अनिल शुक्ल
तिलका मांझी टॉवर से विवेकानंद मार्ग के लिए फूटने वाली सड़क को पाकड़ के घने और उदार पेड़ों की शाखाओं ने अपने आँचल से ढांप रखा है। बीच-बीच में यूकेलिप्टस के छरहरे दरख़्त इसके प्राकृतिक सौंदर्य बोध को और भी गहरा कर देते हैं। ‘दीपप्रभा’ सिनेमा हॉल लेकिन प्रकृति की इस अमृत वर्षा पर आधुनिक तकनीक की रोक लगा देता है। इसी सिनेमा हॉल के बग़ल से गंगा घाट जाने के लिए एक पतली सी सड़क उग आई है। ‘मानिक सरकार घाट गली’ कही जाने वाली इसी सड़क पर आधा फर्लांग भीतर घुस कर बांए हाथ पर पड़ता है स्व० अघोरनाथ गांगुली का मकान। बँगला साहित्य के ‘मसीहा’ शरतचंद चट्टोपाध्याय का यही ननिहाल है। उनकी मां मोहनीदेवी के पिता थे अघोरनाथ। यहीं रहकर 17 साल की उम्र में उन्होंने रचा था ‘देवदास’। जी हाँ ‘देवदास’, जो दुनिया की ‘असंख्य’ भाषाओं में प्रकाशित हुआ है और जिस पर 3 अलग-अलग काल की कुल 7 भाषाओँ में फ़िल्में बनी है।
आहिस्ता-आहिस्ता क़दमों से मैं गांगुलियों के मकान की तरफ बढ़ रहा हूँ। मेरे भीतर ग़ज़ब की उत्तेजना है। मुझसे ज़्यादा उत्तेजित संजीव हैं। पेशे से पत्रकार संजीव झा भागलपुर में जन्म से ही बसे हैं। भागलपुर में मेरा प्रवास लंबा है और मेरे बेटों की उम्र के संजीव ने मेरे फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड की सभी ज़िम्मेदारियां सहेज रखी हैं।
दरवाज़े पर शांतनु गांगुली से मुलाक़ात हो जाती है। शांतनु अघोरनाथ की चौथी पीढ़ी के हैं। उम्र का पांचवा दशक छूने जा रहे शांतनु के पास युवा शरतचंद को लेकर गांगुली परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही क़िस्सागोइयों का खज़ाना है। प्रवेशिका (हाई स्कूल के समकक्ष) तक की परीक्षा उन्होंने ननिहाल की छाँव में बैठकर ही पूरी की थी। इसके बाद वह कोलकाता चले गए। शांतनु के दादा सुरेन्द्रनाथ कहने को शरत के मामा थे लेकिन हम उम्र होने के नाते मामा-भांजे में खूब पटती थी। दोनों का खाना-पीना, खेलना कूदना सामूहिक था तो दोनों की शैतानियां भी सामूहिक थीं लेकिन पकडे जाने पर शरत अपना अबोधत्व दिखाकर साफ़ बरी हो जाता, बालक सुरेंद्र बच नहीं पाता और तब उसकी जम कर “कूटा-पीसी” होती। मां अपराधबोध महसूस करतीं। मायके में रह कर पुत्र के कारण भाई को पिटवाना उन्हें स्वीकार्य नहीं था लेकिन शरत को ननिहाल के इन ‘अहसानों’ की क्या परवाह? गंगा इस घर से सट कर बहने जितनी दूरी पर है। तभी रात में अक्सर बिस्तर से उड़ी लगाकर नदी से मछलियों का शिकार करने की फ़िराक में शरत ग़ायब हो जाता। लौटता तो झोले में जमा की हुई मछलियों को जूट के टाट में छिपाकर उस पर पानी छिड़क कर सो जाता। सुबह सवेरे जाग कर जब मां और घरवाले देखते तो मछलियों की इस आमोदरफ्त को ‘ईश्वरीय अनुकम्पा’ मान लेते।
