( इसी बीच निर्वासितों के दो जत्थे, 119 और 157 लोगों के, और भी आ चुके हैं, वैसे ही हालात में और उसी हवाई अड्डे पर। जबकि इसी दौरान भारत के प्रधानमंत्री ने अमेरिका की यात्रा की और वहाँ के राष्ट्रपति से मुलाकात की लेकिन इस मामले में चुप्पी साधे रखी। यह भारत की विदेश नीति का अमेरिका के आगे समर्पण जैसा है।: सं. )
इसी पाँच फरवरी को अमेरिका ने 104 अवैध प्रवासियों को निर्वासित करके भारत वापस भेज दिया है। इन प्रवासियों ने फर्जी एजेन्टों को देने के लिये बड़े कर्जे लिये, दुर्गम क्षेत्रों का सफर किया और अमेरिकी-मेक्सिकन सीमा पर पकड़ लिये गये और उन्हें जंजीरों में जकड़ कर वापस भारत भेज दिया गया। उनके इस ख़ौफनाक सफ़र और उन कारकों पर, जिसके चलते उन्हें अपना जीवन दाँव पर लगाना पड़ा, दिनांक 15 फरवरी 2025 को ‘द हिन्दू’ में अभिनय लक्ष्मण ने अपनी रिपोर्ट डाली है।
स्कूलों में जाड़े की छुट्टियाँ शुरू होने के लगभग एक हफ्ते पहले ओमी और परमजीत ने अपने सामान बाँधने शुरू कर दिये थे। अमेरिका जाने से पहले उन्हें अपने कई काम निपटाने थे। उनकी खेती की देखभाल का मसला था- तो ओमी के भाई राजेश कुमार ने उसका जिम्मा अपने ऊपर ले लिया था। हरियाणा के कुरुक्षेत्र में उनका एक घर था, उसे खाली करना था क्योंकि अब कोई भी वहाँ रहने नहीं जा रहा था।
राजेश बताते हैं, ‘‘हम दो परिवारों भर के लिये खेत पर्याप्त थे। बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे थे। पर ओमी और परमजीत को लग रहा था कि थोड़े पैसे और मिल जाते तो अच्छा ही होता। उनकी 20 साल की बड़ी बेटी छात्र-वीज़ा पर कैलीफोर्निया में ही पढ़ रही है। स्वाभाविक है कि एक और बच्चे का भी भविष्य वहीं बन जाता तो और अच्छा होता।’’
21 दिसम्बर 2024 को दो बड़े सूटकेसों और चार बैगपैक लेकर चार लोगों का यह परिवार दिल्ली के इंदिरागांधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ा। उनका पहला ठहराव पेरिस में और अन्तिम लक्ष्य अमेरिका के पश्चिमी किनारे पर स्थित कैलीफोर्निया था। इस सफ़र पर निकलने के लिये अपने परिवार के लोगों से ही ओमी और परमजीत ने रु 1.25 करोड़ उधार लिये थे।
किसी तरह से ओमी और परमजीत और उनके बच्चे 23 जनवरी 2025 को कैलीफोर्निया की धरती पर कदम रख सके, पर इमीग्रेशन के रास्ते नहीं बल्कि तिजुआना के पास मेक्सिको-अमेरिकी सीमा में बने हुये एक सूराख़ के ज़रिये। अगले कुछ ही घंटों में वे जंजीरों में बँध गये और कुछ ही दिनों में सेना के एक जहाज़ में बिठाकर उन्हें भारत वापस भेज दिया गया।
अमेरिका मे अवैध रूप से घुस रहे 19 महिलाओं और 13 अवयस्कों को शामिल करते हुये जिन 104 भारतीयों को वापस भेजा गया उनमें ये चारों भी थे। पंजाब के अमृतसर तक की वापसी-सफर में कुल 40 घंटे लगे। 5 फरवरी को यहाँ उतरने के बाद कई निर्वासितों ने ‘द हिन्दू’ से बातचीत में बताया कि पूरे सफर के दौरान उनकी कलाइयाँ और टखने जंजीरों में बँधे रहे। यहाँ तक कि बच्चों को भी नहीं बख्शा गया था।
