अगुवाई में एक शांति समिति का भी गठन किया गया है जिसमें मुख्यमंत्री सहित राज्य के कई मंत्री, सांसद, विधायक और दीगर राजनीतिक दलों के नेतागण सदस्य हैं।
इस समिति के सदस्यों में मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह के नाम पर कूकी सदस्यों को ऐतराज़ है। उनकी मांग है सबकुछ राज्य के मुख्यमंत्री के रहमोकरम पर छोड़ दिए जाने की अपेक्षा केंद्र को भी इस समिति में शामिल किया जाना चाहिए।
ज्ञातव्य है कि 60 सीटों वाली मणिपुर विधानसभा में 19 सीटें कूकी-नगा आदिवासियों के लिये आरक्षित हैं और 40 सीटें सामान्य हैं। पिछले चुनाव में इन 40 सीटों में से 39 पर मेइती समुदाय काबिज़ हुआ है। आदिवासी समुदायों की एक शिकायत यह भी है कि सरकारी धन का बहुलांश मेइती समुदाय की बहुलता वाली इम्फाल घाटी में ही खर्च किया जाता है।
ये तो रहे मणिपुर के मौजूदा हालात के तात्कालिक कारण, परंतु राजनीतिक-ऐतिहासिक-भौगोलिक कारणों की पड़ताल भी जरूरी है।
मणिपुर की पूरी कहानी पहाड़ियों और घाटी के बीच भागमभाग और जंग के जिंदा निशाानों की है। इन जंगों में उनके मूल राज्य के भारतीय संघ में विलय के खि़लाफ़ बग़ावत है तो अनेक जातीय समूह भी हैं जो एक-दूसरे के खि़लाफ़ जंग में होते हैं। चारों ओर हथियार ही हथियार हैं, कौन नायक है और कौन खलनायक, पता ही नहीं चलता।
बच्चे सेना के बैरिकेड पार करके स्कूल जाते हैं, हथियारबंद सिपाही हर चौराहे पर दिखाई देते हैं। बच्चों को पता है कि आधी रात को जब दरवाजे की कुंडी खड़कती है तो क्या होता है।
कार में चलते हुए कमांडोज़ के राइफलों की नालें खिड़की के बाहर झांकती रहती हैं, उनकी उंगलियां राइफल की लिबलिबी पर चौकन्नी रहती हैं, राइफल और सिपाही एक दूसरे में इस क़दर गड्डमड्ड होते हैं कि उन्हें अलग करना नामुमकिन होता है।
सिपाही और कमांडोज़ तो साए की तरह होते हैं, अभी नज़रों के सामने हैं और अगले ही पल ग़ायब, पर भूमिगत गुटों के कमांडर सर्वव्यापी होते हैं जो यह सुनिश्चित करते रहते हैं कि रोजाना के मामलों में भी उनके आदेशों का पालन हो रहा है या नही- कि लोगों को क्या पहनना है, कौन से त्योहार मनाने हैं, कब बाजार जाना है, कौन सा संगीत सुनना है, कौन सी फिल्म देखनी है, इत्यादि।
अखबारों के संपादकों और संवाददाताओं को धमकियां मिलती ही रहती हैं और यदि उनके बयानों को न छापा गया तो उन्हें गोली भी मारी जा सकती है।
सन 2000 में तथाकथित ‘‘मुख्यभूमि के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’’ के खिलाफ़ एक प्रभावशाली अलगावावादी गुट, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने वहां हिन्दी फिल्मों के प्रदर्शन पर ही बैन लगा दिया था। यह प्रतिबंध वरुण धवन और करीना कपूर के उन पोस्टरों पर भी लगा जिनमें वे पुरुषों के गोरेपन की क्रीम या सेलफोन जैसी चीजों का विज्ञापन कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर बाला हिजाम जैसी मणिपुरी अभिनेत्री को हिंदी फिल्मों में काम करने से रोक दिया गया था। उन्हें किसी भूमिगत गुट ने बाकायदा चेतावनी दी थी कि वह मुंबई न जांए। वह स्थानीय बोतलबंद पानी और जूस के ‘लिकला’ ब्रांड का चेहरा बन कर रह गईं। इन भूमिगत गुटों के संघात वास्तविक और गंभीर परिणामों वाले होते हैं परंतु उनकी मंशा प्रायः अस्पष्ट होती है।
‘साउथ एशिया टेररिज़्म’ पोर्टल के अनुसार 2015 तक इस राज्य में 42 चिह्नित भूमिगत गुट सक्रिय थे। इनमें से 6 बाकायदा प्रतिबंधित हैंः कांग्लेईपाक कम्युनिस्ट पार्टी (के0सी0पी0), कांग्लेई यावूल कान्ना लुप (के0यू0के0एल0), मणिपुर पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट (एम0पी0एल0एफ0), पीपुल्स रिवाल्युशनरी पार्टी आफ कांग्लेईपाक (पी0आर0ई0पी0ए0के0), पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पी0एल0ए0) और यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यू0एन0एल0एफ0)।
