( यह संपादकीय “द इंडियन एक्सप्रेस” में प्रकाशित हुई है। समकालीन जनमत के पाठकों के लिए दिनेश अस्थाना ने इसका हिंदी अनुवाद किया है )
नोटबंदी को सबसे बड़ी अदालत ने तो पास कर दिया पर रिजर्व बैंक और भारत सरकार को असहमति के आदेश को जरूर पढ़ना चाहिए- ऐसे कदम दुबारा न उठें, चेतावनी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रु0 500 और रु0 1000 के नोटों को बंद कर दिये जाने की घोषणा के 6 साल बाद उच्चतम न्यायालय की पाँच जजों की संविधान पीठ ने उसे अपने विवादास्पद निर्णय द्वारा वैध करार दे दिया है। सोमवार को 4:1 के बहुमत से नोटबंदी को चुनौती देनेवाली याचिका रद्द कर दी गयी है और उसकी वैधानिकता पर मुहर लगा दी गयी है। यह कहा गया है कि इस निर्णय-प्रक्रिया में कोई दोष नहीं पाया गया। हाँलाकि न्यायमूर्ति नागरत्ना की असहमति के निर्णय में नोटबंदी की इस पूरी कवायद को न सिर्फ विधि-विरुद्ध बताया गया है बल्कि भारतीय रिजर्व बैंक की संवैधानिक संस्थागत स्वतन्त्रता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े किए गए हैं। यह जरूरी है कि इन सवालों पर यह केंद्रीय बैंक भी गौर करे।
न्यायमूर्ति नागरत्ना लिखती हैं कि नोटबंदी का प्रस्ताव केंद्रीय सरकार द्वारा लाया गया था और उसपर भारतीय रिजर्व बैंक की सहमति विचार के रूप में ‘प्राप्त’ की गयी थी। वह इंगित करती हैं कि अभिलेखों में केंद्रीय सरकार द्वारा “जैसा कि चाहा गया था” और कि केंद्रीय सरकार द्वारा “अनुमोदित” जैसे वाक्यांश दिखाई देते हैं जो यह प्रदर्शित करते हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अपने “विवेक का स्वतंत्र प्रयोग नहीं किया गया”। इन सब के अलावा यह पूरी प्रक्रिया 24 घंटे में पूरी कर ली गयी। द इंडियन एक्स्प्रेस में पहले भी बताया गया है कि अर्थव्यवस्था के अभिशाप काले धन पर प्रहार, नकली नोटों की समस्या और आतंकी फंडिंग में उसके उपयोग जैसे मामलों में नोटबंदी की प्रभावशीलता को लेकर केंद्रीय बैंक के सरकार से मतभेद थे। फिर भी, बहुमत के निर्णय के अनुसार, इन मतभेदों के बावजूद भारतीय रिजर्व बैंक विचार-विमर्श के पूरे 6 माह में सरकार को इस मूर्खतापूर्ण कदम उठाने से रोकने में नाकाम रहा। यदि नोटबंदी इसकी संस्थागत विश्वसनीयता और स्वायत्तता का निर्णायक परीक्षण था तो भारतीय रिजर्व बैंक इसके क्रियान्वन में पूरी सतर्कता बरतने में नाकाम रहा, कहा जा सकता है कि पूरी प्रक्रिया चरमरा गयी या यह भी कहा जा सकता है इस नीति को ज़ोर-जबर्दस्ती लोगों पर लादा गया।
हांलाकि, नोटबंदी के फैसले को पलटा नहीं जा सकता, फिर भी अदालत में दी गयी दलीलें और उनके आधार पर लिए गए निर्णय केवल पढ़ने भर के लिए नहीं हैं। देश में नीति निर्धारण और संस्थागत पवित्रता के संरक्षण में इसके दूरगामी प्रभाव होंगे। नोटबंदी के घोषित लक्ष्यों की प्राप्ति पर कोई टिप्पणी न करके न्यायालय ने ठीक ही किया है क्योंकि हुआ यह कि आर्थिक दंश में वृद्धि ही हुई और इससे लोगों को अपार कष्ट भी हुए। असहमति के निर्णय ने एक सरकारी गज़ट के अखबार में छप जाने और उसको क्रियान्वित किए जाने और संसद में इससे संबन्धित कानून बनाने में अंतर को उजागर कर दिया है- इस अंतर का मंतव्य यह है कि अति-शक्तिशाली कार्यपालिका की शक्तियों की सीमाओं को अंकित किया जाय और संसद की सर्वोच्चता को रेखांकित किया जाय। पहले की तुलना में अधिक चुनौती भरे आर्थिक परिदृश्य में केंद्रीय बैंकों, जो देश में महत्वपूर्ण खिलाड़ी हो गए हैं, का आर्थिक प्राप्तियों पर प्रभावी नियंत्रण होना चाहिए। जिन दोषों और कमियों पर इस निर्णय ने अपनी उंगली रखी है उन्हें खूब ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।