डॉ. आर. राम
महामारी और तालाबंदी से बेरोजगार होकर सड़कों पर बदहाल हालत में पैदल अपने घरों को जाते हुये मरते-खपते मजदूरों की तस्वीरें सभी को विचलित कर रही हैं। सरकार और समाज की उपेक्षा के मारे ये मजदूर अपने गाँव-घर पहुँचने की कोशिश में जिस तरह की यातना सह रहे हैं वह न सिर्फ सरकार की बदइंतजामी का परिणाम है बल्कि समाज और सरकार की मजदूर वर्ग के प्रति सोच का भी परिणाम है। सरकारी नियंताओं की नजर में इन करोड़ों मजदूरों का कोई मोल नहीं है, सरकार की नजर में ये ‘प्रवासी’ हैं। हमारी सरकार की ‘राष्ट्र’ की अवधारणा में इन प्रवासियों के लिए कोई जगह नहीं है। अपने ही राष्ट्र की सीमाओं के भीतर इन प्रवासियों के दर-बदर, भूखे-प्यासे भटकने वाले इस दृश्य ने भारत के राज व समाज के कई अनसुलझे सवालों की परतें उघाड़ दीं हैं।
महामारी ने मजदूरों की जिंदगी की दुश्वारियों को कई गुना बढ़ा दिया है। ये वो दुश्वारियां हैं जो उन्हें हर दिन झेलनी पड़ती हैं लेकिन अब तक सब कुछ सामान्य तौर पर चल रहा था। लेकिन दो महीने से भी ज्यादा की तालाबंदी ने उन्हें एक ही झटके में सामूहिक रूप से बेसहारा हालत में सड़कों पर ला दिया। और तालाबंदी के शुरुआती दिनों से शुरू होकर आज तक मजदूर जिस तरह जत्थे के जत्थे सड़कों पर पैदल, रिक्शा, ट्रक ऑटो में पलायन करते हुये दिख रहे हैं, ऐसा दृश्य भारत ने कभी नहीं देखा था। यह दृश्य लोगों की करुणा को उद्वेलित कर रहा है, और संवेदनशील लोग कुछ न कर पाने की लाचारी से बेचैन हैं।
भले ही ये मजदूर इस संगठित पलायन के कारण अब हमारे टीवी स्क्रीन पर जगह पाकर हमारे विमर्श में जगह पा रहे हैं लेकिन यह पलायन और ‘देस–वापसी’ रोज, बिना नागा घटित होने वाली घटना है।बिहार, झारखंड, बंगाल, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के किसी भी स्टेशन से दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, पंजाब जाने वाली गाड़ियों को हम देखें तो रोज लाखों मजदूर साधारण डिब्बों और स्लीपर क्लास में ठूँसे हुये पलायन करते हैं, इतनी ही संख्या में मजदूर रोजाना अपने घर भी वापस आते हैं। मजदूर अपने गाँव से महानगरों मे रोजी रोटी की तलाश में रोज पलायन करता है, और प्रवासी का खिताब पाता है। यह पलायन हमारे देश के सबसे बड़े सामाजिक अन्याय का प्रतिफलन है। इस पलायन का कारण सिर्फ पिछड़े राज्यों में उद्योग धंधों का न होना ही नहीं है, इसका सबसे बड़ा कारण है असमान भूमि वितरण!
दूसरे राज्यों में छोटे मोटे काम के लिए पलायन करने वाले लोगों में सबसे अधिक भूमिहीन किसान हैं। जिनके पास गाँव में खेत मजदूरी के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। खेत मजदूरी एक तो पूरे साल का स्थायी रोजगार नहीं होता दूसरे हमारे देश के पिछड़े सामंती कृषि व्यवस्था के कारण खेत मज़दूरों के श्रम का शोषण भी ज्यादा होता है।
सन 2011 में हुई सामाजिक-आर्थिक व जाति जन गणना के अनुसार भारत के गांवों में रहने वाले कुल परिवारों में से 56.41 प्रतिशत परिवारों के पास कोई जमीन नहीं है। इसी जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से कुल भूमिहीन परिवारों की संख्या 10 करोड़ से भी ज्यादा है। सरकारी मानक के आधार पर एक परिवार के सदस्यों की औसत संख्या 4.9 तय की गई है इस आधार पर भारत मे कुल भूमिहीन व्यक्तियों की संख्या 49 करोड़ के आस पास है। आंकड़े यह भी दिखाते हैं कि भारत में भूमिहीन लोगों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी होती रही है। 1991 में भूमिहीनता का प्रतिशत 40 था जो 2004 – 05 मे 52 हो गया। नेशनल सैंपल सर्वे का एक और आंकड़ा कहता है कि जमीन रखने वाले परिवारों मे 92.8 प्रतिशत परिवारों के पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है।
