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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-इक्कीस

जयप्रकाश नारायण 

हरित क्रांति से निर्मित यथार्थ और सवर्ण जातियां

 

1947 के पहले और उसके बाद भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विध्वंसक प्रभाव और गुलामी की स्थितियों  के एहसास के अंतर्विरोध ने आजाद होने की  सामाजिक चेतना की प्रक्रिया को तेज कर दिया था।

उत्तर भारत में राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई के केंद्र में सवर्ण जातियों का एक बड़ा हिस्सा था। 1947 के बाद भारत निर्माण की यात्रा शुरू हुई। इस यात्रा में भी वह  लंबे समय तक अग्रिम मोर्चा बना रहा।

आमतौर पर समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन में सवर्ण सामाजिक समूहों से पढ़े-लिखे सचेत नौजवानों की एक पीढ़ी शामिल हुई थी।

यह नेतृत्व आया तो सवर्ण जातियों से था। लेकिन इसके सामाजिक आधार और  कार्यकर्ता समूह मध्य और निचले स्तर पर दलित-पिछड़ी जातियों से ही निर्मित होता था।

जैसे-जैसे पूंजी का विस्तार खेती में हुआ उसनेे सामाजिक जीवन में हलचल पैदा की। शुरुआती कृषि विकास की गति आगे बढ़ने के बाद ज्यों ही ठहराव में गयी, इन जातियों की नेतृत्वकारी भूमिका घटती चली गयी।

हरित क्रांति जब तक  विकासमान स्थिति में रही, तब तक तो यह जातियां ग्रामीण मजदूरों के  बल पर कृषि के उत्पादन के क्षेत्र में सक्रिय थी।

हरित क्रांति के द्वारा कुछ हद तक इन्होंने अपने जीवन स्तर को बेहतर बनाया । ब्रिटिश शासन  के दौरान और उसके बाद भी शिक्षा,  व्यापार और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों  में  सक्रिय होने के चलते सवर्ण सामाजिक समूह में  आधुनिक चेतना और लोकतांत्रिक, समाजवादी विचार वाला सामाजिक समूह बना  था। जो उस समय अपने समाज के छोटे समूह का प्रतिनिधित्व करता था।

अधिकांश सवर्ण जातियां  कृषि और भूमि जनित सभ्यता से घनिष्ठ रूप से संबद्ध होने के कारण लोकतांत्रिक विकास के साथ सवर्ण-सामंती श्रेष्ठतावादी चेतना से बाहर नहीं निकल पायी थी।

जिस कारण से कृषि के विकसित होते स्वरूप के बावजूद भी श्रम संस्कृति के प्रति उनके विचारों और व्यवहारों में परिवर्तन नहीं हुआ। जो सामाजिक जागरण के लिए आवश्यक होता है।

जिस कारण, उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र के त्यागी और जाट किसानों की तरह पूर्वांचल  की सवर्ण जातियां  उद्यमी या आधुनिक पूंजीवादी किसान नहीं बन सकी।

इनके अंदर श्रम के प्रति सम्मान, गरिमा का अभाव  था। इनका बहुलांश छोटी जोतों से जुड़े होने के कारण खुद खेतों में काम करने वाले किसान थे, लेकिन अपने श्रम शक्ति के आधे हिस्से यानी औरतों को इन्होंने श्रम से,  कृषि कार्य से दूर रखा।

सामाजिक श्रेष्ठता की वर्जनाएं और दंभ औरतों के इर्द-गिर्द सामंती समाज में केंद्रित रहता है। सम्मान, गौरव, इज्जत, नैतिकता जैसे सभी विचार  औरतों की सुरक्षा और योनिक शुचिता के चारों तरफ घूमते रहते हैं ।

सवर्ण जातियां इस विचार की गहरी गिरफ्त में थीं और आज भी जीवन के कठिन होते जाने के भौतिक परिस्थिति के बावजूद इस वैचारिक चेतना से वह मुक्त नहीं हो पायी है।

खेती धीरे-धीरे पूंजी और आधुनिक साधनों के चलते महंगी होती गयी। श्रम का  मूल्य बढ़ने लगा।  इन्होंने अपने परिवारों के आधे श्रम को घरों में कैद रखा।

