( वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की श्रृंखला ‘ये चिराग जल रहे हैं’ की छठी क़िस्त में प्रस्तुत है टिहरी के प्रजामंडल आन्दोलन के सक्रिय कार्यकर्ता और रेडियो -नाटक कलाकार जीत जरधारी की कथा . सं.)
उन्हें कोई कहता था ‘जगधारी जी’, कोई ‘जगाधरी जी’. मैं भी शुरू-शुरू में समझ नहीं पाया था कि यह कैसा नाम या जाति-नाम है. उनसे पूछने का सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि वे आसानी किसी से मिलते-घुलते न थे. झक सफेद सूती पैण्ट और कमीज़, आम तौर पर खादी के, और एक हाथ में कोई किताब, यह उनकी बहुत जानी–पहचानी छवि है. आकाशवाणी, लखनऊ के “उत्तरायण” एकांश में जिज्ञासु जी के साथ वाली मेज़-कुर्सी पर उन्हें बैठे देखा करता था. जब जिज्ञासु जी को कुमांऊनी-गढ़वाली के रचनाकार घेरे रहते तब भी वे या तो कुछ लिखते या किसी किताब में खोये रहते. पौने छह बजते-बजते वे स्टूडियो पहुंच जाते और “दद्दा वीर सिंह” बन कर “भुला शिवानंद” बने जिज्ञासु जी के साथ “उत्तरायण” की कम्पीयरिंग करते. पौने सात बजे स्टूडियो से निकल कर अकेले ही पैदल चल देते. वे कम बोलते थे और वह भी हरेक से नहीं. उनके हाथ की किताबें मेरी उत्सुकता का केंद्र रहतीं लेकिन हमारे बीच “नमस्ते’’ शुरू हो जाने के बावज़ूद वे काफी समय तक मेरे लिए रहस्यमय बने रहे.
फिर एक दिन सहसा रहस्य का पर्दा गिर गया. रघुवीर सहाय के सम्पादन में निकलने वाले ”दिनमान” सप्ताहिक का मैं नियमित पाठक था. उस रोज़ दिनमान के नए अंक में जीत जरधारी के नाम से एक टिप्पणी छपी थी- सम्भवत: डा दीवान सिंह भाकूनी को डा. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार मिलने पर. यह टिप्पणी देखकर दो बातें साफ हो गईं थीं. एक तो यह कि उनका सही नाम जीत जरधारी है और दूसरा यह कि वे खूब पढ़ने वाले ही नहीं, अच्छा लिखने वाले भी हैं. ‘दिनमान’ में छपना उन दिनों प्रतिष्ठा और स्तर का प्रमाण पत्र था. अगली मुलाकात में मैंने जरधारी जी से कहा कि मैंने ‘दिनमान’ में आपकी टिप्पणी पढ़ी है.
-“अच्छा, दिनमान पढ़ते हो?” उन्होंने खुश हो कर पूछा- “क्या करते हो?’ मैं तब इण्टर की पढ़ाई कर रहा था और यदा-कदा पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगा था. उस दिन से हमारी थोड़ी-थोड़ी बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ हालांकि एक दूरी वे हमेशा बनाये रखते थे. पत्र-पत्रिकाओं में छपे मेरे लेख पढ़कर कभी वे मेरी कमजोरियां बताने लगे थे. एक बार ‘उत्तर प्रदेश’ पत्रिका में माधौ सिंह भण्डारी पर छपे मेरे लेख पर उन्होंने बताया था कि लेख अच्छा है लेकिन गढ़वाली कविता ‘मलेथा की गूल’ का हिंदी अनुवाद और चुस्त होना चाहिए था.
अपने निजी संसार में झांकने का मौका वे अपने करीबियों को भी नहीं देते थे. आकाशवाणी, लखनऊ के ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम में 28 वर्ष तक सहकर्मी रहे ‘जिज्ञासु’ जी को भी उन्होंने कभी अपने निजी और पारिवारिक जीवन के बारे में कुछ नहीं बताया. आकाशवाणी में ही उनके सखा और मशहूर उद्घोषक यज्ञदेव पण्डित भी यही कहते हैं कि ‘जरधारी अपने परिवार और पुराने दिनों के बारे में कुछ बताता न था.’ 11 अगस्त 1932 को टिहरी जिले के ‘जड़धारी’ गांव में उनका जन्म हुआ था, यह जानकारी आकाशवाणी की फाइल में दर्ज होने के कारण पता चली. यह भी कि वे बी ए, एल एल बी पास थे. बाकी जानकारियां उनके बच्चों को भी मालूम नहीं हैं.
