समकालीन जनमत
सिनेमा

पूँजीवादी समाज व्यवस्था की तीव्र आलोचना है सलाम बॉम्बे

(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर  टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है मशहूर निर्देशक मीरा नायर की सलाम बॉम्बे । समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की दसवीं क़िस्त । अभी हाल ही में बीते 12 जून को अंतरराष्ट्रीय बाल मजदूर दिवस के आलोक में इस फ़िल्म को देखना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है-सं)


बतौर निर्देशक मीरा नायर को सलाम बॉम्बे, मिसीसिपी मसाला, मानसून वेडिंग और नेमसेक जैसी श्रेष्ठ फिल्मों के निर्माण का श्रेय है। किंतु इस सूची में सलाम बॉम्बे (1988) का स्थान अनूठा है। यह कहना अनुचित न होगा  कि विषय और प्रस्तुति के लिहाज से  समूचे हिंदी फिल्म संसार में सलाम बॉम्बे की विशिष्ट जगह है। इस फ़िल्म को प्राप्त 23 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी फ़िल्म के महत्त्व को रेखांकित करते हैं।
फ़िल्म में मुंबई स्लम एरिया में रहने वाले बच्चों की जिंदगी को विषय बनाया गया है। मुख्य कहानी ग्यारह वर्षीय बच्चे कृष्णा की है किंतु इसमें सफलता के साथ कई कहानियों को गूँथा गया है। यह कहानियां मीरा नायर और उनकी मित्र सूनी तरपरेवाला ने मुंबई के स्ट्रीट चिल्ड्रन के बीच जाकर और रहकर इकट्ठा की हैं। इस तरह फ़िल्म का मूल कथा आधार वास्तविक है।
संवाद, पात्रों की भाषा, देह-भाषा, हाव-भाव, भेष-भूषा, रहन-सहन आदि में यथार्थ को उतारने के लिए फिल्मकार ने गलियों के बच्चों के साथ लंबे वर्कशॉप किये। उनको कैमरे के समक्ष सहजता से पेश आने के सिवा अभिनय सम्बंधी कोई शिक्षा या प्रशिक्षण नहीं दिया गया।
अपनी प्रस्तुति को  प्रामाणिक बनाने के लिए मीरा नायर ने सर्वाधिक बल दृश्यों के निर्माण पर दिया। समूची फ़िल्म में कोई भी दृश्य स्टूडियो या सेट पर नहीं फिल्माया गया है। बताया जाता है कि फ़िल्म में आया शव-यात्रा का दृश्य भी प्रामाणिकता के आग्रह में वास्तविक शव-यात्रा का लिया गया है।
फिल्मकार का कैमरा जिस तरह से स्लम की दुनिया को अविकल रूप से दर्शक के समक्ष लाता है, वह अद्भुत है। इस कलात्मक प्रभावशीलता के मूल में मीरा नायर का वृत्तचित्र निर्माण का अनुभव और उनकी प्रतिबद्ध संवेदनशीलता है। सलाम बॉम्बे उनकी पहली ही फ़िल्म है किंतु इससे पूर्व उन्होंने चार वृत्तचित्रों-जामा मस्जिद स्ट्रीट जनरल, सो फ़ॉर फ्रॉम इंडिया, इंडिया कैब्रेट और सेक्स ऑफ फ़्यूट्स का निर्माण किया था। इनमें उनका विरासत से लगाव तो दिखता ही है, वंचित तबकों के प्रति लगाव का भी पता चलता है। मानवीय मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 2013 में हाइफा इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में भाग लेने के लिए इजरायल जाने का निमंत्रण धार्मिक भेदभाव और फिलिस्तीन के मुद्दे पर अस्वीकार कर दिया।
मीरा नायर जैसी दृष्टिसम्पन्न और सक्षम फिल्मकार के लिए ही यह सम्भव था कि वे भारत के स्लम क्षेत्रों के अँधेरे में घुट रहे बच्चों की वास्तविक स्थितियों से देश और दुनिया को रूबरू कराती। आज भी हमारे देश में एक करोड़ से अधिक बच्चे इन बस्तियों में नारकीय यातना झेल रहे हैं।
फ़िल्म का मुख्य पात्र कृष्णा एक ग्यारह वर्षीय बाल मजदूर है। वह एक सर्कस में काम करता है।आरंभ के दृश्य में ही उसे पिंजड़े में बंद पशु से बोलते दिखाया गया। दर्शक का परिचय यहीं से उसके बाल मन से हो जाता है। सर्कस का मैनेजर उसे बाजार भेज देता है और जब वह बाजार से लौटता है तो सर्कस जा चुका होता है। कृष्णा को अपनी माँ को पाँच सौ रुपये वापस करने हैं।सो, वह घर नहीं रेलवे स्टेशन जाता है। टिकट खरीदने के बाद उसका यह पूछना कि यह कहाँ का है, मार्मिक है।
