स्वास्थ्य-सेवाओं को ज्यादा जनसुलभ और बेहतर बनाने की मांग
रंगकर्मी और फिल्म अभिनेता इरफान, प्रसिद्ध रंगकर्मी उषा गांगुली, जनवादी कवि-गीतकार महेंद्र भटनागर और फिल्म अभिनेता ऋषि कपूर का निधन भारत की प्रगतिशील-यथार्थवादी और जनप्रिय सांस्कृतिक धारा के लिए अपूरणीय क्षति है।
महज आठ दिनों के अंदर इन चार कलाकारों का हम सबसे जुदा हो जाना बेहद त्रासद है। 23 अप्रैल को उषा गांगुली का निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ, 27 अप्रैल को महेंद्र भटनागर नहीं रहे, 29 अप्रैल को इरफान का निधन अंतःस्रावी ट्यूमर जुड़े कैंसर से हुआ और 30 अप्रैल को फिल्म अभिनेता ऋषि कपूर का भी ब्लड कैंसर से निधन हो गया।
शायद कोई और समय होता तो हमें इतने कम समय के भीतर ऐसे कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को खोना नहीं पड़ता। उषा गांगुली के एक भाई का निधन चंद रोज पहले ही हुआ था और इरफान ने भी महज तीन दिन पहले अपनी अम्मा को खोया था, अपनी बीमारी ओर कोरोना महामारी के चलते वे उन्हें अंतिम विदाई देने नहीं जा पाए थे। बेशक महेंद्र भटनागर की उम्र 94 साल थी और मृत्यु सबकी किसी न किसी दिन होनी है। लेकिन हम अपनी स्वास्थ्य-व्यवस्था को कोई छूट नहीं दे सकते।
इन बेमिसाल कलाकारों और कवियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि भारत में स्वास्थ्य संबंधी रिसर्च को बढ़ाया जाए, स्वास्थ्य सेवा को ज्यादा जनसुलभ और बेहतर बनाया जाए। निजी स्वास्थ्य-तंत्र पर अविलंब अंकुश लगाया जाए, ताकि मरना कठिन हो और जीना आसान हो जाए।
इरफान, उषा गांगुली, महेंद्र भटनागर और ऋषि कपूर चारों इस मायने में महत्वपूर्ण थे कि चारों जनपक्षधर थे, चारों सांप्रदायिक कट्टरता के विरोधी थे, चारों इस देश के सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने वाली शक्तियों के विरोधी थे। उनकी कला और उनकी रचनाओं में इसके अक्श देखे जा सकते हैं।
उषा गांगुली ने मृच्छकटिक, महाभोज, कोर्ट मार्शल, रुदाली, हिम्मत माई, चंडालिका, सरहद पर मंटो जैसे नाटकों में काम किया। उन्होंने ‘रंगकर्मी’ नामक जो नाट्य संस्था बनाई, उससे कई रंगकर्मी निकले, जो आज भी रंगमंच की दुनिया में सक्रिय हैं।
इरफान जैसे बेमिसाल अभिनेता को असमय खोना बेहद त्रासद है। पान सिंह तोमर, लाइफ ऑफ़ पई, द लंच बाॅक्स, पीकू, अंग्रेजी मीडियम, हिंदी मीडियम, करीब-करीब अकेले, सलाम बांबे, वारियर, पार्टीशन, लाइफ इन अ मेट्रो, द नेमसेक, मकबूल, हासिल, स्लमडाॅग मिलेनियर जैसे फिल्मों और ‘भारत एक खोज’ समेत कुछ महत्वपूर्ण टीवी धारावाहिकों में उन्होंने जितना प्रभावशाली अभिनय किया, उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ नाटक में उन्होंने लेनिन और ‘कहकशां’ धारावाहिक में इंकलाबी शायर मख्दूम की भूमिकाएं निभाई थी।
महान फिल्मकार राजकपूर के बेटे ऋषि कपूर ने उनकी मशहूर फिल्म ‘श्री चार सौ बीस’ से अपना फिल्मी कैरियर शुरू किया था। ‘मेरा नाम जोकर’ में भी उन्होंने जोकर के बचपन की यादगार भूमिका की। फिर राजकपूर ने उनके लिए ‘बाॅबी’ फिल्म बनाई, जो काफी लोकप्रिय हुई। उसके बाद बाॅलीवुड के पोपुलर सिनेमा में उन्होंने लगभग डेढ़ सौ फिल्मों में काम किया, जिनमें प्रेम रोग, लैला मजनू, कभी-कभी, बारूद, अमर अकबर एंथोनी, सरगम, कुली, दामिनी, एक चादर मैली सी, फना, हल्ला बोल, मुल्क आदि उल्लेखनीय हैं। भाजपा-संघ के सत्ता में आने के बाद खान-पान को लेकर जो नफरत और जिस तरह का अंधराष्ट्रवाद फैलाया जा रहा है, ऋषि कपूर ने उसके खिलाफ बड़े बेबाक बयान दिए थे।
महेंद्र भटनागर की बीस से अधिक काव्य-कृतियां प्रकाशित हुई थीं। कई कविताओं के फ्रेंच, अंग्रेजी, चेक और भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुए थे। उनकी अधिकांश रचनाएं- कविता, आलोचना और अन्य- ‘महेंद्र भटनागर समग्र’ के छह खंडों में संकलित हैं।
जन संस्कृति मंच कला-साहित्य जगत के इन चारों शख्सियतों के निधन पर गहरा शोक जाहिर करता है और उनके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि व्यक्त करता है।
( जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य एवं जन संस्कृति मंच, बिहार के राज्य सचिव सुधीर सुमन द्वारा जारी )