कोरस द्वारा विगत दो वर्षों से महादेवी जी की पुण्यतिथि के अवसर पर ‘महादेवी वर्मा स्मृति व्याख्यानमाला’ का आयोजन इलाहाबाद में होता रहा है | इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुये इस वर्ष यह आयोजन ‘कोरस’ तथा ‘महादेवी वर्मा महिला पुस्तकालय इलाहाबाद’ के संयुक्त तत्वाधान में फेसबुक लाइव के माध्यम से सम्पन्न हुआ । पिछले दोनों कार्यक्रम जहाँ पूर्णतः महादेवी वर्मा के साहित्य पर केन्द्रित थे वहीं इस वर्ष यह निर्णय लिया गया कि महादेवी जी को याद करते हुए साहित्य के अन्य महिला स्वरों पर बात की जाय । इसी सोच के तहत इस वर्ष ‘साहित्य का स्त्री स्वर और कृष्णा सोबती’ विषय पर व्याख्यान व परिचर्चा का आयोजन किया गया ।
पूरा कार्यक्रम दो हिस्सों मे विभक्त था: पहले हिस्से में कथाकार व स्त्री चिंतक सुधा अरोड़ा ने कृष्णा जी के जीवन और कर्म पर बहुत ही आत्मीय व्याख्यान दिया । दूसरे हिस्से में एक जीवंत और बहस तलब परिचर्चा हुई जिसमें वरिष्ठ आलोचक व विमर्शकार प्रो. रोहिणी अग्रवाल तथा प्रो. चमनलाल जी के साथ सुधा जी भी शामिल हुईं । कार्यक्रम के संचालक और वार्ताकार के रूप में कवि बसंत त्रिपाठी की सक्रिय भूमिका ने विमर्श के दायरे और गुणवत्ता को एक नई ऊँचाई प्रदान की ।
कार्यक्रम की शुरुआत में कोरस की साथी और संयोजक समता राय ने महादेवी जी को याद करते हुए उनके एक गीत ‘पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला’ को बहुत ही खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया । इसके पश्चात ‘साहित्य का स्त्री स्वर और कृष्णा सोबती’ विषय पर अपने व्याख्यान की शुरुआत करते हुए सुधा जी महादेवी को याद करते हुए कहती हैं कि उनकी कविताओं पर तो खूब बात की गई लेकिन इसके साथ ही गद्य का जो उनका महत्वपूर्ण लेखन है, उसको नजरंदाज किया जाता रहा है । कृष्णा जी के साहित्य का भी समग्र मूल्यांकन बहुत बाद या कह सकते हैं कि अभी तक संभव नहीं हुआ है | कृष्णा जी एक ऐसी रचनाकार हैं जो पंजाब और उसकी भाषा को हिन्दी पट्टी में लेकर आती हैं । भाषा के जितने स्तर और स्वरूप कृष्णा जी के यहाँ दिखाई देते हैं, बिरले ही किसी रचनाकार में देखने को मिलते हैं । उनकी भाषा में वही ठसक है जो उनके व्यक्तित्व में थी ।
आगे सुधा जी कहती हैं कि कृष्णा जी लेखन जितनी तल्लीनता के साथ करती थीं उसके छप जाने के बाद उससे उतनी ही निरासक्त रहती थीं, यह ठसक उनके जीवन का हिस्सा थी । भाषा के साथ उनके साहित्य की एक जो अन्य बड़ी विशेषता है और जो किसी भी रचनाकर को बड़ा बनाती है वह उनकी जनपक्षधरता है । उन्होंने अलग-अलग तरह का विपुल लेखन किया लेकिन शुरू से लेकर अंत तक उनके साहित्य में यह जनपक्षधरता मुखर रूप से मौजूद है । कृष्णा जी के लेखन में भारतीय जीवन अपनी वास्तविकता के साथ आता है इसीलिए स्त्री की छवि भी बिलकुल वैसी ही आती है जैसी वह समाज में है । अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहती हैं कि कृष्णा जी के पूरे साहित्य में मुझे इस्मत चुगताई जैसी ठसक और बोल्डनेस दिखाई पड़ती है । ‘ऐ लड़की’ में जो महिला है उसके अपनी बेटी के साथ हुए वार्तालाप को आप भारतीय समाज की थाती कह सकते हैं । आगे सुधा जी ऐ लड़की के कुछ अंशों का पाठ भी करती हैं ।