खानदान के हिसाब से उनका नाम जीत सिंह नेगी होना था लेकिन, जैसा कि उनकी बेटी रमा को पता है, उनकी माता जी ने जीत सिंह के आगे ‘नेगी’ की जगह गांव के नाम पर ‘जरधारी’ जोड़ दिया. उनकी सबसे बड़ी यह संतान काफी समय बाद और बड़ी मान्यताओं के उपरांत जन्मी थी. इसलिए ‘जरधारी’ एक टोटके की तरह था जो माता-पिता के लिए शुभ भी साबित हुआ. जीत के पीछे चार भाई जन्मे.
कतिपय दस्तावेजों और देहरादून के उनके परिचितों से बाद में टुकड़ों-टुकड़ों में पता चला कि 1940 के दशक में टिहरी राजशाही के खिलाफ चले प्रजामण्डल आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था. यह आंदोलन राजशाही, उसके द्वारा पोषित भद्र लोक और इनके द्वारा आम जन के शोषण, बेगार, आदि के खिलाफ था. इसी आंदोलन में गिरफ्तार श्रीदेव सुमन जेल में 84 दिन की ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद 25 जुलाई 1944 को शहीद हुए थे.
वह जरधारी जी की युवावस्था का दौर था. विद्यार्थी जीवन से ही वह प्रजामण्डल आंदोलन और उसके नेताओं के प्रभाव में थे. 15 अगस्त 1947 को टिहरी नरेश ने अपने महल पर तिरंगा तो फहराया
लेकिन प्रजा मण्डल आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी जारी रखी. टिहरी राज्य के भीतर किसी तरह का झंडा, बैज, साहित्य, आदि लाने पर रोक लगा दी गयी थी. आंदोलन ने तब और जोर पकड़ा. 18 अगस्त को प्रेम लाल वैद्य, रामचन्द्र उनियाल, बुद्धिसागर नौटियाल और नागेंद्र उनियाल के साथ गिरफ्तार होने वाले आंदोलनकारियों में जीत जरधारी भी थे.
बायें से दायें : जीत जरधारी, सत्य प्रसाद रतूड़ी और गोविन्द चातक
प्रसिद्ध साहित्यकार और आंदोलनकारी विद्यासागर नौटियाल ने प्रेमलाल वैद्य पर अपने संस्मरण में, जो उनकी पुस्तक ‘बागी टिहरी गाए जा’ में संकलित है, जरधारी जी की गिरफ्तारी का प्रसंग इस तरह दर्ज किया है- ‘’उस समय तक मेरे अलावा जो लोग गिरफ्तार करके थाने लाए गए थे, उनके नाम थे- शंकरदत्त डोभाल, नागेंद्र उनियाल, रामचंद्र उनियाल, प्रेमलाल वैद्य और बुद्धिसागर नौटियाल. कुछ देर बाद वे जीतसिंह जरधारी को भी ले आए. जरधारी अपनी ससुराल में, सजवाणों के घर पकड़े गए थे. हम सभी लोगों को हवालात की दो कोठरियों में बंद कर दिया गया, जिनमें पेशाब की बदबू के कारण सबकी हालत खराब होने लगी. दाहिनी तरफ वाली कोठरी के नंगे फर्श पर मैंने पेशाब के कुल पैंतीस दाग गिने थे. किसी भी तरह की दरी या कबल बिछाए बगैर हम उस गंदे फर्श पर बैठने की हिम्मत नहीं कर सकते थे. लिहाजा मन मारकर दोनों कोठरियों में बंद हम सभी लोग खड़े रह गए.
“तब कमरों की धुलाई-सफाई करने की बजाय उन्होंने एक कोठरी का ताला खोलकर जीतसिंह जरधारी को बाहर निकाला और बगल में बनी सीढ़ियों के रास्ते उसे ऊपर की मंजिल में ले गए. जरधारी को कुछ देर तक वहां खड़ा रखा गया. हमारी कोठरी में लौट आने पर जरधारी ने हमें यह बात बताई कि उदयगंज राणा उसे फुसलाने की कोशिश करने लगा था- ‘तुम राजपूत होकर प्रजामण्डलियों के साथ कैसे हो गए? तुम तो हमारे खास रिश्तेदार आदमी हो.’
“प्रजामण्डल आजादी के लिए लड़ने वालो का संगठन है. इसमें ब्राह्मण, राजपूत या डोम में कोई फर्क नहीं किया जाता..’
