जयप्रकाश नारायण
हरित क्रांति से निर्मित नया यथार्थ और ग्रामीण जीवन में बढ़ते अंतर्विरोधों की तीव्रता
हरित क्रांति ने कृषि प्रधान भारतीय समाज में नये तरह के मनुष्य का निर्माण किया। इस मनुष्य की इच्छा, आकांक्षा, ज़रूरतें और व्यवहार क्षेत्र सामंती राजशाही दौर के किसान से सर्वथा भिन्न थी ।
यह किसान माल उत्पादन, विपणन आदि के चलते बाजार व्यवस्था से जुड़ चुका था। राज्य मशीनरी के साथ रोज नये घात-प्रतिघात का अंग होने के कारण इसकी चेतना और जीवन व्यवहारों में बदलाव आ चुका था।
आधुनिक जोतदार के चिंतन और व्यवहार का विस्तार क्षेत्र सत्ता के गलियारों तक फैल गया। जो कभी राज्य मशीनरी के कमजोर तंत्र को भी देखकर भयभीत हो जाता था, अब आमने-सामने अपने सवालों पर बहस में मजबूती से खड़ा हो गया था।
इसके साथ ही इस नये जोतदार, पूंजीवादी किसान में पूंजीवाद की धूर्तता, चालाकी, बर्बरता और निष्ठुरता की प्रवृत्ति भी पहुंच गई।
हरित क्रांति ने भारतीय गांव में पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के तत्वों को प्रवेश कराया। चूंकि भूमि संबंधों में मूलतः कोई बदलाव नहीं हुआ था, इसलिए पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली ने कृषि क्षेत्र में नये सामाजिक संबंधों के विकास और नागरिक समाज की रचना में कोई छलांग नहीं लगायी।
जिस कारण से भारतीय शासक वर्गों को कृषक समाज की जाति-धर्म की पहचान को जागृत करने का शुभ अवसर मिल गया।
लोकतंत्र की बुनियाद, नागरिक की अवधारणा ही बदल दी गई। राजनीतिक दल जाति-धर्म की पहचान को ही संगठन की चेतना तक उन्नत कर ले गये।
जिसके चलते पहले से ही मौजूद ब्राह्मणवादी जातिवादी चेतना और सशक्त तथा प्रबल हुई।
वर्ण व्यवस्था के जाति स्वरूप को नया जीवनदान मिल गया। समाज के पिछड़ेपन का दोहन करते हुए धार्मिक जातिवादी उन्माद खड़ा करके बुनियादी सवालों, जैसे भूमि सुधार, कृषि में पूंजी निवेश, कृषि उत्पादों का उचित मूल्य और ग्रामीण बेरोजगारी, बेहतर जीवन स्थितियां, शिक्षा, स्वास्थ और श्रम की उत्पादन की वाजिब कीमत जैसे सवालों से काटकर अमूर्तन रूप में सत्ता में भागीदारी के पूंजीवादी परियोजना के अधीन ला दिया।
गर्व से कहो, हम हिंदू हैं या अपनी जातीय पहचान को गर्व से घोषित करो जैसे पहचान मूलक विमर्श सामाजिक जीवन में हावी हो गये।
40 वर्ष के भारतीय लोकतंत्र की गति यात्रा के दौरान गांव में वित्तीय पूंजी विकास के नाम पर गयी। पूंजी ने हर जातियों, धर्मों, समूहों में एक आक्रामक, खुदगर्ज, छोटा मध्यवर्ग निर्मित किया। जिसका लोकतांत्रिक सरोकारों से दूर तक कोई संबंध नहीं था।
यह मूल्यविहीन मध्यवर्ग सामाजिक सरोकार रहित आक्रामक सामंती मूल्यों से युक्त मध्यवर्गीय समूह है, जिसने सत्ता के गलियारे और विकास के मुहाने पर अपनी गिरफ्त मजबूत कर ली।
उसके लिए यह विमर्श सत्ता की सीढ़ी चढ़ने और ताकतवर ढंग से सत्ता में हिस्सेदारी की मांग से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
आज आप देख सकते हैं, कि इस तरह के विमर्श से निकले हुए सामाजिक, राजनीतिक समूहों के व्यवहार, चिंतन और कर्म में फर्क तलाशना मुश्किल है।
समाज के हाशिए पर पड़े कमजोर वर्गों, गरीबों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के प्रति उनके नजरिए में सामंती बर्बर मूल्य अंदर तक घुसे पड़े हैं।
आज जो इन वर्गों पर हमले दिख रहे हैं, उसके कारणों को इन सब परिवर्तनों में निश्चित तलाशा जाना चाहिए। अब तो यह बर्बरता सत्ता के केंद्र में बैठे हुए लोगों के व्यवहार, विचार और परियोजना का अंग बन गई हैं।
साथ ही, सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के लिए, सुचिंतित अस्त्र के रूप में प्रयोग की जा रही है। भारतीय लोकतंत्र ’80 के दशक में ही पटरी से उतर गया।
’90 के दशक के शुरुआत में भारत गहरे आर्थिक संकट में घिर गया, तो विश्व साम्राज्यवादी शक्तियों ने आईएमएफ, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन के द्वारा उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की परियोजना भारत पर थोप दी।
आप देखेंगे, कि जो आर्थिक नीतियां 1991 ई. से शुरू हुई, शासक वर्गीय सभी राजनीतिक पार्टियों में उस पर आम सहमति है।
