[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]आशीष मिश्र[/author_info] [/author]
(यह लेख आधुनिक हिंदी कविता के सौन्दर्यबोध पर एक सवाल उठाता है, जिस पर चर्चा और बहस अपेक्षित है. इसे यहाँ इसी मकसद से प्रकाशित किया जा रहा है)
कुछ चीजें स्वयंसिद्ध विचार की तरह समाज में प्रचलित होती हैं. हम उन्हें प्रश्नांकित नहीं करते. अव्वल तो इन पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता. सौंदर्यशास्त्र में यौन सारतत्त्ववाद और उसकी दो-ध्रुवीय समझ, इसी तरह का स्वयंसिद्ध विचार है।
यौन सारतत्त्ववादी समझ यह है कि यौनिकता एक प्राकृतिक शक्ति है जो सामाजिक जीवन से पहले मौज़ूद है और सामाजिक संस्थाओं का रूप तय करती है. यह शाश्वत और पार-ऐतिहासिक है. इस धारणा के चलते सामाजिक संस्थाओं और सांस्कृतिक रूपकों को विश्लेषित करने की जगह ही नहीं बचती.
इसी धारणा का विकास फ्रायड करता है . उसके अनुसार यौनिकता एक स्वाभाविक कामप्रवृत्ति (लिबिडो) है जो सामाजिक बंधनों से मुक्त होने के लिए फड़फड़ाती रहती है. और मुक्त न हो पाने पर तमाम तरह के ग्रंथियों का रूप ले लेती है.
पहली बार मिशेल फूको इस समझ की असंगति और इसमें निहित दमन के सूत्रों को उद्घाटित करते हैं. उनकी समझ है कि “यौनिकता पहले से मौजूद जैविक इकाइयाँ नहीं होतीं। उन्हें भी ऐतिहासिक सामाजिक व्यवहारों की प्रक्रिया में गढ़ा जाता है. ”
फूको का मतलब यह नहीं है कि इंसानी यौनिकता के लिए जैविक या शारीरिक क्षमताओं का होना आवश्यक नहीं है. इसका मतलब सिर्फ़ यह है कि यौनिकता को विशुद्ध जैविक या शारीरिक अर्थों में नहीं समझा जा सकता. कुछ भी न विशुद्ध प्राकृतिक है और न ही विशुद्ध सांस्कृतिक. यहाँ एरिक फ्राम की वह बात कौंध जाती है, जहाँ वे कहते हैं कि “मनुष्य जिस भी रूप में हमारे सामने है, उसे उसने खुद रचा है .”
बाद के चिंतकों ने सिद्ध किया कि यह जो स्त्री-शरीर दिख रही है, जिस रूप में दिख रही है, इसे यहाँ तक पहुंचाने में संस्कृति की भूमिका है. और उसे यहाँ तक पहुँचने में लगातार पीड़ा और हिंसा से गुज़रना पड़ा है. अर्थात ऐसी कोई देह खोजना मुश्किल है जो संस्कृति द्वारा दिए गए अर्थों से अछूती हो.
जब तक हम यौनिकता को एक जैविक परिघटना या व्यक्तिगत मनोरचना की तरह देखते रहेंगे तबतक इसके भीतर छिपी राजनीति को हम नहीं खोल पाएँगे. अगर हम इस बात को समझ लें कि यौनिकता भी उसी तरह एक मानवीय उत्पाद है, जिस तरह हमारे आहार-व्यवहार, जिस तरह श्रम की श्रेणियाँ आदि, तो हम तमाम स्वयंसिद्ध विचारों को विमर्श के लिए पटक पाएँगे.
आज स्त्री-पुरुष की देह जिस ध्रुवीय विपरीत पर दिखती है वह पार-ऐतिहासिक सत्य नहीं है. अर्थात स्त्री का नितम्ब, स्तनों की गोलाई, कमर, योनि आदि जो कुछ सौंदर्य के चिह्न हैं, उनके कामुक और सौंदर्यात्मक अर्थ एक लम्बी प्रक्रिया में निर्मित हुए हैं. यह सांस्कृतिक-सामाजिक निर्मितियों के दैहिक चिह्न हैं, साथ ही औरत देह पर हिंसा के चिह्न भी।
द्वित्यात्मक विपर्यय में कोड की गयी देह के अनुकरण से सौंदर्य-प्रतिमान निर्मित हुए हैं – यह जितना सही है उतना ही सही यह भी कि – सामाजिक तौर पर वर्चस्वशील सौंदर्य प्रतिमानों ने इन्हें निर्मित किया है. अर्थात मौजूद देह सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया की निर्मिति है. आज स्त्रियाँ और पुरुष सर्जरी करवाते हैं. इतनी पीड़ा झेलकर वे किस देह को, किस प्रतिमान को प्राप्त करना चाहते हैं.