इसलिए अस्सी  के दशक के बाद  सवर्ण जातियों में खेती के प्रति अरुचि बढ़ती गयी। कृषि को उन्नत करने,  उसमें  पूंजी निवेश करने, उसे और ज्यादा आधुनिक  बनाकर बाजार के लिए माल उत्पादन करने में अब उनकी कोई रुचि नहीं।

जिस कारण से यह समाज एक विकसित आधुनिक पूंजीवादी समाज में रूपांतरण की पीड़ा से ग्रसित है। यह एक अलग विषय है।

आंतरिक तनाव से ग्रसित, अंधकारमय भविष्य की चिंता ने सवर्ण समाज में हिंदुत्व की अतीत के काल्पनिक गौरवशाली   विचारधारा के प्रति आकर्षण बढ़ा।

आंतरिक रुप से विखंडित, वर्तमान में जटिल यथार्थ  से नाउम्मीद इस समाज को  भविष्य में अपने लिए कोई बेहतर जगह दिखती नहीं है।

लोकतांत्रिक गति के आगे बढ़ते ही सत्ता संघर्ष में सवर्ण जातियां धीरे-धीरे नेतृत्वकारी भूमिका से वंचित होने लगी। साथ ही आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में वे बिछड़ते चले गये। और इनकी भूमिका हिस्सेदारी सत्ता संस्थानों, सामाजिक जीवन और आर्थिक गतिविधियों में घटती चली गयी।

इसलिए यह समाज जो कभी जमीन का मालिक और  भूमिधर होने पर गर्व करता था। भूमि को अपनी मां कहा करता था। खेती से लगभग अलगाव में चला गया।

खेती को बटाईदारी या ठेके पर देने की प्रवृत्तियां इसी दौर में विकसित हो गयी। वह दूसरे पेशों,  सरकारी सेवाओं या महानगरों में जाकर श्रम बाजार में   खप गया।

इस दौर में बंटाईदारों का एक नया खेतिहर समाज बन गया और बटाईदारी कृषि क्षेत्र की प्रधान परिघटना बन गयी।

सवर्ण परिवार के संकट में फंसने पर जमीन  के हस्तांतरण और बिक्री की प्रक्रिया भी शुरू हुई। सवर्ण जातियों के लिए भूमि, जो कभी प्रतिष्ठा, सम्मान और उनकी सामाजिक सत्ता का प्रतीक थी, धीरे-धीरे हाथ से निकलने लगी।

सामाजिक गतिविधियों, लोकतांत्रिक संस्थाओं में उनकी  पकड़  कमजोर पड़ गयी। सवर्ण जातियों के मालिकाने की भूमि आमतौर पर पिछड़ी जातियों के हाथ में स्थानांतरित हुई।   उत्तर प्रदेश और बिहार में  आरएसएस और भाजपा के लिए निराशाग्रस्त सवर्ण जातियों का समर्थन हासिल करना आसान हो गया।

मंडल, मंदिर और   उदारीकरण का दौर आते ही संघ परिवार ने सचेतन तौर पर इस परिस्थिति का लाभ उठाया।

सवर्ण जातियों के सहित पिछड़ी जातियों में  विकसित हो चुका आक्रामक और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा तलाशता हुआ मध्यवर्गीय समाज  भी हिंदुत्व के दायरे में खिंच आया। जिसको उन्होंने नब्बे  के दशक में जाति संघर्षों की तरफ  मोड़ दिया।

बिहार और उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में दलितों-पिछड़ों पर खूनी हमले कराये गये और नरसंहारों को प्रायोजित किया गया। इसी दौर में कई खूनी जातीय सेनाएं भी जन्म ली। पिछड़ी जातियों से निकले हुए नये, जोरदार और नव धनाढ्य के लिए भी यह संघर्ष फायदेमंद दिखा। जो उनको सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में मददगार  हुआ।

ऐसे टकराव पूर्ण वातावरण का फायदा उठाते हुए वैश्विक कारपोरेट पूंजी ने भारत में उदारीकरण की पूरी परियोजना को लागू कर दिया। एलपीजी से जो आर्थिक और राजनीतिक सुधार हुए उसने भारत के समाज में नये अंतर्विरोधों को जन्म दिया।