ये आंकड़े यह दिखाने के लिए काफी हैं कि भारत में संसाधनों का किस कदर असमान वितरण है। भारत में भूमि का असमान वितरण गरीबी का बहुत बड़ा कारण है। गाँव मे जमींदारों व दबंग किसानों के उत्पीड़न से बचने व एक सम्मानजनक पेशे की तलाश मे भूमिहीन आबादी का पलायन शहरों की तरफ होता है।
आज़ादी के बाद जमींदारी उन्मूलन का नारा भारत के भूमिहीन किसानों के लिए सबसे बड़ा छलावा साबित हुआ। वह छलावा ही आज भारत के ग्रामीण गरीबों की अपार यातनाओं का कारण है। नेहरु ने आज़ादी के बाद भूमि सुधार के लिए जो भी प्रयास किए वह आधे अधूरे मन से किए गए और सरकार की पूरी कोशिश यह रही कि तमाम किस्म के तिकड़मों के जरिये भूस्वामी जमींदार और रजवाड़े काश्तकारों को जमीन देने व हदबंदी को धता बताने मे कामयाब हो जाएँ। भारतीय संविधान में भूमि राज्य का विषय है, ऐसी स्थिति में सभी राज्यों को जमींदारी उन्मूलन कानून बनाने और लागू कराने की ज़िम्मेदारी थी, लेकिन हम सब जानते हैं कि भारत के किसी भी राज्य में जमींदारी उन्मूलन का कानून ठीक से लागू नही हुआ, सरकारों ने छोटे व मध्यम किसानों के हितों की रक्षा के लिए कानून मे यह प्रावधान किया कि इन्हें अपनी भूमि का पचास प्रतिशत तक ही काश्तकारों को देना होगा, लेकिन इस प्रावधान का फायदा जमींदारों व बड़े भूस्वामियों ने उठाया। उन्होंने अपनी जमीनें अपने सगे सम्बन्धियों यहाँ तक कि हाथी घोड़ों के नाम कर दिया और अपने जमीन पर सिकमी-बटाई पर खेती करने वाले किसानों को बेदखल करके उन्हें मालिकाने के हक से वंचित कर दिया। जमींदारों और रजवाड़ों की ये चालाकियाँ और तिकड़में ऐसा नहीं है कि तत्कालीन सरकारों और नीति निर्माताओं को पता नहीं रही होंगी, जानबूझकर बड़े भूस्वामी-पूंजीपति वर्ग के हितैषी शासक वर्ग ने उस समय यह सब होने दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि बहुसंख्यक ग्रामीण गरीब किसान जो वास्तविक रूप मे जमीन को जोतते थे, जो वास्तविक खेती के काम मे लगे हुये खेतिहर थे वे भूमिहीन हो गए और नए सिरे से जमींदारों के गुलाम हो गए। हदबंदी और चकबंदी का इस्तेमाल बड़े भूस्वामियों के पक्ष में ही किया गया। जमींदारी उन्मूलन के इस पूरी कवायद ने जमींदारी प्रथा का नवीनीकरण कर दिया, इसे एक नए युग में प्रवेश करा दिया, जिसमें पुराने भूस्वामी वर्ग के साथ हरित क्रांति के बाद एक नव कुलक वर्ग भी पैदा हुआ। इसके कारण भारत की सामंती व्यवस्था नए रूप में जारी रही। दूसरी तरफ जमीनों से बेदखल किए गए किसान पूरी तरह खेत मज़दूरी पर निर्भर हो गए। गांव में बंधुआ मजदूरी, सामंती उत्पीड़न, सूदखोरों के जाल से त्रस्त होकर ये भूमिहीन कृषक कोलकाता, मुंबई, सूरत, दिल्ली जैसे औद्योगिक शहरों की ओर पलायन करने लगे। यह समस्या बढ़ते-बढ़ते विकराल रूप लेती गई, मजदूर इन शहरों में अपमान झेल कर नारकीय स्थितियों में रहते हुये इसे ही अपनी नियति मान चुके हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी गाँव में छोटी मोटी मजदूरी के अलावा शहर ही इनकी रोजी रोटी का ठिकाना बनते हैं। इस बीच भारतीय राजनीति व समाजार्थिक विमर्श से भूमि – सुधार का प्रश्न नदारद हो गया। समूचे वाम आंदोलन ने और खास कर नक्सल धारा ने भूमि सुधार, जल-जंगल-जमीन पर समान अधिकार की मांग उठाई लेकिन नवउदारवाद की लहर में इस सवाल पर धूल की परत चढ़ा दी। इस दौरान सारा ज़ोर कॉर्पोरेट घरानों के पंजे से किसानों की जमीन बचाने पर रहा, किसानों और आदिवासियों के आंदोलनों के दबाव में भूमि अधिग्रहण व वनाधिकार से संबंधित कानून बने लेकिन उनका कोई फायदा नहीं हुआ। अब भारत में भूमि सुधार या जमीन के समान वितरण की बात सोचना भी असंभव लगता है, लेकिन मजदूरों के पलायन और उनकी यातना का स्थायी समाधान रैडिकल भूमि सुधार से ही संभव है। रैडिकल वाम धारा आज भी कृषि क्रांति को भारतीय क्रांति की धुरी मानती है, जिसके केंद्र में भूमि सुधार का सवाल है।
