शालिनी वाजपेयी
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बालिका गृह में सब ‘सिस्टेमेटिक’ चल रहा था। यहां मैंनें ‘ठीक’ शब्द का प्रयोग जानबूझ के नहीं किया है। महिला आयोग, यूनीसेफ, राज्य बाल संरक्षण समिति, जिला बाल संरक्षण समिति, किशोर न्याय निगरानी समिति सभी ने बालिका गृह का ‘सिस्टेमेटिक’ निरीक्षण किया और सब कुछ सिस्टेमेटिक पाया। हर तिमाही बालिका गृह का निरीक्षण करने वाले जिलाधिकारी, अपर निदेशक समाज कल्याण विभाग तथा अन्य अधिकारियों ने भी कुछ अन-सिस्टेमेटिक नहीं पाया। यदि टाटा समाज विज्ञान संस्थान (टिस) की ऑडिट रिपोर्ट में इस बालिका गृह की सच्चाई उजागर नहीं होती तो पता नहीं इस गृह में बालिकाओं का सिस्टेमेटिक उत्पीड़न कितने समय तक और चलता रहता।
बिहार के इस बालिका गृह में जो चल रहा था उसका सर्व- सामान्यीकरण करना तो तर्कसंगत नहीं होगा लेकिन सब कुछ ठीक कह देना भी स्वयं को छलना होगा। मैंने बरेली में पत्रकारिता करते हुए देखा कि संवासिनी गृहों, बालिका गृहों तथा अनाथालयों में मीडिया के लोगों को जाने की इजाजत नहीं थी। पुरुष रिपोर्टरों पर प्रतिबंध समझ में आता है लेकिन महिला रिपोर्टर के अंदर जाने पर प्रतिबंध समझ के परे था।
एक बार मैं अपना नाम और पहचान बदलकर अपने एक जानकार के साथ बरेली के संवासिनी गृह के अंदर गई। अंदर जाते ही मुझे इस बात का एहसास हो गया कि मीडिया की एंट्री बैन क्यों है। सीलन भरे कमरों, हर तरफ फैली गंदगी, सुविधाओं की कमी तथा संवासिनियों के अव्यवस्थित रहन-सहन को बाहरी चारदीवारी पर किए गए चमकीले पेंट से सिस्टेमेटिक तरीके से कैसे छुपाया जाता है ये मेरे सामने था। इसके साथ ही स्टाफ का रूखा और करुणाविहीन व्यवहार सहना तो जैसे वहाँ रहने की अनिवार्य शर्त थी। मैंने देखा कि मानसिक रूप से बीमार महिलाओं का इलाज करने वाला कोई नहीं है, मानसिक अस्पताल के डॉक्टर हों या जिला अस्पताल के सभी वहां जाने के कतराते हैं। मानसिक रूप से अस्वस्थ्य कुछ महिलाओं के असामान्य रूप से उभरे हुए पेट ने मुझे बेचैन कर दिया, लेकिन उस दौरान कोई साक्ष्य न मिलने पर मुझे लिखने से रोक दिया गया।
हालांकि इसके बाद मेरी शंकाओं से संबंधित कुछ खुलासे भी हुए।
अप्रैल 2016 में बरेली महिला संरक्षण गृह से राजधानी लखनऊ के मोतीनगर स्थित राजकीय बालगृह (बालिका) में शिफ्ट की गई दो संवासिनियों के प्रेगनेंट पाए जाने के सनसनीखेज खुलासे से हड़कंप मच गया था। दरअसल, किसी भी संवासिनी को दूसरे बालगृह में शिफ्ट करने से पहले मेडिकल जांच कराई जाती है। शिफ्ट की गई पांच संवासिनियों को मेडिकल जांच के लिए डफरिन हॉस्पिटल ले जाया गया, जहां उनमें से दो के प्रेगनेंट होने की पुष्टि हुई थी। उसी दौरान रायबरेली भेजी गई दो संवासिनी के भी प्रेगनेंट होने की खबर आई थी। उस वक्त बिना किसी शोर-शराबे और कार्रवाई के मामले को रफा-दफा कर दिया गया। अब ये साफ था कि किसी भी तरह की जवाबदेही से बचने के लिए इन गृहों में मीडिया की एंट्री बैन की गई थी।