नब्बे  का पूरा दशक राजनीतिक अस्थिरता,  सामाजिक टकराव और स्वतंत्रता पूर्व के बाद निर्मित हुए भारत के विकास के पूरे ढांचे को तहस-नहस करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कांग्रेस या मध्य मार्गी राजनीतिक दलों तथा सामाजिक पहचान के सवाल पर उभरी हुई पिछड़ी और दलित जातियों के नेतृत्व में बनी राजनीतिक पार्टियों में कोई ठोस और मुकम्मल विज़न नहीं था, जो लोकतांत्रिक भारत के लिए कोई ऐसी संपूर्ण विकास की परियोजना पेश कर पाता, जो  वैश्विक पूंजी द्वारा पैदा किये गये भारतीय समाज के संकट को वह सही दिशा में संबोधित कर सके।

यहां तक कि राज्यों में सरकारें चला रही वामपंथी पार्टियां भी इसका कोई ठोस विकल्प नहीं ले आ सकी।

इस अंतर्विरोध भरे जटिल यथार्थ से निर्मित परिस्थितियों से उपजे हुए सामाजिक, राजनीतिक वातावरण में हिंदुत्व की राजनीति  को फलने-फूलने का बेहतर मौका दिया और कारपोरेट पूंजी के साथ उनके सघन रिश्ते के बढ़ जाने के बाद उन्होंने अपनी विचारधारा की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ा ली।

उदारीकरण ने कृषि  की भारतीय अर्थव्यवस्था में भूमिका को   घटा दिया।   कृषि द्वारा जीवन निर्वाह करना असंभव या बहुत कठिन हो गया। इस परिदृश्य में उत्तर प्रदेश, बिहार के बहुत बड़े हिस्से में सामाजिक  ठहराव, तनाव ने जन्म लिया। साथ ही आरएसएस और भाजपा द्वारा संचालित अतीत के गौरवमयी, काल्पनिक इतिहास के प्रति आकर्षण बढ़ा।

भाजपा के साथ वित्तीय पूंजी का गठजोड़ बनते ही वित्तीय पूंजी के द्वारा संचालित प्रचार माध्यमों ने धुआंधार अभियान के द्वारा भारतीय जनता पार्टी को बड़ी सामजिक-राजनीतिक ताकत में बदल दिया। लेकिन कारपोरेट पूंजी के सहयोग से  सत्ता तो पायी जा सकती है। लेकिन सवाल तो जस का तस बना रहा।

किसानों की आत्महत्या  का‌ बढ़ता ग्राफ, ग्रामीण जीवन से श्रमशक्ति का पलायन और खेती पर लगातार कर्ज के बोझ बढ़ते जाने से ग्रामीण जीवन नये तनाव, टकराव और निराशा के  दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया।

कारपोरेट पूंजी और मित्र पूंजीवाद के प्रति समर्पित, उसके विकास के लिए हर कीमत पर कटिबद्ध और भारत के सार्वजनिक संस्थानों का  पूंजी भंडार, प्राकृतिक संसाधनों के लूट के लिए बड़े पूंजी घरानों के लिए रास्ता आसान करना,  पर्यावरण का विनाश और सामाजिक समरसता के विचार  के बल पर विकास की जो दिशा ली गयी, उसने भारतीय समाज के अंदर आंदोलनों, संघर्षों, टकराव के विराट झंझावात को जन्म दे दिया।

औद्योगिक विकास के नाम पर कारपोरेट के हाथों में प्राकृतिक संसाधनों को सौंपने, पर्यावरण के विनाश और सरकारी संसाधनों के निजी हाथों में सौंपने की  मोदी सरकार की प्रतिबद्धता पर यहां चर्चा नहीं करूंगा। कारपोरेट लूट की हवस और अरबों-खरबों के कृषि उत्पाद बाजार पर कारपोरेट की गिद्ध-दृष्टि लंबे समय से थी। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वैश्विक खूंखार पूंजी के साथ अदानी-अंबानी जैसे नये कारपोरेट लार्डो ने कृषि  व्यापार के क्षेत्र में  प्रवेश करने का फैसला किया।

मोदी सरकार के आते ही अदानी जैसे बड़े खिलाड़ी कृषि व्यापार में अनेक तरह से प्रवेश कर गये । भंडारण से लेकर कृषि उत्पादों के वितरण तक के लिए उन्होंने इन्फ्रास्ट्रक्चर का एक बड़ा नेटवर्क खड़ा कर लिया है।

