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इप्टा की सांस्कृतिक यात्रा “ढाई आखर प्रेम ” : कुछ उपलब्धियाँ, कुछ सबक

विनीत तिवारी 


कोविड के सामाजिक दूरी बनाये रखने के दौर के ख़त्म हो जाने पर 4-5 दिसंबर 2021 को भारतीय जन नाट्य संघ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन यानि इप्टा) की राष्ट्रीय समिति की बैठक जालंधर में हुई थी। सत्यजित राय, अमृतराय और तेरा सिंह चन्न को याद करने के साथ ही उस मीटिंग में मौजूदा हालात की तुलना उस भीषण समय से भी की गई जब 1940 के दशक में बंगाल में अंग्रेज़ों की साम्राज्यवादी नीतियों के कारण बने अकाल की वजह से 50 लाख लोगों की जानें गईं थीं और उन्हीं परिस्थितियों के गर्भ से 1943 में भारतीय जन नाट्य संघ का गठन हुआ था। बेशक 2021 अकाल का साल नहीं था लेकिन जो दुर्गति लोगों ने कोविड के कारण झेली है वह अकाल जैसी भयावह न होते हुए भी अपनी तरह से अभूतपूर्व थी। एक समानता यह भी थी कि अगर प्रशासन और शासन जनपक्षीय हो तो बदहाली को कुछ हद तक काबू में किया जा सकता है लेकिन अगर व्यवस्था ऐसी है कि हर हाल में मुनाफ़ा ही कमाना लक्ष्य हो तो फिर महामारी भी उन्हें मुनाफ़ा कमाने का एक मौका भर लगती है।

इस लिहाज से पिछली सदी का 40 का दशक और हमारा मौजूदा पिछले दो-तीन वर्षों का समय ऐसा ही है जहाँ हमने इंसान की सबसे बेहतरीन इंसानियत की मिसालों को भी देखा, जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना भी दूसरों की मदद की और मदद का पैमाना जाति या धर्म की पहचान को नहीं बनाया, वहीं इंसान की सबसे स्वार्थी और प्रवृत्तियाँ भी देखीं जहाँ मरते हुओं के कफ़न तक को न छोड़ा गया । बंगाल के अकाल के वक़्त भी अमानुषिकता की दहला देने वाली कहानियाँ हैं तो ऐसी भी सच्ची कहानियाँ हैं जहाँ देश भर के लोगों ने बंगाल के अकाल पीड़ितों को भरपूर मदद पहुँचायी। और बंगाल के बाहर की दुनिया को बंगाल की बदहाली बताने का काम किया था इप्टा के गीतकारों, नाटककारों, कहानीकारों, चित्रकारों, कलाकारों ने।

वो दौर आज़ादी की लड़ाई का भी दौर था और विश्व युद्ध का भी। आज भी युद्ध जारी है रूस और यूक्रेन के बीच और हमारा देश आज़ादी की 75वीं सालगिरह भी मना रहा है। किसानों ने हाल ही में खेती के तीन काले कानून वापस लेने पर उस सरकार को मजबूर किया है जिसने पिछले 75 वर्षों में बनी सार्वजनिक क्षेत्र की हर अच्छी इकाई को बेचने का फैसला कर लिया है चाहे वो एलआईसी हो, बीएसएनएल हो, एयर इंडिया हो, रेलवे हो या देश की ज़मीन और देश के लोग हों। ज़ाहिर है कि लोगों के द्वारा चुनी हुई सरकारें भी लोगों के हित में काम नहीं कर रही हैं और सरकारें भी यह जानती हैं कि अगर लोगों को सोचने का वक़्त मिल गया तो लोग अपनी बदहाली के पीछे छिपी असली वजहें समझ जाएँगे और सरकार से अगले चुनाव में उनको हटा देंगे। इसीलिए ज़माने से आज तक जो अचूक नुस्ख़ा है वही सरकारें अपनाती हैं कि लोगों को आपस में लड़ाते रहो और उन्हें कभी इकट्ठा न होने दो।

आज़ादी के पहले यह स्पष्ट था कि हमारा दुश्मन अँग्रेज़ी साम्राज्यवाद है और हमें उससे मुक्ति पानी है। जब आज़ादी आ गयी तब विभाजन के ज़ख्म के बाद भी यह स्पष्ट था कि हमें किस रास्ते पर जाना है। देश के भीतर के जातिवाद से, पितृसत्तात्मकता और अन्धविश्वास से लड़ते जाना है और लोगों को ज़्यादा शिक्षित, ज़्यादा वैज्ञानिक सोच संपन्न, दूसरों के प्रति ज़्यादा संवेदनशील बनाना है। क्यों? क्योंकि जिन लोगों ने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया, जिन्होंने शहादत दी, या जिन्होंने नेतृत्व दिया, वे इसी व्यापक मानवीय विचार के लोग थे। वे किसी एक जाति, या एक धर्म या एक प्रान्त के लोगों को मात्र आज़ाद नहीं करवाना चाहते थे। यहाँ तक कि शुरूआती दो दशकों में तो भूमिहीनों को भूमि वितरण, नौजवानों को संगठित उद्योग में सम्मानजनक रोज़गार, महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान, कृषि उत्पादन बढ़ने और सार्वजानिक राशन, सार्वजानिक स्वास्थ्य और सार्वजानिक एकसमान शिक्षा प्रणालियों को हासिल करने की गंभीर कोशिशें भी की गईं लेकिन बाद में सत्ता पर पकड़ कायम रखने की संसदीय राजनीति में स्पर्धा अस्वस्थ होती गई। राजनीति में दबंगों का प्रवेश, सामंती राजे-रजवाड़ों का दख़ल, और डराकर या ललचाकर वोट हासिल करने की रीति ने आज़ादी के उच्चतर मूल्यों को नीचे और नीचे गिराना जारी रखा।

नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण की नीतियों के बाद ये प्रक्रिया न केवल तेज़ हुई, बल्कि इसे बाक़ायदा सामाजिक स्वीकृति भी मिलने लगी क्योंकि अब इसमें अंतरराष्ट्रीय लुटेरे भी जुड़ गए थे। धीरे-धीरे पैसे कमाना जीवन जीने की सार्थकता का पैमाना बनता गया। देशप्रेम का मतलब यह नहीं रह गया कि अपने देश के लोगों से प्यार करो, बल्कि यह होता गया कि जो जितना ज़्यादा ज़ोर से पाकिस्तान से नफ़रत करेगा, जो जितनी ज़्यादा ज़ोर से मुसलमानों से नफ़रत करेगा वो उतना बड़ा देशप्रेमी है, चाहे वह भ्रष्टाचारी हो, सामंती हो, अपराधी हो, सब चलेगा।

निश्चित रूप से यह भारत की सवा सौ करोड़ की आबादी के लिए सच नहीं है लेकिन फिर भी कम से कम उतनों के लिए सच है जिनकी संख्या से उनमें उन्माद और आत्मविश्वास आता है। बेशक बहुसंख्यक लोग ऐसे ही होंगे जो मानवीय गुणों से संपन्न होंगे, जो प्यासे को पानी और भूखे को खाना देने के पहले उसकी जाति या धर्म नहीं पूछते होंगे। लेकिन बहुसंख्य होने के बाद भी वो ख़ामोश रहते हैं। अपने सामने ग़लत होता देख दिल में उठ रहे ग़ुस्से को वे तब तक अंदर दबाये रखना चाहते हैं जब तक कोई दूसरा आवाज़ नहीं उठाये। इतिहास गवाह है कि जब भी ऐसी कोई आवाज़ उठायी जाती है तो शुरुआत में कुछ लोगों की आवाज़ों को शहीद कर दिया जाता है। हाल के दशकों में सफ़दर हाशमी से कृष्णा देसाई, नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे, एम एम कलबुर्गी, गौरी लंकेश से लेकर फादर स्टैन स्वामि तक यह सिलसिला चलता आ रहा है।