कई मौकों पर ये गुट काॅरकाॅम – कोआरडिनेशन कमेटी के नाम पर क़रीब भी आ जाते हैं। इनके अलावा भी राज्य में सक्रिय गुट हैंः मणिपुर नगा रिवाल्यूशनरी फ्रंट (एम0एन0आर0एफ0), नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल आफ नागालैंड-इसाक मुइवा (एन0एस0सी0एन0-आई0एम0), नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउन्सिल आफ नागालैंड- खापलांग (एन0एस0सी0एन0-के0), पीपुल्स यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट (पी0यू0एल0एफ0) और जेलिपांग्रांग यूनाइटेड फ्रंट (जेड0यू0एफ0)। साथ ही 24 गुट ऐसे भी हैं जो निष्क्रिय या आंशिक रूप से सक्रिय हैं। स्थानाभाव के कारण सबका नाम लिखना न तो संभव है और न ही आवश्यक।
‘साउथ एशिया टेररिज़्म’ पोर्टल के अनुसार विभिन्न लड़ाकू गुट समय-समय पर भारत सरकार के साथ शांति वार्ताओं में शामिल रहे हैं परन्तु नतीज़ा अभी तक सिफर ही रहा है। स्पष्ट है कि मणिपुर के एक बड़े भूभाग पर भारत सरकार का नहीं, वरन इन लड़ाकू गुटों का ही कब्ज़ा है। ये गुट लोगों से धन की उगाही करते हैं और अपनी अलग सरकार चलाते हैं।
जाहिर है, कि इस राज्य में सुचारु रूप से शासन चलाने के लिए सरकार को सेना का सहारा लेना पड़ता है। सुरक्षा कारणों से वहां तैनात सैनिकों की वास्तविक संख्या का ख़ुलासा नहीं किया जा सकता परंतु मानवाधिकार समिति की 2008 की एक रिपोर्ट के अनुसार उस समय वहां सेना के 50,000 से अधिक जवान तैनात थे।
राज्य सरकार के सिपाहियों की संख्या इससे अलहदा है। मणिपुर में सेना की उपस्थिति जगह-जगह अपनी छाप छोड़ती है, जैसे कि केंद्रीय इम्फाल घाटी की 1700 वर्ग किलोमीटर ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा भारतीय सेना के कब्ज़े में है।
हेगांग विधानसभा क्षेत्र में सांगाक्फम बाजार और कोइरंगेई डक फार्म से बमुश्किल साढ़े पाँच किमी की दूरी पर सुरक्षा बलों को 470 एकड़ ज़मीन, सांगाक्फम में 2 एकड़ ज़मीन असम राइफल्स को, सी0आर0पी0एफ0 को टंडन पोखरी मैनिंग में 800 एकड़ और लामलोंगेई, मताई, खम्बम लामखाई और लुआंगसंगबम में कुल मिलाकर 231.47 एकड़ और कोइरंगेई ओल्ड एयरफील्ड में 74.2 एकड़ ज़मीन असम राइफल्स को, कोइरंगेई बाजार में पचास एकड़ ज़मीन बी0एस0एफ0 को, नीलकंठी वनस्पति फैक्टरी में 2 एकड़ ज़मीन असम राइफल्स को और नीलकंठी ड्रग फाॅर्मूलेशन सेंटर में 2 एकड़ ज़मीन बी0एस0एफ0 को दी गई है।
इसके अतिरिक्त 1980 से ही विभिन्न सुरक्षाबल डिस्टब्र्ड एरिया एक्ट के अन्तर्गत ए0एफ0एस0पी0ए0 (आफ्प्सा) से लैस हैं। किसी क्षेत्र को डिस्टब्र्ड एरिया घोषित करने का अधिकार राज्य/केंद्रीय सरकार के पास होता है।
विभिन्न धार्मिक, जातीय, भाषाई या क्षेत्रीय समूहों के बीच के झगड़े को देखते हुए उन्हें डिस्टब्र्ड एरिया घोषित किया जा सकता है। इसे घोषित किये जाने या न किए जाने को लेकर राज्य सरकारें सलाह दे सकती हैं पर इस कानून के अनुच्छेद (3) के अनुसार राज्यपाल या केंद्रीय सरकार अपने विवेकानुसार उसकी उपेक्षा भी कर सकती है। अंतहीन विरोध प्रदर्शनों के बावजूद मणिपुर के कई क्षेत्रों में यह कानून अभी भी लागू है।
यह सर्वविदित है कि भाजपा को विभाजनकारी ताकतों को संरक्षण देकर बहुमत हासिल करने पर विशेषज्ञता प्राप्त है, मणिपुर के वर्तमान हालात को देखते हुए इस धारणा की पुष्टि ही होती है। मणिपुर की आधी से अधिक आबादी मेइती समुदाय की है, वे ही सत्ता में हैं और ताकतवर भी हैं। उनकी ही भाषा और लिपि मणिपुर की आधिकारिक भाषा और लिपि है। अधिकांश उपजाऊ ज़मीन भी उन्हीं के पास है, जबकि कूकी और अन्य आदिवासी समुदायों के लोग पहाड़ियों पर रहते हैं। उनका हिस्सा संरक्षित है। उन्हें भय है कि यदि मेइती समुदाय को आदिवासी का दर्जा़ मिल गया तो उनकी ज़मीनों और संसाधनों पर भी धीरे-धीरे मेइती समुदाय का कब्ज़ा हो जाएगा, इसीलिये वे उच्च न्यायालय के इस आदेश का विरोध कर रहे हैं।