सर्जरी करवाने वाली स्त्रियां जीवन भर दवाएँ खाती हैं और बहुतेरे मामलों में कैंसर का शिकार होती हैं ! फिर भी करवा रही हैं ! वह कौन-सा दर्पण है जहाँ वे खुद को देखती हैं, जो सिर्फ़ प्रतिछवि ही नहीं उपस्थित करता बल्कि उन्हें संपादित भी करता है। ये सौंदर्य- प्रतिमान कैसे बने ? चिह्नों, संकेतों, प्रतीकों और छवियों का यह अदृश्य दर्पण कैसे बना ?
यह अदृश्य दर्पण लैंगिकता की द्वित्यात्मक विपर्ययी छवि द्वारा रचा जाता है. इस तरह के हिंसक ध्रुवीकरण में कलाओं की क्या भूमिका है ? हिन्दी कविता ने इसमें कितना योग दिया है और इसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? यह एक जमीन है जहाँ से आज अपने सांस्कृतिक परिदृश्य को देखे जाने की ज़रूरत है.
यौन सारतत्त्ववाद लैंगिकता की ‘ दो-ध्रुवीय’ समझ का दैहिक तर्क है। दोनों एक-दूसरे को मज़बूत करते हैं. ‘ जेंडर बाइनरिज़्म ’ मर्द और औरत को विपर्ययी द्वित्त्व में बंटा हुआ मानता है. जैसे लोग दुनिया को खूबसूरत-बदसूरत, बेवकूफ़-बुद्धिमान, नाटे-लम्बे, दिन-रात, पाप-पुण्य, कोमल-कठोर में बाँटकर देखते हैं. यह धारणा दुनिया की दो श्रेणियाँ प्रस्तुत करती है और चाहती है कि पूरी दुनिया इसी में समा जाए. जो न समा सके बहिष्कृत कर दिया जाए. उन्हें बदला जाए और न बदला जा सके तो नष्ट कर दिया जाए.
जीवन इस दो खेमों में बाँटने वाली धारणा का मुकम्मल आधार मुहैया नहीं करवाता. समझने की बात यह है कि शब्द और अवधारणाएँ दो ध्रुवीय हो सकती हैं, जीवन नहीं होता. इस तरह का विभाजन एक अवधारणात्मक सुविधा मात्र है. परन्तु यह जीवन के हर क्षेत्र में एक स्थापित समझ है। इसके लिए तथ्य और तर्क की ज़रूरत नहीं है.
यह समझ सिर्फ़ ध्रुवीकरण ही नहीं करता दूसरे ध्रुव का गौणीकरण(सबर्डिनेशन) भी करता है. नाटा और लम्बा में दोनों विपरीत और समान नहीं हैं; नाटा हीन है. यह दो समानान्तर विपरीत नहीं रचता, एक पक्ष को कमतर या हीन भी बनाता है. स्त्री और पुरुष दो ध्रुव होने के साथ स्त्री ‘डिफ़ेक्टेड’ है, हीन है. जो जैविक रूप से पुरुष है, वह स्त्री से विपरीत गुणों वाला होता है. इस मान्यता से पुरुष= ताक़त/सक्रियता, स्त्री= दब्बूपन/निर्बलता के सामाजिक समीकरण को बल मिलता है. जिसे साधारणतः स्त्रीत्व समझा जाता है वह इसी ध्रुवीकरण की निर्मिति है. और जिसे मर्द समझा जाता है वह भी.
‘ जेंडर बाइनरिज़्म ’ दोनों ध्रुवों के बीच पड़ने वाली सारी चीज़ों को परिधि पर फेंक देता है. यह स्थापित करता है कि स्याह और सफ़ेद के बीच दूसरे रंग नहीं होते. यह यौनिकता को तमाम रंगों की एक पट्टी मानने के बजाय दो स्थायी रंगों में कील देता है. सौंदर्यबोध के स्तर पर यह समान्य व्यवहार का हिस्सा है और कवि समय की तरह प्रचलित है.
पूरा सौंदर्यशास्त्र इस दो-ध्रुवीय युग्म को मज़बूत करता है. यह स्त्री का यौनिकरण करता है. स्त्री को कामुक बिम्ब में बदलते हुए उसे योनि और जनन में सीमित कर देता है. इस तरह प्रत्येक कलाकार हरम सरा की भूमिका में होता है.
