लेख के शीर्षक से भ्रम सम्भव है कि यह किताब नागरिकता संबंधी कानूनों के बारे में है लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश की सरकार लम्बे समय से देश के नागरिकों के विरुद्ध एक अधोषित युद्ध छेड़े हुए है । भेदभाव भरे नागरिकता कानून और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ व्यवस्थित नफ़रत का वर्तमान अभियान उसी युद्ध की परिणति प्रतीत होते हैं । इस मामले में अर्थतंत्र की तरह ही सभी सरकारों के बीच आपसी सहमति रही है ।
2021 में भारत पुस्तक भंडार से प्रकाशित ‘बाइज़्ज़त बरी?: साज़िश के शिकार बेक़ुसूरों की दास्ताँ—‘ के लेखक मनीषा भल्ला और डाक्टर अलीमुल्लाह ख़ान हैं । किताब के शुरू में चार लोगों की टीपें भी शामिल की गयी हैं जिनमें मौलाना सैय्यद अरशद मदनी, मनोज झा और सैय्यद सादतुल्लाह हुसैनी के अतिरिक्त प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद भी शामिल हैं । ये टीपें न होतीं तो भी इस किताब का महत्व कम न होता । इसे किसी भी हिन्दुस्तानी को अवश्य पढ़ना चाहिए ।
किताब में उन नौजवानों की लोमहर्षक कहानियों को दर्ज किया गया है जिन्हें आतंकवादी होने के आरोप में गिरफ़्तार किया जाता है और सबूतों के अभाव में छोड़ दिया जाता है । दस या इससे अधिक सालों तक पुलिस इन्हें जेल में कैद रखने में कामयाब रहती है । रिहाई के बाद भी इनकी जिंदगी कभी पटरी पर वापस नहीं लौटने पाती । उनके जीवन को बरबाद करने की सजा किसी को नहीं मिलती । इनमें अधिकतर नौजवान कश्मीरी हैं । इन सच्ची कहानियों को पढ़ते हुए हमारे शासन तंत्र की पोल परत दर परत खुलती जाती है । इन बेगुनाह नौजवानों का शिकार करने में पुलिस के साथ अदालतें और जेल प्रशासन भी बराबर शरीक रहते हैं । लोक मानस में पुलिस और अदालत की जो तस्वीर दर्ज है उसकी शिनाख्त के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र की नये जमाने की मुकरी से पुलिस संबंधी मुकरी को देखना पर्याप्त होगा । थाना-कचहरी न जाने की आकांक्षा जनता के मन में अकारण नहीं बैठी हुई है । इन दोनों को एक करके समझना भी सच से बहुत दूर नहीं होता । जमानत देने के प्रसंग में लगभग सभी अदालतें पुलिस की बात मान लेती हैं । जेल भेजने की जगह पुलिस की हिरासत में रहने देने के अनुरोध को खारिज करते भी कम ही सुना जाता है । असल सजा से पहले ही कैदी को सजा इसी तरह दे दी जाती है । अकारण नहीं कि पुलिस व्यवस्था पर बार बार सवाल उठते रहे हैं । पुलिस के जवान भी हमारे समाज से ही आते हैं इसलिए उन पर सामाजिक मान्यताओं का असर होना कतई अस्वाभाविक नहीं है । कोढ़ में खाज कि उनको मिले विशेषाधिकार उन्हें इन मान्यताओं के अनुरूप आचरण के लिए सुरक्षा कवच प्रदान करते हैं । तभी हमारे देश में पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए और हाल में अमेरिका में इसके खात्मे की मांग उठी । स्थानीय सहयोग से शासन की यह व्यवस्था कभी जनसमुदाय में सुरक्षा का भरोसा नहीं जगा सकी । उलटे थाने के पास घर बनाने से परहेज किया जाता है । पुलिस के साथ लड़की भी मजबूरी में ही ब्याही जाती है । उनके कार्यस्थल के हालात और नौकरशाही ने उनके आचरण में क्रूरता को स्थायी बना दिया है ।
सभी जानते हैं कि पुलिस व्यवस्था प्रदेश सरकार के मातहत है इसलिए उम्मीद की जाती है कि जिस प्रदेश की जैसी सरकार होगी वहां की पुलिस के आचरण पर उसका असर होगा लेकिन पिछले एकाध दशक से भारत भर की पुलिस एक जैसा ही आचरण करने लगी है । इसका कारण पुलिस के बड़े अधिकारियों की चयन प्रक्रिया की केंद्रीय व्यवस्था में ही खोजना उचित नहीं होगा । समाज में पल रहे ढेर सारी ऐसी मान्यताओं में इसके स्रोत निहित हैं जिनको कुछ हद तक अफ़वाह ही समझना होगा । जिस तरह अमेरिका में नस्ली भेदभाव की राजकीय व्यवस्था का बड़ा स्रोत वहां की पुलिस का आचरण है उसी तरह हमारे देश में भी अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के साथ व्यवस्था द्वारा हिंसक भेदभाव की संगठित अभिव्यक्ति उनके साथ पुलिसिया व्यवहार से झलकती है । इस मामले में समूचे भारत की पुलिस का आचरण बेहद समान है । समता का दर्शन अब इस किस्म के अत्याचार में ही सम्भव रह गया है!