सरकार के पास मजदूरों को तत्काल राहत के नाम पर सस्ते दर या मुफ्त राशन, हजार–पाँच सौ रुपये की घोषणा और मनरेगा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मजदूरों के गाँव लौटने पर जमीन को लेकर संभावित संघर्ष को रोकने के लिए सरकारें पंचायत स्तर पर ग्राम राजस्व समितियां बना रही हैं। लेकिन अब समय आ गया है कि भारत के अधूरे भूमि सुधार को पूरा करने व ग्राम स्तर पर संसाधनों पर समान अधिकार दिलाने की मांग उठाई जाय व जमीन जोतने वाले को मिले इसकी लड़ाई शुरू हो। आज सरकार कॉर्पोरेट फ़ार्मिंग की चला कर खेती को भी कॉर्पोरेट के हवाले करना चाहती है। यानि एक प्रकार से यह भूमि सुधारों की प्रक्रिया को उल्टी दिशा मे ले जाने की कोशिश है।
कॉर्पोरेट फ़ार्मिंग के खिलाफ हमारी मांग हो ‘को-ओपरेटिव फ़ार्मिंग’, समूहिक खेती। या तो हर भूमिहीन परिवार को कम से कम 5 एकड़ जमीन मिले अन्यथा खेती योग्य समस्त जमीन, बाग बगीचे व सार्वजनिक जलाशयों का सरकारीकरण हो और खेती करने वाले परिवारों को लीज़ पर सामूहिक खेती के लिए उपलब्ध कराया जाय। यह भी सच है कि भारत में छोटे और मध्यम किसान के लिए खेती कभी भी मुनाफे का व्यवसाय नहीं रहा है, पिछले बीस पच्चीस सालों में खेती की जमीन का रकबा भी कम होता जा रहा है, इन किसानों पर एक तरफ उदारवादी आर्थिक नीतियों की मार पड़ी है साथ ही जोत का आकार भी घटता गया है। लेकिन यह कोई सामान्य राष्ट्रीय परिघटना नहीं है, अभी भी अधूरे भूमि सुधार के लाभार्थी देश के हर हिस्से मे मौजूद हैं। कृषि भूमि का संकेन्द्रण अभी भी बड़े किसानों, फार्मरों और भू माफियाओं के पास है। 2015-16 में हुये कृषि जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से भारत मे 2 हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसानो की संख्या कुल किसान आबादी का 86.2 प्रतिशत है, लेकिन इनका फसल में हिस्सेदारी (क्रॉप एरिया) कुल फसल का 47.3 प्रतिशत है। इसके विपरीत 2 से 10 हेक्टेयर जमीन का मालिकाना रखने वाले किसानों का प्रतिशत 13.2% है लेकिन इनकी फसल में हिस्सेदारी 43.7 प्रतिशत है। ये आंकड़े यह दिखाते हैं कि भले ही ज़मीनों का आकार छोटा हुआ हो,ज़मीनों का टुकड़ों में विभाजन हुआ हो लेकिन अभी भी भूमि वितरण मे व्यापक असमानता मौजूद है। इसी जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि भारत में कुल भूमि का मात्र 9% दलितों के पास है। 71 प्रतिशत दलित खेतमज़दूर के रूप में काम करते हैं। 58.4 प्रतिशत दलित परिवार पूरी तरह भूमिहीन हैं। बिहार, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु व केरला में 90% दलित खेत मजदूर हैं।
भारत में सैद्धांतिक रूप से, कागजी तौर पर जमींदारी उन्मूलन हो चुका है लेकिन हकीकत में सारा ग्रामीण भारत अभी भी नई-पुरानी जमींदारियों के जुल्म से कराह रहा है। अब कॉर्पोरेट जमींदारी भी सामने आ रही है। इन जमींदारियों ने भारत की विपन्नता को और अधिक बढ़ाया है। इस विपन्नता और असमानता को खत्म करने की दिशा में एक बड़ा कदम है भूमि सुधार! इस सवाल पर व्यापक जनाकांक्षा और जनांदोलन का निर्माण आज की जरूरत है। वर्तमान सरकार जिसकी पूरी राजनीति ही नेहरू की गलतियों को सुधारने के नाम पर टिकी है, क्या नेहरू और काँग्रेस के अधूरे भूमि सुधार को पूरा करने का साहस करेगी? सत्तर साल की गलतियों को ठीक करने के नाम पर ये सरकार भारतीय जनता के हर अधिकार पर हमला करती चली आ रही है। आज जिस तरह एक ओर गांवों में सामंती हमले तेज़ हो रहे हैं वहीं दूसरी ओर कृषि को कॉर्पोरेट हाथों में सौंपने का ब्लूप्रिंट तैयार हो रहा है, देश के भूमिहीन किसानों को सामंती और कॉर्पोरेट दोनों ही शक्तियों से लड़ते हुये संसाधनों पर अधिकार की लड़ाई लड़नी होगी। ‘जमीन जोतने वाले को’ ये नारा यूटोपिया नहीं है, ये हकीकत में बदल सकता है।