बरेली की जिला प्रोबेशन अधिकारी हमेशा फंड का रोना रोती थीं। सरकारी बजट कम भले ही हो लेकिन इतना भी नहीं कि आश्रितों का खान-पान, कपड़ा इलाज आदि ठीक से न हो पा। आश्रय गृहों का सालाना बजट 2015-16 में 403 करोड़, 2016-17 में 567 करोड़, 2017-18 में 526 करोड़ रहा है। 2018-19 में अब तक 109 करोड़ दिया जा चुका है। केन्द्र सरकार राज्य सरकार के साथ मिलकर खुला आश्रय गृह, विशेषीकृत दत्तकग्रहण संस्था और बाल गृह चलाती है। इसमें से विशेषीकृत दत्तकग्रहण संस्था 0 से 6 महीने तक के बच्चे की देखभाल का काम भी करती है और बच्चों को गोद दिए जाने की प्रक्रिया में बीच की भूमिका भी निभाती है। इसी संस्था के माध्यम से बच्चे गोद दिए जाते हैं।
बजट की कमी की बात कहकर जिला प्रोबेशन अधिकारी समाजसेवियों से सहयोग की अपेक्षा रखती थीं। बार-बार किए जाने वाले इस आग्रह पर एक उद्यमी पिघल गए और उन्होंने बरेली के संवासिनी गृह को गोद ले लिया। उद्यमी का नेटवर्क लखनऊ, दिल्ली, उत्तराखंड, मुंबई से लेकर विदेशों तक है। उद्यमी ने काफी पैसा खर्च कर नारी निकेतन की जर्जर बिल्डिंग का जीर्णोद्धार कराया। बाद में पता चला कि इस उद्यमी ने अपना निजी स्टाफ नारी निकेतन में लगा दिया। उद्यमी और उनके स्टाफ को छोड़कर किसी अन्य को नारी निकेतन में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। फिर जब संवासिनी गृह से लड़कियों के रात में बाहर जाने की कुछ खबरें प्रकाश में आईं तो प्रशासन ने उद्यमी के स्टाफ को वहां से हटवा दिया। इस मामले की शिकायत भी हुई थी, लेकिन मामला दबा दिया गया।
जब खुद पीड़ितों ने आवाज उठाना शुरू किया तो शेल्टर होम की हकीकत सामने आ रही है। वरना ये सब खेल तो पुराने समय से चला आ रहा है। इतना सब होने के बाद भी मुजफ्फरपुर में इस धंधे का सरगना बृजेश पाठक मुसकुराते हुए जेल जाता है, क्योंकि उसे पता है, कुछ नहीं होगा।
हमारे लिए शर्म की बात यह है कि देवरिया जिले के मां विंध्यवासिनी महिला प्रशिक्षण एवं समाज सेवा संस्थान के आश्रय गृह से भाग कर एक 13 वर्षीय बच्ची ने महिला थाने में अपने साथ हुई दर्दनाक घटना सुनाई। बच्ची के मुताबिक वहां रहने वाली बच्चियों से देह व्यापार कराया जाता है और मना करने पर पिटाई की जाती है।
मुख्य आरोपी इस आश्रय गृह की संचालिका गिरिजा त्रिपाठी का कहना है कि वहां जाते तो सभी थे आज तक तो कुछ नहीं दिखा। पुलिस के अफसर भी जाते थे। देवरिया के आश्रय गृह में हुई घटना के बाद पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की टीम ने गुरुग्राम के दो आश्रय गृह का औचक निरीक्षण किया। एक आश्रय गृह में 20 विदेशी लोग ठहरे मिलने पर प्रबंधन से जवाब मांगा।
कोई हैरानी की बात नहीं कि इन आश्रय गृहों की निगरानी जिला मजिस्ट्रेट, जिला जज, जिला प्रोबेशन और बाल कल्याण अधिकारी करते हैं औऱ किसी को कभी कुछ गलत नज़र नहीं आता।
मैं शर्मिंदा हूं कि मुजफ्फरपुर कांड का मुख्य आरोपी का संबंध मीडिया से है, लेकिन ब्लैक शीप तो हर जगह होती हैं, यह सोचकर ही अपने आपको समझाती हूं। इन दो घटनाओं के सामने आने के बाद सरकारों को चाहिए कि वे टिस जैसी किसी बाहरी संस्था से सभी आश्रय गृहों का ऑडिट करवाए और सिस्टम को दुरुस्त करें।