समकालीन जनमत
कविता

मुमताज़ सत्ता की चालाकियों को अपनी शायरी में बड़े सलीके से बेनक़ाब करते हैं

संविधान के पन्नों में तंबाकू विल्स की भर-भर के
संसद की वो चढ़ें अटरिया, जै जै सीता-जै जै राम

ये एक ऐसे शायर का शे’र है जिसने राजनीतिक मुद्दों के साथ रदीफ़-काफ़िया को ग़ज़ल में बेहद सलीके से बाँधा है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आम आदमी के द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे मुहावरों और अल्फ़ाज़ के साथ ग़ज़ल में बेश्तर तजुर्बे किए हैं। मेरी मुराद भिलाई, छत्तीसगढ़ के रहने वाले शायर मुमताज़ से है। शायर अपने समय के विसंगतियों, विद्रूपताओं की शिनाख़्त करता है और अपनी शायरी में ढालता है। मुमताज़ ने अपने समय की विसंगतियों पकड़ा है और सत्ता की चालाकियों को अपनी शायरी में बड़े सलीके से बेनक़ाब किया है।

आज जब तथाकथित राष्ट्रवादी देश की संपत्तियों को निजी हाथों में बेच रहे हैं। जो इसका विरोध कर रहा है उसको देशद्रोही कह रहे हैं। वो देश का खज़ाना लुटाकर भी राष्ट्रवादी बने फिर रहे हैं और जो देश के शुभचिंतक हैं वो देशद्रोही बताए जा रहे हैं। एनआरसी-सीएए के माध्यम से एक बड़ी आबादी को डिटेंशन कैम्प में ठूसने की कोशिशें चल रहीं हैं और जो भी इसका विरोध कर रहा है उसपर यूएपीए, एनएसए लगाकर जेल में डाल दिया जा रहा है। शायर कह रहा है-

राष्ट्रवाद की उनकी परिभाषा के अपने माप दंड हैं
इनको ये मंजूर नहीं है, सारे गद्दार हो गए

मुमताज़ की नज़र हर तरफ है लेकिन उनकी ग़ज़लों में जो मुख्य चिंता उभरकर आई है वो है राजनीति के साथ धर्म का गठजोड़। आज देश की सत्ता पर जिस तरह के लोग काबिज़ हैं वो इसी राजनीति की बदौलत यहाँ तक आ पहुँचे हैं। जेएनयू में पिछले दिनों फीस वृद्धि के ख़िलाफ़ आंदोलन चल रहा था। जेएनयू में छात्रों पर बाहरी गुंडों द्वारा हमला हुआ जिसमें एक प्रोफ़ेसर को भी गंभीर चोट आई थीं। सनद रहे सबकुछ सत्ता के इशारे पर ही हुआ था और हो रहा है। शायर ने इस घटना को अपनी ग़ज़ल में दर्ज कर लिया-

शिक्षा के मंदिर में यारों मारपीट और ख़ून ख़राबा
ये है फासीवादी नज़रिया, जै जै सीता-जै जै राम

सादे ज़बान में मुमताज़ ने तजुर्बे की सतह पर ख़ूब नए नए प्रयोग किए हैं। एक-एक शे’र हर कोई आसानी से समझ सकता है और अपने समय के घटनाओं को समझ सकता है। आखिर में मुमताज़ का ही एक उम्मीद भरा शे’र कि-

काल चक्र इतिहास लिखेगा हिटलर की संतानों का
खून से लथपथ हुई नागरिया, जै जै सीता-जै जै राम

 

मुमताज़  की ग़ज़लें 

 

1.

फ़स्ल-ए-गुल का हमें गुमां यारों
फ़स्ल-ए-गुल है धुआं-धुआं  यारों  ।

बूटा-बूटा रवां-दवां यारों
पत्ता-पत्ता यहाँ वहाँ यारों  ।

क्यूं है ख़ामोश निज़ाम-ए-गुलशन
क्यू है बेरंग तितलियाँ यारों  ।

भूख का धर्म उनसे पूछ लिया
अक़्ल उनकी है परेशां यारों  ।

ये भी कहने की बात है कहिए
जान से प्यारा हिंदोस्तां यारों  ।

ये जो तारे दिखाई देते हैं
मेरे क़दमों के निशां यारों  ।

राम का भव्य बनाओ मंदिर
भव्य पहले बने इंसा यारों  ।

राम की मस्ज़िदों में चर्चा हो
और मंदर में हो अजां यारों  ।

बात जो एकता की करती है
चूम लो बढ़के वो ज़बाँ यारों  ।

राम श्रद्धा का केंद्र है ‘मुमताज़’
राम हिन्दू है मुस्लमां यारों  ।

 