अमृतसर में उतरने के 12 घंटे से अधिक बीत जाने के बाद 6 फरवरी की सुबह पुलिस के पहरे में यह परिवार कुरुक्षेत्र पहुँचा, लेकिन वे अपने घर नहीं गये। बजाय इसके राजेश ने उनके लिये अस्थायी रूप से कुरुक्षेत्र में ही एक घर किराये पर ले लिया था। ओमी और उनके बच्चे बुखार में तप रहे थे।
अमेरिका जाने के पहले ओमी के बच्चों ने अपने मिडिल स्कूल के करीबी दोस्तों को बताया था कि उनका परिवार हमेशा के लिये जा रहा है। उसके दोस्त एयरपोर्ट पर उन्हें विदा करने आये थे। राजेश कहते हैं, ‘‘मैंने कभी नहीं सोचा था कि बच्चों का दिल इस तरह टूट जायेगा। अब उसी स्कूल में वापस जाने के सवाल पर वे घबराये हुये हैं।’’
पर राजेश का हौसला टूटा नहीं है। वह कहते हैं, ‘‘एक सपना बिखर जरूर गया है पर यही अन्त नहीं है।’’
जोख़िम भरा सफ़र
अपनी मंज़िल, अमेरिका तक पहुँचने के लिये इस जोख़िम भरे ‘‘डंकी रूट’’ का सहारा लेनेवाले हजारों भारतीयो और पंजाब और हरियाणा के सैकड़ों लोगों में ओमी और परमजीत का परिवार भी है। वहाँ तक पहुँचने के लिये अक्सर लोगों को टूटी-फूटी नावों में नदियाँ पार करनी पड़ती हैं, पहाड़ों पर चढ़ना होता है और रेगिस्तानों और जंगलों में घिसटना पड़ता है। कई तो रास्ते में ही मर जाते हैं। अधिकांश के पास अपने एजेंट होते हैं जो उनका सम्पर्क ‘‘डंकरों’’ (मानव-तस्करों) से करवा देते हैं। यही डंकर राह के बीच में पड़नेवाले देशों से उन्हें निकाल कर अवैध तरीके से मंजिल तक पहुँचाने में मददगार साबित होते हैं।
अमेरिकी होमलैंड सेक्युरिटी विभाग के आकलन के अनुसार अमेरिका में ‘‘इन अवैध भारतीय प्रवासियों’’ की संख्या 1990 के बाद से लगातार बढ़ रही है। 2016 में यह सबसे अधिक 5.6 लाख थी जो 2022 में घटकर 2.2 लाख पर आ गयी। पर, अमेरिकी कस्टम्स एंड बाॅर्डर प्रोटेक्शन नेशनवाइड एन्काउन्टर्स के आंकड़ों के अनुसार 2023 में सीमा-गश्तीबलों द्वारा गिरफ्तार किये गये भारतीयों की संख्या, उसके पिछले साल के लगभग 18,000 से बढ़कर 43,000 हो गयी थी। 2024 में यह संख्या बहुत मामूली रूप से घटकर 40,000 रह गयी थी।
हाँलाकि अमेरिका में दशकों से सार्वजनिक बहसों में अवैध आप्रवासन का मसला राजनीतिक चिन्ता का विषय रहा है, पर आज यह और भी ज्यादा उभरकर सामने आ गया है। पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव-मुहिम में आप्रवासन पर डोनाल्ड ट्रम्प का सख़्त रुख़ मतदाताओं के मिजाज़ से मेल खा गया। 20 जनवरी 2025 को उन्होंने राष्ट्रपति पद की शपथ ली। इसी दौर में पहले जत्थे में निर्वासित किये जाने वाले भारतीयों में से अधिकांश ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने अमेरिका की दक्षिण-पश्चिमी सीमा पैदल ही पार की थी।
