1917 के अक्टूबर/नवम्बर महीने में रूस में एक ऐतिहासिक अश्रुतपूर्व प्रयास हुआ। वह प्रयास उन्नीसवीं सदी की क्रांतियों को पूर्णता प्रदान करने वाला था और बीसवीं सदी का चेहरा इससे निर्मित हुआ. सारी दुनिया का शायद ही कोई मुल्क होगा जिसकी चेतना में इस क्रांति की मौजूदगी न हो. हमारे देश में भी रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘ रशियार चिठी ’ और प्रेमचंद के तमाम लेखन में इसका समर्थन मिलता है. और फाँसी पर चढ़ने से कुछ क्षण पहले भगतसिंह क्या पढ़ रहे थे ? लेनिन.
2017 का साल नए इंसान के निर्माण की उस कोशिश का शताब्दी वर्ष अभी-अभी गुजरा है.
अंतर्राष्ट्रीय वाम आंदोलन में मार्क्स की विरासत के स्वाभाविक दावेदार जर्मनी के सामाजिक जनवादी थे लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के समय लेनिन को छोड़कर लगभग सभी सामाजिक जनवादियों ने अपनी-अपनी सरकारों का साथ दिया था. अकेले लेनिन ने इसे साम्राज्यवादी युद्ध माना और इससे उपजे हालात का लाभ क्रांति के लिए उठाया.
लेनिन पर अपने समय का प्रभाव तो था ही, समय पर उनका प्रभाव भी कुछ कम गहरा नहीं था. उन्हें अपनी भावनाओं को काबू में रखना आता था और अपने क्रोध को जुझारू आक्रामकता का रूप देकर वे लंबे समय तक राजनीतिक लड़ाई लड़ सकते थे. अपनी बुनियादी मान्यताओं को उन्होंने दृढ़ता के साथ पकड़े रखा.
मार्क्सवाद के अलावा रूसी साहित्य का भी उन पर अमिट असर पड़ा था. छपे हुए शब्दों से उनका नाता अधिक गहरा था. लेनिन घनघोर पढ़ाकू और प्रचंड लिक्खाड़ थे, वक्ता उतने प्रभावी न थे. अध्ययन और राजनीतिक संवेदनशीलता के कारण 1917 में उन्होंने सत्ता दखल की पटकथा लिखी. नतीजतन अक्टूबर में सत्ता दखल को अंजाम दिया. मार्च 1918 में ब्रेस्त-लितोव्स्क की संधि के जरिए रूस पर जर्मनी के हमले को रोका. 1921 में नई आर्थिक नीति लागू करके उन्होंने नवजात सोवियत संघ को जन विक्षोभ से उबारा. इन सभी मौकों पर लेनिन द्वारा संचालित अभियानों ने घटनाओं की दिशा तय की.
लेनिन ने अपने पूर्ववर्तियों से सीखा था कि प्राप्य को हासिल करने के लिए अप्राप्य को पाने का लक्ष्य सामने रखना पड़ता है. लेनिन और अन्य नेताओं में अंतर यह था कि क्रामवेल और राबेस्पीयर ने तब क्रांति में भाग लिया जब उसका होना निश्चित हो गया जबकि लेनिन ने क्रांति के लिए पचीस साल परिश्रम किया था. इसके लिए वे भूमिगत रहे, जेल गए और विदेश भी भागे. तय नहीं था कि उनके जीवनकाल में यह घटित होगी. उन्होंने कहा भी कि उनकी पीढ़ी सफल नहीं भी हो सकती है. वे भविष्य के लिए लड़ रहे हैं. अपनी आकांक्षा को वे कभी यथार्थ नहीं मानते थे.
उनका मानना था कि जीत, हार और संक्रमण के समय कठोर क्रांतिकारी यथार्थवाद बेहद जरूरी होता है. केंद्रीय समिति के बहुमत के विरुद्ध जाकर भी क्रांति की सफलता सुनिश्चित करने में लेनिन की भूमिका निर्णायक थी ही, नवोदित राज्य की रक्षा के लिए भी उन्हें बहुधा ऐसा करना पड़ा.
रूसी क्रान्ति की उपलब्धियों का जिक्र करते हुए एरिक हाब्सबाम ने अपने ग्रन्थ ‘ एज आफ़ एक्सट्रीम्स ‘ में एक मजेदार तथ्य का उल्लेख किया है. उनका कहना है कि रूस का कैलेंडर बाकी दुनिया से पीछे चलता था. रूसी क्रान्ति ने इसे दुरुस्त किया. इसीलिए शेष दुनिया के लिए जो नवम्बर क्रान्ति थी वह रूस के लिए अक्टूबर क्रान्ति ! यह तो उस क्रान्ति की सबसे छोटी उपलब्धि थी. रूसी क्रान्ति ने रूस को तो बदला ही ; उसका महत्व विश्वव्यापी था.
क्रान्ति ने जो आवेग पैदा किया उसका आँखों देखा वर्णन अमेरिकी पत्रकार जान रीड ने अपनी किताब ‘ दस दिन जब दुनिया हिल उठी ‘ में किया है. शहरों में जिसे भी कुछ कहना था उसने जहाँ भी जगह पाई बोलना शुरू कर दिया और हरेक वक्ता को ढेर सारे श्रोता मिल जाते थे. पहला विश्वयुद्ध जारी था, सेनाएं सीमा पर थीं.
उनके लिए रेलगाड़ियों में भरकर किताबें भेजी जातीं और गरम तवे पर पानी की बूँदों की तरह गायब हो जातीं. क्रान्ति ने पढ़ने की प्यास जगा दी थी.
21 जनवरी 1924 को रूस की अक्टूबर क्रांति और महान सोवियत समाजवादी गणराज्य के सूत्रधार व वास्तुकार व्लादिमीर लेनिन का निधन हुआ. उसके डेढ़ साल बाद 15 जून 1925 को गणेश शंकर विद्यार्थी ने अखबार ‘प्रताप’ में लेनिन पर लेख लिखा-
‘‘वह सो गया है -ऐसा प्रतीत होता है। साथ ही यह भी अनुभव होता है कि यदि हम उसे जगा दें तो वह अपना अधूरा ग्रंथ-विश्वव्यापी विप्लव के कठोर गायन की एक अधूरी कड़ी- फिर लिखने लगेगा . “
लेनिन के अधूरे ग्रंथ के पन्ने रूस ही में नहीं, सर्वत्र लिखे जा रहे हैं. दुनिया का दुःखी अंग उसका स्मरण करता है. विप्लव होंगे. परिवर्तन की घटाएं घुमड़ेंगी. पुराने आततायीपने पर गाज भी गिरेगी. लेनिन से बढ़ कर महापुरुष भी पैदा होंगे और मनुष्यता को अपने संदेश सुनाएंगे. पर, उन सब अवस्थाओं में लेनिन का नाम आदर और गौरव के साथ लिया जाएगा. ’’
लेनिन खड्ग-हस्त था। पर, उसकी तलवार रक्षा के लिए चमकी, आततायीपन के लिए नहीं. “
गैर बराबरी पर आधारित दुनिया में समाजवादी समाज के निर्माण का यह सिद्धान्त और व्यवहार निरन्तर प्रेरणा का स्रोत रहा है, रहेगा ।