समकालीन जनमत
जनमत

देश राग

डॉ0 हरिओम


देश या राष्ट्र का जिक्र आते ही हम अक्सर जज्बाती हो जाते हैं। हम सभी चाहते हैं कि हमारा देश सुरक्षित रहे,खुशहाल रहे और ऐसा सोचते हुए हमारे मन में कई बार देश की जो छवि बनती है वह दुनिया के मानचित्र पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक खिंची हुई एक भौगोलिक सीमा रेखा के रूप में होती है। देश का जिक्र आते ही हम सरहदों की बात करते हैं, सैनिकों की शहादत की बात करते हैं और हमारा मन देश के संभावित या प्रचारित दुश्मनों के प्रति आक्रोश घृणा एवं प्रतिकार की भावना से भर जाता है।

हम आजकल अक्सर बिना जाने समझे प्रेम और नफरत करने लगे हैं। जिस तरह हम सिनेमा के पर्दे पर अपने पसंदीदा नायक-नायिका से प्रेम कर बैठते हैं ठीक उसी तरह दूर से दिखाए-समझाए-बताए अथवा प्रचारित किये व्यक्ति अथवा समुदाय से नफरत भी करने लगे हैं।

हम अक्सर सच की चाह में संदेह और भ्रम के लपेटे में आ जाते हैं। जिस सूचना तंत्र के ऊपर हमें वैचारिक और बौद्धिक रूप से समृद्ध करने में मदद की जिम्मेदारी है वही सूचना तंत्र अक्सर हमें गुमराह करने में भी निर्णायक भूमिका निभाता है।

देश प्रेम एक पवित्र मानवीय भावना है लेकिन यह भावना दूसरों के मुख से देश की कथा सुनकर या कागज पर हिन्दुस्तान का मानचित्र देखकर पैदा नहीं हो सकती। प्रेम में किसी वस्तु, व्यक्ति, समाज अथवा स्थान के प्रति उत्कट आवेग और चाह भले हो लेकिन किसी और के लिए बैर, ईर्ष्या, घृणा और प्रतिशोध का भाव इसमें नहीं हो सकता। प्रेम-सम्मान, समर्पण, समाहार और उत्सर्ग में विकसित होता है, वर्चस्व, बल प्रयोग और हिंसा में नहीं।

चाहे यह प्रेम किसी व्यक्ति से हो अथवा देश से ही क्यों न हो। देश के संदर्भ में जब यह प्रेम भौगोलिक सीमाओं से परे थोड़ा और व्यापक और गहरा होता है तब हम देश की ऐतिहासिक विरासत, सामाजिक संस्कृति और देश में रहने वाले लोगों की जिंदगी, उनके विचारों, उनकी दिक्कतों, उनके सपनों आदि से भी प्रेम करने लगते हैं।

हम चाहते हैं कि न सिर्फ हमारे देश की सीमाएं सुरक्षित रहें बल्कि देश की वैचारिक बौद्धिक विरासत भी अक्षुण्ण रहे साथ ही देशवासियों की जिन्दगी खुशहाल हो] लोग तरक्की करें,आपसी प्रेम-सौहार्द बढ़े जिससे हमारे देश का भविष्य भी उन्नत हो।

जैसे ही अपने देश के प्रति प्रेम की इस भावना में दूसरे देश पर वर्चस्व का भाव, दूसरे समाजों, समुदायों अथवा अस्मिता-समूहों के प्रति विद्वेष और तिरस्कार का भाव शामिल होता है, यह देश प्रेम नहीं रह जाता। यह उग्र राष्ट्रवाद हो जाता है जिसकी परिणति दूसरे राष्ट्र-राज्यों की सम्प्रभुता का अतिक्रमण, उसका अपमान, उससे प्रतिशोध और युद्ध में होती है।

साम्राज्यवाद या राष्ट्रीय अस्मिता के विस्तार की भावना दरअसल उग्र राष्ट्रवाद की ही देन है जिसे राजनीतिक महत्वाकांक्षी लोग अक्सर राष्ट्र प्रेम कहते हैं। इसी राष्ट्रप्रेम के चलते दुनिया ने तमाम युद्ध झेले हैं।

तमाम लोग देश और राष्ट्र की इस संकल्पना तथा एक आम नागरिक के देश प्रेम की भावना और एक महत्वाकांक्षी, सत्ताकामी, राजनीतिक दल के राष्ट्रप्रेम की अवधारणा के फर्क को नहीं समझते।

