शुभम श्री हमारे साथ की ऐसी युवा कवि हैं जिनकी कविताओं में बाँकपन की छब है। एक ख़ास तंज़ भरी नज़र और भाषा को बरतने की अनूठी सलाहियत। आज पढ़िए उनकी एक कविता ‘हिंग्लिश‘।
हमारे संगी कवियों को यह सवाल बेहद परेशान करता है कि भाषा का क्या करें ? इतनी अर्थसंकुचित और परम्पराक्षीण शब्द सम्पदा वाली भाषा में कविता कैसे सम्भव हो ? यह सवाल हिंदी में लगभग हर दौर के कवि को तंग करता रहा है और हर दौर में इसके जवाब मुख़्तलिफ़ आये। मैथिलीशरण गुप्त से लेकर प्रसाद तक, निराला, महादेवी तक, नई कविता के कवियों और प्रगतिवादियों तक, सातवें, आठवें और नौवें दशक के कवियों तक व दलित तथा स्त्री विमर्श के ऊर्जस्वित रचनाकारों तक, सभी को इस भाषा के सवाल से जूझना पड़ा क्योंकि हमारी यह हिंदी कोई बहुत पुरानी भाषा नहीं है। इन रचनाकारों ने अलग–अलग तरह से हिंदी में कविता सम्भव की जिसपर टिप्पणी करना सुदीर्घ काम है। वह फिर कभी। पर अभी लब्बोलुआब यह कि कविता के लिए पुरानी भाषा बहुत काम की होती है, अगर वह कवि के पास नहीं है तो उसकी मेहनत दुगुनी हो जाती है।
कई तरीक़ों से कवि इस मुश्किल से पार पाते रहे हैं। कुछ संस्कृत की ओर गए, कुछ ने उर्दू का रास्ता लिया, कुछ ने आम ज़ुबान में अर्थ छवियाँ भरनी शुरू कीं, कुछ ने बोलियों के ख़ज़ाने तलाशे। शुभम उस लिहाज़ से रघुवीर सहाय के अन्दाज़ में ज़ुबान का अर्थ-विस्तार करती हैं। रोज़मर्रा की ज़ुबान को काव्य का वाहक बना देना मुश्किल काम है। निरे गद्य की भाषा में कविता करना कविता की ताक़त और कमज़ोरी दोनों बनता है। ताक़त यों कि गद्य आधुनिक है, संप्रेष्य है और कमज़ोरी यों कि वह अपेक्षाकृत कम अर्थ–गर्भित होता है, काव्य का पसारा और व्यापक इतिहास उससे ठीक से सम्भलता नहीं। यों कहिए तो रघुवीर सहाय जैसी कविता की भाषा चुनने का मतलब है काव्य परम्परा से बहुत कुछ का चुनिंदा छँटाव और संप्रेषण, विचार व आधुनिक के प्रति स्नेह। शुभम यह मुश्किल काम चुनती हैं।
भाषा पर लिखी रघुवीर सहाय की एक कविता उद्धृत करने का मोह नहीं छोड़ पा रहा हूँ, जिसका विषय शुभम की इस कविता के मेल में है :
“देखो शाम घर जाते बाप के कंधे पर
बच्चे की ऊब देखो
उसको तुम्हारी अंग्रेज़ी कह नहीं सकती
और मेरी हिंदी
कह नहीं पाएगी
अगले साल“
इस कविता में पराई भाषा अंग्रेजी की सीमाएँ बताते हुए रघुवीर सहाय हिंदी के प्रति एक भविष्यवाणी करते हैं, जिसकी अगली कड़ी के रूप में शुभम की कविता बताती है कि वह ‘अगले साल‘ आ गया है। शुभम की कविता बताती है कि अब हमारी हिंदी भी अक्षम है, और अंग्रेजी भी। लेकिन दिलचस्प ढंग से इस कविता में हिंदी भी कई बार सक्षम है और अंग्रेजी भी। असल सवाल भाषा में तेज़ी से आ रहे अंग्रेजी शब्दों का है। ऐसा कहा जाता है कि जब तक क्रियाएँ नहीं बदलतीं, भाषा को बदला हुआ न कहना चाहिए। मसलन “रॉबर्स ने फ्लैट का लॉक तोड़ा” अंग्रेजी शब्दों की बहुलता के बाद भी अपनी संरचना में हिंदी का वाक्य है क्योंकि ‘तोड़ा‘ क्रिया और वाक्य संरचना यहाँ हिंदी की ही है। हमारी कवि को आमफ़हम हिंदी शब्दों की जगह चलन में आए अंग्रेजी शब्द परेशान करते हैं मसलन ‘इस्तेमाल‘ की जगह ‘यूज‘। पर मामला सिर्फ़ इतना नहीं है। कवि को “मेरी आत्मा तुम्हारी आत्मा से प्रतिपल चुंबित होती रहे” वाली हिंदी भी अझेलनीय लगती है। यों कविता एक सीधे हिंदी के वाक्य के साथ ख़त्म हो जाती है और हमारी भाषायी मुश्किल हमारे सामने उधेड़ जाती है।
इन शब्दों के हमारी भाषा में बेधड़क घुसे चले आने के पीछे की सामाजिक–राजनीतिक सच्चाईयाँ बहुत साफ़ हैं। हमारा औपनिवेशिक अतीत और उदारीकृत वर्तमान, दोनों ही हमारी पीठ पर लदे पहाड़ हैं। इन्हीं पहाड़ों के नीचे हमारी ज़ुबानें पिस रही हैं। इतना सोचने के लिए तैयार करने वाली कविता से भला और क्या चाहिए!
हिंग्लिश
शुभम श्री
बहुत ‘वक़्त’ या ‘समय’ नहीं ‘टाइम’ से
थैंक्स और कांग्रैट्स ने
‘धन्यवाद’ या ‘बधाई’ को ऐसा बना दिया है
जैसे हैप्पी बर्थडे ने जन्मदिन को
आजकल ‘शुक्रिया’ बोल दो तो सामने वाला अचंभे से ताकने लगता है
रिक्शा और ऑटो भी दाएं बोलने पर बाएं मुड़ जाते हैं
कोई ‘दुखी क्यों हो’ कहता है तो आशा बंधती है
लेकिन वो कह देता है मेरी ‘वॉच’ किधर गई
अखबार लिखता है
“रॉबर्स ने फ्लैट का लॉक तोड़ा”
अखबार का संपादक लिखता है
“मेरी आत्मा तुम्हारी आत्मा से प्रतिपल चुंबित होती रहे”
उसको कोई नहीं लिखता ‘फ़क ऑफ’
जिन दिनों ‘मार्केट’ ‘बाज़ार’ हुआ करता था
लगता था लोग ‘भक’ बोल रहे हैं
‘फक’ ऐसे फैला जैसे भ्रष्टाचार
फिर भी ट्रक ड्राइवर मदरफकर नहीं बोल रहे हैं
उस दिन एक लड़का रास्ता बता रहा था
“यहाँ से सीधी सड़क जाती है, चौराहे से बाएं मुड़कर कुछ दूर जाइए
एक अस्पताल है उसके ठीक सामने पीले रंग का घर मिलेगा, दूसरी मंजिल पर जाइएगा”
मेरा मुँह खुला रह गया।