( यह आलेख लेखक, कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा की अनामिका प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘ कबीर हैं की मरते नहीं ‘ से लिया गया है. कबीर जयंती पर समकालीन जनमत के पाठकों के लिए यह आलेख प्रस्तुत है. सं. )
कबीर के बारे में ब्रिटेन के अखबारों में जितना छपा है उतना शायद तब, किसी अन्य समाज सुधारक के बारे में नहीं छपा । कबीर के बारे में 1841 ई. से ब्रिटिश अखबारों में लेख और समाचार छपने लगे थे। तमाम ईसाई मिशनरियां उन पर सामग्री जुटा रही थीं । उन पर शोध कर रही थीं।
कबीर द्वारा मूर्ति पूजा का निषेध, बाह्य आडंबरों का खंडन और एक परमतत्व की परिकल्पना, ईसाई मिशनरियों को भा रहा था। सात समंदर पार के अखबार जब कबीर की महत्ता बता रहे थे तब तक हमारा हिन्दी समाज सोया हुआ था। या यों कहें कि बहुत हद तक बौद्ध साहित्य की तरह कबीर साहित्य को भी ओझल करने का कुचक्र रचा जा रहा था। उनकी विद्रोही रचनाओं को निस्तेज करने के लिए उनके नाम पर प्रक्षिप्त रचनायें घुसेड़ी जा रही थीं। उन्हें दैवीय और चमत्कारिक बनाया जा रहा था।
जब ईसाई मिशनरियों और अंग्रेजी लेखकों ने कबीर पर पर्याप्त काम कर दिया, उनकी कुछ कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया, तब हिन्दी साहित्य के पुरोधाओं को लगा कि अब कबीर को छिपा पाना संभव न होगा। पहली बार 1928 में श्यामसुन्दर दास ने कबीर ग्रंथावली का प्रकाशन किया।
कबीर विदेशी विद्वानों के लिए कितने महत्वपूर्ण थे, इसको सर डब्ल.डब्लू. हंटर से जाना जा सकता है जिन्होंने कबीर पर काम करते हुए उन्हें पन्द्रहवीं सदी का भारतीय लूथर कहा। उनका कहना अतिश्योक्तिपूर्ण न था। कबीर जैसे भारतीय लूथर या एक मात्र हिन्दुस्तानी कवि और संत के प्रति ईसाई मिशनरियों की, और साथ ही साथ ब्रिटिश अखबारों की दिलचस्पी, उनके कद का भान करा रही थी ।
उन्नीसवीं सदी में शायद ही किसी अन्य हिन्दुस्तानी कवि या विचारक के संबंध में ब्रिटिश अखबारों में इतने समाचार छपे हों ? इन ब्रिटिश अखबारों को आज तक हिन्दी के लेखकों ने संज्ञान में नहीं लिया है, यह तथ्य भी हैरान करने वाला है। ऐसा निराला संत जिसे हिन्दू, हिन्दू मानते रहे, मुसलमान, उसे मुसलमान और क्रिश्चियन उसे क्रिश्चियन,(2) उसके बारे में ब्रिटिश अखबारों का क्या नजरिया था, यहां संक्षेप में उल्लेख करना चाहूंगा ।
ब्राडफोर्ड आब्जर्वर (वृहस्पतिवार, सितम्बर 09, 1841) में मि. ए लंगलोज ( A Langlois) ने लंदन में कविता पर एक लम्बा आलेख लिखते हुए कबीर को हिन्दुस्तान का महान समाज सुधारक और पन्द्रहवीं सदी का नायक कहा है। बुनकर कबीर के कविता संग्रह ‘बीजक’ तथा सोलहवीं सदी के नायक नानक का जिक्र करते हुए आलेख में कहा गया है कि कबीर जैसा साधारण आदमी और नानक ने बहुदेववाद के विरुद्ध एक ईश्वर की परिकल्पना की। अखबार के अनुसार कबीर ने कविता एवं गद्य में रचना की । उनके शिष्य भगदास ने उनके विषम कविताओं को बीजक नाम से संकलित किया ।
एलन्स इण्डियन मेल (Allens Indian Mail) (लंदन, नवम्बर 2, 1848) में कबीर के मरने के बाद कबीरपंथियों का जिक्र किया गया जो उस समय मध्य और उत्तर भारत में भारी संख्या में थे।
अर्मघ गार्डियन (Armgh Guardian ) ने ‘मिशन इन हिन्दुस्तान विथ ए ब्रीफ डिस्क्रीप्सन ऑफ द कंट्री एण्ड ऑफ द माॅरल एण्ड सोशल कंडीशन ऑफ़ द इनहैबिटैंट्स’ किताब, जिसके लेखक जेम्स आर कैम्पबेल थे, पर विस्तृत रिपोर्ट शनिवार, जनवरी 01, 1853 में छापी है। यह किताब 1852 में प्रकाशित हुई थी। किताब में कबीरपंथियों के साहस और हिन्दू पूजा पद्धतियों, पाखंडों के विरुद्ध उनकी आवाज का उल्लेख किया है। (The kabir Panths with great boldness assail and ridicule the whole system of Hindu worship as now practised.)