जब ओमी और उनका परिवार पेरिस में उतरा तो पता चला कि उनका एक सूटकेस गायब हो गया है। पर उन्हें तुरंत ही इटली के लिये निकलना था इसलिये अपना सूटकेस ढूँढने का समय ही नहीं मिल सका। उनके एजेन्ट ने उनसे वादा किया था कि वह उन्हें दूसरे 15-20 लोगों के साथ एक छोटे विमान से कोस्टा-रिका होते हुये अमेरिका पहुँचा देगा। राजेश बताते हैं कि, ‘‘वह विमान कोस्टा-रिका के बजाय अल-सल्वाडोर चला गया और वहाँ उनका दूसरा सूटकेस भी गायब हो गया।’’ साथ ही ओमी और उसके परिवार से कहा गया कि वे खुद से तिजुआना सीमा पर पहुँच जायें।
एक और निर्वासित हैं 18 साल के राॅबिन हाॅण्डा। राॅबिन बताते हैं कि उनके पिता ने, जो बिजली मिस्त्री हैं, उनके अम्बाला, हरियाणा में आई0टी0आई से कम्प्यूटर का कोर्स पूरा करने के बाद उन्हें अमेरिका भेजने के लिये 30 लाख का कर्ज़ लिया था। वह कहते हैं कि, ‘‘एक एजेन्ट ने मेरे पिताजी से वादा किया था कि वह वाया इंगलैंड मुझे अमेरिका भेज देगा। उन्होंने अपनी जमीन बेचकर बचाये हुये 15 लाख रुपये और 30 लाख रुपये का कर्ज़ लेकर उसी एजेन्ट को दे दिया था।’’
राॅबिन बताते हैं कि जब उन्हें लगा कि उन्हें अपने शहर में न तो काम मिल सकता है और न ही किसी शानदार जीवन की उम्मीद है तो उन्होंने यह ‘मँहगी’ यात्रा करने की सोची।
राॅबिन के एजेन्ट ने उनसे कहा था कि वह मुम्बई से 24 जुलाई 2024 को गुयाना के लिये फ्लाइट पकड़ें। वह कहते हैं कि, ‘‘उसके वादे के विपरीत मुझे ब्राजील ले जाया गया। पहले मुझे दूसरे 30 लोगों के साथ, जिनमें भारतीय, नेपाली और बांगलादेशी सभी थे, कुछ दूरी पैदल तय करनी पड़ी। इसके बाद हमलोगों ने छोटी-छोटी नावों में समुद्र और नदियाँ पार कीं। उसके बाद आमेजन के जंगल पार करके हमलोग पेरू, इक्वैडोर होते हुये आखिर में कोलम्बिया पहुँचे। वहाँ से मैं अमेरिका-मेक्सिको सीमा पर पहुँचा। वहीं 22 जनवरी को मेरी गिरफ्तारी हो गयी।
राॅबिन के एजेन्ट ने उनसे वादा किया था कि वह ‘डंकी रूट’ से उन्हें एक महीने में उनकी मंजिल तक पहुँचा देगा, पर यहाँ तो लगभग 6 महीने लग गये थे। इस पूरे दौर में कई दिन तो बिना समुचित भोजन के गुजारना पड़ा। वह बताते हैं कि, ‘‘जो कोई रास्ते में बीमार पड़ जाता था उसे उसके हाल पर वहीं छोड़ दिया जाता था।’’
पंजाब के सीमावर्ती जिले गुरदासपुर के रहनेवाले 36 वर्षीय जसपाल सिंह 22 जनवरी को तिजुआना सीमा पार करके, ओमी और उनके बच्चों के पहुँचने के एक दिन पहले, कैलीफोर्निया पहुँचे थे। पर उनका सफ़र शुरू हुये 2 साल से ज्यादा बीत चुका था। वह बताते हैं कि, ‘‘मेरे एजेन्ट ने मुझसे 40 लाख रुपये माँगे थे और मैंने उसका इन्तज़ाम भी कर दिया था। दिल्ली से लंदन मैं पर्यटक वीजा पर गया। वहाँ एजेन्ट ने मुझसे कहा कि मैं अमेरिका में घुसने के लिये जरूरी कागजात बन जाने तक उसका इंतजार करूँ। मैं इन्तजार करता रहा। मैं एक डोरमैटरी में रहकर दो साल तक निर्माण कार्य भी किया।’’