कृष्णा मुंबई की जिस बस्ती में पहुँचता है वह रेड लाइट एरिया है। एक चाय की दुकान पर वह नौकरी शुरू करता है। उद्देश्य पाँच सौ जमा करके अपने गाँव अपनी माँ के वापस जाना है।वह अपनी माँ को पैसे देकर चिट्ठी भी लिखवाता है। चिट्ठी लिखने वाले का बहुत छोटा सा रोल हाल में ही दिवंगत हुए प्रसिद्ध अभिनेता इऱफान खान ने किया है। यह उनकी पहली फ़िल्म थी।खैर, कृष्णा को बस अपने गांव का नाम याद है।बिना पते की उसकी चिट्ठी तो नहीं जाती पैसे जरूर चले जाते हैं।
कृष्णा, जिसका नया नाम चाय की दुकान पर काम करने की वजह से चायपाव पड़ गया है, असली मुसीबत में तब पड़ता जब उसका किशोर मन कोठे पे लाकर बेची गई नई लड़की सोलहसाल (चंदा शर्मा) पर आ जाता है। कोठे की मालकिन इस लड़की के कौमार्य को ऊँचे से ऊँचे दाम पर बिकवाने की जिम्मेदारी स्थानीय माफिया बाबा (नाना पाटेकर) को सौंप देती है।बाबा सोलह साल को अपने झांसे में ले लेता  है।बाबा ने एक वेश्या रेखा (अनिता कंवर) से विवाह कर रखा है और उससे विवाह के बाद भी धंधा करवाता है। रेखा की छोटी सी बेटी मंजू (हंसा विथाल)है। एक कमरे के घर में वह अक्सर बाबा द्वारा संसर्ग की इच्छा के चलते बाहर कर दी जाती है। इस तरह रेखा और उसकी बेटी मंजू एक यातनापूर्ण जीवन जी रहे हैं। मंजू के लिए चायपाव की दोस्ती अहम है। चायपाव का एक दोस्त चिलम (रघुवीर यादब) है जो बाबा के लिए ड्रग्स बेचने का धंधा करता है और खुद भी उसका आदी है। वह बाबा के साथ बेईमानी करता है। बाबा उसको काम से निकाल देता है। अंततः ड्रग की लत में उसकी मौत हो जाती है। चिलम ने चायपाव के इकट्ठा किये गये पैसे भी चुरा लिए थे। इन स्थितियों में चायपाव और मंजू एक रात काम से लौटते हुए पुलिस के द्वारा पकड़ कर बाल सुधार गृह भेज दिए जाते हैं। वहां के हालात रेड लाइट एरिया से भी बदतर है।चायपाव वहाँ से भाग निकलता है। परिस्थितियों के संयोग से वह रेखा को बचाने के चक्कर में बाबा को चाकू मार देता है। वहाँ से वह रेखा के साथ बचकर भागने की कोशिश करता है किंतु गणेश विसर्जन की भीड़ के चलते रेखा भी उससे बिछड़ जाती है। अंततः चायपाव पुनः अकेला हो जाता है।
फ़िल्म में सारी कथाओं और अंतर्कथाओं को इतनी खूबसूरती से आपस में गूँथा गया है कि कहीं कोई फांक नहीं नजर आती। कहानी की दूसरी खूबसूरती सभी चरित्रों के ट्रेजडिक अंत में। यह चरित्र जिस वातावरण में जी रहे हैं उसमें किसी का कोई सुंदर भविष्य नहीं हो सकता।बाबा, रेखा, मंजू, चायपाव और चिलम सबका जीवन और क़िरदार नकारात्मक स्थितियों ने गढ़ा है। और अंततः सभी को यह स्थितियां निगल लेती हैं।
सलाम बॉम्बे फ़िल्म के किरदारों के विचित्र नाम पर विशेष रूप से ध्यान जाता है। सबसे सांकेतिक है कृष्णा का चायपाव में रूपांतरण। कृष्णा नाम भारतीय सन्दर्भ में बाल्य जीवन की महत्तम मनोहरता को खुद में सँजोये है। उसका एक बाल मजदूर के रूप में घिसटना और अंततः एक अपराधी की परिणति तक पहुंचना हमारी सामाजिक व्यवस्था के सबसे स्याह पक्ष को उद्घाटित करता है। इस तरह कृष्णा का चायपाव होना गम्भीर प्रतीक है। ऐसे ही नाम चिलम, सोलहसाल आदि हैं। इन नामों से ऐसा प्रतीत होता है कि ये मनुष्यों को न व्यक्त करके रद्दी सामान को व्यक्त करते हों। 2007 में आई मधुर भंडारकर की फ़िल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ के किरदारों के नाम भी ऐसे ही हैं। दरअसल व्यक्तियों के नामों में गहरी राजनीति समाई होती है। इसे लिंग भेद और जाति भेद दोनों आधारों पर हमारी पूरी परंपरा में देखा जा सकता है। स्लम एरिया का जन्म औद्योगिक सभ्यता पर पूंजी के कुत्सित नियंत्रण का परिणाम है। इसमें वर्ग का आधार प्रधान है। इसमें धनहीन को कचरे का ढेर समझा जाता है। सलाम बॉम्बे फ़िल्म अपने अन्यार्थ में पूँजीवादी समाज व्यवस्था की तीव्र आलोचना है, उसके सबसे स्याह और बेरहम पहलू का समाज के समक्ष पुनर्प्रस्तुति है।

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