मार्निंग एडवर्टाइजर ने मार्च 10, 1865 को लिखा कि बहुत पहले भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के द्वारा धार्मिक सुधार करने वाले कबीर दिखाई देते हैं। कबीर ने अभूतपूर्व साहस दिखाया था और मूर्तिपूजा तथा तत्कालीन प्रचलित मान्यताओं की खिल्ली उड़ाई थी। उन्होंने अपने सराहनीय प्रतिभा के द्वारा देशवासियों के अनुकूल विचार दिए। उन्होंने दक्षिणपंथियों और वामपंथियों, दोनों को फटकारा था। अखबार लिखता है कि वह सारतः कबीर के विचारों के पक्षधर है। जीवन ईश्वर का उपहार है। इसलिए किसी प्राणी द्वारा इसका उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए, चाहे वह मनुष्य हो या जीव । किसी का खून नहीं बहाना चाहिए । मनुष्यता ही मुख्य गुण है। सच्चाई दूसरा महान गुण है। दुनिया की सभी बुराइयों का कारण ईश्वर के प्रति झूठ और अज्ञानता है। दुनिया से जाना स्वभाविक है। जुनून और इच्छा, उम्मीद और डर, सभी सामाजिकता को खतरे में डालते हैं । इनसे मुक्ति के लिए, मनुष्य और ईश्वर के प्रति ध्यान भंग रोकने के लिए आत्मा की शुद्धि जरूरी है ।
द वालारो टाइम्स एण्ड माइनिंग जरनल (The Wallaroo Times and Mining Journal, Port Wallaroo, SA, 11 Nov, 1871) और द एनीसकाॅर्दी न्यूज ( The Enniscorthy News) ने 26 अगस्त 1871 को ‘द बनियन ट्री’ शीर्षक से एक समाचार प्रकाशित किया था जिसमें मि. जेम्स फोर्ब्स के पत्रों का संकलन ‘ओरियंटल मेमोरीज’ का जिक्र है, जो 1813 में छपा था। उसमें ‘कबीर बर’ नामक एक विशाल बरगद वृक्ष का उल्लेख है जो भरुच नामक शहर से 12 मील दूर, नमर्दा नदी के किनारे स्थित था। भोजपुरी भाषा में बरगद को बर कहा जाता है। अखबार के अनुसार उस बर वृक्ष का नाम प्रसिद्ध हिन्दू समाज सुधारक कबीर के नाम पर रखा गया था जिसका मुख्य तना 8 फीट से ज्यादे व्यास का था। उसकी ऊंचाई 100 फीट और परिधि 2000 फीट के लगभग थी। उसमें लगभग 350 जटाएं बचीं थीं। वैसे वह पेड़ बहुत पुराना था । 1783 की बाढ़ और तुफान के पूर्व उसमें 1350 जटाएं थीं। इससे कबीर की तत्कालीन समय की ख्याति का आभास लगता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि तब तक कबीरपंथियों का स्वरूप हिन्दू धर्म विधान के करीब जा चुका था। कबीर के मृत्यु के बाद किसी मुस्लिम कबीर भक्त की चर्चा नहीं होती।
एक अन्य आस्ट्रेलियाई अखबार एडवोकेट, मेलबोर्न (Advocate, Melbourne, Vic, Sat 4 Aug 1888) ने इस प्रसिद्ध वर पेड़ के बारे में कुछ और जोड़ा है। वह लिखता है कि इस पेड़ की उत्पत्ति संत कबीर के दांत खोदने वाली लकड़ी से हुआ था, ऐसी किंवदंती है। यह विशाल पेड़ 3-4 एकड़ जमीन को घेरे है और इसके घेरे में दस हजार आदमी आराम से खड़े हो सकते हैं। गुजरात की ओर जाने वाले ज्यादातर यात्री इस वर को देखने जाते हैं। लेखक ने पुराने यात्रियों से सुन रखा है कि आठारहवीं सदी में इस पेड़ 350 मुख्य जटाएं और लगभग 3000 उप जटाएं थीं। नर्वदा नदी की अनेक बाढ़ों से इस प्रसिद्ध पेड़ की बर्बादी होती रही है। यद्यपि ब्राह्मण इस पेड़ को शिव की पत्नी के नाम से इसे ‘मातादेवी’ कहतेे हैं।
द स्काॅटमैन, जुलाई 05, 1872 में डब्लू.डब्लू. हंटर की दो वाॅल्यूम में छपी किताब ‘उड़ीसा’ की समीक्षा छपी है, जो स्मीथ एल्डर एण्ड कं. लंदन से छपी थी । इस किताब में जगन्नाथपुरी का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि सिर्फ इसी शहर में निम्न और उच्च जातियां एक साथ रहती थीं जबकि अपने गाँवों में निम्न जातियां अगर उच्च जातियों को छू लें तो वह अपराध होता था। यहां तक कि दक्षिणी प्रांतों में सुबह 9 बजे के पूर्व और शाम 4 बजे के बाद गाँवों में प्रवेश मना था, जिससे उनकी लम्बी परछाईं से ब्राह्मण छू न जाएं। हंटर ने जगन्नाथपुरी में निम्न और उच्च जातियों को एक साथ रहने के कारण के बारे में लिखा है कि ऐसा कबीर की शिक्षाओं के प्रभाव से संभव हुआ है। हंटर ने कबीर को रामानंद के 12 शिष्यों में एक बताया है और बताया है कि उनके समय में जगन्नाथपुरी में कबीर की समाधी थी। हंटर के अनुसार कबीर ने हिन्दू-मुस्लमानों को एक माना है । उनके शरीर में एक रक्त है। उनके खुदा या राम एक हैं। वह पुरब या पश्चिम में नहीं, अपितु मन में रहता है। पूरा आलेख इस प्रकार है-
Dr Hunter’s account of the religion of Orissa will suggest many reflections. He points out that Jagannath’s “undying hold upon the Hindu race consists in the fact that he is the god of the people.”
