समकालीन जनमत
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लम्हों की चीख़ : दर्द-ए-इतिहास भी और पैगाम भी

कोरोना का भयानक दौर बीत गया। पर आज भी उसे याद करते ही मन मस्तिष्क सिहर उठता है। वह एक बड़ी त्रासदी थी। हम सब पर आफत बनकर टूटी और वह भी अचानक। उसकी कोई तैयारी नहीं। हिदायतें थीं, लेकिन उस पर गौर करने वाला कोई नहीं। हुकूमत के पास इससे निपटने का एक ही तरीका था। वह था ‘लॉकडाउन’। 24 मार्च 2020 की रात को पूरे देश में यह हड़बड़ी में लागू कर दिया गया। वक्त नहीं दिया गया। लाखों-करोड़ों लोग जो रोजी-रोजगार के लिए अपने गांव, कस्बा, शहर छोड़ महानगरों की ओर गए थे, उनके पास कोई रास्ता नहीं था। क्या करें? कहां जाएं? अपने गांव लौटने के सिवा कोई विकल्प नहीं था। वे उल्टे पांव लौट पड़े। कोई साधन नहीं । कोई व्यवस्था नहीं। सैकड़ों मिलों तक पैदल चलने के लिए वे बाध्य थे। हजारों बीमार पड़े। हादसे के शिकार हुए। सरकार भी इनके प्रति संवेदनहीन थी। उसकी एकमात्र कोशिश लाकडाउन को सफल करना था। लोग सड़कों से भगाए गए तो रेल की पटरी पकड़ ली। फिर वहां से खदेड़ जाते तो सड़कों पर आ जाते। कितनों की जानें गईं, कोई आंकड़ा नहीं है। यह ऐसा अफरातफरी का असाधारण माहौल था जिसे बयां नहीं किया जा सकता है।

कवि नरेश सक्सेना की उक्ति याद आती है। वे प्रश्न करते हैं ‘क्या मुसीबत में कविताएं साथ होगीं?’ यही कविता की खूबी है कि मानव मन व उसके भाव और दर्द को वह सबसे पहले पकड़ती है। कवियों ने उन पैदल चलने वालों के दर्द को कविता में दर्ज किया। कोरोना काल की विभीषिका रचनाओं में व्यक्त हुई। यह ऐसा समय था जब मिलना जुलना बंद था। शारीरिक दूरी की जगह सामाजिक दूरी की बात आई और वह सचमुच सामाजिक दूरी बन गई। गतिविधियां ठप हो गईं। सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से हम अलग-थलग पड़ गए। बस एक ही रास्ता निकला, वह था ऑनलाइन कार्यक्रम। बड़े शहरों से ही नहीं छोटे-छोटे कस्बों से ऑनलाइन कार्यक्रम के आयोजन शुरू हुए। हालात के सामान्य होने पर अब उनमें से कुछ किताबों की शक्ल में आई हैं। कोरोना काल के दस्तावेजीकरण का काम हुआ है। ‘लम्हों की चीख़’ ऐसी ही कविताओं की किताब है जो उस दौर को हमारे सामने सजीव करती है। यह उर्दू शायर इम्तियाज़ अहमद दानिश की पहल व प्रयास का मूर्त रूप है।

दानिश आरा, बिहार में रहते हैं। उन्होंने लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन कार्यक्रम की शुरुआत की। पहला कार्यक्रम आजादी की 73 वीं सालगिरह पर 15 अगस्त 2020 को हुआ। नाम दिया गया ‘दवा-ए-दर्दो आलम की महफिल शामें-ग़ज़ल’ । रोजाना रात 9:00 बजे यह कार्यक्रम होता। नई दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, पुणे आदि के शायरों ने सिलसिले को आगे बढ़ाया। यह 113 एपिसोड तक लगातार चला। इसमें 113 शायरों ने हिस्सा लिया। इन्हीं की शायरी को लेकर दानिश ने एक किताब ‘लम्हों की चीख़’ की शक्ल दे डाली है। इसमें 79 शायर, 19 शायरात तथा 15 हिंदी के कवि हैं। ऑनलाइन पढ़ी गई रचनाओं से प्रत्येक कवि-शायर की एक कविता को इसमें शामिल किया गया है। उर्दू शायरों की शायरी दोनों भाषाओं में है। आनलाइन जो कविताएं पढ़ी गईं, वे यूट्यूब पर भी लोड हैं। उनका लिंक भी दिया गया है। इन्हें सुना जा सकता है। कलमकारों के रचना-पाठ को किताब में उसका एपिसोड नंबर, प्रोग्राम की तारीख तथा उनके शहर के नाम का भी विधिवत उल्लेख है।