जसपाल बताते हैं कि, वह पैसे घर भी भेजने लगे थे। ‘‘आप जानते हैं कि यहाँ किसी मजदूर की रोजाना की मजदूरी कितनी है? सिर्फ़ 500 रुपये। आप जानते हैं कि वहाँ मुझे कितने पैसे मिलते थे? कम से कम 70 पाउंड (रु0 7,600) रोजाना।’’
इस बीच जसपाल यह जानने के लिये कि उनका काम कितना आगे बढ़ा, अपने एजेन्ट को प्रतिदिन फोन करते थे। वह बताते हैं कि, ‘‘मेरे पास भारी वाहन चलाने का लाइसेंस है। मैं केवल दसवीं तक पढ़ा हूँ। मैं सिर्फ अमेरिका जाकर ट्रक चलाने का काम करना चाहता था। एक बेहतर जीवन जीने की चाहत रखने में गलत क्या है?’’
दो साल लंदन में बिताने के बाद जसपाल बार्सिलोना चले गये, उन्हें लगता था कि उनका एजेन्ट वहीं रहता है। ‘‘मैं उससे फोन पर बात करता रहता था पर वह मुझसे मिलता नहीं था। कुछ दिनों के बाद उसने अन्ततः मुझे ब्राजील जानेवाले विमान पर यह कहकर बिठा दिया कि वहाँ के लोग मेरा कागजी काम करवा देंगे।’’
ब्राजील में दर-दर भटकने के बाद जसपाल से कहा गया कि उसे वहाँ से सड़क के रास्ते से मेक्सिको-अमेरिकी सीमा तक जाना होगा। वह बताते हैं कि, ‘‘वहाँ मेरे जैसे लगभग एक दर्जन लोग थे। हमलोग कई-कई दिन तक बस में, टैक्सी में और पैदल सफ़र करते रहे। पनामा में हमलोगों को बहुत पैदल चलना पड़ा।’’
कैलीफोर्निया पहुँचने के कुछ घंटों के अन्दर ही वर्दीधारियों ने जसपाल को गिरफ्तार कर लिया, उन्हें एक बस में लाद दिया गया और सैन डियेगो के एक कैम्प में भेज दिया गया। वह बताते हैं कि ,‘‘बदन के कपड़ों को छोड़कर हमारे पास जो कुछ भी था, उन्होंने ले लिये। दिन में हमलोग बिस्कुट, फल और चिप्स खाते थे। रात में हमें ब्रेड मिलती थी।’’
उस कैम्प में 10 दिन बिताने के बाद ओमी के परिवार, जसपाल और दूसरे भारतीय निर्वासितों को जंजीरों में बाँधकर हवाई अड्डे की ओर जानेवाली बस में डाल दिया गया। वहाँ उन्हें सेना के एक विमान में बिठा दिया गया। ओमी याद करके बताते हैं कि, ‘‘पूरी यात्रा में शायद दो बार ही उनकी हथकड़ियाँ खोली गयी थीं।’’
जसपाल बताते हैं कि यात्रा में उनके आसपास जो भी लोग थे सभी रो रहे थे। किसी को ठीक-ठीक पता नहीं था कि वे कहाँ जा रहे हैं। वह कहते हैं कि, ‘‘फ्लाइट में लगभग 6-7 घंटे बीत जाने पर मैंने सिक्योरिटी के लोगों से पूछा कि हमलोग जा कहाँ रहे हैं। उसने कहा ‘भारत’। मैंने पूछा भारत में कहाँ। उसने कहा, ‘मुझे नहीं पता।’’’
राॅबिन परेशान है। वह कहता है, ‘‘क्या यह सब मैंने सिर्फ इसीलिये किया था कि मुझे जानवरों की तरह बाँधकर वापस भेज दिया जाय?’’