“तुम्हें समझना चाहिए कि आज जितने प्रजामण्डली बंद किए गए हैं उनमें तुम अकेले राजपूत हो. तुम्हारी ससुराल वाले उच्च जाति के सजवाण राजपूत हैं. अपना नहीं तो उनका तो ख्याल करो. प्रजामण्डल में तो ब्राह्मण ही ब्राह्मण भरे हैं.’
“पुलिस वाले जरधारी से एक कागज पर दस्तखत कराना चाहते थे. उस कागज पर दस्तखत कर लेने के बाद उसे रिहा कर दिए जाने का वादा किया जा रहा था. जरधारी को सही राह पर लाने के लिए उन्होंने उसे चाय भी पिलाई थी- ऐसा जरधारी ने हमें बताया. “
इसके बाद नौटियाल जी ने एक सितम्बर 1947 के ‘युगवाणी’ अखबार के एक समाचार को उद्धृत किया है- “अभी-अभी हमें सूचना मिली है कि टिहरी सरकार ने पिछले दिनों प्रजामण्डल के जिन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया था उनका जेल के अंदर ही एक न्याय-सा करके सबको छोड़ दिया गया है. लेकिन श्री विद्यासागर तथा श्री नागेंद्र उनियाल पर छ:-छ: सौ रुपया, श्री शंकरलाल, प्रेमलाल वैद्य तथा श्री रामचंद्र उनियाल पर पांच-पांच सौ रुपया और ठा. चतर सिंह पर ढाए सौ रुपया जुर्माना किया गया. ठा. जीत सिंह ऐसे ही छोड़ दिए गए. श्री परिपूर्णानन्द अब भी जेल में भूख हड़ताल पर हैं और उनकी दशा चिंताजनक है.”
इसी के आगे श्री नौटियाल ने लिखा है – “यह समाचार अधूरा था. जिन लोगों को जुर्माने के अलावा कैद की सजाएं दी गईं, उनका ब्योरा जल्दी-जल्दी में शायद उस वक्त नहीं आ सका. मेरे अलावा सभी लोगों को छ:-छ: महीने की कैद की सजाएं भी सुनाई गई थीं.”
जरधारी जी का वामपंथ की ओर झुकाव नाकेंद्र सकलानी और बाद में चंद्र सिंह गढ़वाली के प्रभाव में हुआ और वे आंदोलन में शामिल हुए. 1949 में टिहरी रियासत के भारत में विलय होने के बाद वे देहरादून की तरफ आ गये. मसूरी, देहरादून, हरिद्वार-ऋषिकेश में घोड़े वालों, होटल कर्मचारियों और रिक्शे वालों की यूनियन बनाने में वे शामिल रहे. लिखने-पढ़ने का शौक उन्हें पत्रकारिता की ओर ले गया. स्थानीय मुद्दों पर वे उत्तराखंड और बाहर के अखबारों में लिखते रहे. इस दौर के उनके जीवन के बारे में और जानकारी नहीं मिल पाई.
पत्रकारिता करने के लिए ही के लिए वे 1956-57 में शिमला गये थे, जहां उनकी संक्षिप्त मुलाकात जिज्ञासु जी से हुई थी जो तब खादी-ग्रामोद्योग समिति में टाइपिस्ट थे. जिज्ञासु जी बताते थे कि जरधारी जी ने कुछ समय वहां के साप्ताहिक ‘हिम तरंग’ में सम्पादन का काम किया. इस पत्र के जल्दी बंद हो जाने के बाद वे फिर देहरादून लौट गये थे.
पत्रकारिता की पृष्ठभूमि और अध्ययन-मनन के अलावा अपनी खनकदार आवाज के साथ स्पष्ट उच्चारण के कारण वे 1962 में आकाशवाणी से शुरू हुए “उत्तरायण” कार्यक्रम में गढ़वाली स्टाफ आर्टिस्ट के रूप में चुने गये. वहीं से अगस्त 1992 में रिटायर हुए.
रंगमंच में उनकी बहुत दिलचस्पी थी, खास कर बाल रंगमंच में, जिसके लिए वे बहुत कुछ करना चाहते थे. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लिखा बाल नाटक “लाख की नाक” का निर्देशन उन्होंने किया था. वे प्रसिद्ध नाट्य-निर्देशक राज बिसारिया के साथ “टॉ” (थियेटर आर्ट्स वर्कशॉप) से जुड़े. राज बिसारिया से उनकी अच्छी दोस्ती थी. ‘टॉ’ के बैनर में उन्होंने मारीशस के हिंदी लेखक अभिमन्यु अनत का लिखा नाटक ‘विरोध’ निर्देशित किया था. शशांक बहुगुणा ने जब नाट्य संस्था ‘लक्रीस’ बनायी तो जरधारी जी उससे सम्बद्ध हुए और उसके अध्यक्ष पद भी रहे.
