आज हिंदी कविता के क्षेत्र में ऐसे कवियों की बड़ी और महत्वपूर्ण उपस्थिति है जो बढ़ती उम्र के बावजूद सृजनात्मक रूप से सक्रिय हैं। उनका सृजन-संघर्ष बाद की पीढ़ियों को प्रेरित करता है। डा रामदरश मिश्र तो 100 पार कर चुके हैं। इसी साल 15 अगस्त को उनका सौवां जन्मदिन मनाया गया। डॉक्टर नंदलाल पाठक 96 साल के हैं। 80 पार करने वाले कवियों की भी बड़ी संख्या है। विनोद कुमार शुक्ला, नरेश सक्सेना, लीलाधर जगूड़ी, रवींद्र वर्मा, रामकुमार कृषक, अशोक वाजपेई, इब्बार रब्बी, ऋतुराज आदि। ध्रुवदेव मिश्र पाषाण इसी में शामिल हैं। इसी साल सितंबर में उन्होंने 85 साल पूरा किया। इस उम्र के बावजूद उनकी रचनात्मक सक्रियता बनी हुई है।
पाषाण जी का लिखना पढ़ना जारी है। बेशक सुनने में दिक्कत है। परन्तु समय की आवाज और धड़कन को सुनने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। बसंत के बज्रनाद को उनमें अब भी सुना जा सकता है। अपने को संचार के नये माध्यम फेसबुक से जोड़ा है तथा अपनी कविताओं को वहां नियमित रूप से पोस्ट करते रहते हैं। 11 सितम्बर को एक नई कविता पोस्ट की जिसमें समय की चिंता कुछ यूं व्यक्त है ‘ काश कभी ऐसी कविता लिख पाऊं मैं /जो कोलाहल का नहीं /सुबह-सुबह पाखियों के /कलरव की गूंज का हिस्सा बने।’ 9 अक्टूबर को उन्होंने लैटिन अमेरिका के क्रांतिकारी चे ग्वेवारा पर लिखी कविता पोस्ट की। अपनी कविता में वे कहते हैं – ‘ रुकती नहीं क्रांति थकता नहीं सर्वहारा/ शब्दों से शस्त्रों तक जो कभी नहीं हारा/ जनगण का प्रेमी – धरती का दुलारा/ इंकलाबी करिश्मा वह/ अथक अपराजेय/ क्रांतिवीर चे ग्वेवारा… आततायियों के व्यूह में फंसे नेरुदा, बेंजामिन/ पाश, सफदर और मान बहादुर की आंखों में /आखिर -आखिर तक चमकता रहा जो/ शहादत का ध्रुव तारा/वह था अथक अपराजेय/ क्रांतिवीर चे ग्वेवारा ‘। इस कविता से पाषाण जी की वैचारिक दृष्टि और प्रतिबद्धता को समझा जा सकता है। ‘प्रसंग’ (संपादक: शंभु बादल) के कविता महाविशेषांक में उनकी तीन कविताएं आई हैं। यह सब उनकी सृजनात्मक सक्रियता के चंद उदाहरण हैं।
पाषाण जी ने पांच दशक से अधिक का समय पश्चिम बंगाल के हावड़ा और कोलकाता में बिताया है। कभी हिंदी साहित्य का केंद्र इलाहाबाद व भोपाल हुआ करता था । वर्तमान में वह दिल्ली केंद्रित हो गया है। पहले भी कोलकाता और मुंबई में हिंदी साहित्य-सृजन की उर्वर भूमि थी। वह आज भी है। पाषाणजी के कवि को गढ़ने -बनाने, वैचारिक रूप से तैयार करने तथा सांस्कृतिक योद्धा में बदलने का काम बंगाल के राजनीतिक-सांस्कृतिक वातावरण ने किया। वे उन कवियों में शामिल हैं जिन्हें नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन ने प्रभावित किया। इसी ऊर्जा को लेकर वे कुछ साल पहले अपने पैतृक जनपद देवरिया आए। अब यही उनका स्थाई निवास है। वे यहां जिस मकान में रहते हैं, वह ‘ध्रुवधाम’ है। यहां आना और उनसे मिलना किसी साहित्यिक धाम से कम नहीं है। गोरखपुर-देवरिया आने वाले लेखक-साहित्यकार को यह धाम खींच लाता है। यही कारण है कि 4 अक्टूबर को अपनी छोटी बहन की असामयिक मृत्यु पर देवरिया आना हुआ तो दूसरे दिन यानी 5 अक्टूबर को ‘ध्रुवधाम’ पहुंच गया। साथ थे कवि उद्भव मिश्र। कुशीनगर से डॉक्टर सुधाकर तिवारी भी विशेष रूप से पाषाण जी से मिलने आए थे।