कहीं से भी इन नीतियों का कोई विकल्प, चाहे हिंदुत्व की ताकतें हों, चाहे सामाजिक न्याय और सौ में पिछड़े पाएं साठ की सत्ता में भागीदारी की माँग वाली पिछड़ी जातियां हों, या पीएम-सीएम वाली दलित उभार की राजनीति हो या दलित अरबपतियों की तलाश में सरकारी ठेके और निजी क्षेत्र में आरक्षण की माँग की राजनीति हो या आज जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी की मांग वाली राजनीति हो, उदारवादी जनतंत्रवादी लोग हों, उनमें किसी में भी वैकल्पिक आर्थिक योजना रखने की क्षमता ही नहीं है।
एलपीजी की पूरी परियोजना का वैकल्पिक मॉडल तैयार न होने के चलते उदारीकरण ने भारतीय समाज को निर्मम, खुदगर्ज, उपभोक्तावादी समाज में बदल दिया।
संकटग्रस्त लोकतांत्रिक ढांचे को, जाति-धर्म, लिंग और भाषा के सवाल को जहां उच्चतम लोकतांत्रिक मूल्यों के द्वारा ही हल करना था, वहाँ उभरते हुए पूंजीवादी, सामंती शक्तियों के गठजोड़ की ताकतें आधुनिक तकनीकी साधनों , संस्थाओं का उपयोग अपने राजनीतिक आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए करती रहीं। जिसने समाज के लोकतांत्रीकरण को भारी क्षति पहुंचाई।
जिस कारण से किसान आंदोलन की दूसरी लहर के ’80 के दशक में तीव्र होने के बाद भी ग्रामीण मजदूरों और नए जोतदारों के बीच के संबंध लोकतांत्रिक आधार पर निर्मित नहीं किए जा सके ।
ग्रामीण जीवन में दो भिन्न आर्थिक, सामाजिक समूहों के अंतर्विरोध तीखे होते गए। सपा और बसपा के बीच के तीखे टकराव को इन्हीं अर्थों में देखा जा सकता है।
जहां, किसान आंदोलन की मजदूर वर्गीय राजनीतिक धारा मजबूत थी, वहां नव पूंजीवादी जोतदारों ने मजदूरों की राजनीतिक चेतना के उभार को रोकने के लिए हिंसक हमले और नरसंहार तक चलाये ।
इस परिस्थिति का फायदा छिपी हुई हिंदुत्ववादी ताकतों ने जातिगत श्रेणी में मौजूद श्रेष्ठता और वर्चस्ववादी विचारों का प्रयोग करते हुए पिछड़ी जातियों में हिंदुत्ववादी विचारों और राजनीति के लिए सामाजिक समर्थन का विस्तार कर लिया। जिससे वे मंदिर और मंडल के सवाल को आगे बढ़ा कर किसान आंदोलन पर भारी पड़ गई।
किसान आंदोलन को लगभग दो दशक तक परिस्थितियों के उचित विकास का इंतजार करना पड़ा।
हालांकि, इस दौरान भी किसान आंदोलन की पहली धारा हिंदुत्व के विध्वंसक आक्रमणकारी हमलों का जमीन पर और संसदीय लोकतंत्र के राजनीतिक मंच पर भी जवाब और विकल्प खोजने के लिए जूझती रही।
राजनीतिक दलों को अपने राजनीतिक लक्ष्य को पूरा करने के लिए पहल लेने वाले गतिशील सामाजिक समूहों की जरूरत होती है।
लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों से विरत राजनीतिक दलों को अवसरवादी, स्वार्थी और एकाधिकारवादी मध्यवर्गीय नव धनाढ्यों को अपने नेतृत्व में महत्वपूर्ण जगह देनी पड़ी । इसे सत्ता में जातियों को सम्मान तथा भागीदारी घोषित कर दिया गया।
भारतीय लोकतंत्र दो जटिल सवालों से अपने जन्म-काल से ही जूझ रहा था।
पहला सवाल, वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत निर्मित जातीय संरचना का समाधान खोजना, दूसरा, पिछड़े कृषक समाज को, जो मूलतः धर्मभीरू और सामंती जीवन प्रणाली से हजारों वर्षों से संचालित है; उसे एक लोकतांत्रिक मूल्यों वाले नागरिक के तौर पर विकसित करना।
इस विखंडित, विभाजित और आत्ममुग्ध समाज को राष्ट्र-राज्य के रूप में एकताबद्ध करते हुए आधुनिक विकसित राष्ट्र बनाना था।
लेकिन भारतीय स्वतंत्रता के शुरुआती चरण यानी 1947-48 के तूफानी काल में 30 जनवरी 1948 को राष्ट्रपिता गांधी की हत्या और जून 1948 में बाबरी मस्जिद में रात के अंधेरे में कांग्रेस सरकार के अंदर मौजूद हिंदूवादी विचारों वाले नेताओं और नौकरशाही की मदद से एक भीड़ द्वारा मूर्ति स्थापित कर देने से भविष्य के संकेत मिल गए थे।
एक एकताबद्ध लोकतांत्रिक, संघात्मक, धर्मनिरपेक्ष, गणतांत्रिक भारत के निर्माण की परियोजना के समक्ष आने वाली चुनौतियों का आभास हो चुका था।
इसलिए किसान आंदोलन को जहां हिंदुत्व-कारपोरेट गठजोड़ के हमले और कारपोरेटपरस्त नीतियों का जवाब या प्रतिकार करना पड़ रहा है, वहीं उसे वर्ण-व्यवस्था जनित जटिलताओं के कारण व्यापक कृषि-जीवी समाजों में आंदोलन को विस्तारित करने की बाधा को भी हल करने के लिए नये-नये प्रयोग करने पड़ रहे हैं ।
आगे, हम पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में किसान आंदोलन के समक्ष मौजूद चुनौतियों पर विचार करेंगे।
(अगली कड़ी में जारी)