महलों में हरम सरा इस बात के लिए जिम्मेदार था कि वह रानियों को कामुक कैसे बनाए रख सके जिससे राजा उत्तेजना का आनन्द ले सकें. एक अचेत कलाकार भी यही भूमिका निभा रहा होता है. इसमें प्रगतिशील, गैर-प्रगतिशील से कोई अंतर नहीं आता. हिन्दी में किसी भी कवि से बीस उद्धरण दिए जा सकते हैं.
निराला की कविता जूही की कली को ध्यान से पढ़ें। पवन और कली के बीच का पूरा संबंध इसी ‘ जेंडर बाइनरिज्म ’ से निर्मित है. कविता में जुही की कली एक निष्क्रिय देह में बदल जाती है. ‘निर्दय’ और ‘निपट निठुराइ’ शब्द बहुत सकारात्मक अर्थ देने लगते हैं ! और पाठक इसका आनन्द लेता है। रामविलास शर्मा ने रागविराग में छठी कविता के रूप में जिस कविता को चुना है उसकी कुछ पंक्तियाँ देखें-
“ प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गयी चोली,
एक-वसन रह गयी मन्द हँस अधर-दशन अनबोली-
कली-सी काँटे की तोली. ”
यह पूरी कविता एक सघन यौनिक बिम्ब है. जहाँ पुरुष एक ‘स्क्रू’ की तरह है और स्त्री निष्क्रिय पटरे या फूल की तरह. इस तरह की कविताएं हिन्दी में भरी पड़ी हैं. यही सामान्य सौंदर्य-बोध है. और हमारी आलोचना अभी इतना संवेदनशील नहीं हुई है कि सपाट विश्लेषण को छोड़कर ‘एस्थिटिक्स’ के ज़रूरी बहसों से उलझे.
केदारनाथ अग्रवाल की एक चर्चित कविता ‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ से एक बन्द उद्धृत कर रहा हूँ-
“ एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा है।
पास ही मिल कर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नीले फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर
कह रही है, जो छूए यह,
दूँ हृदय का दान उसको ”
कविता में समान्यतः पाठक को कोई दिक़्क़त नज़र नहीं आएगी. क्योंकि पतली-दुबली लचीली और हृदय का दान देने वाली स्त्री ही हो सकती है. यह तो हमारी सामान्य समझ है ही, इसमें क्या दिक़्क़त है ! उसपर भी प्रगतिशील आंदोलन के महान कवि में कैसे ? शीश पर मुरैठा बांधे ठिगने गठीले चने और उसके पास ही दुबली-पतली अपना हृदय का दान करने के लिए उतावली खड़ी अलसी को देखें !
यह है लैंगिक ध्रुवीकरण. यह स्त्री और पुरुष का वही ध्रुवीकरण है जिससे स्त्री व यौनिकता के अन्य रूपों का दमन हुआ है.
बुद्धिनाथ मिश्र का गीत है – ‘एक बार और जाल फेंक रे मछेरे ’. कविता प्रकृति और लोक के कोमल बिम्बों से रची प्रेम में आशा का गीत है. लेकिन साथ ही अपने ‘एस्थिटिक्स’ में हिंसक और स्त्री विरोधी है. अगर हम ‘एस्थिटिक्स’ के इस कोण को नहीं समझते तो कविता सम्मोहित करेगी. लेकिन यह बात खुलते ही कविता का सम्मोहन नष्ट हो जाएगा.
सौंदर्यशास्त्र कोई निरपेक्ष चीज़ नहीं है. इसकी अपनी राजनीति है. जो चीज़ हमें सुन्दर लगती है उसके नीचे भी ताक़त और दमन के रेशे मौजूद होते हैं. कविता का विश्लेषण करना बिम्ब-प्रतीकों और लय पर बात करने के साथ सौंदर्य के इस राजनीति को उद्घाटित करना है. यह प्रेम में आशा का गीत है. आशा जीवन के अन्यान्य संदर्भों के लिए भी हो सकती है.
कविता की चार पंक्तियों को पहले देखें—पहली दो पंक्तियाँ और दो अन्तिम।
“ एक बार और जाल फेंक रे मछेरे !
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
……………………………
यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे,
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो ! ”
पढ़ते हुए मछेरे और सँपेरे को एक तरफ़ करें. मछली और नागिन को दूसरी तरफ़। मछेरा और सँपेरा जाल डालने वाले और फँसाने वाले हैं. मछेरे और सँपेरे का मछली और नागिन से जो शक्ति संबंध है, दोनों के बीच जो पदानुक्रम है, यही कविता के एस्थिटिक्स की राजनीति है. कविता पहले स्त्री में बन्धन की चाह ध्वनित करती है और अंततः अपने दमन का जिम्मेदार !