अतः देश और राष्ट्र को एक मान बैठते हैं और उनके जज्बातों का चालाक लोग सियासी फायदा उठा लेते हैं। जिस देश से हम प्रेम करते हैं, जिस देश को हम खुशहाल देखना चाहते हैं वह देश क्या है? उसका इतिहास क्या रहा है? उसकी समस्याएँ क्या हैं? और उसकी संस्कृति क्या रही है? उसमें कितने समुदाय, समूह-धर्म, भाषा, सम्प्रदाय से जुड़े लोग रहते हैं-यह सब जाने बिना हम देश से कैसे प्यार कर सकते हैं,आइए इस देश को थोड़ा जानने की कोशिश करते हैं।

आजादी के बाद देश और समाज के निर्माण का सपना जन-जन की आँखों में था। इस सपने का रंग चटख सुर्ख था जिसे आदिवासियों, किसानों-मजदूरों, युवाओं और बच्चों तक ने अपना लहू दिया था। 15 अगस्त 1947 को जिस तिरंगे झंडे ने जन-गण-मन का अधिनायकत्व संभाला था वह बलिदान के केसरिया रंग से सराबोर था और उसमें अमन-खुशहाली, शान्ति-समृद्धि की पुरजोर उमंग बसी हुई थी।

नये संविधान के रहते नई सरकार ने ताजा सुबहों और रोशन शामों का जो वायदा देश की जनता से किया था बाद के कुछेक वर्षों तक सबकी निगाहें उस पर टिकी रही थी। कुछ बेहतर कोशिशें भी सरकार ने कीं। बड़े शैक्षिक-तकनीकी संस्थान, अनुसंधान केन्द्र बने। पंचायतराज संस्थायें आईं।

आर्थिक विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएं शुरू हुईं। सड़कों-पुलों-बिजलीघरों आदि के क्षेत्र में भी साझा पूँजी के दम पर काम शुरू हुआ। लेकिन जल्दी ही यह पता चल गया कि जिन सपनों, मूल्यों,आकांक्षाओं की ऊष्मा ने सदियों पुरानी अंग्रजी हुकूमत को उखाड़ फेंका था उन्हें सिर्फ सरकारी प्रयासों से साकार करना मुमकिन नहीं होगा।

जो सवाल आज अहम हैं वही उस दौर में भी अहम थे। वे सवाल राजनीतिक-प्रशासनिक प्रकृति के उतने नहीं थे जितने सामाजिक-आर्थिक प्रकृति के थे। मेरे विचार से कुल तीन बुनियादी मुद्दे हैं जो हमारे देश के विकास में सबसे अधिक बाधक हैं-
1- भारतीय समाज का वर्गों- जातियों-उपजातियों में विभाजित होना] जिसकी तह में अन्याय] अत्याचार] शोषण और भेदभाव है।
2- भारतीय समाज का पितृसत्तात्मक होना यानि परिवार से लेकर दूसरी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक संस्थाओं और संरचनाओं में पुरुष के बरक्स स्त्री की जगह कमतर होना। समाज में लड़कियों-स्त्रियों से हर स्तर पर भेदभाव होना।
3- उपरोक्त दोनों स्थितियों को बनाए रखने के लिए मजबूत धार्मिक-दार्शनिक-मिथकीय-बौद्धिक और नैतिक तंत्र की मौजूदगी।
भारतीय समाज की संरचना की तह में जाति-वर्णभेद तथा लैंगिक असमानता को बनाए और बचाए रखने के लिए पुष्ट वैचारिक तंत्र की मौजूदगी ने देश के नागरिकों] समूहों, समुदायों के बीच गहरी सामाजिक-आर्थिक खाई पैदा कर दी है। जल-जमीन-जंगल और उत्पादन के अन्य साधनों के घोर असमान वितरण ने देश की एक बड़ी आबादी को गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा के अंधेरों में धकेल रखा है। धर्म और आस्था जहाँ एक ओर इस थोपी गयी वंचना को नियति का जामा पहनाकर गरीब-बदहाल देशवासियों को अपनी हालत पर शासक वर्ग से सवाल करने से रोकती है, वहीं देश और राष्ट्रप्रेम का राग उसे राजसत्ता की सनक पर आत्मोत्सर्ग के लिए भावनात्मक रूप से उकसाने का काम करता है। यह आत्मोत्सर्ग देश की सीमा पर तैनात सैनिक करें, खेतों में काम करने वाले किसान करें, कारखानों में अमानवीय हालातों में काम करने वाला श्रमिक करे या फिर भले ही घर की चहारदीवारी और घर के बाहर सड़क और कार्य-स्थलों पर मशक्कत करने के बावजूद भेदभाव, असुरक्षा और शोषण झेलती स्त्री करे लेकिन यह बात तय है कि देश के बड़े तबके-सामंत, पूँजीपति अथवा सत्ताधारी वर्ग] यह बलिदान करने को तैयार नहीं है।