“As long as his towers rise upon the Puri Sands, so long will there be in India perpetual and visible protest of the equality of man before God. His apostles penetrate to every hamlet of Hindustan preaching the sacrament of the Holy Food. The poor outcast learns that there is a city on the far eastern shore in which high and low cast together. In his own village, if he accidently touches the clothes of a man of good caste, he has committed a crime, and his outraged superior has to wash away the pollution before he can partake of food or approach his god. In some parts of the country the lowest castes are not permitted to build within the towns and their miserable hovels cluster amid hops of broken potsherds and dunghills on the outskirts. Throughout the southern part of the continent it used to be a law, that no man of these degraded castes might enter the village before nine in morning or after four in the evening, lest the slanting rays of the sun should cast his shadow across the path of a Brahman. But in the presence of the Lord of the World priest and peasant are equal. The rice that has once been placed before the god can never cease to be pore, or loss its reflected sanctity. In the courts of Jagnnath, and outside the Lion Gate, 100,000 pilgrims every year are joined in the sacrament of eating the holy food. The lowest may demand it from or give it to the highest. Its sanctity overleaps all barriers not only of caste, but of race and hostile faiths ; and I have seen a Puri priest put to the test of receiving the food from a Christian’s hand.”
In order to show how this universalism arose, Dr Hunter traces the progress of Siva-worship and Vishnu-worship. In the history of Vishnuvism, fact that looks singular to us makes its appearance. About the time when Europe was heaving with the thoughts that ultimately produced the Reformation, a prophet arose in Northern India, preaching one God who had no respect to persons; and he chose his twelve disciples from the lowest castes. One of these disciples was Kabir, of whom we have the following account From Dr Bunter : —”The waves of this reformation seem to have reached the remote sands of Puri about the end of the fourteenth century. Kabir, one of the twelve disciples of Ramanand, carried his master’s doctrine throughout Bengal. A monastery called after his name exists in Puri at the present day. As his mater had laboured to gather together all castes of the Hindus in one common faith, so Kabir, seeing that the Hindus were in his time no longer the whole inhabitants of India, tried to build up a religion that would embrace Hindu and Muhammadan alike. The voluminous writings of his sect contain the amplest acknowledgment that the God of the Hindu is also the God of the Musalman. His universal name is the Inter, whether he may he invoked as the Ali of the Muhammdan or as the Rama of the Hindus.” To Ali and Rama we owe our life, and should show like tenderness to all who live. What avails it to wash your mouth, to count your’ beads, to bathe in holy streams, to bow in temples, when, whilst you mutter your prayers or journey on pilgrimage, deceitfulness is in your heart? The Hindu fasts every eleventh day ; the Muslman on the Ramzan . Who formed the remaining months and days, that you should venerate but one ? If the Creator dwell in tabernacles which dwelling is the universe?, The city of the Hindu God is to the east, the city of the Musalman God is to the west ; but explore your own heart, for there is the God both of the Muslmans and of the Hindus. Behold but One in all things. He to whom the world belongs, He is the father of the worshippers alike of Ali and of Ram. He is my guide, He is my priest’. The moral code of Kabir is as beautiful as his doctrine. It consist is humanity, in truthfulness in retirement, and in obedience to the spiritual guide. In humanity ; for ‘life is the gift of God,’ and ‘the shedding of blood, whether of man or animal, a crime. ‘In truthfulness’ ; for ‘all the ills of the world, and ignorance of God, are attributable to original false-hood.’ In retirement ; because the passions and perturbations of this earth ruffle the tranquillity of man’s soul, and interfere with his contemplation of God. In obedience to the spiritual guide; but the disciple is enjoined first of all to examine well the life and doctrine of him who professes to take charge of souls. ‘when the master is blind, what is to become of the scholar ! When the blind leads the blind, both will fall into the well.”
