Sunday, October 1, 2023
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भारतीय चित्रकला और ‘कथा ‘ : 2

( एक लम्बे समय से भारतीय चित्रकला में जो कुछ हुआ वह ‘कथाओं’ के ‘चित्रण’ या इलस्ट्रेशन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था इसलिए यहाँ ‘सृजन’ से ज्यादा कौशल को महत्व दिया जाता रहा .  इसमें कोई  संदेह नहीं कि एक ओर जहाँ कला में ‘कौशल’ या ‘नैपुण्य’  का महत्व सामंतवादी व्यवस्था में बढ़ता है वहीं दूसरी ओर कला में ‘कथा’ के महत्व को सर्वोपरि बनाये रखना , धर्मसत्ता की एक बुनियादी जरूरत होती है. अब तक के ‘तस्वीरनामा’ में हर सप्ताह हम आप किसी चित्र-विशेष  के बारे में जानते आये है. इस सप्ताह से शुरू होने वाली ‘तस्वीरनामा ‘ की श्रृंखला में पाँच लेखों के जरिये अशोक भौमिक ‘भारतीय’ चित्र कला पर कुछ जरूरी सवाल उठा रहें है जिस पर हम, पाठकों से उनकी राय और एक सार्थक बहस की भी उम्मीद करेंगे. यहाँ भारतीय चित्र कला में ‘ कथा’ का  दूसरा लेख प्रस्तुत है. सं. )

विश्व में शायद ही भारत जैसा कोई दूसरा देश हो जहाँ हर दृश्य और अदृश्य के साथ कोई न कोई कथा जुड़ी न हो। मसलन, हर नदी की अपनी कहानी है, दूसरी नदी से उसका रिश्ता भी सर्वजन विदित है. यहाँ तक कि कौन नदी नर है और कौन मादा वह भी  पता है हमें. वेद (श्रीमद भागवतम) में लिखा हुआ है कि जम्बूद्वीप में कौन-कौन सी नदियाँ पवित्र हैं जिसके स्पर्श, स्नान और दर्शन से मनुष्य को पुण्य की प्राप्ति होती है. नदियों की उसी सूची में दो ‘ नर ‘ नदियों का जिक्र है जिसमे एक ब्रह्मपुत्र नद है (नदी नहीं !)

इसके अलावा गंगा जी, शिवजी के केशों से निकली हैं , वहीं यमुना जी ,  यमराज की बहन हैं- ऐसी कथाओं से कौन परिचित नहीं है. यहाँ सवाल है कि एक नदी को देखते समय क्या हम उसके सौंदर्य को देखते हैं ? या, कि अपनी आँखों से इन कथाओं को पढ़ते हैं .

इसी प्रकार किसी से पूछ लीजिये तो वह कारण सहित यह बताने में कभी गलती नहीं करेगा कि लाल गुड़हल का फूल काली माता को चढ़ता है तो धतूरा शिव जी को। ‘ कमल नयन ‘ से केवल सुन्दर आँखों का ही अर्थ नहीं निकलता बल्कि हम उस कथा को भी याद करते हैं कि जब देवी दुर्गा की आराधना में 108  कमल के फूलों में एक कमल के कम हो जाने पर रामचंद्र जी अपनी एक आँख दे देने को तैयार हो गए थे। ऐसी स्थिति में कहना न होगा कि कमल को कमल के पूरे सौंदर्य के साथ देखना शायद हमारे लिए संभव नहीं हो पाता.

चित्र 1

इसी प्रकार बरसात के बाद आकाश में निकलने धनुषाकार सतरंगी आकृति के रंगों को पहचानने के पहले हम वर्षा के देवता भगवान इंद्र के धनुष को याद करते हुए इसे ‘ इन्द्रधनुष ‘ के रूप में पहचानना सीखते हैं , कई प्रदेशों में इसे सीता के स्वयंवर सभा में राम द्वारा तोड़े गए धनुष की कथा से इसे जोड़ कर ‘रामधनु’ भी कहते हैं. यहाँ भी हम उसी सवाल को दोहरा सकते हैं कि हम इन्द्रधनुष देखते हुए इंद्र-देवता की कथा को पढ़ते है या रामधनु देकते हुए रामकथा को याद करते हैं ? पर क्या हम इन सन्दर्भों कथाओं से काट कर सात रंगों के इस नैसर्गिक छटा का आस्वाद ले पाते है ?  जहाँ इस विशेष प्राकृतिक उपस्थिति को इसके महज आकार के आधार पर रेनबो (rainbow) कहा जाता है, उस समाज में शायद लोग इन सात रंगों को, इनकी नायाब खूबसूरती के साथ ही देखते है , किसी कथा को वे नहीं याद करते ।

हमारे दृश्य जगत में इन सब उपस्थितियों के साथ जुड़ी इन कथाओं को कपोल-कल्पित कहने के उद्देश्य से यहाँ इनकी चर्चा नहीं हो रही है। इसकी चर्चा का एकमात्र उद्देश्य भारत में एक आम कला-दर्शक या कलाकार बनने के समस्याओं को समझना है। ऐसा क्यों होता है कि इस देश का अधिकांश कला दर्शक एक कला कृति से अनिवार्य रूप से उसके अर्थ की, उसकी व्याख्या की माँग करता है और माँग के पूरा न होने पर कला को ‘दुरूह’ करार देते हुए उससे मुँह मोड़ लेता है।