इम्तियाज अहमद दानिश अपने संपादकीय नोट में लिखते हैं ‘इस किताब को प्रकाशित करने का मकसद नई नस्ल को यह पैगाम देना है कि हम सभी सार्वभौमीकरण और वैश्वीकरण के दौर से गुजर रहे हैं। मौजूदा वक्त में ऑनलाइन निजाम जितना जरूरी है, उन चीजों को कागज पर उतारना भी उतना ही जरूरी है। कारनामों की दस्तावेजी हैसियत किताबों से ही बरकरार रह सकती है। भविष्य में आने वाली नस्लों के लिए यह पैगाम है कि जब वक्त थम चुका था, जिंदगी बेमानी सी होने लगी थी, इस हालात में भी कलमकारों के कलम खामोश नहीं हुए। अपने तौर पर आईना दिखाने का सिलसिला जारी रहा। यह उन लम्हों की चीख़ है जिसमें जिंदगी की तल्ख हकीकत को महसूस किया जा सकता है।’

इस किताब में हिंदी कवियों में बुजुर्ग कवि जगदीश नलिन की कविता शामिल है। इसके साथ अरुण शीतांश, शहंशाह आलम, अर्पण कुमार, अनुपम सिंह, सुमन कुमार सिंह, जितेंद्र कुमार, नीरज सिंह, कुमार विनीताभ, शेषनाथ पाण्डेय, मीरा श्रीवास्तव, कौशल किशोर आदि कवियों की कविताएं भी हैं। कुमार नयन तथा शायरा शमशाद जलील शाद जिनका कोरोना की दूसरी लहर के दौरान निधन हुआ, उनकी भी शायरी है।

‘लम्हों की चीख़’ की शुरुआत दिल्ली की शायरा इस्मत जैदी शिफा की नज़्म ‘क्वॉरेंटाइन’ से हुई है। इसमें वे बयां करती हैं ‘ अब ऐसे दिन आए /दरो दीवार पर मरकूज़ नज़रें हैं/उदासी और तन्हाई को बस/ महसूस करना है/ जो यह आरामो-आसाईश का ज़िदा है/ सज़ा की शक्ल लेकर/अब घुटन देने लगा है/ खुदाया रहम कर/ हम को वही आज़ादियां दे दे/अदीमुल फुर्सती दे दे’।

इस ऑनलाइन महफिल की शुरुआत आरा, बिहार के शायर जनाब कुर्बान आतिश की ग़ज़ल से हुई जिसे उन्होंने 15 अगस्त 2020 की रात को कहा। इसके चंद शेर देखें – ‘मंजिल मिरे करीं है कोई दूर तो नहीं /माना अंधेरी रात है बेनूर तो नहीं/जाना कहीं था और कहीं और चल दिए /वह जाम पी के हो गए मखमूर तो नहीं’ । इस किताब के आख़िरी शायर हैं इम्तियाज अहमद दानिश। अपनी गजल में वे कहते हैं ‘वह हौसला ही कहां बाजुओं में जान कहां /हमारे हाथ में अब वक़्त की कमान कहां /हरेक सिम्त दुकानें इस सजी हैं आंहों की /लगाऊं अपने दुखों की मैं अब दुकान कहां’।

सार रूप में कहा जा सकता है कि ‘लम्हों की चीख’ उस दौर का आईना है, जब जीवन पटरी से उतर चुका था। कोई सुनने वाला नहीं था। लोग घरों में कैद थे या सड़कों पर बिलबिला रहे थे। मतलब उस दौर के दृश्य और अदृश्य यथार्थ को शायरी और कविताएं दृश्यमान करती हैं। यह किताब उन साहित्यकारों के नाम समर्पित है जिन्हें कोरोना जैसी मोहलिक बीमारी ने रोपोश कर दिया।

त्रासदियां आती हैं, ज़ख्म देती हैं, निशान छोड़ चली जाती हैं। समय बीत जाता है। कोरोना का वह त्रासदी वाला वक्त भी बीत गया है। पर उसकी यादें हैं। उन लम्हों की चीखें हैं। ये सुनी जा सकती हैं। शायर दानिश ने इसे दर्ज़ कर दस्तावेज़ बना दिया है। यह इतिहास है और उसका पैगाम भी है कि सब याद है, याद रहेगा और याद रखा जाना चाहिए।

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