यह सौंदर्यबोध सार्वभौमिक है. स्त्रियों ने भी इस ध्रुवीकरण को स्वीकार कर लिया है, यह उनके सौंदर्य-बोध का हिस्सा है. उनकी चाहत का हिस्सा है, जिसे वे पाना चाहती हैं. इसके लिए आत्मदमन भी करती हैं. इसे इतनी आसानी से समझा नहीं जा सकता, कारण कि पूरा संस्कृति उद्योग इसे मज़बूत करने में लगा हुआ है.
उनके चारों तरफ की दुनिया इन्हीं चिह्नों से बनी है. वे उन्हीं चिह्नों में खुद को उत्पादित कर रही हैं. प्रवृत्ति को समझने के लिए एक कथित स्त्रीवादी संकलन से कविता देखिए.
“ कबतक तलाशते रहेंगे मुझमें
सिर्फ एक माँ, बहन प्रेमिका या पत्नी
इन सींखचों के बाहर भी
कोई है – जो
सदियों से अपने वजूद को
सहलाती आ रही है।
कभी इन सम्बन्धों से
बाहर भी तो रखकर देखो
तुम्हारी कुंठाओं की अर्गला
अपने आप खुल जाएगी
और फिर धरती सी मैं
तुम्हारे सूरज की तेज में
तप भी जाऊँगी
गल भी जाऊँगी
और अनंत काल तक करती रहूँगी तुम्हारी परिक्रमा-
सम्पूर्ण आकास को तुम्हारे
समा लूँगी
अपने गर्भ में ”
स्त्री-कविता को विश्लेषित करना कठिन लेकिन ज़रूरी है. कठिन इसलिए कि स्त्री है तो अनुभूत के नाते प्रामाणिक मानने का सहज आग्रह भी है. दूसरे पुंसवाद स्त्रीवादी नारों के नीचे छिपा होता है. ज़रूरी इसलिए है कि इस तरह की आरोपित निर्मिति उनके स्व का ही निषेध करती है. उपर्युक्त कविता नारों से शुरू होती है. नारा ज़्यादा खीचा नहीं जा सकता इसलिए प्रतीक जुटाने पर उतरती हैं. प्रतीक चुनती हैं – आसमान, धरती और सूर्य का. और उसी बाइनरी में उनका व्यवहार भी करती हैं. सबकुछ के बावजूद कविता अपनी संवेदनात्मक दिशा में स्त्री को आत्महीन बनाती है – ‘ हमार तेरहो भुलान हमैं पीछे लुकवावा . ’
अगर इस तरह की कविताओं का अंतर्पाठ करें तो आत्मा का इतिहास-भूगोल सामने आ जाएगा. और आपको पुंसवाद का तलछट मिलेगा. जो यहाँ सदियों से छनकर जमा होता रहा है. कई बार इसे अपना मौलिक आत्म भी समझा जाता है. इसलिए इसे खोल पाना और जोख़िम का काम है.
परन्तु यह देखना सुखद है कि आज स्त्रियाँ इन चीज़ों के प्रति धीरे-धीरे सजग हो रही हैं. वे भाषा में पुंसवादी सौंदर्यबोध को उलट रही हैं. वे दिन और सूर्य के सौंदर्यीकरण के बजाय रात और प्रकाश के विविध शेड्स को रचती हैं. वे हर जगह हर स्तर पर लैंगिक ध्रुवीकरण को तोड़ रही हैं. वे प्रकृति को नई भाषा की तरह रचती हैं. वे मिथकों को पुनर्व्यख्यायित करती हैं. वर्तमान में भाषा का सबसे नया और सर्जनात्मक उपयोग स्त्रियाँ ही कर रही हैं. वे पारंपरिक भाषा को बिना तोड़े अपने अनुभवों की कोडिंग ही नहीं कर सकतीं. अपने को रचने के लिए उन्हें एक नई भाषा और नये सौंदर्यशास्त्र की तलाश है.
(इस लेख के लेखक आशीष मिश्र दिल्ली विश्वविद्यालय में पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च फेलो हैं और समकालीन कविता आलोचना के क्षेत्र में उभरता हुआ नाम हैं. यह लेख पूर्व में ‘ इन्द्रप्रस्थ भारती ‘ में प्रकाशित हो चुका है )
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