चित्र 2

इतना ही नहीं (आधुनिक) कला को ‘ व्याख्यातीत या ‘अर्थहीन’ पाकर चित्रकला को विद्यजनों के कला मानता है और उस पर चुटकुले गढ़ कर संतुष्ट हो लेता है।

यदि हम इस स्थिति पर गंभीरता से और अपने पूर्वग्रहों से बाहर आकर विचार करें तो हम पायेंगे कि इसका एक कारण हमारी ‘कथा-प्रियता’ है। हमारे परिवेश में हर रंग की अपनी व्याख्या है लाल-नीला-हरा-भगवा-कला-सफ़ेद सभी के अपने सांस्कृतिक सन्दर्भ है। हमें सन्दर्भ, अर्थ और व्याख्या ( जो दुर्भाग्य से अधिकांश ही न केवल अवैज्ञानिक है, धर्मान्धता और नियतिवाद पर टिके हुए हैं) इतना प्रिय है कि हम जो कुछ देखते है, सुनते हैं उसका एक पूर्वनिर्धारित ढाँचा हमारे पास मौजूद होता है जिसके अनुसार ही हम किसी वस्तु को देखते, ‘पढ़ते’ और ‘समझते’ हैं।

चित्र 3

चूँकि कलाकार द्वारा बनाई गयी और प्रदर्शित की गयी कलाकृति, हमारे उसी दृश्य जगत में ही एक और ‘वस्तु’ है, लिहाज़ा हम उस कृति से भी अर्थ और व्याख्या की माँग करते हैं।  इसी बिंदु पर हम पश्चिम के कलाकारों और कला दर्शकों से भिन्न हैं। इस बात को हम यहाँ एक आम उदाहरण से समझने की कोशिश करेंगे।

रात के आसमान में असंख्य तारों के बीच हमें सात अलग से चमकते तारे दिख जाते हैं (देखें चित्र 1) । बचपन से हम इन सात तारों को जानते हैं – यह ‘सप्तर्षि मंडल ‘ है। वेदों से पता चलता है कि ये सात अत्यंत विशिष्ट ऋषियों का झुण्ड है। यहीं नहीं इन सात तारों के साथ एक छोटा तारा जो दिखता है, वह सप्तर्षियों में अन्यतम वशिष्ठ ऋषि की पत्नी अरुंधति हैं। कई मंदिरों में हम इन ऋषियों की मूर्ति दिखाई देती है, जिसमें नवीं सदी में बनी बंगलुरु के पास नंदी पहाड़ पर स्थित भोगानदीश्वर मंदिर की एक मूर्ति है, (चित्र 2) जिसमें हम सात दाढ़ी-मूछों वाले वृद्ध ऋषियों को एक कतार में बैठे पाते हैं। ऋषियों के इस रूप से थोड़ा हट कर हम  एक दूसरे चित्र में (चित्र 3), सात ऋषियों को यौगिक साधना में लीन देख पाते है।

चित्र 4

जैसा कि हम जानते है कि हिन्दुओं में ब्राह्मणों के आरंभिक गोत्र इन्ही सात ऋषियों के नामों पर आधारित हैं इसलिए गीता प्रेस  गोरखपुर द्वारा प्रकाशित यह चित्र (चित्र 4) का एक विशेष महत्व है। इस चित्र में महाप्रलय के बाद के समय को दिखाया गया है, जब मत्स्य अवतार की सहायता से आदिमानव मनु इन सातों ऋषियों को सुरक्षित स्थान में ले जा रहे हैं ताकि सृष्टि पुनः संभव हो सके ।

इन सात ऋषियों की मूर्तियाँ हालाँकि अन्य कई मंदिरों में भी है , कई चित्रों में भी है पर जहाँ भी हैं वे अपने दाढ़ी-मूछों और जटाधारी रूप में है और तमाम कथाओं के साथ हैं , लिहाज़ा हम जब भी अंधेर आसमान में सात तारों की विशेष संरचना को देखते हैं (Ursa Major) तो हमें ये जटा धारी ऋषियों और उनसे जुडी कथाएं ही याद आती हैं। हममें से जो सप्तर्षि की इन कथाओं से अनजान है, शायद वे ही इन सात तारों की खूबसूरती को सही मायने में अनुभव कर सकते होंगे !

चित्र 5

जैसा कि हमने देखा की जिस समाज में दृश्य को ‘पढ़ना’ सिखाया जाता हो वहाँ कथाओं का ‘चित्रण’ ही हो सकता है, कला का सृजन नहीं। चित्रकार विन्सेंट वॉन गॉग (1853 -1890) आसमान पर अलग से दमकते सात तारों को महज तारों के रूप में देख कर उनकी सुंदरता से मुग्ध होने वाले कलाकार थे। उनका बनाया हुआ विश्वप्रसिद्ध चित्र ‘रोन नदी के ऊपर तारों भरी रात’ (Starry night over the river Rhone :1888) को देख कर हम सहज ही समझ सकते हैं कि  एक चित्रकार के लिए प्रकृति को ‘पढ़ना’ और उसे ‘देखने’ में क्या अंतर होता है।

एक समाज में , जहाँ एक कला दर्शक चित्र से व्याख्या या अर्थ के मांग न कर उसे ‘अनुभव’ करना जानता है , उस समाज में ही चित्रकार पूरी आज़ादी के साथ सृजन कर सकता है।

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