जगन्नाथपुरी के बारे में उक्त आलेख में जो कुछ कहा गया है वह आश्चर्यचकित करने वाला है। आज भी वहां प्रसाद के रूप में भात वितरित किया जाता है। भात को ब्राह्मण धर्म में कच्चा भोजन कहा जाता है। कच्चा भोजन को प्रसाद में वितरित करने का रिवाज नहीं है, सिवाय उड़ीसा के मंदिरों के। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जगन्नाथपुरी पर कभी कबीरपंथियों का नियंत्रण था।
बरमिंघम डेली पोस्ट (अगस्त 15, 1879) और डुंडी एडवर्टाइजर (नवम्बर 30, 1881) में भी संत कबीर का जिक्र आया है। बरमिंघम डेली पोस्ट में कबीर के कुछ दोहों का अंग्रेजी अनुवाद भी छापा गया है जिसमें ‘सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप,’ पहला दोहा है। डंडी एडवर्टाइजर ( Dundee Advertiser) के समाचार से स्पष्ट होता है कि रामानंद, कबीर और चैतन्य के अनुयाई अलग-अलग थे। इससे यह सिद्ध होता है कि रामानंद का कबीर से कोई विशेष जुड़ाव न था। उस समय के जगन्नाथ मंदिर रथयात्रा का उल्लेख है जिसमें लगभग दस लाख लोग शामिल होते थे और रथ के पहिये से कुचल कर बहुत से लोग मर जाते थे।
द इंग्लिस लेक्स विजिटर एण्ड केसविक गार्डियन (5 मार्च, 1881) में एक क्रिश्चियन कैम्प में शामिल हुए एक कबीरपंथी के कथन को उद्धृत किया है कि उसका भगवान उसके पेट में रहता है। कबीरपंथी और सतनामियों के अनुसार हिन्दुओं के तैंतीस करोड़ देवता, एक साथ मिलकर भी धार्मिक जनता की इच्छाओं को पूरा नहीं कर पाते। इसलिए ऐसे देवताओं के प्रति लोगों का विश्वास, ब्राह्मणवाद के अत्याचार से टूट रहा है। अखबार लिखता है कि बिलासपुर और छत्तीसगढ़, कबीरपंथियों का गढ़ था। ज्यादातर चमार जातियों के लोग कबीर की शिक्षाओं से प्रभावित थे जो बुनकर आदिवासी थे। बिलासपुर की तिहाई जनसंख्या कबीरपंथियों की थी। अखबार लिखता है-
Kabir, one of a Sec t which is common in the Central Province, and which indeed has made one of the largest rents in Hinduism. They worship the Supreme Deity under the name of Kabir, who is supposed to be God incarnate, and said to have appeared several time on earth—once at least during each cycle of man’s history. The last appearance was about A. D. 1060 in the vicinity of Benares. Kabir worked miracles and had many followers, but his legendary origin from a weaver’s hovel, and the opposition and taunts of the Brahmins, had the effect of hindering the accession of the higher and educated classes, and of confining his mission to the lower and less influential castes. So it has continued, and his followers are mainly among the weaver tribe all over India. Kabir is said to have remained on earth 300 years. There are to be in all forty-four apostles, governing each twenty-Five years in succession, and alter the last, himself will again appear on earth. The present chief apostle is the eleventh in succession. (according to the twenty-five years’ rule he ought to have been the seventeenth) and lives in the Bilaspur District of Central Provinces.
द होमवर्ड मेल में जनवरी 23, 1882 को दरियापंथी समुदाय के बारे में एक खबर छपी थी जिसमें कहा गया था कि इस पंथ को दरिया साहेब ने शुरु किया था और उसका मुख्यालय शाहाबाद, निकट डुमरांव था। यह पंथ, एकेश्वावादी था और कबीरपंथ या कबीर के भक्तों द्वारा ही बना था जो हिन्दू देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखते थे । वे मूर्ति पूजा और जातिपात की निंदा करते थे। ब्राह्मण को अपने पंथ में शामिल करने के पहले उन्हें जनेऊ से मुक्त करते थे। अखबार के अनुसार तब दरियापंथियों में साधू या महंत बनने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना होता और किसी भी श्रोत से धन ग्रहण न करने को बाध्य किया जाता था।