कार्यक्रम के दूसरे भाग में परिचर्चा की शुरूआत करते हुए बसंत जी प्रो. चमनलाल से पहला सवाल करते हैं कि जब हम साहित्य के स्त्री स्वर की बात कर रहे हैं तो क्या साहित्य का कोई पुरुष स्वर भी होता है और यदि ऐसा है तो वह क्या है और कृष्णा जी के यहाँ यह किस तरह से देखने को मिलता है ? इसका जवाब देते हुए चमनलाल जी ने कहा कि चूंकि साहित्य में जो पुरूष का स्वर है वह वर्चस्व की स्थिति में है और इसीलिए जो उससे पीड़ित है वही प्रतिरोध की आवाज उठाता है और इसीलिए स्त्री स्वर की बात महत्वपूर्ण है । जैसे समाज में जो पीड़ित हैं वे वर्चस्ववादी ताकतों के खिलाफ आवाज उठाते हैं और यदि वह आवाज़ ताकतवर और तर्कयुक्त होती है तो धीरे –धीरे अपनी पहचान बना लेती है, ठीक यही बात साहित्य के संदर्भ में भी लागू होती है । जब हम और भीतर जाकर देखते हैं तो पाते हैं कि यह पुरुष स्वर सभी साधनों से युक्त है, जो अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग नाम धारण करता है । इसीलिए स्त्री स्वर वह स्वर है जो प्रतिरोधी है । यहाँ यह बात नहीं है कि कोई व्यक्ति स्त्री या पुरुष होने मात्र से स्त्री या पुरुष स्वर का वक्ता मान लिया जाएगा । वह पुरुष भी जो स्त्री की पीड़ा और उसके प्रतिरोध को पहचान रहा हो स्त्रीवादी स्वर माना जा सकता है, ठीक उसी तरह जैसे जो गैरदलित व्यक्ति है वह भी दलित वर्ग की पीड़ा और दुख को पहचान रहा है और चिन्हित कर रहा है तो उसे दलितवादी स्वर माना जाएगा । इसी के साथ यदि हम कृष्णा जी को देखें तो हम भले ही उन्हें स्त्रीवादी लेखिका नहीं कह सकते लेकिन उन्होंने अपने साहित्य में स्त्री जीवन के उस सच को सामने रखा है जिस पर बात ही नहीं की जाती थी । हमारे समाज में पुरुष तो अपनी यौनाकांक्षाओं को बड़ी सहजता से व्यक्त कर सकता है लेकिन स्त्री उसे नहीं व्यक्त कर सकती । मित्रो मरजानी में कृष्णा जी स्त्री जीवन की उसी सहज आकांक्षा की पहचान करती हैं । इसी तरह ऐ लड़की में माँ-बेटी का जो वार्तालाप है वह भी इसी तरह का इशारा है कि मैंने यह जो कुछ झेला वह तुम मत झेलना ।
हिन्दी साहित्य का स्त्री स्वर किस तरह का है और यह कृष्णा जी के साहित्य में किस तरह से आता है ? इस प्रश्न पर बात करते हुए रोहिणी जी कहती हैं जब हम स्त्री स्वर की बात करते हैं तो यह हाशिए की आवाज का मुख्य धारा में प्रवेश है । किसी भी समय के पूर्ववर्ती और परवर्ती परंपरा के साथ ही किसी भी स्त्री स्वर की पहचान की जा सकती है, दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक सामूहिक स्वर है । यह स्त्री स्वर एक ऐसा स्वर है जिसमें स्त्री की अपनी पहचान के साथ ही अतीत की विसंगतियों का विश्लेषण करते हुए भविष्य का रास्ता बनाने की तलाश भी है । हमारे हिन्दी साहित्य में बहुत पहले यह स्वर पंडिता रमाबाई, मल्लिका और सीमांतनी उपदेश की लेखिका के साथ शुरू होता है । लेकिन पुरुष वर्चस्व वादी समाज में उस स्त्री स्वर को तब तक दबाने की कोशिश की जाती रही है जब तक वह एक सामूहिकता के साथ नहीं आ गया । कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह पिछले सारे लेखन, जिसमें स्त्री के प्रेम उसकी यौनिकता को पुरुष के सापेक्ष ही समझा गया था, से अलग एक हस्ताक्षर है । यहाँ स्त्री की स्वतंत्र यौनिकता का उसकी प्रेम आकांक्षा का कृष्णा जी खुलकर चित्रण करती हैं । एक मानुषी के रूप में स्त्री की भी प्रेम करने की, भोग करने की आकांक्षा को अब तक के साहित्य में स्थान ही नहीं मिला था । इसके साथ ही रोहिणी जी कहती हैं स्त्री स्वर केवल एक रचनाकार द्वारा लिख दिये जाने मात्र को नहीं मान सकते बल्कि जब कोई पाठक इसे पढ़ता है, इसका विश्लेषण कर इसके स्वर में अपना स्वर मिलाता है तो वह भी एक स्त्री स्वर माना जा सकता है ।
कृष्णा जी के हशमत बनकर संस्मरण लिखने तथा महादेवी के संस्मरणों के साथ उसकी समानता के प्रश्न पर सुधा जी कहती हैं कि महादेवी और कृष्णा जी के संस्मरणों में एक अंतर तो यही है कि महादेवी जी के ज़्यादातर संस्मरण सामान्य लोगों पर लिखे गए जबकि कृष्णा जी के संस्मरणों को मंटो और इस्मत चुगताई के साथ रखकर देखा जा सकता है । दूसरी बात कृष्णा जी ने जिस तरह के संस्मरण लिखे, जिस भाषा में लिखे वह शायद कृष्णा सोबती बनकर संभव नहीं था । चमनलाल जी द्वारा कही गई बात कि यह जरूरी नहीं है कि जो लिखने वाला है वह स्वयं उस वर्ग में शामिल हो संवेदना से भी लोगों की पीड़ा को महसूस कर लिखा जा सकता है, से अपनी असहमति दर्ज करती हुई सुधा जी कहती हैं कि यह जरूर है कि स्त्री और दलित की पीड़ा को व्यक्त करने वाले वे लोग भी हैं जो उस वर्ग में शामिल नहीं हैं लेकिन जो उस वर्ग द्वारा लिखा गया साहित्य होगा वह उससे कहीं आगे बढ़ा हुआ है । जिसने उस पीड़ा को भोगा है वही उस प्रामाणिकता से उस दर्द को दर्ज कर सकता है ।
बसंत जी द्वारा सवाल किया गया कि कृष्णा जी के पात्रों के संवादों में ही उनका चरित्र उभरकर आता है, इसे उनके समकालीन और बाद के रचनाकारों के साथ रखकर आप किस तरह से देखते हैं ? इस प्रश्न का जवाब देते हुए चमनलाल जी कहते हैं- कृष्णा जी के पूरे गद्य में एक काव्यात्मकता है, एक लय है । कृष्णा जी का एक बहुत गहरा लगाव पंजाब और पंजाब की भाषा से रहा है, वही जिंदादिली, वही ठसक कृष्णा जी के पूरे व्यक्तित्व और लेखन में देखी जा सकती है । उनकी जबान में हिन्दी, उर्दू और पंजाबी एक साथ मिली हुई है । कृष्णा जी अपने संवाद के माध्यम से पूरा एक दृश्य बनाती हैं, यह उनके शिल्प की खास विशेषता है । संवादों के माध्यम से चरित्र का विश्लेषण, यह कृष्णा जी की भाषा और शिल्प की खास विशेषता है ।पंजाब का पूरा लोकरंग उनकी कथाओं में देखने को मिलता है । उनका पूरा जीवन और लेखन एक आकर्षण की वस्तु है ।
इतिहास को आधार बनाकर कथा लिखते हुए भी कृष्णा जी के साहित्य में इतिहास सीधे नहीं आता ? इस मुद्दे पर प्रोफेसर चमन लाल ने कहा कि कृष्णा जी के यहाँ इतिहास उनके दिल में अंटका हुआ है, पार्टीशन की जो त्रासदी उन्होंने खुद झेली थी उसे ताउम्र भुला पाना उनके लिए संभव नहीं था, इसीलिए कृष्णा जी इतिहास को एक सृजनात्मक रूप देती हैं ।उनका इतिहास लोकजीवन का इतिहास है ।वह दिल्ली में बैठे हुए अपने पंजाब का सृजन करती हैं ।
कृष्णा जी के साहित्य पर आगे बात करते हुए रोहिणी जी कहती हैं- मुझे लगता है कि उनके लेखन को दो चीजें बनाती हैं: एक है नास्टेल्जिया । नास्टेल्जिया ने कई बार उनकी दृष्टि को बाधित किया है जिससे वे उस समय के समाजशास्त्र का विश्लेषण नहीं कर पातीं । वह अपनी आकांक्षाओं के अनुसार पात्रों को रचती हैं । वे कई बार पितृसत्ता द्वारा अनुशासित होती भी दिखती हैं । मित्रो मरजानी के रूप में वे जिस स्त्री का चयन करती हैं वह कसबन की बेटी है, जिसे एक वेश्या की बेटी के रूप में आप देख सकते है । इसे हम एक ऐसी स्त्री के रूप में देखते हैं जिसके साथ एक सामान्य स्त्री का तादात्म्य बैठा पाना मुश्किल है । मित्रो के रूप में वह जिस स्त्री का चरित्र रचती है वह हमें चौंकाता भी है और मुदित भी करता है ।वह पति को छोड़कर प्रेमी के पास समागम के लिए जाती है लेकिन जब वह लौट कर अपने पति के पास आ जाती है तो ऐसा लगता है कि जैसे एक उच्छृंखल स्त्री को वापस पितृसत्ता के नियमों में बांध दिया गया हो । यहाँ प्रश्न के लिए कोई जगह नहीं है वे उसका समाधान दे देती हैं । आगे वे कहती हैं कि कृष्णा जी के यहाँ स्त्री अपनी यौनिक स्वतन्त्रता को अर्जित तो करना चाहती है लेकिन उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं के साथ वह रचनात्मक टकराहट न कर पितृसत्ता में वापस लौट जाती है । इस तरह से देखें तो कृष्णा जी एक द्वंद की शिकार हैं, वह स्त्री स्वतन्त्रता के लिए एक वैचारिक फ़लक तो बनाती हैं लेकिन बार-बार पितृसत्ता में लौटती हुई दिखती है ।
सुधा जी कहती हैं कि स्त्री की यौनिकता पर बात करने मात्र को बोल्डनेस नहीं कहा जा सकता बल्कि बोल्डनेस वह है कि आप पितृसत्ता के ठीक-ठिकाने पर सही चोट करें ।
रोहिणी जी द्वारा उठाए गए सवालों पर बात करते हुए चमन लाल जी कहते हैं निश्चित ही रोहिणी जी की बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं और नास्टेल्जिया की बात देखी जाय तो कहीं न कहीं वह कृष्णा जी के यहाँ देखा जा सकता है । लेकिन इसे इतना बुरा या गलत नहीं कहा जा सकता । दूसरे यह किसी भी लेखक के ऊपर निर्भर करता है कि वह किसी रचना में कहाँ तक जा सकता है , वह उसे कहाँ तक विस्तार देता है मुझे लगता है कि मित्रो जो करती है वह उसका ज़िंदगी से किया गया समझौता है, वह अपनी आकांक्षा को भी व्यक्त करती है और समाज के अनुसार अपने जीवन से समझौता भी करती है । जबकि कृष्णा जी अपने जीवन में कहीं भी समझौता करती नहीं दिखाई देतीं ।
परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुये रोहिणी जी कहती हैं कि किसी भी रचना का पाठ या पुनर्पाठ बार-बार किया जाना चाहिए नहीं तो हम सब भी एक एकांगी दृष्टि से ग्रस्त रहेंगे और क्योंकि कृष्णा जी के पाठ में यह रिक्तियाँ और दरारें हैं इसलिए उसे पहचाने जाने की जरूरत है । जिस तरह से भीष्म साहनी और यशपाल अपनी कहानियों में समाज की साज़िशों के खिलाफ बड़े सक्रिय ढंग से विरोध करते हैं वैसा हमें कृष्णा जी के यहाँ नहीं दिखाई देता । कृष्णा जी के यहाँ जो स्त्री मुझे दिखाई देती है वह दोयम दर्जे की, पितृसत्ता के दबावों के अधीन एक लैंगिक इयत्ता के रूप में दिखती है । किसी भी रचना का पाठ उस समय में जाकर नहीं बल्कि पाठक द्वारा अपने समय में देखा जाता है |
रोहिणी जी की स्थापनाओं से सहमति –असहमति के बिंदुओं ने परिचर्चा को खासा जीवंत बना दिया जिसमें श्रोताओं ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी की । समय की सीमा के चलते बहुत सी बातें अनकही रह गईं लेकिन इस आयोजन ने एक सार्थक बहस को जन्म दिया जिस पर आने वाले दिनों में बातें होती रहेंगी ।
इस आयोजन को यहाँ देख सुन सकते हैं।
प्रस्तुति: कामिनी