 

2 .
चोर उचक्के लंदी फंदी देश के चौकीदार हो गए
सर से पाँव तलक झूठे हैं, सच के पैरोकार हो गए

राष्ट्रवाद की उनकी परिभाषा के अपने माप दंड हैं
इनको ये मंजूर नहीं है, सारे गद्दार हो गए

सुनो! तुम्हारा कच्चा चिट्ठा जनता को मालूम है सब
तुम साहिल बनने आये थे, तुम कैसे मझदार हो गए

राम तुम्हारी नहीं बपौती, राम हमारे भी पुरखे हैं
सर आंखों पे आपकी श्रद्धा हम उसका विस्तार हो गए

भूत, रफाएल का अब उनके सिर चढ़के बोलेगा
तर्क-कुतर्क की बात नहीं है मुद्दे भ्रष्टाचार हो गए

चाय यहां बिकते-बिकते कॉफ़ी तक आ पहुँची है
अब वो कॉफ़ी हाउस के सुनिए! खुद ही दावेदार हो गए

अब तो बंगाली बाबा की ही भभूत पे नज़रें हैं
ज्यों-ज्यों तुमने दवा खिलाई, ज्यों-ज्यों हम बीमार हो गए

लूट, भ्रष्टाचार, डकैती, आगजनी और दंगा, क़त्ल
ईद दिवाली पीछे छूटी, देश के ये त्यौहार हो गए

हम को तो मुमताज़, मियाँ खुद मंज़िल ने ही लूटा है
रहबरी करनी थी जिनको वो सारे बटमार हो गए

 

 

3 .
एक सुनो! ये बुरी खबरिया अच्छे दिन की जय बोलो
हम तो लूट गए बीच बजरिया अच्छे दिन की जय बोलो

झीनी-झीनी बीनी चदरिया अच्छे दिन की जय बोलो
ये ले अपनी लकुट कमरिया अच्छे दिन की जय बोलो

जिस गठरी में राम रतन धन, भाईचारा बंधा रखा था
ठगों ने ठग ली वही गठरिया अच्छे दिन की जय बोलो

सूर्य को मुर्गा निगल गया है, रात पसर गयी चारो ओर
उस पे ये ताकीद ज़बरिया अच्छे दिन की जय बोलो

हांक रहा है गलत दिशा में भेड़ों की इस रेवड़ को
वे शातिर चालक गड़रिया अच्छे दिन जय बोलो

फूल परेशां, गुंबे हैरां, ये कैसी फ़स्ल-ए-गुल है
उस पे ये कम्बख़्त नज़रिया अच्छे दिन की जय बोलो

हम क्या जाने मील के पत्थर, सुबह-दोपहरी,रात-बिरात
चलते-चलते कटी उमरिया अच्छे दिन की जय बोलो

भूख कुंआरी घर में बैठी प्यास की चर्चा गली-गली
घूमें देश-विदेश सांवरिया अच्छे दिन की जय बोलो

अब तो ये तालाब मगरमच्छों का डेरा है ‘मुमताज़’
ख़ैर मनाए सोन मछरिया अच्छे दिन की जय बोलो

 

 

4 .
चूल्हे पे चढ़ गई पतीली देश जमूरे संभल के रहना
जलेगी एक दिन गीली तीली देख जमूरे संभल के रहना

चांद है रोटी, तारे लड्डू, सूरज मालपुआ लगता है
भूख निगोड़ी बड़ी हठीली देख देख जमूरे संभल के रहना

हिन्दू-मुस्लिम की घुट्टी से देश की हालत बिगड़ेगी
दवा बहुत है ये ज़हरीली देख जमूरे संभल के रहना

जातिवाद और कर्मकांड के घेरे में हम दोनों हैं
यह बहुत है ये पथरीली देख जमूरे संभल के रहना

