अभय कुमार दुबे की किताब ‘हिंदू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति’ का प्रकाशन वाणी प्रकाशन से 2019 में हुआ । शीर्षक ही बिना किसी लाग लपेट के एक वैपरीत्य को प्रस्तुत करता है जो किताब की विषयवस्तु है । इसमें हिंदू एकता का अर्थ वर्तमान भाजपा को ठोस सामाजिक आधार देने वाली संघी राजनीति है तो ज्ञान की राजनीति का अर्थ उसका विरोध करने वाली बौद्धिक जमात के वैचारिक तर्क हैं । लेखक खुद दूसरे खेमे के सक्रिय भागीदार रहे हैं इसलिए उसकी कमजोरियों की शिनाख्त सही तरीके से करने में सक्षम हैं । इस समुदाय के समस्त विरोध के बावजूद हिंदू-एकता की संघी राजनीति सफल हो रही है । असफलता के इसी तथ्य ने लेखक को आत्म-परीक्षण की प्रेरणा प्रदान की है । लेखक ने किताब को अपनी ही आत्मालोचना कहा है ।
भाषा के प्रसंग में उन्नासिक जैसे कुछ विचित्र प्रयोगों को छोड़ दें तो लेखक का मूल तर्क है कि संघ के वैचारिक विरोधी आज भी संघ के बारे में ऐसे बात करते हैं मानो उसके सरसंघचालक गोलवलकर ही हों । इस सिलसिले में लेखक ने खास तौर पर बाला साहब देवरस के कार्यकाल को याद किया है जिनके चलते संघ ने अपने सामाजिक आधार का विस्तार करना शुरू किया था और सवर्ण जातियों की घेरेबंदी से बाहर निकलकर खासकर पिछड़ी जातियों और आदिवासी समूहों में घुसपैठ शुरू की थी । संघ के मामले में यह केवल दो समयों का भेद नहीं है बल्कि उसके ब्राह्मणवाद को ही उसकी कमजोरी मानकर प्रहार करने की रणनीतिक विफलता को भी उजागर करना है । असल में लेखक उन तमाम उदारवादी बौद्धिकों की सीमा बताना चाहते हैं जो सांप्रदायिकता से लड़ने के मकसद से हिंदू धर्म की दलित जातियों की जातिगत गोलबंदी को ही कारगर हथियार समझते हैं । इसे आत्मालोचना उन्होंने इसलिए ही कहा क्योंकि उनका खुद का यकीन भी इस रणनीति में कुछ हद तक रहा था । लेखक का जोर इस बात पर है कि हिंदू पहचान की कारगर काट जातिगत गोलबंदी से सम्भव नहीं है । कुल मिलाकर यह उनके पिछले कुछ समय के अनुभव से उपजा आंशिक सत्य है । कारण कि कुल संघी समाहितीकरण के बावजूद हिंदू धर्म का यह जातिगत अंतर्विरोध समय समय पर फूटता रहता है । इसे बिना किसी ठोस वजह के आंबेडकर ने हिंदू धर्म का बुनियादी अंतर्विरोध नहीं माना था ।
जो लोग इस रणनीति को सही मानते हैं उनका तर्क है कि हिंदू धर्म के जातिवाद में सवर्ण जातियों को श्रेष्ठ माना जाता है और निचली जातियों के साथ वंचना का स्थायी अहसास जुड़ा हुआ है इसलिए उनकी एकता कठिन है । सही बात है कि इसे सर्वकालिक सत्य नहीं माना जा सकता । उतना ही सही यह भी है कि निचली जातियों द्वारा सवर्ण प्रभुत्व को स्वीकार कर लेना भी सर्वकालिक सत्य नहीं है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि लम्बे समय तक दलित समुदाय कांग्रेस के पीछे इस तथ्य के बावजूद गोलबंद रहा कि उसके बड़े नेतागण सवर्ण जातियों के लोग हुआ करते थे । एक अरसे के बाद बसपा के उभार के साथ यह संश्रय टूटा । हम कह सकते हैं कि संघ के साथ इन जातियों के जाने की वजह से उसे जातिवाद विरोधी समझ लेना थोड़ा तर्काभास जैसा लगता है । आखिर कोई भी राजनीतिक दल समाज के व्यक्तियों से ही निर्मित होता है इसलिए पारम्परिक सामाजिक पदानुक्रम का उसके भीतर चले आना सज होता है । जातिवाद का विरोध करनेवाली सभी पार्टियों को इस बुराई से लगातार लड़ना पड़ता है । जिन पार्टियों को खुलेआम जाति आधारित पार्टी समझा जाता है वे भी घोषित तौर पर अपनी विचारधारा को ऐसे अन्य शब्दों में सूत्रबद्ध करती हैं जो व्यापक मकसद को ध्वनित करता हो । सामाजिक न्याय और सामाजिक समरसता जैसी शब्दावली के इस्तेमाल का यही रहस्य है ।
