पाश का जन्म 9 सितंबर 1950 को पंजाब के जालंधर जिले के गाँव तलवंडी सलेम में हुआ था। उनका पारिवारिक नाम अवतार सिंह था। उनके पिता सेना में थे और मेजर पद से रिटायर हुए। लेकिन एक मध्यवर्गीय किसान परिवार में जन्मे अवतार सिंह किशोर उम्र से ही सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की लड़ाई से जुड़ गये और महज 38 साल की उम्र में भारतीय शासकवर्ग द्वारा पैदा किए गये खालिस्तानी पृथकतावादियों की गोलियों से शहीद हुए।
अवतार सिंह ने पंद्रह साल की उम्र में अपनी पहली कविता लिखी और उसी समय उनका जुड़ाव कम्युनिस्ट आंदोलन से हुआ और दो साल बाद जब उनकी पहली कविता प्रकाशित हुई, उसी साल ऐतिहासिक नक्सलबाड़ी विद्रोह हुआ, जिसने राष्ट्र, लोकतंत्र और देशभक्ति को आम मेहनतकश जनता की नज़र से परिभाषित करने पर जोर दिया।
पाश एक बौद्धिक-सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता की तरह उस आंदोलन से जुड़ गये। उन्होंने राजनीति और साहित्य ही नहीं, बल्कि विज्ञान और दर्शन का भी जमकर अध्ययन किया। नक्सलवादी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं का उनके यहाँ जमावड़ा होने लगा। मात्र 19 साल की उम्र में उन्हें एक झूठे केस में फँसाकर जेल में डाला गया और भीषण यंत्रणाएं दी गईं। लेकिन उनके इंक़लाबी विचारों को कुचलने में शासकवर्ग विफल रहा। उस लोहे को नष्ट करने में उसे सफलता नहीं मिली, बल्कि लोहा फ़ौलाद में ढलता गया। कवितायें जेल से बाहर आती रहीं और 1970 में उनका पहला कविता संग्रह ‘लौहकथा’ प्रकाशित हुआ, जिसमें 36 कविताएं थीं, जिन्होंने हिन्दी की क्रान्तिकारी कविता को नई चमक और आवेग दे दी।
यह जनता का लोहा था, जिस लोहे में उसकी आकांक्षा, प्रतिरोध और उसके नैतिक मानवीय मूल्य बड़ी मजबूती से मुखरित थे- “मैंने लोहा खाया है/आप लोहे की बात करते हो/लोहा जब पिघलता है/तो भाप नहीं निकलती/जब कुठाली उठानेवालों के दिलों से/भाप निकलती है/तो लोहा पिघल जाता है/पिघले हुए लोहे को/किसी भी आकार में/ढाला जा सकता है।”
पाश ने ज़्यादातर कवितायें पंजाबी में ही लिखीं। जिस कविता को हिन्दी में उपलब्ध उनकी एकमात्र कविता बताया जाता है, उसकी पंक्तियाँ देखने लायक़ हैं- ‘‘वो मेरा वर्षों को झेलने का गौरव देखा तुमने?/ इस जर्जर शरीर में लिखी/लहू की शानदार इबारत पढ़ी तुमने?’’ और सचमुच हिन्दी ही नहीं, दूसरी भारतीय भाषाओं के पाठकों ने भी लहू की उस शानदार इबारत को पढ़ा और लहू के रिश्ते सा ही आत्मीय महसूस किया। जिस तरह भगतसिंह हमारे राष्ट्रनायक हैं, उसी तरह पाश मुझे अपने राष्ट्रकवि लगते हैं, जनता के वास्तविक राष्ट्र के स्वप्न को आकार देने वाले और उसे हक़ीक़त में बदलने के लिये चलने वाले संघर्षों के साथी कवि। अपनी चर्चित कविता ‘भारत’ में उन्होंने लिखा है-
‘‘भारत-
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।”
ज़ाहिर है उनके लिए ‘भारत’ ऐसा शब्द नहीं है, जिसकी रक्षा के नाम पर जनता के जनवादी अधिकारों और उसके लिए चलने वाले आंदोलनों को शासकवर्ग कुचलता है।
बकौल पाश-
” इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से
वक्त मापते हैं
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं….
उनके लिए जिंदगी एक पंरपरा है
और मौत के अर्थ हैं मुक्ति “
अवतार सिंह साहित्य की दुनिया में पाश के नाम से मशहूर हुए। पिछले चार दशक की भारतीय कविता की दुनिया में पाश एक ऐसा नाम है, जिसे किसी भी स्थिति में नज़रअंदाज़ करना सम्भव नहीं है। उनकी कवितायें क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रतिनिधि आवाज़ तो बनी ही हुई हैं, जिस तरह शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के नारे और कई कथन भारतीय जनता के रोज़मर्रा जीवन का हिस्सा बन गये, हर क़िस्म के परिवर्तनकामी शक्तियों ने जिस तरह इंक़लाब ज़िंदाबाद को अपना लिया, उसी तरह पाश की कविता की पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं। ‘हम लड़ेगे साथी’ और ‘सबसे ख़तरनाक’ जैसी कवितायें- ये दोनों कालजयी कवितायें हैं और हर क़िस्म की ग़ुलामी के ख़िलाफ़ आज़ाद ज़िंदगी के लिये हर स्तर से लड़ने के लिये और बदलाव के सपनों को न मरने देने के लिए प्रेरित करती हैं-
“जब बंदूक न हुई, तब तलवार होगी/जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी/लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी/और हम लड़ेंगे साथी…..”