लंदन डेली न्यूज (मार्च 24, 1883) ने सेंट्रल प्राॅविन्स में कबीरपंथियों की संख्या 3,47,994 एवं सतनामियों की संख्या 3,98,409 का उल्लेख किया था। इसी आलेख में अखबार ने जंगलों में भारी संख्या में रहने वाले प्रकृति पूजक आदिवासियों का उल्लेख किया है जिन्हें, हिन्दू, मुसलमान और क्रिश्चियनों ने अपने में मिलाना शुरु किया था।
द होमवर्ड मेल, फरवरी 14, 1884 में कबीर के बारे में छपा था कि 15वीं सदी के कबीर ने हिंदू-मुस्लिम के बीच की प्रतिद्वंदिता को समाप्त करने का प्रयास किया था जो बौद्ध धर्म के पराजय के बाद (यानी हिन्दू धर्म की कट्टरता के उभार के बाद), इस्लाम के एकेश्वरवाद के कारण उत्पन्न हो चुका था। कबीर ने जाति मुक्त समाज बनाने और आपसी भाईचारे को अध्यात्मिक बंधन में बांधने का प्रयास किया । कबीर के विचारों का प्रभाव सिख धर्म और अकबर के ‘दीन-ए-ईलाही’ धर्म पर भी पड़ा । कबीर के बाद उनके अनुयाइयों के चरित्र को देखते हुए अखबार का यह स्पष्ट मत था कि कबीर के प्रयासों को उनके अनुयाइयों ने बेकार साबित कर दिया। अब कबीरपंथी भी राम और अपने गुरु की पूजा करने लगे हैं। यानी जिस मूर्ति पूजा को गोरखनाथ और कबीर ने नकारा था, वही काम उनके अनुयाइयों ने शुरू कर दिया।
द होमवर्ड मेल, जून 16, 1884 के अनुसार महाराजा होल्कर ने, जे. विल्की के नेतृत्व में क्रिश्चियनिटी पर इन्दौर में दरबार करने का प्रयास करने वाले कनाडियन मिशन को बताया था कि उन्हें क्रिश्चियनिटी के बजाय हिन्दूइज्म, कबीरपंथी, ब्रह्म समाज, शिया-सुन्नी, पारसी जैन आदि पर दरबार आयोजित करना ज्यादा बेहतर लगेगा। इससे सिद्ध होता है कि तत्कालीन समय में कबीरपंथियों का महत्व किसी भी दूसरे संप्रदाय से कम न था।
द इल्यूसट्रेटेड स्पोर्टिंग एण्ड ड्रामैटिक न्यूज, नवम्बर 27, 1886 में कहा गया है कि उत्तर भारत के जिप्सी (नट, बाजीगर, बंजारे), कबीर जैसे महान कवि के उच्च आदर्श वाले और हिन्दू-मुस्लिम एकता बढ़ाने वाले गीतों को गाते थे यद्यपि वे धूर्त थे और जादूगरी के तरीके जानते थे। अखबार कबीर को शेरशाह का समकालीन (जो पूरी तरह से गलत तथ्य है) और सूफी बताता है। उनकी धर्मनिरपेक्षता और उदारता जैसी महान भावनाओं का जिक्र करता है, जिसे हिन्दू और मुसलमान, दोनों आदर करते थे। दोनों उन्हें अपना मानते थे। वे कबीर से धर्म संबंधी प्रश्न पूछते थे, जिसका कबीर अपने पदों में उत्तर देते थे। कुल मिलाकर कबीर अच्छे नैतिक प्रशिक्षक थे। अखबार के अनुसार-
In Northern India the Gipsies derive their notions of morals and religion principally from the songs of the great weaver-poet Kabir, who wall contemporary with Sher Shah. Kabir was Sufi and cherished the most exalted sentiments of piety and benevolence; and his poems breath so fine of a toleration and hospitality towards all men, including- the purest morality, that both Hindoos and the Muhamadans venerate his memory and claim him as one of their own. The stanzas of this bard are for ever in the mouths of the Gipsies, -who, to any question respecting their opinions on morality and religion, reply in the universally esteemed verses of Kabir than whom there have been very few better moral instructors in this world. (The Illustrated sporting and Dramatic news, November 27, 1886, Page 286)
ग्लाउसेस्टर जर्नल ( Gloucester Journal) ने जनवरी 18, 1890 के अंक में कबीरपंथियों को समाज सुधारक कहा है जो अंधविश्वास और मूर्तिपूजा के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे। अखबार के अनुसार कबीर की बातें पटेल, ब्राह्मण और राजपूतों को नहीं भाती थीं जबकि जातिगत आतंक से घिरे आम आदमी को उनकी बातें दिल की गहराई में उतर जाती थीं।
यार्कशायर गजट ने जून 17, 1893 को कबीर का एक दोहा-सात समुंद्र की मसि करूं …….का अनुवाद इस प्रकार छापा था-
^If I make the seven occeans ink, if I make the trees my pen, if I make the earth my paper, the glory of God cannot be writte.’