देश या राष्ट्र कोई हवाई संकल्पना नहीं है। न ही यह सिर्फ भौगोलिक सीमाओं,जंगलों, पहाड़ों, नदियों, खेत-खलिहानों से बनता है।

यह बनता है इन सबके बीच साझा इतिहास की विरासत संभाले मानवीय मूल्यों से बंधे और खुशहाल भविष्य का सपना बुन रहे जन-समुदाय से जिसने एक लम्बे अरसे में अपनी जमीन, परिवेश से एक रागात्मक रिश्ता विकसित किया है। उस रिश्ते को अचानक तोड़ा नहीं जा सकता। देश या राष्ट्र पर इस जन-समुदाय का बराबर का अधिकार है। इस अधिकार को धर्म-जाति, मजहब, लिंग, क्षेत्र-भाषा के नाम पर बाँटने का प्रयास कुत्सित राजनीतिक मंशा से प्रेरित है। हमें इस बात का हमेशा ख्याल रखना चाहिए।

अगर हम विचार करें तो पाएंगे कि अपने देश, समाज की हर समस्या की जड़ें अंततः ऊपर बताए गये तीनों मुद्दों की परिधि में ही कहीं मौजूद है। सत्ता, शक्ति एवं बुद्धि सम्पन्न कोई तबका कभी भी इन बुनियादी संरचनाओं से छेड़छाड़ की कोशिश नहीं करता बल्कि उसे और पुख्ता करने का प्रयास करता है।

वर्चस्वशाली वर्ग जो भी लिखता-पढ़ता-बोलता है उसमें एक सहज सावधानी रहती है। सभ्यता] संस्कृति के तकाजे भी इस सावधानी के तहत ही पूरे किये जाते हैं। सामाजिक भेद-भाव, गैर-बराबरी, अन्याय-अत्याचार, छीन-झपट और जोर-दबाव का वातावरण बना रहे, इसके लिए जाति-धर्म लिंग, भाषा, क्षेत्र, शक्लो-सूरत, रंग-भेद, यहाँ तक कि साँस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अस्मिताओं और प्रतीकों के बीच टकराव बनाये रखने की सुविचारित रणनीति देश-समाज के ताकतवर तबके ने तैयार कर रखी है।

साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, जातीय व भाषायी संघर्षों की बुनियाद में काल्पनिक-मिथकीय प्रतीकों और अस्मिताओं को भड़काने और लड़ाने की यही राजनीति काम कर रही है। आज मुख्य धारा का जो विमर्श है। वह धर्म-जाति, अगड़ा-पिछड़ा, देश-राष्ट्र के गिर्द घूमता है। यह शहरी, सुविधा सम्पन्न, सत्ता-सुख के लिए संघर्षरत तबके का विमर्श है जिसमें बुनियादी जन-सरोकार गायब हैं।

इस विमर्श से गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी गायब है। आर्थिक संसाधनों पर बराबरी का सवाल गायब है। देश की आमदनी पर देश की बड़ी आबादी का क्या हक-हिस्सा होगा, इस पर चर्चा गायब है। भूमि सुधारों] श्रम सुधारों, शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं की बात गायब है। किसानों के कर्ज, फसलों के कम दाम की चर्चा गायब है। कन्या भ्रूण हत्या, महिलाओं के दैहिक-मानसिक शोषण, पुरुषों के बरक्स उनके अधिकारों का सवाल गायब है। सरकारी-प्रशासनिक मशीनरी में भ्रष्टाचार की चर्चा तो है लेकिन मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी,गाँवों में बेगार, पंचायती तंत्र में उच्च-वर्ण, शक्ति सम्पन्न तबके का वर्चस्व और कारपोरेट तबके द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की खुलेआम लूट और भीषण मुनाफाखोरी हमें आन्दोलित नहीं करती।

सुशासन की माँग तो उठती है लेकिन समाज में ऊँच-नीच, घर-बाहर, लड़के-लड़की के बीच विभेद या सार्वजनिक सम्पत्तियों व संसाधनों पर कब्जे को लेकर हम परेशान नहीं होते।

बेतहाशा बढ़ रही आबादी जिसे जरूरी शिक्षा-स्वास्थ्य, रोजगार, आवास-भोजन उपलब्ध नहीं है वह देश के लिए एक विकट समस्या बनती जा रही है। यह राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बिल्कुल नहीं है। जब जज़बाती मुद्दों से ताकतवर तबके का हित सधता हो तो फिर ठोस-जमीनी मुद्दों की तरफ जाने की जरूरत ही क्या! जब हम अपने देश-समाज, उसकी समस्याओं सवालों को नहीं जानेंगे तो भावुकता,कल्पना, आदर्श और आडम्बर का जाल हमें आसानी से फँसा लेगा और हम देश-राष्ट्र प्रेम के भ्रम में जीते रहेंगे। देश का भला देश की बुनियादी समस्याओं के समाधान से होगा सिर्फ दूसरों की तरफ राग-द्वेष भरी नजरों से देखने से नहीं।

विकास का जो ख़ाका आपके हमारे सामने है वह अदृश्य पूँजी के वर्चस्व का ख़ाका है आज के बाजार में सामाजिक-साँस्कृतिक रिश्ते गायब होते जा रहे हैं। जमीन पर आधारित जो ग्राम्य अर्थव्यवस्था पहले थी उसमें खरीदने बेचने वाले के बीच एक रिश्ता होता था क्योंकि दोनों एक दूसरे को जानते थे।

यह परिचय निर्मम मुनाफाखोरी की संस्कृति को रोकता था जबकि आज बेचने वाला अदृश्य है। हम उससे शिकायत नहीं कर सकते, झगड़ नहीं सकते। हम आज एक लाचार उपभोक्ता हैं। पूँजी परदे के पीछे है। हमें नचा रही है, सपने दिखा रही, हमारी जरूरतें बढ़ा रही] लेकिन हमारी क्रय-शक्ति] बढ़ाने का कोई काम पूँजी नहीं कर रही। उल्टे हमें लकी ड्रा और रातों-रात करोड़पति बनने के झाँसे में डाल निकम्मा जरूर बना रही है। हमारी असुरक्षा, अज्ञानता, लालच और धर्मभीरुता ने चारों तरफ उद्धारक बाबाओं, प्रवचनकर्ताओं और कर्मकांडियों की बाढ़ ला दी है। यह जमात कारपोरेट अंदाज में बड़े पैमाने पर अपना अलग धंधा चला रही है।

अब सिर्फ वस्तु और सेवाएँ ही उत्पाद नहीं रहे। अब तो शिक्षा-स्वास्थ्य, परामर्श, साहित्य-संगीत-धर्म-संस्कृति, कथा-प्रवचन-साधना सब उत्पाद हैं जिसे बाजार में खरीदा-बेचा जा रहा है। तकनीक और मशीनों के दौर में मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक मूल्यों की जगह लगातार कम होती जा रही है। हमें उपभोग की इस अपसंस्कृति और नैतिक अवमूल्यन पर भी सोचना चाहिए।
सभी देशवासियों को अपने देश से प्रेम भी करना चाहिए और यह प्रेम देश को जाने बिना नहीं हो सकता। अन्याय-अत्याचार, शोषण-अपहरण की जो संस्कृति देश के शासक-सामन्ती वर्ग ने अपने फायदे के लिए विकसित की है वह हमारे देश की जन-संस्कृति नहीं है। भारत देश की जनता का हक इस देश के इतिहास-भूगोल पर तो है ही लेकिन इस देश के संसाधनों] आर्थिक-स्रोतों और उपलब्धियों पर भी उसका हक है। यह देश आगे किस रास्ते पर जाएगा यह तय करने में भी उसकी भूमिका होती है। भारतीय संविधान कोई एक पवित्र किताब नहीं है यह प्रत्येक देशवासी की जरूरतों और उम्मीदों का आईन है और देश की बुनियादी संरचना को सुरक्षित रखने के लिए संविधान का सुरक्षित रहना आवश्यक है।

हर देशवासी को अपनी जरूरतों-उम्मीदों-आकांक्षाओं और सपनों की रक्षा करने के लिए भी सजग रहना चाहिए। हमारे पूर्वजों, मेहनतकशों, जुझारू देशभक्तों ने बड़े बलिदान के बाद अंग्रेजी दासता के झंझावाती तूफान से देश नाम की जो कश्ती निकाली थी उसकी हिफाजत करना हमारी और आने वाली सभी पीढ़ियों का फर्ज है और यही सच्ची देश भक्ति है।

(डॉ. हरिओम कवि, गज़लकार और कहानीकार के साथ मशहूर ग़ज़ल गायक भी हैं. हरिओम की उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से. दो ग़ज़ल संग्रह ‘धूप का परचम’ और ‘ख़्वाबों की हँसी’, दो कहानी संग्रह ‘अमरीका मेरी जान’, ‘तितलियों का शोर’ और कविता संग्रह ‘कपास के अगले मौसम में’ प्रकाशित और प्रशासनिक सेवा में कार्यरत हैं।)

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