ऐप और फोन का हाल
दुनिया भर में लोगों की माली और समाजी हालात में सुधार के लिये समर्पित वैश्विक नीति-निर्मात्री संस्था आर्गेनाइजे़शन फाॅर इकोनाॅमिक को-आपरेशन के अनुसार 2020 में अमेरिका में शरण माँगने वाले भारतीयों की संख्या जो लगभग 6,000 थी, 2023 में बढ़कर 51,000 तक पहुँच गयी है। जाॅन हाॅपकिन्स यूनिवर्सिटी स्कूल आफ एडवान्स्ड इंटरनेशनल स्टडीज़ के एक पेपर के आंकड़ों के अनुसार 2001 से 2022 के बीच भारतीय शरणार्थियों में से 66 प्रतिशत पंजाबी-भाषी रहे हैं। पिछले हफ्ते अमेरिका द्वारा निर्वासित 104 भारतीयों में से सबसे अधिक 33 गुजरात से, 29 पंजाब से और 33 हरियाणा से रहे हैं।
शपथग्रहण के अगले कुछ ही घंटों में ट्रम्प ने ‘कस्टम्स एंड बाॅर्डर प्रोटेक्शन वन’ मोबाइल एप को प्रतिबन्धित कर दिया, इसी एप के ज़रिये आप्रवासी अमेरिका में प्रवेश के आठ दक्षिण-पश्चिम द्वारों पर शरण के लिये आवेदन किया करते थे।
पर जो भारतीय ‘डंकी रूट’ से आते थे उनके लिये कभी भी यह एप डाउनलोड करना प्राथमिकता सूची में नहीं रहा। वे बताते हैं कि उनकी प्राथमिकता थी फैक्टरी सेटिंग के माध्यम से अपने फोन को री-सेट करना, अपना सिमकार्ड नष्ट कर देना और यदि सम्भव हो तो फोन को भी नष्ट कर देना। राजेश कहते हैं कि, ‘‘23 जनवरी को ज्यों ही ओमी के परिवार ने अमेरिका में कदम रखा, त्यों ही मेरा उनसे सम्पर्क कट गया।’’
जसपाल बताते हैं कि हमारे एजेन्ट ने हमसे साफ-साफ कह दिया था कि यह नहीं होना चाहिये कि कोई हमारे फोन से हमारी पहचान पकड़ ले।
सपने और सपने
जसपाल को याद आता है कि जैसे ही वे निर्वासित लोग अमृतसर हवाई अड्डे पर पहुँचे, सबसे पहले उन्हें ‘भरपेट’ खाना दिया गया। इमीग्रेशन पर उनसे कहा गया कि अपने एजेन्टों के बारे में वे जितना कुछ बता सकते थे उसे लिखकर दे दें। वह कहते हैं, ‘‘उनके फोन नम्बर याद रखना तो सम्भव नहीं था। और ऐसा भी नहीं था कि हममें से किसी के उन एजेन्टों से अच्छे सम्बन्ध रहे हों।’’
पुलिस ने इन एजेन्टों की पहचान करके उन्हें दण्डित करने के लिये गहन अभियान चला रखा है। अमृतसर में उतरनेवाले निर्वासितों को कथित रूप से धोखा देनेवाले एजेन्टों के खिलाफ़ पंजाब और हरियाणा की पुलिस ने प्राथमिकी भी दर्ज कर ली है।
जसपाल कहते हैं कि, ‘‘जब हमें वापस लाया जा रहा था तो, मुझे याद है कि, पंजाब पुलिस ने हमसे कहा था कि वे हमारी हर सम्भव सहायता करेंगे।’’
राजेश कहते हैं कि इस बात पर उन्हें कोई ताज्जुब नहीं है कि पंजाब पुलिस इन एजेन्टों की पहचान करके उनसे रुपये वापस कराना चाहती है। उनका कहना है कि, ‘‘मैं उन पुलिसवालों के बच्चों को जानता हूँ जिन्होंने अवैध मार्ग अपनाया था। वे भी जानना चाहते हैं कि वे एजेन्ट कौन हैं।’’