लेखक अभय दुबे भी इस बात को जानते होंगे कि सभी व्यक्ति अनेकानेक पहचानों के स्वामी होते हैं । इतिहास में किसी खास मौके पर उसकी खास पहचान के आधार पर गोलबंदी होने लगती है । इस मौके के निर्माण में राजनीति और सत्ता की भूमिका भी कुछ कम नहीं होती । व्यक्ति की पहचानों के निर्माण में सारभूत कुछ भी नहीं होता । उनके बनने में कुछ तात्कालिक तत्वों का भी योगदान होता है । इस नाते बताने की जरूरत नहीं कि विगत सात सालों से संघ को हासिल सत्ता की भूमिका को अनदेखा करके हम इस समस्या को सही तरीके से चिन्हित नहीं कर सकते । संघ की शाखाओं की मौजूदगी आज की बात नहीं है । आज अगर कुछ नया है तो सत्ता का साथ है । सत्ता के इस समर्थन को केवल सरकारी संस्थाओं का समर्थन नहीं समझना चाहिए । इसे कारपोरेट से उसकी साठगांठ और विदेशों से प्राप्त होने वाली आर्थिक इमदाद से भी जोड़कर देखना चाहिए । दक्षिणपंथ के वैश्विक जाल के बारे में बहुतेरा लेखन हुआ है । दुनिया के इजरायल नामक देश की मदद और सलाह भी वर्तमान निजाम की ताकत का स्रोत है । यह सही बात है कि सेना समेत शासन की विभिन्न संस्थाओं के भीतर उसका प्रवेश होता रहा था और इसकी योजनाबद्ध तैयारी भी उसने लम्बे समय से की लेकिन उसका सफल होना पूर्वनिर्धारित नहीं था । विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों के संयोग से सत्ता पर कब्जा करने में उसे कामयाबी मिली है । यूं ही नहीं हुआ कि दुनिया के एकाधिक देशों में इसी तरह के तत्व सत्ता पर कब्जा करने में सफल हुए हैं । इसी के साथ इस तथ्य की अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि कुछ ही देशों में इस प्रवृत्ति को सत्ता पर कब्जा जमाने में सफलता मिली । तात्पर्य कि वर्तमान अवस्था की व्याख्या के लिए व्यापक के ही साथ खास पहलुओं पर भी ध्यान रखना होगा ।
इस राजनीतिक प्रवृत्ति के उत्थान में सत्ता की भूमिका को लेखक ने भूमिका में ही गौण मान लिया है । उनका कहना है कि ‘—हिंदू-एकता बनने की यह प्रक्रिया भाजपा के चुनाव जीतने-हारने पर एक सीमा तक ही निर्भर करती है’ लेकिन उनकी यह मान्यता बहसतलब है । जैसा उनका दावा है यदि ‘संघ परिवार की वैचारिक प्रयोगशाला में हिंदू-एकता बनाने का फ़ारमूला 1974 में तैयार कर लिया गया था’ तो उसे सत्ता पाने में चालीस साल का समय क्यों लगा । न केवल अभय दुबे बल्कि बहुतेरे विद्वान इस किस्म की व्याख्या पेश करते आ रहे हैं जिसमें हिंदू सांप्रदायिकता का अनवरुद्ध विकास वर्णित होता है । बौद्धिक के बतौर वे अपना काम इस सफलता की कथा को महज दर्ज करना समझते हैं ।
कहने की जरूरत नहीं कि व्याख्या की यह शैली अंतत: उस परिघटना के वैधीकरण या निर्विकल्पता का तर्क बन जाती है । इन व्याख्याओं का घोषित मकसद तो विरोधी को समझने की कवायद माना जाता है लेकिन जिस तरह की विकासवादी सोच के साथ व्याख्या को पेश किया जाता है उसमें विरोध की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती । इसके बावजूद किताब ने भाजपा विरोध की जातीय गोलबंदी की कमजोर रणनीति की सीमा को प्रखरता के साथ उजागर किया है । समय की जरूरत उसके वर्तमान उत्थान को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की है तभी उसे परास्त करने की कोई ठोस योजना बनायी जा सकती है ।
बहरहाल लेखक का उद्देश्य ‘सेकुलर-वामपंथी-उदारतावादी विमर्श की आंतरिक आलोचना’ है । इस विमर्श को भी वे इकहरा नहीं मानते । इसका एक हिस्सा मुखर है तो दूसरा हिस्सा वह है जिसे राजनीतिक सहीपन के दबाव में मौन कर दिया गया है । इस मौन हिस्से को वे ‘संघ परिवार की नयी समझ और उसके आधार पर बने बहुआयामी व्यावहारिक विन्यास को उसके समग्र यथार्थ में ग्रहण करने और पीछे धकेलने की क्षमता’ से युक्त मानते हैं । इस हिस्से की मान्यताओं को सामने लाने के लिए लेखक ने मुखर हिस्से की तमाम आस्थाओं पर प्रबल प्रहार किया है । लेखक का उद्देश्य मौन कर दी गयी मान्यताओं को उजागर करना है । इनकी विशेषता के बतौर वे ‘उदारतावादी लोकतांत्रिक राज्य पर एक सीमा से ज्यादा भरोसा न करने की चेतावनी’ तथा ‘भारतीय बहुलतावाद’ के ‘अपेक्षाकृत समरूपीकरण’ की ओर जाने और ‘बहुमत आधारित राजनीति’ के ‘विकृत होकर बहुसंख्यकवाद को प्रोत्साहित’ करने के तथ्य को स्पष्ट करना बताते हैं । इसके बावजूद सच यही है कि वर्तमान शासन के लिए उदारवादी राज्य समस्या पैदा कर रहा है और इसलिए उसका खोल कायम रखते हुए भी उसे सारहीन करने की भरपूर कोशिश हो रही है । लेखक को इस पहलू पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए था ।