NRC और CAB को जबरन देश के ऊपर मत लादो
सुर्ख़ हैं चेहरे, आँखें नीली देख जमूरे संभल के रहना

सभी ऋचाएं संविधान की देश का मान बढ़ाती हैं
मत करना इसमें तब्दीली देख जमूरे संभल कर रहना

देश का और हमारा गठबंधन है प्यारे सदियों का
गांठ नहीं है ये बर्फीली एख जमूरे संभल के रहना

देश की जनता समझदार है ऐसा सबक सिखाएगी
चड्ढी हो जाएगी ढीली देख जमूरे संभल के रहना

आने वाले तूफां का ये एक इशारा है ‘मुमताज़’
हवा चल रही है सीली-सीली देख जमूरे संभल के रहना

 

 

5 .
डूब रही है देश की लुटिया, जै जै सीता-जै जै राम
गिद्धों के साए में कुटिया, जै जै सीता-जै जै राम

संविधान के पन्नो में तंबाकू विल्स की भर-भर के
संसद की वो चढ़ें अटरिया, जै जै सीता-जै जै राम
संसद के कमरों के नंबर कोठों में तब्दील हुए
राजनीति अब बनी पतुरिया, जै जै सीता-जै जै राम
मन्दिर का परसाद, तबर्रुक मस्जिद से ले लो यारो
लाशों से सज गयी बजरिया, जै जै सीता-जै जै राम
नाच रहा है नंगा होके बन्दर के संग-संग मदारी
शर्म से मर जाए बंदरिया, जै जै सीता-जै जै राम
कैसा दर्शक मूक बना है देश के जलते मुद्दों पर
मौन व्रत रखे हैं संवरिया, जै जै सीता-जै जै राम
काल चक्र इतिहास लिखेगा हिटलर की संतानों का
खून से लथपथ हुई नागरिया, जै जै सीता-जै जै राम
शिक्षा के मंदिर में यारों मारपीट और ख़ून ख़राबा
ये है फासीवादी नज़रिया, जै जै सीता-जै जै राम
टूटी नाव मिली जीवन की विरसे में ‘मुमताज़’ मियां
खेते-खेते कटी उमरिया, जै जै सीता-जै जै राम

 

6.
खाली पत्तल है खाली दोना है
भूख का ज़ार-ज़ार रोना है
मेरे बच्चों को ज़िद खिलौनों की
मेरे घर का उदास कोना है
हिन्दू मुस्लिम में बंट गए हम-तुम
बस इसी बात का तो रोना है
आप आलम पनाह जो ठहरे
आप जो चाहें वही होना है
लम्हें विक्रम कभी बेताल बनें
बोझ इस ज़िन्दगी का ढोना है
आओ हम नींद को साझा कर लें
खाट मेरी, तेरा बिछौना है
तू मेरी दिल के मरकज़ में है
तुझको साँसों में अब पिरोना है
मौत हर लम्हा जिससे खेलती है
ज़िंदगी वो ही एक खिलौना है
देश से बढ़ के कुछ नहीं ‘मुमताज़’
देश चांदी है, देश सोना है

 

 

 

 

(‘ग़ज़लगो  मुमताज़  जन्म  3 /6/1964, शिक्षा–बी. एस सी.
देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
दूरदर्शन एवम् देश के विभिन्न शहरों के कवि सम्मेलनों ,मुशायरों मे शिरक़ त।
संग्रह: शीघ्र  प्रकाश्य
विदेश यात्राएं –रूस,चीन,वियतनाम, मिस्र, कम्बोडिया,अरब अमीरात, इंडोनेशिया, उजबेकिस्तान, इत्यादि।
कुछ साल पहले एक रचना को आपत्ति जनक कहकर कारावास की सजा और 15000 रुपये का जुर्माना।

सम्पर्क: 41 A  कैंप 1 भिलाई छत्तीसगढ़ 490023 . मोबाइल : 9755819100

टिप्पणीकार विष्णु प्रभाकर  जन संस्कृति  मंच से जुड़े हुए हैं और छात्र आंदोलन से गहरा जुड़ाव रखते हैं. इनकी रचनाएँ देश की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. )

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