परन्तु चूँकि खुद हरियाणा और पंजाब की पुलिस गाँववालों को उन एजेन्टों को ढूँढने के लिये भेजती है इसलिये थोड़ी घबराहट भी है। हरियाणा के भैनी गाँव में एक निर्वासित, आदित्य कुमार के घर में एक युवा कुर्सी पर बैठे हुये एक सूटेड-बूटेड आदमी से दबी आवाज में कुछ बातें कर रहा है और वह कुछ नोट करता जा रहा है। आदित्य का भाई बताता है कि वह अभी तक वापस नहीं आया है। और आगे कहता है, ‘‘यहाँ पुलिस आ गयी है। अब आप जाइये। हम कोई और बखेड़ा नहीं चाहते।
जसपाल के साथ अबतक बहुत कुछ हो चुका है। वह कहता है, ‘‘मेरा सबकुछ लुट गया है। अब दुबारा कहीं जाने की तो मैं सोच भी नहीं सकता।’’
पर राजेश हथियार डालने को तैयार नहीं हैं। वह कहते हैं, ‘‘हम गाँव के लोग हैं। सिर्फ एक बार नाकामयाब होने पर हम रुकते नहीं। हमारे सपने अभी भी जिन्दा हैं।’’
राजेश कहते हैं कि वह सिर्फ अपने परिवार की नहीं बल्कि गाँव के अधिकतर लोगों की बात करते हैं। वह कहते हैं, ‘‘हमारे कोठार खाली नहीं हो गये हैं। गाँव में चाहे हमारे पास कोई भी काम न हो फिर भी हम जिन्दा रहंेगे, हमारे पास खाने को बहुत कुछ है। पर क्या यही काफी है? यहाँ हमारे पास कोई भी काम नहीं है पर सपने तो सपने होते हैं।’’
राजेश कहते हैं कि वे देख रहे हैं कि उनके पड़ोसी अपने बच्चों को विदेश भेजते हैं और फिर वे अपनी नयी कार की शान दिखाते हैं। स्कूल से घर वापस लौट रहे हँसते-खिलखिलाते कुछ बच्चों के झुंड की ओर इशारा करके वह चुनौती के अंदाज में पूछते हैं, ‘‘क्या आप जानना चाहेंगे कि इनमें से कितने बच्चे अमेरिका जाना चाहते हैं?’’
अपने 20 साल के बड़े बेटे को वह पहले ही कनाडा के ब्रैम्प्टन भेज चुके हैं जहाँ वह प्रबन्धन की पढ़ाई कर रहा है। उनका 16 साल का छोटा बेटा अपना सामान बाँधे तैयार खड़ा है कि कब उसके पिता उसे अनुमति दें और वह निकल पड़े। राजेश कहते हैं कि, ‘‘मेरे बेटे को तो भूल जाओ, मैं खुद अमेरिका जाने के लिये तैयार खड़ा हूँ, चाहे जितने साल लग जाँय।’’ उनकी उम्र 45 साल की हो चुकी है, सेना और अर्धसैनिक बलों में काम पाने के सारे मौके वह आजमा चुके हैं, खेती के साथ-साथ अपनी जीविका चलाने के लिये वह ट्रक भी चलाते हैं।
इस समय राजेश की प्राथमिकता है ओमी और परमजीत को वापस अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करना और यह सुनिश्चित करना कि उनके बच्चों के नाम दुबारा स्कूल में लिख लिये जाँय। उनमें से एक बच्चे को इस साल दसवीं बोर्ड की परीक्षा की तैयारी करनी है। ‘‘लेकिन अगर कल को कुछ पैसों का जुगाड़ हो जाय तो मैं अमेरिका चला जाऊँगा।’’ वह कहते हैं।
अनुवादः दिनेश अस्थाना
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