किताब से यह भी स्पष्ट होता है कि इस अत्याचार का एक साम्प्रदायिक पक्ष है । फिर से अमेरिका का ही उदाहरण लें तो जब भी उसने बाहरी मुल्कों में हस्तक्षेप किया तो उसके साथ ही घरेलू आबादी के साथ भी नस्ली भेदभाव बढ़ा । अपने देश के मामले में भी यही नजर आता है । पाकिस्तान के विरोध का साम्प्रदायिक पहलू किसी भी व्यक्ति को दिखायी देता है । इस विरोध को घरेलू मोर्चे पर बड़ी आसानी से उग्र मुस्लिम विरोध में बदल दिया जाता है । याद दिलाने की जरूरत न होगी कि पाकिस्तान विरोध का यह संयोजक अलग अलग पार्टियों के शासन को एक साथ खड़ा कर देता है । इस शासकीय मुहिम का शिकार क्रिकेट जैसा अवैध धन पैदा करने वाला खेल भी अक्सर हो जाता है । अल्पसंख्यक विरोध के इस खास पहलू से कश्मीर का मजबूत रिश्ता है । कश्मीर के साथ केंद्रीय सत्ता के व्यवहार में शासक पार्टियों के आपसी मतभेद के बावजूद बहुत लम्बे समय से गहरी समानता रही है । अचरज की बात नहीं कि जिन नौजवानों की दर्दनाक कहानियों को इस किताब में दर्ज किया गया है उनमें बहुतायत कश्मीरी नौजवानों की ही है । बहुत सारे संकटों से निजात पाने का पसंदीदा बहाना कश्मीर अरसे से बना हुआ है और इस मामले में भी मुख्य धारा की राजनीति में लगभग सर्वसहमति है ।
यदि आप इस भ्रम में हों कि शेष भारत की तरह कश्मीर का मध्यवर्ग इस मारक भेदभाव से बच जाता होगा तो इस बात की कोई गुंजाइश इन कहानियों को पढ़ने के बाद नहीं रह जाती । कश्मीरी होने के साथ अगर आप मुसलमान हैं तो पक्की गारंटी है कि बिना किसी गलती के भी बम विस्फोट की किसी घटना में आपका हाथ खोज लिया जायेगा ।
फिलहाल देश में कश्मीर का विस्तार हुआ है । पहले केवल कश्मीर के लोगों को नेटबंदी की व्यथा झेलनी पड़ती थी और इस चक्कर में विभिन्न परीक्षाओं और रिक्तियों की खबर वहां के लोगों को नहीं मिल पाती थी । नेटबंदी के अलावे भी अफ़जल गुरू की फांसी के प्रसंग में सारी दुनिया ने जाना कि कश्मीर में पोस्ट आफ़िस से सूचना भेजी जाती है जो कभी पहुंचती नहीं । हाल के दिनों में देश के अलग अलग हिस्सों को नेटबंदी का अनुभव हुआ । एकाध बार तो देश की राजधानी में भी इसे आजमाया गया । राजधानी की सीमा को घेरे किसानों के लिए भी शासकों ने यह तरीका एकाध बार आजमाया । प्रदेश के अधिकारों के साथ छेड़चाड़ भी कश्मीर तक ही सीमित नहीं रही । केंद्र सरकार ने दिल्ली प्रांत के मामले में भी इसी तरह का काम किया । इन सभी घटनाओं की तरह ही आतंकवाद के साथ रिश्ता जोड़ने के मामले में कश्मीरी के अतिरिक्त देश के अन्य हिस्सों के भी मुसलमान आसान चारा बनाये गये । पूरी दुनिया में जारी इस्लाम विरोध के वातावरण से भी इस मुहिम को लाभ मिला । अकारण नहीं कि इजरायल से लेकर अमेरिका तक के इस्लाम विरोध की खाद पर पनपे नेतागण हमारे देश के शासकों पर मेहरबान रहे । इन मामले में अपने नागरिकों की जासूसी भी ऐसी साझा चीज है जो अमेरिका और इजरायल के साथ हमारे देश को जोड़ देती है ।