इसी आदेश को लेकर जब मेइती लोग धरना-प्रदर्शन करने लगे तो वह हो गया जो नहीं होना चाहिये था। आल ट्राइबल्स स्टूडेंट्स यूनियन के झंडे तले एक एकता मार्च का आयोजन किया गया था। इसी मार्च के दौरान उसकी दूसरे समूह से भिड़ंत हो गई थी।
विधानसभा में मेइती बहुमत में हैं, मुख्यमंत्री एन0 बीरेन सिंह उनके अपने आदमी की तरह व्वहार कर रहे हैं, इसलिए कूकीव अन्य समुदाय के लोग उनपर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं।
केंद्रीय मंत्री अमित शाह भी मेइती लोगों के पक्षधर हैं, इसीलिये निकट भविष्य में इस समस्या के समाधान की संभावना न के बराबर है। अभी दिल्ली में कई दिनों से मणिपुर के विधायकों के दो समूह प्रधानमंत्री से मिलना चाह रहे थे, लेकिन उन्हें समय नहीं मिला।
प्रधानमंत्री विदेश निकल गए। कई रोज बाद कल गृहमंत्री उनसे मिले लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा निकलेगा इसकी उम्मीद नहीं दिखाई देती।
मणिपुर में विभिन्न स्थानीय समूह दशकों से युद्धरत हैं, सरकार के खिलाफ़ भी और दूसरे समूहों के खिलाफ़ भी। हैदराबाद विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर खाम खन सुआन हौसिंग ऐसी अवस्था को ‘इंस्टिट्यूशनलाइज़्ड राॅयट सिस्टम’ कहते हैं, यानी ऐसे दंगे जिन्हें संस्थागत बनाकर उनका राजनीतिक लाभ उठाया जा सके। भाजपा इस फाॅर्मूले को भारत के विभिन्न भागों में आजमा चुकी है।
यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बहरी चुप्पी (डेफनिंग साइलेंस) और अमित शाह द्वारा 29 मई को मणिपुर के दौरे के दौरान कम से कम 15 दिन की शांति बनाये रखने की अपील के हश्र से कुछ संदेश निकलता है तो वह यह है कि इस आग के बुझने की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं है।
इसके मूल में है मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह को सांड़ की तरह छुट्टा छोड़ देना, मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगाने में हीला-हवाली करना और सुरक्षा प्रबंधन को मुख्यमंत्री के सुरक्षा सलाहकार कुलदीप सिंह के भरोसे छोड़ देना।
राज्य में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर 40,000 अतिरिक्त अर्धसैनिक बल लगाये गए हैं। कूकी समुदाय चाहता था कि इन बलों को पहाड़ियों की तलहटी में स्थित ‘बफर जोन’ में लगाया जाए पर हुआ यह कि इन्हें मेइती बहुल घाटी में लगाया गया जबकि वहां भी मेइती सिविल सोसाइटी इन्हें शांति स्थापना में बाधक मान रही है और इसके खिलाफ़ जगह-जगह प्रदर्शन भी हो रहे हैं।
इसके अतिरिक्त यह भी सुनने में आया है कि तलहटी में स्थित कूकी-जाॅम्बी घरों पर हमले करने में पुलिस आरामबाई तेन्गोल और मेइती लीपुम गुटों की मदद कर रही है। कूकी-जाॅम्बी समूहों का राज्य पुलिस पर से भरोसा उठ गया है।
ऐसे में जबकि एक राज्य आग की लपटों में घिरा हुआ है, भाजपा को विश्वास है कि इसका लाभ मणिपुर में तो मिलेगा ही, उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों पर भी इसका असर पड़ेगा। गृहमंत्री चुनावी दौरे कर रहे हैं, प्रधानमंत्री अमेरिका में ‘योगा डे’ मना रहे हैं। नीरो की बांसुरी मल्हार गा रही है!
नोट- इस लेख में मुख्यतया अनुभा भोंसले की Mother Where Is My Country से सहायता ली गयी है. अंतिम भाग में Indian Express की भी मदद ली गयी है.
(फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार)