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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-पाँच

जयप्रकाश नारायण 

दिल्ली की सीमा पर किसान 

26‌-27 नवंबर, 2020

इस दिन दिल्ली को कुछ और ही देखना था। 26-27 नवंबर को रामलीला मैदान में किसानों की पंचायत करने का ऐलान, किसान संघर्ष समन्वय समिति ने किया था।

इस ऐलान के बाद किसान संघर्ष समन्वय समिति और पंजाब किसान मोर्चा के बीच में संयुक्त बैठक हुई। आपसी सहमति से संयुक्त किसान मोर्चा का गठन हुआ।

जिसमें पंजाब के किसानों की 32 जत्थेबंदियां  और  अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति, संयुक्त किसान मोर्चा के नाम से एकताबद्ध हो गये।

संयुक्त किसान मोर्चा के निर्माण ने  किसानों के अंदर एक नये उत्साह का सृजन किया।  किसान दिल्ली कूच करने की तैयारी में जुट गये। लेकिन पंजाब के किसानों ने अपना स्थानीय मोर्चा भी जारी रखने का फैसला किया।

दिल्ली पहुंचने और रामलीला मैदान में किसान पंचायत आयोजित करने का किसानों में भारी उत्साह दिखा। पंजाब-हरियाणा के अतिरिक्त शेष भारत में भी किसानों और किसान संगठनों में दिल्ली पहुंचने के लिए एक उत्साहवर्धक माहौल बन गया था ।

पंजाब के किसानों में एक तरह का आक्रोश पहले से ही था । पंजाब किसान मोर्चा ने सितंबर से ही धरना और मोर्चा लगा रखा था।

दिल्ली से पंजाब के रास्ते जाने वाली सभी रेल लाइन लगभग ठप्प थीं। जानकारी के अनुसार डेढ़ सौ से ज्यादा स्थानों पर किसान सड़कों, चौराहों, रेल की पटरियों  पर मोर्चा लगाकर बैठे थे।

पंजाब में आर्थिक गतिविधियां लगभग ठप्प थीं। किसानों के समर्थन में शहर, बाजार, महानगर यहां तक, कि सरकारी सेवाओं के कर्मचारी और बार एसोसिएशन के वकील, ट्रांसपोर्टरों के संगठन, छात्र-नौजवानों के जत्थे सड़कों पर लगातार विरोध-प्रदर्शन आयोजित कर रहे थे।

जिसकी खबरें सोशल मीडिया से तो मिल रही थी, लेकिन तथाकथित  राष्ट्रीय मीडिया में  आंदोलनों और इसके अंदर निहित  किसानों की संवेदनाओं, भावनाओं और उनकी  पीड़ा से संबंधित सूचनाएं गायब थीं।

ऐसा लगता है, कि केंद्र के मोदी सरकार ने कानून  पारित होने के बाद यह समझ बना लिया था, कि  आमतौर पर परम्परागत विरोध या लोकतांत्रिक प्रतिरोध  कुछ दिनों के बाद स्वाभाविक रूप से ठंडे पड़ जाएंगे  या थकान, हताशा के बाद थोड़े दिनों में किसी मामूली समझौते, आश्वासनों के बाद समाप्त या वापस ले लिये जाएंगे।

इसी के साथ सरकार ने यह प्रयास कर रखा था, कि शेष भारत को पंजाब और हरियाणा के इलाके में किसानों के अंदर पल रहे तीन कृषि कानून विरोधी असंतोष की लपटें ना पहुंचने पाये।

किसी जन-विरोध को सरकारें प्राथमिक चरण में अनसुना करने की  रणनीति पर चलती हैं या उसके अस्तित्व को ही अस्वीकार करने या कुछ चंद लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के स्तर पर परिभाषित करने की कोशिश करती हैं।

व्यापक पैमाने पर फैले हुए कृषि क्षेत्र में इस कानून के खिलाफ चल रही सक्रियता, पल रहे आक्रोश और उसकी गति में अंतर निहित आवेग को सरकार और उसके नुमाइंदे स्वीकार करने को तैयार न थे।

इस जटिल बन गये हालात में सरकार और किसानों के मध्य भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे नायाब इतिहास रचा जाना था। और, वह इतिहास रचा भी गया।

26 तारीख के दो दिन पहले से ही  खबरें छन कर आने लगी। पंजाब के सभी कस्बों, शहरों, गांव में ट्रैक्टर, आंदोलन के हथियार के रूप में तैयार किए जाने लगे। उसमें राशन, ईंधन और रोजमर्रा की जरूरत के सारे सामान भरे जा रहे थे।

महिला, पुरुष किसान संयुक्त रूप से पंचायत में  शामिल होने के लिए तैयार हो रहे थे। यह खबरें आ रही थी।

24 तारीख की शाम को ही ढेर सारी जगहों से खबरें आयीं कि पंजाब-हरियाणा के साथ महाराष्ट्र,  राजस्थान,  मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के गांव-गांव से  हजारों किसान अपने वाहनों पर बैठकर दिल्ली की तरफ कूच कर चुके हैं।

किसान नेताओं और किसानों को  इस बात का एहसास नहीं था, कि यह सरकार उनके प्रति कैसा व्यवहार करने जा रही है ।

आम तौर पर जब कोई आंदोलन होता है, तो कुछ जगह पूर्व निर्धारित हो जाती हैं और आंदोलनकारी उसी स्थान पर पहुंचते हैं। वहां से वह संसद की तरफ जो भी  निर्धारित स्थल होता है, वहां पहुंचकर अपनी सभाएं, कार्यक्रम आयोजित करते हैं और सरकार के नुमाइंदों के माध्यम से अपनी मांगें सरकारों तक पहुंचाते हैं।

सरकारें निर्धारित कार्यक्रम में बाधा नहीं डालती हैं। लेकिन  मोदी सरकार कुछ और ही तरह की है। इसमें लोकतांत्रिक विरोध के प्रति किसी तरह का सम्मान नहीं है।

यह अपने द्वारा लिये गये निर्णय को दैवी आदेश या इच्छा की तरह पेश करती है।  विरोध या असहमति को वह कुफ्र मानती है।

उनकी सरकार के ब्रह्म वाक्य को लोग स्वीकार करें या उसका  फल भोगने के लिए तैयार रहें।  उसके द्वारा रचे गए नैरेटिव के अंदर ही अपने सवालों, अपनी असहमति  और विरोध-व्यथा को सीमित रखें।

इसलिए जब किसान चले तो ऐसा लगता है, कि उन्हें सरकार की प्रतिक्रिया का अहसास नहीं था। दिल्ली पुलिस  केंद्र सरकार के हाथ में है, जिसका पिछले सात वर्षों का रिकॉर्ड बेहद नकारात्मक और  कानूनी दायरे के बाहर जाकर काम करने का रहा है ।

उसने किसानों को रामलीला मैदान देने से इनकार कर दिया। यही वह समय है, जब किसान आंदोलन में एक नया बिंदु समाहित हो गया। या तो, सरकार के फैसले को किसान स्वीकार करें या अपने आंदोलन को प्रतीकात्मकता के दायरे में रखते हुए  किसी जगह इकट्ठे होकर समाप्त कर दें ।

25 की शाम तक आते-आते स्थिति की भयावहता और सरकार की तैयारी की सूचनाएं भारतीय समाचारों और अंतरराष्ट्रीय  मीडिया  से छनकर  आने लगी ।

किसानों के जत्थे आगे बढ़ते रहे। दिल्ली की सीमा से बहुत पहले पानीपत, सोनीपत, करनाल के इलाकों से ही किसानों के साथ हरियाणा पुलिस का टकराव और लुका छुपी का खेल चलने लगा।

बैरिकेडिंग, बुलडोजर बड़े-बड़े बोर्डर सड़कों पर दिखने लगे थे। किसान अपने ट्रैक्टर को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए इन बाधाओं को तोड़ते हुए दिल्ली की तरफ बढ़ने लगे ।

कई जगह हरियाणा पुलिस की बर्बरता डरा देने वाली थी, लेकिन किसान तो अलग ही धातु के बने होते हैं । वे अंततोगत्वा दिल्ली के  सिंघु और टिकरी बार्डर  तक पहुंच गए ।

जिन लोगों ने सड़कों पर पुलिस की बर्बरता और किसानों का पराक्रम देखा है,  वह  इस बात को जरूर समझ सकते हैं, कि किसानों में कितनी रचनात्मक शक्ति बाधाओं को हटाने की होती है, और अपने लक्ष्य तक पहुंचने का अदम्य साहस होता है ।

आपको याद होगा एक  बड़े ट्रक पर लदा हुआ बालू और पत्थर के टुकड़े को किसान कैसे चीटियों की तरह से धक्का देकर  सड़क के किनारे  लगा रहे हैं।

आपको यह भी याद होगा कि कैसे एक किसान ने अपने ट्रैक्टर से कूदकर के वाटर कैनन का मुख मोड़ दिया था।

आपको यह भी याद होगा कि किसानों ने किस तरह से सामूहिक शक्ति के बल पर खाइयों को भर डाला था और कटीले तारों को उखाड़ फेंका था तथा सीमेंट  के बने हुए बोर्डरों को सड़क के किनारे लगा दिया था।

वे अपने  ट्रैक्टरों के द्वारा बड़े-बड़े ट्रकों को हटाते हुए आगे बढ़ते हुए सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर पहुंचे थे । दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचने के पहले किसान भारत में एक नया इतिहास रच चुके थे ।

लोकतांत्रिक भारत ने तिहत्तर  बरसों की अपनी यात्रा में शायद ऐसा रोमांचक और उत्तेजित करने वाला दृश्य नहीं देखा था ।

किसान दिल्ली के तीन सीमाओं पर बैठे हुए थे। पहले उन्होंने दिल्ली में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन जल्द ही उन्हें यह  यकीन हो गया, कि सरकार आगे नहीं बढ़ने देगी।

दूसरे दिन सरकार की तरफ से एक प्रस्ताव आया कि किसान चाहे तो बुराड़ी मैदान पहुंच सकते हैं और वहां अपना विरोध-प्रदर्शन जारी रख सकते हैं।

यह प्रस्ताव रणनीतिक रूप से सरकार की एक योजना का अंग था, जिसे किसानों ने समझ लिया और उन्होंने घोषणा की कि बुराड़ी के जेलनुमा मैदान में  नहीं जाएंगे और बॉर्डर पर ही जमे रहेंगे ।

27 तारीख की शाम के बाद  भारत सहित पूरे लोकतांत्रिक विश्व में यह  आशंकाएं, चिंताएं और भय बना हुआ था, कि मोदी की निरंकुश और फासिस्ट सरकार किसानों के साथ क्या व्यवहार करने जा रही है ।

कई  स्रोतों से खबरें आयीं कि उच्च स्तर पर सरकार के रणनीतिकार किसानों को हटाने, खदेड़ने और इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं ।

यह आशंकाएं आरएसएस की नीति वाली सरकार के चरित्र को समझते हुए प्रकट की जा रही थी। लेकिन सभी आशंकाओं, चिंताओं को धता बताते हुए किसान बॉर्डर पर टिक गये । वह आठ महीने से ऊपर से उसी स्थान पर जमे हैं ।

अभी तक कई उतार-चढ़ाव और मोड़  किसान आंदोलन की इस यात्रा में आ चुका है। कई बार अदृश्य शंकाएं और दृश्य बाधाएं आयीं। लगा कि किसान अब यहां से हटा दिए जाएंगे और सरकार अपनी दानवी शक्ति के बल  पर किसान आंदोलन  पर विजय पा लेगी।

लेकिन अभी तक किसान वहां जमे हुए हैं । विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास और मनुष्यता के संपूर्ण   यात्रा   में भारत का किसान आंदोलन सर्वथा नया अध्याय जोड़ रहा है।

विश्व में लोकतंत्र के निर्माण और उसे स्थाई बनाने वाली घटनाओं का जब  भी अध्ययन होगा तो 21वीं सदी में चले  भारत के इस किसान आंदोलन का एक चैप्टर उसमें  अवश्य शामिल होगा।

(इस पर चर्चा अगली कड़ी में जारी)

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