वरिष्ठ कथाकार, साहित्य-आलोचक और ‘निष्कर्ष’ पत्रिका के संपादक डॉ गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव नहीं रहे। 27 फरवरी को उनका निधन लखनऊ में हुआ। पिछले कुछ महीने से वे अस्वस्थ चल रहे थे। उनका जन्म 3 अगस्त 1933 को हुआ। निधन के समय उनकी उम्र 85 पार थी।
डॉ गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव अंग्रेजी के अध्यापक थे परन्तु सहित्य सृजन किया हिन्दी में। उनके साहित्यिक जीवन की शुरुआत गोरखपुर से हुई। यह उनके बनने का दौर था। उन्हीें दिनों ‘भंगिमा’ मासिक पत्रिका गोरखपुर से निकालती थी। लाल बहादुर वर्मा इसके संपादक थे। उनका संकल्प था कि वे इसके पचास अंक निकालेंगे। उन्होंने इसे पूरा किया। गिरीश जी और लाल बहादुर वर्मा ने मिलकर गोरखपुर में प्रगतिशील व जनवादी सांस्कृतिक व रचनात्मक माहौल तैयार किया था।
गिरीश जी 1970 में गनपत सहाय महाविद्यालय, सुल्तानपुर में अंग्रेजी के अध्यापक बन कर आ गये। करीब तीन दशक तक यह जिला उनकी सृजन भूमि रही। उनकी विशेषता थी कि उन्होंने नई पीढ़ी को और अपने छात्रों को हमेशा लिखने-पढ़ने के लिए प्रेरित-उत्साहित किया। उनके पढ़ाये कई छात्र आज के चर्चित रचनाकार हैं।
डॉ गिरीश के सृजन का मुख्य क्षेत्र कथा साहित्य था। उनकी कहानियों का पहला संग्रह ‘कांटा’ 1977 में छपकर आया। उनकी कहानियां मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों को उदघाटित करने के साथ जनजीवन की गहरी पड़ताल करती है और आम आदमी की कथा कहती है। गिरीश जी की कथा-दृष्टि है कि उनकी कहानियां तात्कालिक होते हुए भी तात्कालिक नहीं होती, वह हमारे ‘समय का सच’ होती है।
‘सपने का सच’ उनका दूसरा कथा संग्रह है जो 2005 में छपकर आया। उनकी कहानी ‘कांटा’ 1968 में ‘कल्पना’ में और ‘करवटें’ अमृत राय के संपादन में निकलने वाली ‘नई कहानियां’ में प्रकाशित हुईं। ‘मेजबान’, ‘हड़ताली’, ‘आवेश’, ‘दोस्ती’ आदि उनकी चर्चित कहानियां रही हैं। सुल्तानपुर से उन्होंने ‘निष्कर्ष’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।
2002 में सेवा निवृति के बाद डॉ गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव लखनऊ आ गये। उसके बाद से यह शहर ही उनकी कर्मभूमि थी। लखनऊ में भी ‘निष्कर्ष’ का प्रकाशन जारी रहा। इसके कुल 38 अंक प्रकाशित हुए। पत्रिका के कई महत्वपूर्ण विशेषांक भी निकले जिनमें कहानी विशेषांक और कुंवरपाल सिंह पर निकले अंक की खास चर्चा हुई। लखनऊ में राही मासूम रज़ा एकेडमी की स्थापना उनके प्रयास से हुई। ‘रेवान्त’ पत्रिका के संस्थापक प्रधान संपादक थे। 2017 में ‘रेवान्त’ ने एक भव्य समारोह में उन्हें साहित्य सम्मान प्रदान किया। पत्रिका की ओर से उन पर केन्द्रित अंक निकालने की योजना थी जो उनके जीवनकाल में पूरी नहीं हुई।
1982 में जनवादी लेखक संघ की स्थापना हुई। सुल्तानपुर में वे इसके केन्द्रक बने। यही भूमिका उन्होंने लखनऊ में भी निभायी। जलेस में उन्होंने नयी जान फूंकी। संप्रति वे इसके प्रदेश संरक्षक मंडल के सदस्य थे। कुछ सालों तक वे जन संस्कृति मंच से भी जुड़े रहे। 1985 में इसके स्थापना सम्मेलन में आये तथा इसकी रष्ट्रीय कार्यकारिणी में चुने गये। 1986 में इलाहाबाद में हुए जसम के प्रान्तीय सम्मेलन में वे उपाध्यक्ष बनाये गये। उनकी पहल पर सुल्तानपुर और प्रतापगढ़ में मंच की इकाई गठित हुई थी।
वे सांस्कृतिक आंदोलन के लिए प्रगतिशीलों व जनवादियों की एकता के बड़े पक्षधर थे। इस दिशा में लगातार काम करते रहे। जब भी उन्हें प्रगतिशीलों में भटकाव या विचलन दिखता, उसकी वे निर्मम आलोचना करने में पीछे नहीं हटते।
गिरीश जी जरूर ऊंचा सुनते थे लेकिन समय की आवाज सुनने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी। कहा करते थे कि यह समय जनविरोधी है। बाजारवाद व पतनशील राजनीति हावी है। प्रतिक्रियावादी ताकत सत्ता में है। कॉरपोरेट लूट जिस तरह जारी है उसकी तुलना में संघर्ष नहीं हो रहा है। मजदूरों के अधिकारों को छीना जा रहा है परन्तु उनके संगठन व आंदोलन के लिए जिस तरह की प्रतिबद्धता की जरूरत है उसका अभाव दिख रहा है। साहित्य हो या समाज हर ओर नकलीपन की प्रवृति बढ़ी है। अवसरवाद और ढुलमुलपन बढ़ा है। सच को सच कहने से लोग कतरा रहे हैं। यह सही नहीं है। सत्य की राह में खतरे हैं पर खतरा उठाकर भी सत्य की राह पर बढ़ा जाना चाहिए। हमने यही किया। उपेक्षित हुआ। पर कोई मलाल नहीं। बल्कि इससे संतोष ही हुआ है कि अपने दायित्व का हमने निर्वाह किया। ऐसे ही विचारों की निर्मिति रहे हैं डॉ गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव। उनका निधन सृजन, विचार और संगठन के क्षेत्र की बड़ी क्षति है।
जन संस्कृति मंच उनके परिवार, मित्रों और साहित्य समाज के साथ इस दुख में शामिल है। मंच के प्रदेश अध्यक्ष शिवमूर्ति, कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर और उपाध्यक्ष भगवान स्वरूप कटियार ने उन्हें अपना श्रद्धा सुमन अर्पित किया है।