ध्रुवदेव मिश्र पाषाण का जन्म 9 सितंबर 1939 को देवरिया के इमलिया गांव में हुआ था। उन्होंने छठे दशक से लिखना शुरू कर दिया था। 1958 में उनकी पहली कृति प्रकाशित हुई। यह नाटक थी। शीर्षक था ‘विद्रोह’। 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ। राष्ट्रभक्ति की भावना सारे देश में उमड़-घुमड़ रही थी । दिनकर से लेकर नागार्जुन तक ने इस भावना को लेकर कविताएं लिखीं । युवा पाषाण भी पीछे नहीं रहे। 1962 में उनकी काव्य पुस्तिका आई जिसका शीर्षक था ‘लौट जाओ चीनियों’। देवरिया में रहते हुए उन्होंने ‘देवरिया टाइम्स’ साप्ताहिक का संपादन किया। 1965 में वे बंगाल आए। विद्रोह की भावना का क्रांतिकारी रूपांतरण हुआ। नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध वियतनामी जनता के संघर्ष का प्रभाव पाषाण जी के काव्य में गुणात्मक परिवर्तन के रूप में घटित हुआ। वे लंबी कविता ‘ बंदूक और नारे’ (1968) तथा ‘मैं भी गुरिल्ला हूं’ (1969) जैसी कविताएं लिखते हैं। वह कहते हैं : अलग अलग चलने वाली कलमें/इस्तेमाल की जाती हैं/कभी झाड़ू की तरह/कभी रिवाल्वर की तरह’ । और भी: ‘हल की नोंक पर हथौड़े के संकल्प/वक्त के नासूर का करते हैं इलाज/संभाल कर आपरेशन के औजार/गूंजती है परिवर्तन की पहली चाप/कविता में’।
कविता में हल और हथौड़े का संकल्प पाषाण जी के लिए परिवर्तन का माध्यम बना । यहां दुविधा और संकोच नहीं है बल्कि परिवर्तन की सबसे अग्रणी, अग्रगामी और निश्छल धारा से जुड़ने का आत्म संघर्ष है। आगे की कविताओं में इसी का वैचारिक और सृजनात्मक विस्तार है। उनके अनेक संग्रह आए : ‘एक शीर्षकहीन कविता और पांच अन्य कविताएं (1968), कविता तोड़ती है (1977), विसंगतियों के बीच (1978), धूप के पंख (1983), खंडहर होते शहर के अंधेरे में (1988), बाल्मीकि की चिंता (लंबी कविता, 1992), चौराहे पर कृष्ण (लंबी कविता, 1993), ध्रुवदेव मिश्र पाषाण की कुछ कविताएं (2000, संपादक : रमाशंकर प्रजापति), पतझड़ पतझड़ बसंत (2009), खेल-खेल में (बाल कविताएं 1985)।
पाषाण जी 2002 में सेवा मुक्त हुए। वे देवरिया से गए थे। अपनी जड़ों की तरफ़ लौटने की उनकी छटपटाहट थी जिसकी वजह से वे कुछ साल पहले देवरिया लौटे। उनका समय अपने गांव इमलिया से लेकर देवरिया शहर में बीतता है। यहां के साहित्य समाज के बीच उनकी सक्रियता बनी हुई है। नौजवान रचनाकारों के वे प्रेरणाश्रोत हैं। इसी का प्रतिफल है कि देवरिया से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘पतहर’ (संपादक: विभूति नारायण ओझा) ने उन पर विशेषांक निकाला।