प्रसिद्ध प्रयोगधर्मी नाट्य-निर्देशक विजय सोनी से जरधारी जी की दोस्ती थी. यह दोस्ती कैसे हुई, नहीं मालूम लेकिन जब विजय सोनी आईआईटी कानपुर आये तो जरधारी जी से मिलने लखनऊ चले आये. तब जरधारी जी ने विजय सोनी की मुलाकात शशांक बहुगुणा से करवाई. उन दिनों विजय सोनी निर्देशित मुक्तिबोध की मशहूर कविता ‘अंधेरे में’ का नाट्य-मंचन चर्चित था. शशांक ने सोनी को वह प्रदर्शन लखनऊ में कराने के लिए आमंत्रित किया. इसी प्रदर्शन के बाद शशांक बहुगुणा ने ‘मनोशारीरिक रंगमंच’ के कई प्रयोग किये, जिसमें नाटक के आलेख की भाषा अभिनेता/अभिनेत्री की शारीरिक भाषा में रूपांतरित होती जाती है.
विजय सोनी से दोस्ती का मतलब था कि जरधारी जी का रंगमंच और उसकी नयी प्रवृत्तियों से गहरा सरोकार था. ‘दिनमान’ और ‘सूचना विभाग की पत्रिका ‘उत्तर प्रदेश’ में उन्होंने अन्य विषयों के साथ कुछ अच्छे नाट्य-प्रदर्शनों की समीक्षाएं भी लिखीं.
1974 में “शिखर संगम” के लिए ललित मोहन थपलियाल के लिखे दो गढ़वाली नाटकों का निर्देशन उन्होंने किया था- “एकीकरण” और “खाडू लापता”. उस दौरान मैंने देखा था कि जरधारी जी सभी कलाकारों को पूरी आज़ादी और प्रयोग करने की स्वतंत्रता देते थे.
परिवार के मामले में वह बहुत उदार थे. ठेठ गढ़वाली घरैतिन को वे बदल नहीं सके लेकिन बच्चों को, खासकर चारों बेटियों को उन्होंने अच्छी शिक्षा ही नहीं, बहुत आज़ादी दी और चेतना सम्पन्न बनाया. रमा गवाह है, जो अब रमा अरुण त्रिवेदी के नाम से आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए महत्वपूर्ण काम करने के अलावा रंगमंच और सार्वजनिक जीवन में भी खूब सक्रिय है. जब ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवार अपनी लड़कियों के लिए रंगमंच को निषिद्ध क्षेत्र मानते थे, तब उन्होंने रमा को भारतेंदु नाट्य अकादमी से प्रशिक्षण लेने दिया. बाकी पुत्रियों ने भी मनमाफिक पढ़ाई, करिअर और पति चुने.
आकाशवाणी से रिटायर होने के बाद जरधारी जी का इरादा देहरादून वाले घर में जा बसने और खूब पढ़ने-लिखने का था. इसीलिए इतने वर्ष लखनऊ में नौकरी करने के बावज़ूद उन्होंने यहां अपना मकान बनाने की नहीं सोची और रिटायर होते ही अपना सामान और किताबों का संग्रह लेकर देहरादून चले गये. मगर नियति ने कुछ और ही रच रखा था.
एक दिन सहकारिता विभाग के सभागार में किसी कार्यक्रम में उनसे भेंट हुई. वहां डा एम सी पंत भी मौज़ूद थे, जो तब लखनऊ मेडिकल कॉलेज में रेडियोथेरेपी विभाग के प्रमुख थे. जरधारी जी ने डा पंत से कहा- मेरे गले में कुछ अटकता-सा है आजकल. दिखाना चाहता हूं.
डा पंत ने उन्हें अगले दिन मेडिकल कॉलेज आने को कहा. गले में अटकता-सा वह कुछ जांच में क्रूर कैंसर निकला. कुछ दिन लखनऊ पी जी आई में इलाज कराने के बाद वे बेटे के पास दिल्ली चले गए. एम्स में इलाज़ के दौरान ही उनका किस्सा खत्म हो गया. सब कुछ इतनी ज़ल्दी हुआ कि हमें उनके निधन की खबर कई दिन बाद मिल पायी थी. उनका निधन 16 मई 1995 को हुआ .
( तस्वीरें ‘पहाड़’ और शेखर पाठक के सौजन्य से )