तो ऐसे में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का आज़ादी के 75वें वर्ष में लोगों के बीच आज़ादी के मूल्यों की याद दिलाने और चंद लोगों की नफ़रत फैलाने की कोशिशों के बरअक्स कबीर का ढाई आखर प्रेम का लोगों तक पहुँचाने का संकल्प लेकर पाँच राज्यों की यात्रा पर निकल पड़ना एक ज़रूरी साहस का कदम तो था ही, साथ ही 1943 की अपनी गौरवशाली विरासत का सही वारिस साबित करना भी था।

पहले चरण में 45 दिन की सांस्कृतिक यात्रा में छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में क़रीब 250 जगहों पर छोटे-बड़े कार्यक्रमों, जनगीतों, नुक्कड़ नाटकों, मंच के नाटकों और संवाद के ज़रिये प्यार का सन्देश लोगों तक पहुँचाया गया। राष्ट्रीय स्तर पर प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, जन नाट्य मंच जैसे समविचारी संगठनों ने यात्रा को अपना समर्थन दिया लेकिन हर जगह, जहाँ से यात्रा गुजरी, वहाँ पारम्परिक वामपंथी संगठनों जैसे श्रम संगठनों और वामपंथी राजनीतिक दलों के लोगों ने तो समर्थन किया ही लेकिन साथ ही अनेक किसान संगठनों, महिला संगठनों, पत्रकार संगठनों, कबीर गायन करने वाले समूहों, स्थानीय नाट्य समूहों, सामाजिक संस्थाओं आदि से भी जुड़ाव हुआ और उनके साथ भी एक संवाद कायम हुआ। आगे के दिनों में देश के बाक़ी राज्यों में भी यात्रा की योजना बनायी जा रही है।

इस यात्रा में दो बातें विशेष उल्लेखनीय हैं। एक तो यह कि यात्रा लोगों से संवाद का सिलसिला शुरू करती थी। मतलब यह नहीं था कि हमारे पास कोई दवा है जो हम दूर से लोगों को देने आये हैं। बल्कि समझ यह थी कि लोगों के पास ही समस्याओं का समाधान निकलेगा लेकिन उन्हें सामूहिक संवाद के लिए तैयार होना पड़ेगा। इस तरह का एक दृश्य पीथमपुर में उपस्थित हुआ जब एक कारखाने के मज़दूर ने बहुत सधे शब्दों में हालात का विश्लेषण किया और मज़दूरों की घुटन को भी स्वाभिमान के साथ अभिव्यक्त किया। दूसरी बात यह थी कि यात्रा पर सांप्रदायिक संगठन चाहकर भी इसलिए हमला नहीं कर सके क्योंकि लोगों के बीच यात्रा के मक़सद को लेकर स्वीकार्यता थी। और वो घोषित मक़सद प्यार का सन्देश पहुँचाने के साथ यह भी था कि जिस जगह से भी यात्रा गुजरेगी, वहाँ आज़ादी के संघर्ष में शहीद हुए लोगों की कहानियाँ और उनकी शहादत की जगह की मिट्टी इकट्ठी करती हुई आगे बढ़ेगी। इस क़दम ने यात्रा को हिन्दुओं और मुस्लिमों, दोनों के साथ जोड़े रखा। इससे अनेक गुमनाम शहीदों के बारे में पता चला जिसका अगर दस्तावेज़ तैयार हो तो वह एक मूल्यवान परिणाम होगा। इंदौर में भी यात्रा में शामिल लोगों ने शहीद सआदत ख़ान और शहीद बख्तावर सिंह के शाहदत स्थलों से मिट्टी एकत्र की।