द पाॅल माॅल गजट, ने अक्टूबर 18, 1894 को रुडयार्ड किपलिंग द्वारा कबीर के एक गीत का अनुवाद छापा था।
इससे भी सिद्ध होता है कि कबीर के विचारों को किसी भी दूसरे समाजिक आंदोलन की तुलना में औपनिवेशिक सत्ता ने ज्यादा महत्व दिया था।
कबीरपंथियों के बारे में टिप्पणी करते हुए कांउट लिओ टालस्टाॅय ने जुलाई 14, 1901 को एक पत्र टाइम्स आफ इण्डिया को लिखा था कि हिन्दू धर्म की दुरूहता, पाखंड़ और अंधविश्वास की तुलना में जैन, बौद्ध और कबीरपंथियों के संदेश, मानवता के लिए ज्यादा जरूरी हैं। (3)
द होमवर्ड मेल ने अक्टूबर 19, 1901 अंक में ‘काउंट टालस्टाॅय एण्ड इण्डियंस’ शीर्षक से लिखते हुए कहा है कि कबीर ने सभी पुराने अंधविश्वासों को नकारा था।
द होमवर्ड मेल, जनवरी 28, 1907 ने राॅयल एशियाटिक सोसाइटी सभा में 15 जनवरी को ‘माॅडर्न हिन्दूइज्म एण्ड इट्स डेब्ट टू द नेस्टोरियन्स’ विषय पर डाॅ. जी.ए. ग्रियर्सन के उस वक्तव्य का उल्लेख किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि चैदहवीं और पन्द्रहवीं सदी में उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर स्थानीय भाषा में एक धार्मिक क्रांति हुई । इस क्रांति को संस्कृति भाषा के बजाय स्थानीय बोली-भाषा में लिखा गया था इसलिए उसको यूरोपीय इतिहासकारों ने अनदेखी की थी । उस समय भारतीय संतों के अनुसार, सही ज्ञान प्राप्त करना, नये जन्म के समान था। डाॅ. जी.ए. ग्रियर्सन का कहना था कि ’कबीर के सबद या काव्य के सिद्धांत सेंट जाॅन गोसपेल के शुरुआती छंदों से उधार लिए गए थे . ‘
Kabir’s doctrine of the Sabda, or word, must have been borrowed from the opening verses of St. John’s Gospel. In the sacramental meal to Kabir’s followers food and water were distributed as Kabir’s special gift conferring eternal life, and portions of this food were reserved for the sick. This evidence, the lecturer said, showed that the great Indian reformation of the fourteenth and fifteenth centuries was suggested by ideas borrowed from the Nestorian Christians of Southern India.
देखा जाये तो पन्द्रहवीं सदी में उत्तर भारत में बहुदेववाद, मूर्ति पूजा और कर्मकांडों का जो विरोध संतों द्वारा किया गया था, उसे ईसाई विद्वानों ने दक्षिण भारत में ईसाइयों के उभय व्यक्तिवादी सिद्धांत ;छमेजवतपंदद्ध का अनुसरण बताया था। डाॅ. जी.ए. ग्रियर्सन ने बताया था कि प्राचीन काल से ही भारत में ईसाई बस्तियां थीं। इनमें बहुत से उभय व्यक्तित्ववादी ;छमेजवतपंदद्ध थे। इनमें से एक बस्ती मद्रास के निकट माइलापुर में थी। यहां इनकी पूजा पद्धति में बदलाव आया था और एक मिलीजुली पूजा पद्धति, जिसमें आधी हिन्दू और आधी क्रिश्चियन पद्धति शामिल थी, प्रचलन में आई थी। उन्होंने इस तथ्य का उल्लेख किया था कि माइलापुर से कुछ मील दूर ही रामानुज का जन्म और शिक्षा हुई थी। रामानुज ने भी शंकराचार्य के वैदिक धर्म पद्धतियों का विरोध किया था।4
ईसाई चिंतकों की यह सोच उचित नहीं थी कि संतों ने ईसाइयों के उभय व्यक्तिवादी सिद्धांत ;छमेजवतपंदद्ध का अनुसरण किया था। हमने इस तथ्य का बार-बार उल्लेख किया है कि पन्द्रहवीं सदी में उत्तर भारत के सामाजिक सुधार आंदोलन की बुनियाद बुद्ध से प्रारम्भ होकर सिद्धों, सूफियों, नाथों से होते हुए कबीर तक आयी थी । उसकी एक लम्बी परंपरा थी जो समय-समय पर सनातनी पाखंडों से लड़ती रही । वह इतनी सार्थक और जनसामान्य के लुभाने वाली थी कि आज भी दुनिया के तमाम देशों में बौद्ध विचारों का ही बोलबाला है। उसने समय के साथ मुस्लिम पाखंडों पर भी प्रहार शामिल कर लिया गया था ।
द होमवर्ड मेल, नवम्बर 01, 1913 के अनुसार बाम्बे में 9 अक्टूबर, 1913 को गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना हुई थी और उसके बजट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा तुलसीदास, कबीर, तुकाराम और मीराबाई के गीतों को गाने पर ध्यान देने के लिए रखा गया था।
द इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज ने जून 12, 1915 को लिखा कि कबीर की कविताओं में चाल्र्स किंग्सले और विलियम ब्लैक का समिश्रण है। वह उन्हें आभासी रहस्यवादी बताता है। समाचार पत्र लिखता है कि 15वीं सदी के कबीर स्वतंत्र धार्मिक विचारक थे । वह पुरोहितवाद के बड़े दुश्मन थे । बुनकर कबीर सरल और घरेलू जीवन के हिमायती थे। वह हंसमुख, आशावादी और रहस्यवादी थे-
Kabir, who lived in the fifteenth century, though a mystic, was a very in-telligible mystic, something of a religious freethinker, and a great enemy of priestcraft. His attacks on the priestly yogi recall the denunciations of the Scribes and Pharisees. Kabir was a weaver and a married man, fond of simple domestic life. His faith is very cheerful and optimistic, as well as mystical, suggesting rather a blend of Charles Kingsley and William Blake. His poems are worth knowing.