आर्थिक विपन्नता के चलते युवा मोहनीदेवी अपने पति मोतीलाल और नन्हे शिशु शरत को लेकर हुगली (प० बंगाल) से मायके आ बसी थीं। यह उन्नीसवीं सदी का अंतिम काल था और तब भागलपुर भी बंगाल का ही हिस्सा था। बिहार की स्वतंत्र अस्मिता के रूप में विकसित होने के लिए महाभारत कालीन कर्ण के इस ‘अंग प्रदेश’ को अभी भी नयी सदी और उसके 36 सालों उदय का इंतज़ार करना था। भागलपुर ‘सिल्क सिटी’ कहलाता है। शरत के बाल्यकाल में घर-घर में रेशम के करघे होते थे। अब काफी कुछ चीन से ‘आर्टीफीशियल’ रेशम का धागा आने लगा है। भागलपुर के बाज़ारों में समा गया है यही कृत्रिम रेशम। चीन से शुरू होकर बरास्ता नेपाल आंध्र और सुदूर दक्षिण भारत को पहुंचने वाला सिल्क रुट आज भी भागलपुर से होकर ही गुज़रता है।
हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने शरत की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ के रूप में लिखी है। कैसी विडंबना है और हिंदी के लिए कैसी गौरव की बात है कि बांगला के कथा सम्राट की हिंदी में लिखी गयी जीवनी ही आज भी बांगला भाषा की भी अकेली ‘मानक’ जीवनी है। कथा शिल्पी की जीवनी के शोध के लिए विष्णु जी ने देश और दुनिया के जिन-जिन शहरों की धूल फांकी थी, भागलपुर भी उनमें शामिल है। अपनी टीवी श्रंखला के निर्माण के दौरान सन 2001 में जब मैं विष्णु जी की डॉक्यूमेंट्री शूट कर रहा था तब उन्होंने मुझसे भागलपुर के नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन किया था। आधे शतक से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका था लेकिन विष्णु जी की आँखों में जैसे भागलपुर का भूगोल अब भी नाच रहा था। गांगुली परिवार की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के साथ बातचीत में उन्होंने लम्बा समय गुज़ारा था। विष्णु जी की स्मृतियों में इस परिवार के पुरुषों और महिलाओं से की गई वार्ता, उनके लंबे-लंबे इंटरव्यू, शरतचंद के लिए उनकी स्मृतियाँ, उनके बारे में सुनी हुई बातें और गल्प, जितना गांगुली परिजनों को याद थे, उससे ज़्यादा विष्णु जी की याद में ज़िंदा बने हुए थे। मेरी फ़िल्म के एक अंश में वह इन लोगों की बाबत बातचीत करते-करते द्रवित हो उठते हैं।
शांतनु को लेकिन विष्णु जी का संदर्भ नहीं ज्ञात। यह उनके जन्म से पूर्व की घटना है। उन्होंने विष्णु प्रभाकर की ‘आवारा मसीहां’ देखी भी नहीं है। शरतचंद की सिर्फ ‘श्रीकांतो’ और ‘परिणिता’ ही छिप-छिप कर पढ़ी है। उनकी लिखी इक्का-दुक्का कहानियां जो स्कूल के कोर्स में थीं। लड़कपन में हर पारम्परिक पिता की तरह यहां भी बाबा (पिता) की सख़्त हिदायत थी- गल्प न पढ़ने की। “पढ़ना है तो कोर्स की किताबें पढ़ो।” जब बड़े हुए तो पढ़ने की रूचि विस्तार न ले सकी। ‘चरित्रहीन’ और ‘परिणिता’ पर बनी फ़िल्में वह नहीं देख सके। न बांगला में न हिंदी में। अलबता शांतनु को यह ज़रूर पता है कि ये फ़िल्में अपने टाइम की ज़बरदस्त ‘हिट’ थीं। ‘देवदास’ भी बहुत बाद में पढ़ा, जब दिलीप कुमार की फिल्म बन कर हिट हो गयी और हिट होकर उतर भी गयी। कॉलेज में, बाकी जगह जो कोई सुनता कि शरतचंद के परिवार के हैं तो पूछता, “तुमने देवदास पढ़ा?” और तब उस झेंप में मजबूरन ‘देवदास’ भी पढ़ लिया।