पाषाण जी का नया कविता संग्रह है ‘सरगम के सुर साधे’ जिसमें छोटी-बड़ी 17 कविताएं शामिल हैं । कविता क्यों और किसलिए? उसकी राह क्या है? इन प्रश्नों से कवियों को गुजरना पड़ा है, पाषाण जी को भी। उनमें ऐसे जीवन के प्रति वितृष्णा है जहां विचार और आचरण के बीच दूरी हो। वे विचार और व्यवहार की एकता के पक्षधर हैं। कहते भी हैं ‘कविता विचार से नहीं बनती। कविता किताबों से नहीं उपजती । यह विचारों और किताबों के प्रभावों से गुजरती जरूर है।’ उनकी समझ है कि कविता व्यापक जनजीवन को आलोड़ित करने वाले आंदोलन से नाभिनालबद्ध होती है। इसी से उसकी काया बनती है। कविता के इसी राह के वे राही हैं। कहते हैं ‘आसान नहीं है कविता की ऐसी राह’। सचमुच राह आसान नहीं है। आज तो यह राह पहले की तुलना में अधिक कठिन हुई है।
संग्रह की पहली कविता है ‘सरगम के सुर साधे’। इसे उन्होंने अपने गांव इमलिया में लिखना शुरू किया था तथा 5 महीने के बाद देवरिया आवास पर पूरी हुई। उनके मन में यह प्रश्न है कि क्या यह पूरी हुई? ऐसा होता भी है। एक रचना अगली रचना की तैयारी बन जाती है। उनकी कविताएं एक दूसरे से जुड़ती है। महाप्राण निराला की यह काव्य पंक्ति कि ‘देश-काल के शर से बिंधकर’ पाषाण जी का प्रेरक वाक्य है। दुख मनुष्य को बाहर से ही नहीं उसके अंतर को भी तोड़ता है। कविता दुख से मुक्त करती है या उसे सहने की ताकत प्रदान करती है। निराला जी ने बेटी को खोया। तभी ‘सरोज स्मृति’ जैसी कविता लिख पाए। पाषाण जी की पौत्री यानी दूसरे बेटे की बेटी विभा की जान विवाह के दो माह के अंदर ही आग की लपटों ने ले ली। यह हत्या है या आत्महत्या? उम्र 20 की थी। मेहंदी के रंग भी नहीं छूटे थे। कविता ने उन्हें थामने -संभालने का काम किया। वे लिखते हैं ‘काश लिख पाऊं कोई कविता मैं/विभा की स्मृति में /देशकाल के शर से बिंधकर? आखिर कैसे उबर पाऊंगा इस वेदना से प्रतिपल /मानस मथती यंत्रणा से/जो बिंधेगा नहीं अंतस में/’देश-काल के शर से’ /वह कुछ भी सार्थक सिरजेगा कैसे?’ पाषाण जी का संघर्ष सार्थक को सिरजने का है।
प्रगतिशीलता और जनवाद ऐतिहासिक सापेक्षता में परिभाषित होता है। कबीर अपने ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ में प्रगतिशील व जनवादी हैं तो नागार्जुन अपने संदर्भ में। कहने का अर्थ है कि अपने समय के जनसंघर्ष की उच्च धारा से जो जितना गहरे जुड़ता है, वह उतना ही जनवादी है। यह साहित्य के लिए सही है और राजनीतिक के लिए भी। पाषाण जी की यह विशेषता है कि उनका अपने समय के जनसंघर्ष की उच्च धारा के साथ जुड़ाव रहा। इस संबंध में वे परम्परा का निषेध नहीं करते हैं बल्कि उससे जुड़ते हैं, खासतौर से कबीर से। वे भक्ति आंदोलन के सत्ता विमुख कवियों जैसे कुंभनदास और तुलसीदास से भी प्रभावित हैं। अपने पूववर्ती कवियों में मुक्तिबोध उनके लिए खास महत्व रखते हैं। पाषाण जी के लिए मुक्तिबोध का क्या महत्व है, इसे उन पर ‘एक हर्फनामा: मुक्तिबोध से जुड़ते हुए’ शीर्षक से लिखी कविता से समझा जा सकता है। संग्रह की आखिरी कविता है ‘चादर कबीर की’। पाषाण जी कविता को कबीर की चादर की तरह बुनते हैं। इस उम्र में भी वे बुनते रहना चाहते हैं। यह उनकी इच्छा भी है और संघर्ष भी है। कहते हैं ‘बुनती रहे हमारी अंगलियां/इकतारे की धुन पर/सुनते हुए अनहद का नाद/झीनी-झीनी चादर यह/कबीर की’।