शेफिल्ड डेली टेलीग्राफ (शनिवार, अप्रैल 03, 1915) ने टैगोर द्वारा कबीर की चुनी हुई कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद से सबसे पहले अंग्रेजी पाठकों के सामने आने की बात का उल्लेख किया है। अखबार के अनुसार कबीर की कविताएं रहस्यवादी चरित्र की हैं। ये सभी पाठकों की रुचि के अनुकूल नहीं हैं । कुछ की समझ से बाहर भी हैं।
आस्ट्रेलिया के एक अखबार द मेथोडिस्ट, जून 23, 1917 से पता चलता है कि समय के साथ कबीरपंथियों ने भी धीरे-धीरे अपनी सरलता को त्याग कर कुटिलता को अपना लिया था। उनका पतन हुआ था। वे भोलेभाले लोगों को अपने गिरोह में फांसने के लिए जाल बिछाते रहते थे। आजमगढ़ के दोहरीघाट के एक पत्थरदास की दुःखद कहानी को एक पादरी ने उक्त अखबार में लिख भेजा था, जो नटल से लौटने के बाद किसी कबीरपंथी के चंगुल में फंस चुके थे-
OUR INDIAN LETTER.
BY REV. J. H. ALLEN.
PATTHAR DAS.
We have just made an experiment. There was a man at Dohri Ghat that had become a Sadhu. He has had a strange, rambling life. Years ago, he went to South Africa as a coolie, and worked for eleven years, saving what is for them quite a nice little sum; then he thought to see his native land again. After being swindled of most of his money in Natal by some plausible rascal, who promised to remit it for him to India, he set off home. When he arrived at Calcutta he fell in with a Kabir Panthi Mohanth, who seemed to induce him to become a follower of Kabir, and who relieved him of his last one hundred rupees. I have had talks with him and tried to find if he knows anything at all about the religion, he is supposed to have adopted but found him most simple and most ignorant. India is indeed a strange place; some are so learned, and some are so hopelessly ignorant.
When Patthar Das came back to his own home near Azamgarh he found there was no hope of getting back the little piece of land he once tilled, and taking the name of Kabir, he started to wander about the country. He had become a Sadhu.
India suffers such men, and he has always found food to eat and somewhere to lie, and when, with other Sadhus whose reputation is established, and who have followers and an income, he would get Ganja to smoke, and from this smoking his eyes were red and vacant. But he had a kindly smile. There was little evil in him, if any.
Patthar Das heard us preaching, and after felling in with our worker at Dohri. He said this was the plainest, simplest Gospel he had heard, and he wanted to become a Christian. That’s all right, but what was he to do? His body was weakened with long vagabondage, irregular meals, and Ganja smoking; and brains — well, he simply had none.
We brought him in and started him on a small amount of regular work trenching trees, and hoped that regular food and exercise would gradually make his body strong, and each morning he spent a couple of hours with the hostel boys learning the rudiments of the Bible and easy hymns. He was once a strong man, earning good money in the coal mines of South Africa, and he could, with our help, have saved himself and earned his living honestly again.
For a week or two he worked fairly happily, and we thought we had done something for him that would last; but one night he decamped in the hours, when everyone was asleep, and we have found no trace of him since. I am afraid that wandering and laziness has got into his very bones, and that his religion itself is complaisant idleness. Still, I am glad we tried to do him good, the help cannot be wasted; he will always know that Christianity gave him a chance towards? honesty and self-respect.
द लीड मरक्यूरी, मार्च 20, 1930 ने कबीर को मुस्लिम संत कहा है जो जाति बंधन को नहीं मानते थे। उन्होंने रोटी और खून का रिश्ता स्थापित कर जाति व्यवस्था तोड़ने की वकालत की थी।5