‘कैसा लगा?’ पूछने पर जैसे शर्मा जाते हैं “श्रेष्ठ गल्प।” समालोचना के दो शब्द मुश्किल से निकलते हैं। शरतचंद के जीवन से जुडी घटना-अघटना वे सब याद हैं। बचपन से घर में सुनते आये हैं। जब कोई आगंतुक शरत पुराण छेड़ता- मां, बाबा सब शुरू हो जाते। वो सारा कुछ याद है। चाहे जितना बुलवालें।
बचपन से ही आगंतुकों के सवाल सुनते आ रहे हैं। देश के कोने-कोने से लोग आते रहे हैं। जो भागलपुर आता और ग़लती से यह जान लेता है कि ‘देवदास’ का जन्म इसी शहर में हुआ था तो धड़धड़ाता हुआ गांगुली परिवार तक चला आता है। उसके स्मृति पटल पर ‘देवदास’ अंकित है और अंकित हैं ढेरों जिज्ञासाएं। फिल्म स्टूडिओ के सेट के रूप में बने ‘देवदास’ की अभिजात्य अट्टालिका उसके ज़ेहन में है। गांगुली जन का ‘लोवर मिडल क्लास’ मकान देख कर उनमें से कइयों को थोड़ी निराशा और हताशा भी होती है लेकिन इससे उनके मन में उमड़ते-घुमड़ते सवाल विराम नहीं लगा जाते। अम्मा-बाबा जवाब देते-देते थक गए। अब इन भाईयों की बारी है। ये भी अघा चुके हैं। अब उनके बाद की पीढ़ी भी यही जवाब दोहराना सीख रही है।
सवाल भी एक से एक माशाअल्लाह। पारो के फॅमिली मेंबर्स कौन-कौन बचे हैं? ऐ शांतनु दा, पारो का मैरिज कहाँ को हुआ था? शांतनु दा तनमना जाते हैं। घंटा बताएं! उन्होंने पारो को देखा हो तब न। पारो को इत्ता जात्सी एज वाले के साथ काए को मैरीज कर दिया? पारो किस गली की थी? उसका मकान कौन सा है?
मज़े लेने के लिए कभी-कभी किशोर गांगुली बंधू गली के सुदूर ‘एन्ड’ की तरफ हवा में संकेत करके बताते कि वोssss वाला मकान! और तब उन्हें रुख़सत करके, अपने दरवाज़े बंद करके बैठ जाते। पारो तक तो ग़नीमत है, बहुत से जिज्ञासु चंद्रमुखी का मोहल्ला भी जानना चाहते हैं। अब उसका क्या जवाब दें? ‘देवदास’ की चंद्रमुखी कोठे वाली ‘बाई’ थी। वह कोठे वाली थी तो उसका कोठा भी कहीं होगा? लोगों के सवाल होते हैं- वह मोहल्ला कौन सा है?
गांगुलियों के घर से कोई आधा किमी दूर है मोहल्ला जोगसर। यह वस्तुतः 3 मोहल्लों- जोगसर, मंसूरगंज और नया बाज़ार का बहुत बड़ा क्लस्टर था और यही मुग़ल काल से भागलपुर का ‘रेड लाइट एरिया’ बसा हुआ था। यहां वैश्याओं के सैकड़ों मकान थे। यह दक्षिणी बिहार का सबसे बड़ा ‘रेड लाइट ज़ोन’ था और कोलकाता इसका मुख्य सप्लाई केंद्र था। बताते हैं कि इस पेशे से जुड़े लोग ‘वर’ बने कोलकाता से नेपाल तक घूम-घूम कर अपने लिए ‘उचित’ कन्या ढूंढते। उनके साथ विवाह रचाते और फिर जोगसर, मयूरगंज और नया बाज़ार की बदनाम गलियों के हाथों उन्हें सौंप जाते। शरतचंद के बारे में जो जनश्रुतियां मशहूर हैं उनमें यह भी है कि जोगेसर की एक वैश्या के यहां ही वह रहने लग गए थे और कि ‘देवदास’ की रचना उन्होंने यहीं पर की थी। कोठे पर नियमित आने-जाने का उल्लेख विष्णु प्रभाकर भी ‘आवारा मसीहा’ में करते हैं।