किताब में वर्णित अधिकतर मामलों का वर्तमान सरकार से बहुत कम संबंध है । लगभग सभी मामले संप्रग सरकार के समय के हैं । मनमोहन सिंह की सरकार ने देश में दक्षिणपंथ के उभार का अनुमान करके जिस तरह अफ़जल गुरू की फांसी से लेकर बाटला हाउस तक की गलतियों का तांता लगाया उसी विषवृक्ष के फल वर्तमान सरकार को पुष्ट कर रहे हैं । इस सिलसिले में यह भी याद दिलाने की जरूरत न होगी कि हाल फिलहाल ही नहीं आधुनिक भारत के इतिहास के प्रत्येक नाजुक मोड़ पर शासक समुदाय में जो सर्वानुमति बनती रही है उसका अनिवार्य घटक दमनकारी कानून, पुलिस राज, दक्षिणपंथी आर्थिकी के साथ बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता भी रही है । किताब की कहानियों से इस सच की पुष्टि मजबूत तरीके से हो जाती है । इस अंधेरे समय में दमन के पैटर्न को सोदाहरण खोल देने के लिए लेखक निश्चय ही बधाई के पात्र हैं ।
दिल हिला देने वाली इन दास्तानों से सबित होता है कि सर्वानुमति केवल पुलिस बल तक सीमित नहीं रह गयी है, बल्कि उसका निर्लज्ज प्रसार न्यायपालिका तक भी हुआ है । बिना किसी ठोस सबूत के जेल की सलाखों के पीछे जिंदगी के दशाधिक साल गुजार देने वाले बेगुनाहों के नुकसान की भरपाई की बात तक नहीं होती । उनको गलत तरीके से फंसाने वाले तंत्र पर काबिज लोगों को अपने अपराधों की सजा का कोई खौफ़ नहीं रह गया है । इसीलिए शारीरिक से लेकर मानसिक और यौन यंत्रणा तक देना वे अपना विशेषाधिकार समझते हैं । इस मामले में अबू गरीब में दी गयी यंत्रणाओं को बहुतेरे प्रसंगों में दुहराया गया है । दुनिया के सबसे विकसित देश का अनुकरण हम कैसे न करें! दुर्भाग्य की सबसे बड़ी कहानियां जेलों से दर्ज की गयी हैं । जेल में बंद होने के बाद भी इन कैदियों को इस विषैले साम्प्रदायिक भेदभाव से मुक्ति नहीं मिलती, बल्कि कैदियों के हाथों भी इन्हें उत्पीड़न बर्दाश्त करना पड़ता है । इस तरह किताब जेल और जेल से बाहर के वातावरण की आपसदारी को खोलकर हमारी चेतना को झकझोरने का प्रयास करती है।
कानून, अदालत और समूचे तंत्र की इस सम्मिलित कोशिश के बावजूद अगर कुछ आरोपी बरी हो जाते हैं तो इसे शुद्ध भाग्य ही कहना होगा । सामुदायिक यातना का यह जहर केवल मुसलमानों को या कश्मीर के लोगों को ही नहीं पीना पड़ता बल्कि देश की आधी आबादी और दलित समुदाय तथा पूर्वोत्तर तक भी इस व्यवस्था का शिकंजा पहुंचता है । सही है कि इनकी यातना समान नहीं लेकिन पैटर्न लगभग समान है । मृत्युदंड के मामलों की सामाजिक विशेषता का अध्ययन करने से पता चलता है कि इनमें बहुलता आर्थिक रूप से वंचितों की ही नहीं, बल्कि एकदम ठोस रूप से धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों और सामाजिक रूप से पिछड़े तबकों की है ।