बक्र्स एण्ड आक्सन एडवर्टाइजर( Berks and Oxon Advertiser) ने शुक्रवार, 24 अगस्त 1934 को ‘मूर्ति पूजा के खतरे’ शीर्षक से एक समाचार छापा कि बुद्ध और कबीर, दोनों ने हिन्दू धर्म की मूर्ति पूजा और पाखंड के विरूद्ध संघर्ष किया । इनमें सबसे महत्वपूर्ण काम कबीर का था। उन्होंने शास्त्रों और पुराणों को नकारा । ब्राह्मणवाद के दंभ की निंदा की। कबीर ने जाति समाप्त करने और हिन्दू-मुस्लिम को एक करने का प्रयास किया । दादूपंथी भी कबीर से प्रभावित थे जिसमें अजमेर और जयपुर के राजपूत शामिल थेे। सत्रहवीं सदी के मध्य में मालवा के बाबूलाल राजपूत, बीरभान का दाराशिकोह, सतनामी जगजीवनदास, कबीरपंथियों के बीच से निकले हुए थे।
लीवरपूल इको ने अप्रैल 14, 1942 को ‘एन इण्डियन पीसमेकर’ शीर्षक से लिखा था कि भारतीय समाज के दो बड़े हिस्से, हिन्दू और मुसलमानों के धार्मिक विभाजन को पाटने में बुनकर कबीर ने महत्वपूर्ण काम किया था। उनके अनुयाई मुख्यतः निम्नजातियों के थे जो पश्चिम, मध्य और उत्तर भारत में पाये जाते थे।
उपरोक्त सभी ब्रिटिश अखबारों से कबीर के पाखंड विरोधी सामाजिक आंदोलन के महत्व को समझा जा सकता है। जब हिन्दुस्तान की धरती पर या यों कहें हिन्दी साहित्य में कबीर को कोई जानता न था तब 1841 से ही ब्रिटिश अखबारों में कबीर छप रहे थे। तमाम अंग्रेजी विद्वानों, ईसाई मिशनरियों ने उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही कबीर की रचनाओं को पढ़ना शुरू कर दिया था । 1861 ई. में ‘एसेज एण्ड लेक्चर्स ऑन द रिलीजन्स ऑफ़ द हिन्दूज-एच.एच. विल्सन, वाल्यूम प्ए ट्रुबनर एण्ड कंपनी, 60, पटरनोस्टर रो, लंदन से किताब प्रकाशित हुई थी। इस किताब में एक पूरा चैप्टर कबीरपंथ पर दिया हुआ है। कुछ अंग्रेज लेखक तो कबीर की बानी को ईसु की बानी ही बता रहे थे। गुजरात के पंड़ित वाल्जी भाई ने 1881 में गुजराती में कबीर चरित्र प्रकाशित किया था ।6 ‘कबीर एण्ड द कबीर पंथ’-रेवरेंड जी.एच. वेस्टकाॅट, कानपुर, क्राइस्ट चर्च मिशन प्रेस, 1907, के प्रकाशन के बाद हिन्दी वालों की नींद खुली और उन्हें लगा कि विद्रोही कबीर को छिपाना अब असंभव होगा। डाॅ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इस बात को माना है कि ‘बंगाल तथा हिन्दी लेखकों के अध्ययन ईसाई मिशनरियों के कबीर विषयक कार्य के गहरे दबाव में हुए थे।7
1915 में पहली बार रविन्द्र नाथ टैगोर ने कबीर के सौ दोहों का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित कराया था (कबीर्स पोयम्स, ट्रांसलेटेड बाॅय रविन्द्रनाथ टैगोर, एसिस्टेड बाॅय मिस इवेलिन अंडरहिल, मैकमिलन)। ब्रिटिश अखबार, ग्लोब, शनिवार 24 अप्रैल, 1915 के अनुसार यद्यपि वह अनुवाद बहुत खराब था फिर भी तत्कालीन ब्रिटिश और अमेरिकी अखबारों में इसकी खूब चर्चा हुई थी। रविन्द्र नाथ टैगोर को इस वजह से भी देश के बाहर साहित्यिक दुनिया में ख्याति मिली मगर टैगोर ने जिन सौ कविताओं को चुना था उनकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह है। उनमें ज्यादातर प्रक्षिप्त रचनाएं हैं । कल्लेवेयर्ट ने उन कविताओं के बारे में संदेह उठाया है।8
इस प्रकार ईसाई मिशनरियों के दबाव में हिन्दी साहित्य के विद्वानों को मजबूरी में कबीर को सामने लाना पड़ा। सबसे पहले 1928 में श्यामसुंदर दास ने कबीर ग्रंथावली का संपादन किया, जिसका उल्लेख किया जा चुका है। 1928 के बाद, 1940 में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘कबीर’ नामक एक मुकम्मल किताब लिखी। बीच की अवधि में कबीर के प्रति हिन्दी जनमानस उदासीन बना रहा।
संदर्भः
1-कबीर एण्ड द कबीर पंथ, रेवरेंड जी.एच. वेस्टकाॅट, कानपुर, क्राइस्ट चर्च मिशन प्रेस, 1907, पृष्ठ 1।
2-¼Linda Hess, W.H.McLead: Kabir’s Rough Rhetoric, Motilal Banarsidas, Delhi, 1987, Page 143-166).लिंडा हेस, डब्लू.एच. मैक्लीडः कबीर्स रफ हेटोरिक, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1987, पृष्ठ 143-166।
3-सेंट जेम्सेज गजट, अक्टूबर 10, 1901।
4-द होमवर्ड मेल, जनवरी 28, 1907) ।
5-लीवरपुल, मंगलवार, 14 अप्रैल, 1942
6-कबीर एण्ड द कबीर पंथ, रेवरेंड जी.एच. वेस्टकाॅट, कानपुर, क्राइस्ट चर्च मिशन प्रेस, 1907, पृष्ठ 101।
7-कबीरः पुनर्विचार का समय, डाॅ. राम स्वरूप चतुर्वेदी का आलेख, कबीर के आलोचक-2, डाॅ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2002, पृष्ठ 107।
8-विनांन्द एम. कल्लेवेयर्टः द मिलेनियम कबीर वाणी, मनोहर पब्लिशर्स, दिल्ली, 2000, पृष्ठ 13 ।