यात्रा के उत्साह में नये जनगीत, नये नाटक भी तैयार हुए। हालाँकि जितने होने चाहिए थे, उतने नहीं हुए। इस पर आगे के चरणों में और ध्यान दिया जाना उचित होगा। यह भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है कि साम्प्रदायिकता और नफ़रत की राजनीति तो दरअसल एक पर्दा है जिसके पीछे आर्थिक वजहें छिपी हुईं हैं इसलिए कलाकारों को भी यह समझ होनी चाहिए कि अगर नफ़रत की राजनीति के पीछे एक अर्थव्यवस्था है तो प्रेम और सद्भाव भी एक अर्थव्यवस्था पर ही टिकते हैं। जब तक लोगों की ज़िंदगी से जुड़े आर्थिक प्रश्नों के समाधान का कोई रास्ता लोगों को नहीं सुझाया जाएगा तो सिर्फ़ प्यार का सन्देश उनके साथ बहुत देर तक टिक नहीं पाएगा।

यात्रा बेशक मुमकिन हुई लेकिन हर राज्य में यात्री बदलते गए। अगर पूरे देश में यात्रा के दौरान अलग-अलग राज्यों में कुछ प्रतिबद्ध और समझदार कलाकार मिलते हैं तो आगे चलकर इप्टा अपनी उस विरासत को भी नया जीवन दे सकती है जो सेंट्रल स्क्वाड के रूप में इप्टा का बड़ा कारनामा था। बीती सदी के चालीस के दशक में इप्टा के कलाकारों का केंद्रीय जत्था ही था जिसने बंगाल के अकाल की कहानी पर नाटक बनाकर पूरे देश में घूम-घूमकर लोगों को जागरूक किया था। इप्टा का इतिहास ही इतना समृद्ध है कि आज के सांस्कृतिक कार्यभार इतिहास में से ही प्रकट हो जाते हैं। इस सांस्कृतिक यात्रा ने काफ़ी उम्मीदें और ऊर्जा पैदा की है और ज़रूरी सबक भी दिए हैं। जब संसदीय राजनीति में पूँजी का वर्चस्व हो जाता है तो वामपंथ की राजनीति को कुछ समय के लिए आघात तो लगता ही है क्योंकि वामपंथ न वोट ख़रीद सकता है और न ही इतना ज़्यादा पैसा ख़र्च कर सकता है जो पूँजीवादी पार्टियों के उम्मीदवार करते हैं। ऐसे में जो सौंदर्यबोध और लोगों से जुड़ने का कौशल वामपंथ के सांस्कृतिक आंदोलन में शामिल लोगों के पास होता है, वह वामपंथ की स्वीकार्यता बनाये रखता है जिसके आधार पर भविष्य में आगे जाकर सही मौके पर राजनीतिक वामपंथ अपनी ज़मीन मज़बूत कर सकता है। जैसा कि 40 के दशक में भी हुआ था कि जब अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थियों के कारण असहयोग आंदोलन से दूरी बनाये रखने के कारण वामपंथी राजनीति की स्वीकार्यता में कमी आयी थी तब वामपंथ ने अपनी राजनीति को सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से लोगों के बीच पहुँचाना जारी रखा था।

जब पूँजीवाद के पास झूठ फैलाने के लिए तमाम टेलीविज़न चैनल, अखबार, सोशल मीडिया सेल आदि, आदि हैं, तब अपने गीतों, नाटकों के पारम्परिक कला-औजारों के साथ भौतिक रूप से यात्रा निकलकर लोगों से जुड़ने की कोशिश करना किसी को हास्यास्पद लग सकता है लेकिन यही कोशिशें हैं, जो लोगों को अपनी क्रांतिकारी भूमिका याद दिलाती हैं कि अगर लोग, जो असंगठित होने पर एक अमूर्त और निष्प्रभावी संज्ञा है, अगर संगठित हो जाएँ तो यही लोग दुनिया को बदल डालते हैं। इस मायने में इप्टा की इस यात्रा ने लोगों को अपने पर भरोसा दिलाने वाली एक ज़रूरी ज़िम्मेदारी निभायी है।

(लेखक प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव हैं और इप्टा की राष्ट्रीय कार्यसमिति में शामिल हैं।)

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