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में बंगाल-बिहार के सामंती समाजों में स्त्रियों की जो दशा थी, शरतचंद चट्टोपाध्याय उससे बहुत गहरा आहत थे। यही वजह है कि उनका पूरा लेखन नारी स्वतंत्रता की सोच और चिंतन के इर्द-गिर्द घूमता है, बार-बार उसके पक्ष में विद्रोह करता है। बाकी रचनाओं को कुछ पल के लिए छोड़ कर यदि ‘देवदास’ पर ही केंद्रित हुआ जाय तो इसमें एक तरफ जहां देवदास की बाल सखा पारो को चंद रुपयों की खातिर अपनी उम्र से चार गुना बड़े ‘दूजिया’ से शादी के लिए बेचते दिखाया गया है, वहीँ दूसरी ओर चंद्रमुखी के रूप में एक वैश्या को आदर-सम्मान और समाजिक स्वीकृति दिलाने की कोशिश में बेचैन देवदास दिखता है। नारी सम्मान और स्वातंत्र्य के लिए शरतचंद का यह दृष्टिकोण उन्हें समूचे बंगला साहित्य का पहला प्रगतिशील और आधुनिक लेखक तो बनाता ही है शास्त्रीय बांगला साहित्य में बंकिमचंद के मुक़ाबले शरत साहित्य को सर्वथा नई और क्रांतिकारी पहचान भी दिलाता है।
संजीव बताते हैं कि ‘रेड लाइट एरिया’ का क्लस्टर अब वहाँ से से हट गया है। सन 2001 में एक लंबे ‘सामाजिक आंदोलन’ के बाद उसे ज़मींदोज़ कर दिया गया। इस आंदोलन से जुड़े रहे एक नेता बताते हैं कि पड़ोस के मोहल्ले के एक वक़ील की बेटी के साथ वैश्या के एक बेटे ने भाग कर शादी कर ली थी। “बस इसी बात पर पूरा शहर जाग उठा।” वह बड़े फ़ख्र से बताते हैं कि ‘’वैश्यालय उन्मूलन संघर्ष समिति’ का गठन हुआ।“ कहा जाता है कि पुलिस प्रशासन के अधिकारियों ने भी आंदोलनकारियों की जम कर मदद की। समाज का कैसा क्रूर मज़ाक है कि हर दिन बाज़ार में दूसरों की सैकड़ों बेटियों की लगने वाली नुमाइश में बोली लगाने को बेचैन भागलपुर वासी अपनी एक बेटी का इस तरह चला जाते देखना बर्दाश्त नहीं कर सके!
जाते-जाते इन बाईयों को औने-पौने दामों पर अपने मकान लोगों को बेचने पड़े। खरीदने वालों में ज़्यादातर वे ही लोग थे जो आंदोलन की रीढ़ थे। कुछ बाइयाँ और उनके साथ की लड़कियां आसपास के ज़िलों में अपने व्यवसाय के साथ बिखर गईं और कुछ पेशा बदल कर भागलपुर के ही दूसरे क़स्बों और तहसीलों में बस गईं। वे भुखमरी के कगार पर पहुँच गयी थीं। उनमें ज़्यादातर अब सड़क पर थीं। अव्वल तो उपेक्षा के जीवन में सांस लेकर पली-बड़ी इन ‘बाईयों’ ने अपने जीवन में ऐसा कुछ भी अर्जित नहीं किया होता है जिस पर वे अभिमान कर सकें। बहरहाल उनका जो कुछ भी उनके पास था, वह सब भी तहस-नहस हो गया।
मैं स्थानीय लोगों के मुंह से ये सारी बातें तफ़सील से सुनता जा रहा था और सोच रहा था कि अगर 19 साल पहले शरतचंद जीवित होते तो बेघर हो चुकी भागलपुर की इन ‘बेटियों’ को इस हाल में देखकर क्या सोचते और क्या कहते?