भूमि अधिग्रहण और कृषि उत्पादों पर मूल्य के नियंत्रण जैसे कई प्रयास मोदी की पहली सरकार आते ही शुरू हो चुके थे। उसके खिलाफ किसानों के चले मजबूत प्रतिवादों के कारण मोदी सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पडा था।

ज्योंही, कोविड महामारी की गिरफ्त में भारत आया तो इस आपदा को अवसर में बदलने का मोदी का अभियान और वांछित लक्ष्य परवान चढ़ गया।

महामारी के कठिन काल में ही किसान विरोधी तीनों काले कानून और चार श्रम संहिताएं   किसानों-मजदूरों पर थोप दी गयी। भाजपा सरकार कृषि से संबंधित तीन कानून लेकर आयी तो भारतीय ग्रामीण समाज उद्वेलित हो उठा ।

इसे आज हम दिल्ली के बॉर्डर पर चल रहे ऐतिहासिक किसान संघर्षों के रूप देख रहे हैं।

सामाजिक   और राजनीतिक कर्ताओं को किसान आंदोलन को उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड सहित भारत के पिछड़े कहे जाने वाले इलाके में विस्तारित करने और गति देने की पहेली को समझना, हल करना  आज बड़ा सवाल बना हुआ है ।

अभी तक पढ़े-लिखे सामाजिक समूह जो  विभिन्न जातियों से निर्मित होता था, उससे आये हुए नौजवान और सचेत राजनीतिक समूह ही लोकप्रिय लोकतांत्रिक  आंदोलनों की अगुवाई करते थे।

इनके  अगुवाई में ही उत्तर भारत में  आंदोलन, जन संघर्ष चलता था। नब्बे  के दशक में दलित जातियों से आये  नौकरी पेशा पढ़े-लिखे सामाजिक समूहों ने दलित अस्मिता के सवाल को सत्ता में भागीदारी के प्रश्न के साथ संबद्ध करके राजनीतिक स्तर पर उन्नत कर नये तरह का दलित जागरण का दरवाजा खोल दिया था।

इससे बसपा जैसी राजनीतिक पार्टी भारतीय राजनीति के दृश्य पटल पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगी थी। लेकिन उदारीकरण, निजीकरण की परियोजना और भारतीय वर्ण व्यवस्था के साथ सुसंगत ढंग से निपटने के कार्यभार को पूरा न कर पाने की उनकी सत्ता लोलुप कमजोरी ने उनके सामने मौजूद ऐतिहासिक अवसर को हाथ से फिसलने दिया।

किसान आंदोलन सर्वथा एक भिन्न तरह का आंदोलन है, जिसकी  उत्पादन करने वाली  उत्पादक शक्तियां अगुवाई कर रही हैं।

इसलिए मध्यवर्गीय समाजिक कार्यकर्ता समूह के लिए यह आंदोलन एक पहेली बना हुआ है। बौद्धिक रूप से सचेत जन-प्रतिबद्ध और मोदी सरकार के आने के बाद  हिंदुत्व परियोजना की नीतियों को शिक्षण संस्थानों से लेकर समाज के विभिन्न इलाकों, क्षेत्रों में लागू करने के चलते ढेर सारे जन संघर्ष पिछले 7 वर्षों में भारत के राजनीतिक पटल पर उभरे हैं। जिसमें दिल्ली, जेएनयू, जामिया, हैदराबाद, आईआईटी मद्रास,  जादवपुर यूनिवर्सिटी, बनारस, इलाहाबाद के छात्र आंदोलन और नागरिकता के लिए लाये गये संविधान-विरोधी एनआरसी कानून के खिलाफ चला शाहीनबाग़ का विराट संघर्ष  भारतीय समाज को प्रेरित करने और आवेग देने वाले आंदोलन रहे हैं।

इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में किसान आंदोलन एक नया इतिहास रच रहा है। यह आंदोलन ढेर सारी शक्तियों को प्रेरणा दे रहा है और लोकतंत्र और समाज के नये भविष्य के लिए एक लैंपपोस्ट की तरह काम कर रहा है।

इस  किसान आंदोलन की उलझी हुई पहेली को हल करने की पुरजोर कोशिश करनी होगी!

(अगली कड़ी में जारी)

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