आज़ादी के आंदोलन के नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए और भविष्य में देशी और विदेशी शासकवर्ग के बीच समझौते की आशंका जताते हुए भगतसिंह ने यही तो कहा था कि शोषण के विरुद्ध जनता की लड़ाई भिन्न-भिन्न रूपों में ज़ारी रहेगी।
पाश के आदर्श भगतसिंह थे और उन्होंने लिखा था कि लेनिन की पुस्तक के उस मुड़े हुए पन्ने से पंजाब की नौजवानी को वे आगे बढ़ाना चाहते हैं, जिसे छोड़कर भगतसिंह फाँसी पर चढ़े थे। आज पाश पंजाब ही नहीं, भारत के हर उस नौजवान के प्रिय कवि हैं, जो मौजूदा व्यवस्था से असंतुष्ट और आक्रोशित है और इसमें बदलाव चाहता है।
हमारे दौर में जिस तरह जीवन के संकट और असुरक्षा के बहाने हमारे भीतर यथास्थिति के तर्क घर करते जाते हैं, पाश की कविता ‘सबसे ख़तरनाक’ उसी से टकराती है- ‘मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती/पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती/गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती/….सबसे ख़तरनाक होता है/मुर्दा शांति से भर जाना/न होना तड़प का सब सहन कर जाना/घर से निकलना काम पर/और काम से लौटकर घर आना/सबसे ख़तरनाक होता है/हमारे सपनों का मर जाना।’
अकारण नहीं है कि हमें एक यंत्र या ग़ुलाम में तब्दील कर देने वाली राजनीतिक पार्टियों और शासकवर्ग को सपनों को इस तरह जगाए रखने की कोशिश ख़तरनाक लगती है, पाठ्यक्रम में पाश की कविता होना ख़तरनाक लगता है। एक दूसरी कविता में उन्होंने लिखा है- ‘हम अब ख़तरा हैं सिर्फ़ उनके लिये/जिन्हें दुनिया में बस ख़तरा ही ख़तरा है’। ‘युद्ध और शांति’, ‘प्रतिबद्धता’, ‘पुलिस के सिपाही से’, ‘जहाँ कविता ख़त्म होती है’, ‘बेदख़ली के लिए विनयपत्र’, ‘धर्मदीक्षा के लिए विनयपत्र’, ‘सलाम’, ‘घास’, ‘वफ़ा’, ‘सच’, ‘ज़िंदगी/मौत’ जैसी उनकी कई कवितायें हैं, जो बार-बार उद्धृत की जाती हैं।
वर्ग-संघर्ष को वह जनता की मुक्ति का रास्ता समझते हैं और यह कभी नहीं भूलते कि ‘’यहाँ हर जगह पर एक बार्डर है/जहाँ हमारे हक़ ख़त्म होते हैं/और प्रतिष्ठित लोगों के शुरू होते हैं।’’ और प्रतिष्ठित लोग यानी शासकवर्ग हमेशा उनके निशाने पर रहते हैं। इस लिहाज़ से अपेक्षाकृत कम उद्धृत की जाने वाली कविता ‘द्रोणाचार्य के नाम’ को भी देखा जा सकता है।
नक्सलबाड़ी आंदोलन की ख़ासियतों को रेखाँकित करते हुए प्रो. नामवर सिंह ने कहा था कि उसने साहित्य का रुख गाँवों की ओर मोड़ा, पाश की कविता और उनके रचनाकार-व्यक्तित्व दोनों पर यह बात लागू होती है। उन्होंने ‘सिआड़’, ‘हेम ज्योति’, ‘हाँक’ और ‘एंटी-47’ का सम्पादन करते हुए कई महत्वपूर्ण साहित्यिक-राजनीतिक लेख लिखे। 1971 में जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने अपने गाँव से ‘सिआड़’ पत्रिका निकाली। 1982-83 में उन्होंने गाँवों में हस्तलिखित पत्रिका ‘हाँक’ को लोगों के बीच वितरित करने काम भी किया। यह लोगों की वैचारिक-राजनीतिक चेतना को उन्नत बनाने की ही कोशिश थी।
पाश वामपंथ के पिछलग्गूपन को कतई पसंद नहीं करते थे। ‘हमारे समयों में’ नामक अपनी बहुचर्चित कविता में उन्होंने लिखा-
“यह शर्मनाक हादसा हमारे ही साथ होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं
मार्क्स का सिंह- जैसा सिर
दिल्ली की भूल-भुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारों, यह कुफ्र हमारे ही समयों में होना था।”
मगर इस कुफ्र के बावजूद न वह निराश हुए न उनकी कविता। वह एकाधिकारवादी राष्ट्रवाद और पृथकतावाद दोनों से लड़ते रहे और खालिस्तानी उग्रवादियों की गोलियों से भगतसिंह की शहादत के दिन ही शहीद हुए।
अगर उन्हीं की कविता पंक्तियों से उन्हें याद किया जाए, तो ‘प्रतिबद्ध’ कविता की ये पंक्तियाँ बिल्कुल वाजिब लगती हैं उनके लिये-
हम झूठमूठ का कुछ भी नहीं चाहते
और हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं
ज़िंदगी, समाजवाद या कुछ और…