संजीव कहते हैं “सर वह इन्हें इस तरह बर्बाद न होने देते।”
भागलपुर एक सुन्दर शहर है। एक तो प्रकृति ने इस पर जी जान से अपना सौंदर्य लुटाया है दूसरे यहां के लोग प्रकृति की इस संरचना का सम्मान करना जानते भी हैं। प्रकृति की अभ्यर्थना को उन्होंने अपनी संस्कृति का हिस्सा बना लिया है। समूचे उत्तर भारत में ऐसी प्राकृतिक हरियाली मैंने और कहीं नहीं देखी। घरों के बाहर तो है ही, बाज़ारों में भी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दुकानों के सामने छोटे-बड़े पेड़ लगे हैं। दुकानदार जब आकर अपनी दूकान खोलेगा तो उसके तत्काल बाद जाकर पेड़ में पानी देगा और उसके सामने हाथ जोड़ेगा। हिन्दू-मुसलमान कोई इसका अपवाद नहीं। पेड़ों को पानी देना उनके लिए एक धार्मिक परिघटना जैसी है। प्रकृति से प्रेम उनका सांस्कृतिक धर्म है। यही वजह है कि आम, अमरुद, रसबेरी, केले, नारियल, पीपल, नीम, पाकड़, बबूल, और न जाने किन-किन अनगिनत वृक्षों से आच्छादित है भागलपुर। शरतचंद के समूचे साहित्य में प्रकृति की छटा यूं ही नहीं उमड़ पड़ती है। यह भागलपुर से प्राप्त उनकी सांस्कृतिक विरासत है जो वसीयत के रूप में एक-एक शब्द में प्रस्फुटित होती है।
1930 के दशक में जब न्यू थिएटर से जुड़े प्रथमेश चंद बरुआ ने शरतचंद के उपन्यास ‘देवदास’ पर फिल्म बनाने की सोची तो शरत उन्हें लेकर भागलपुर आये थे। कोलकाता जाने के बाद और रंगून से लौटकर जब वह कोलकाता में बस गए थे तब भी, ‘जगधात्री पूजा’ पर साल में एक मर्तबा नियमित रूप से भागलपुर आते थे। वह कहते थे कि इस भागलपुर में उनके प्राण बसते हैं। बरुआ जब उनके साथ आये तो प्रकृति की इस नाज़नीन बसावट को देखकर हैरान हो गए। उन्होंने शरत से कहा “अब मैं समझा कि कैसे देवदास इतना रोमांटिक हो सकता है। भागलपुर की मिट्टी ही ऐसी है जो उसे ऐसा रूमानी बना सके।”
बरुआ के बारे में शांतनु एकदम से याद नहीं कर पाते। आख़िर तो यह उनके जन्म से 30 साल पुरानी बात है। संदर्भों का स्मरण कराने पर उन्हें याद आता है। वह बताते हैं कि उनके घर में बरुआ और शरतचंद की तब की कोई फोटो थी जिसे सुरक्षित न रखा जा सका। प्रथमेश चंद बरुआ ने 1935 में सबसे पहले बांगला में ‘देवदास’ का निर्माण किया। इसमें देवदास की भूमिका उन्होंने खुद निभाई थी। इसकी सफलता से प्रभावित होकर उन्होंने अगले साल हिंदी में इसके निर्माण का फैसला लिया और हीरो के रोल के लिए उस समय के सुपर स्टार कुन्दनलाल सहगल को चुना। फिल्म सारे देश में बम्पर हिट हुई और इस प्रसिद्धि ने प्रथमेश चंद बरुआ को ‘पीसी बरुआ’ बना दिया। पिक्चर देखने के बाद दक्षिणी कोलकाता के ‘न्यू थिएटर’ से बाहर निकलते में शरतचंद ने बरुआ की पीठ ठोंकते हुए कहा था “फिल्म देखकर ही समझ में आया कि मेरा जन्म देवदास लिखने को इसलिए हुआ क्योंकि तुम इस पर फिल्म बनाने के लिए पैदा हुए थे।“
