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पिछले दिनों रांची में ‘राग दरबारी’ पर आयोजित एक गोष्ठी में वरिष्ठ आलोचक रविभूषण के वक्तव्य से यह पता चला कि राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र के विद्वानों की यह प्रिय पुस्तक है। इस पर दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में दो दिनों का सेमिनार हो चुका है। हिंदी आलोचना के लिए ‘राग दरबारी’ एक ऐसी किताब है, जिसे लेकर आलोचकों के बीच मतभेद है। श्रीलाल शुक्ल के निधन् के बाद प्रकाशित रेखा अवस्थी द्वारा संपादित पुस्तक ‘राग दरबारी: आलोचना की फांस’ का शीर्षक इसी की ओर संकेत करता है। खैर, यह उपन्यास काफी लोकप्रिय है। कहा जाता है कि पिछले पचास सालों में इसकी बीस लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं।
वैद्यजी हिंदुस्तान की सत्ता पर छाए हुए हैं, ‘राग दरबारी’ नाटक में दिखा आज का यथार्थ
गैर-आधुनिक, अवैज्ञानिक-पुरातनपंथी, तर्कविरोधी, पाखंडी, भेदभाव भरी हिंसक प्रवृत्ति की जड़ों की शिनाख्त
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‘राग दरबारी’ में लेखक अपनी ओर से कोई स्पष्ट वैचारिक समाधान या दिशा नहीं बताता। नाटक का स्क्रिप्ट भी स्थितियों को ज्यों का त्यों सामने रख देता है। लेकिन जगह-जगह लेखक के गहन अनुभवों से भरी टिप्पणियों की गूंज जरूर दर्शकों के जेहन में जगह बना रही होंगी। जैसे नाटक में एक जगह रंगनाथ लंगड़ से कहता है- ‘‘देखो…. लंगड़ जानने की बात सिर्फ एक है कि तुम जनता हो और जनता इतनी आसानी से नहीं जीतती।’’
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