अलबत्ता शांतनु को यह तो याद है, बल्कि उनकी आँखों देखी घटना है जब फिल्म निर्देशक बांगला और हिंदी के विराट क़द वाले तपन सिन्हा उनके घर की ‘देहरी’ छूने आये थे। बीती सदी को सलाम करते हुए उन्होंने जिन 5 अलग-अलग कहानियों लेकर अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का सबब बनी अपनी फिल्म ‘सदी की बेटियां’ (डॉटर्स ऑफ़ थे सेंचुरी) बनायी थी उसमें पहली कहानी ‘अभागी’ शरतचंद की कहानी (अभागीर स्वर्ग) पर आधारित थी। ‘अभागी’ में मुख्य भूमिका शबाना आज़मी की थी। मशहूर निर्देशक जयंतो साहा भी उनके यहां चुके हैं। जयंतो ने अपनी चर्चित फिल्म ‘बालक शरतचंद’ के निर्माण का ज़्यादातर हिस्सा भागलपुर में ही शूट किया था। बांगला में बनी इस फ़िल्म में जाहर रॉय, गुरुदासदास बदोपाध्याय, अजित चटर्जी और ज्ञानेश मुखर्जी प्रमुख भूमिकाओं में थे। शांतनु अंगुली पर ठीक-ठीक गिनती करके बताते हैं कि शरतचंद के उपन्यासों और कहानियों पर कुल मिलका 29 बांग्ला-हिंदी फ़िल्में बनी हैं। तमिल, तेलगु, असमी आदि की फ़िल्में इसमें शामिल नहीं हैं।
भागलपुर ने शरतचंद को प्रकृति प्रेमी बनाया था। तमाम रूढ़िवादी सामाजिक मान्यताओं को तोड़-फोड़ डालने का क्रांतिकारी तत्व लेकिन उन्होंने अपने लेखन में कहाँ से ग्रहण किया, इस पर कोई चर्चा नहीं होती। यह सही है की उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कलकत्ता से निकली उत्तर पुनर्जागरण की गर्म हवाएं समूचे बंगाल में फ़ैल गयी थी। भागलपुर भी ज़रूर इसकी चपेट में आया होगा। भागलपुर तो किन्तु क्रांतिकारी विद्रोहों का अठारवीं सदी से ही रचयिता रहा है।
तिलका मांझी को भागलपुर ने ही जन्म दिया था। आदिवासी विद्रोहों की श्रंखला में तिलका मांझी पहले आदिवासी नेता थे जिसने ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ के विरुद्ध विद्रोह किया था। सन 1771 में तिलका मांझी ने तीर-कमान और अपने संथाल साथियों को लेकर बग़ावत का झंडा बुलंद किया था। यह हिंसक संघर्ष 14 वर्ष तक चला। तिलका मांझी को पकड़ कर जिस जगह सूली पर चढ़ाया गया, वहाँ आज उनकी स्मृति में ‘तिलका मांझी चौक’ है। यद्यपि अंग्रेज़ों और भारतीय सामंतों के गठबंधन के विरुद्ध संथालों का यह पहला विद्रोह कुचल दिया गया लेकिन आनेवाले समय में इसने आदिवासी विद्रोहों की जो झड़ी लगाई वह उन्नीसवीं शताब्दी के वीरसा मुण्डा के विद्रोह से लेकर बीसवीं सदी के झारखंडियों के स्वतंत्र राज के आंदोलन तक जारी रही।
क्या सवा सौ साल बाद धरती पर लौटकर तिलका मांझी शरतचंद जैसों को भी सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका सुनिश्चित करने की नसीहत देते हैं? क्या तिलका मांझी सौ साल और आगे बढ़कर हम सब को भी यह नसीहत नहीं देंगे?
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अनिल शुक्ल 4 दशक की हिंदी पत्रकारिता की लंबी पारी। ‘आनंदबाजार पत्रिका (एबीपी) समूह, ‘संडे मेल’ तथा ‘अमर उजाला’ जैसे प्रमुख समाचार पत्र समूहों में नौकरी। दर्जन भर से ज़्यादा डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण। दूरदर्शन के लिए ‘ग्रेट मास्टर्स’ और ‘कामयाब’ जैसे डॉक्युमेंटेशन धारावाहिको का निर्माण-निर्देशन। सक्रिय रंगकर्म। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता के साथ-साथ आगरा की 4 सौ साल पुरानी लोक नाटकों की परंपरा ‘भगत’ के पुनरुद्धार के लिए आगरा में सक्रिय।