समकालीन जनमत
शख्सियत

दास्तान-ए-ख़लीफ़ा

(आज़ादी के बाद उम्मीद की जाती थी कि लोककलाओं का विकास होगा लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। 60 और 70 का दशक आते-आते जो लोक कलाएं पूर्णतः लुप्त हो गईं, आगरा की 4 सौ साल पुरानी लोक नाट्य कला ‘भगत’ उनमें से एक है। 50 साल के अंतराल के बाद इस लोक कला के पुनरुद्धार का बीड़ा उठाया नाट्य संस्था ‘रंगलीला’ ने। 2007 में एक बड़े सांस्कृतिक आंदोलन का आग़ाज़ हुआ। मोहल्लों, बस्तियों, स्कूलों, कॉलेजों, पार्कों, मैदानों, छात्रों, शिक्षकों, वक़ीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, पत्रकारों का बड़ा समूह इस आंदोलन का हिस्सा बने और आधा दशक पूरा होते-होते ‘भगत’ फिर उठ खड़ी हो गई। इन आंदोलनकारियों में जिस शख़्स ने आगे बढ़कर कमान संभाली वह था इस विधा का 86 वर्ष का उम्रदराज़ ‘ख़लीफ़ा’। इन्हीं ख़लीफ़ा के बहाने समूचे आंदोलन का ब्यौरा दे रहे हैं संस्कृतिकर्मी अनिल शुक्ल*)



 

ख़लीफ़ा का जन्मदिन ज्येष्ठ माह में पड़ता था, उनकी मां उन्हें बताया करती थीं। तिथि और दिन उनकी मां को नहीं याद था तो ख़लीफ़ा को कहाँ से याद रहता। जेठ के महीनेका वो लम्बे समय से इंतज़ार करते। मुझे भी जेठ के आगमन से पूर्व वह अकसर उकसाया करते थे। जेठ का महीना आते ही हम उनका जन्म दिन मनाने की तयारी शुरू कर देते। कोई अच्छी सी ब्रांड की व्हिस्की की बोतल खोली जाती। मैं, ख़लीफ़ा और हम लोगों के ‘गैंग’ का कोई न कोई सदस्य। राकेश तो ख़ैर था ही पेशेवर हलवाई उसकी तो बात ही क्या, उनके बाकी चेलों में भी कोई न कोई गर्मागर्म पकौड़ियाँ तलना ज़रूर जानता। स्टोव जलाया जाता और कढ़ैया के कच्ची घानी तेल की महक में ख़लीफ़ा की कोठरी सराबोर हो जाती।

उनका स्वास्थ थोड़ा गड़बड़ रहता, इसलिए मेरी नज़र उनके पेग पर रहती। मुझे चिंता रहती कि कहीं ज़्यादा न हो जाय। मैं थोड़ी बेइमानी करता और उन्हें 40-45 एमएल० का ही पेग पानी मिलाकर दे देता। ‘हैप्पी बर्थ डे ख़लीफ़ा’ का नारा उछलता और ‘पार्टी’ शुरू हो जाती। ग्लूकोमिया की वजह से वह देख नहीं पाते थे लेकिन पहला ‘सिप’ चखते ही पूछते “कहाँ से लाये हो? कुछ नक़ली सी दीखे?” मैं और पार्टी में मौजूद बाकि लोग असहमति जताते। “तुम्हारी जबान का टेस्ट आज ठीक नहीं है ख़लीफ़ा, बाकी माल तो चोखा है।” ख़लीफ़ा इस तरह कोई 3 4 ‘पेग’ सटक लेते और तब थोड़ी मौज में आते। हम लोगों की फ़रमाइशें शुरू होतीं और ख़लीफ़ा अपने जानदार गले के अद्भुत स्वर में किसी शानदार लोक रचना का गायन करते, महफ़िल सयानी हो जाती। पूरे ज्येष्ठ माह में मुझे ख़बरें मिलती रहतीं (कभी दीपक से तो कभी मंदिर वाले पंडित जी से)।

ख़लीफ़ा आये दिन अपने किसी न किसी चेले से दारू मंगवाकर अपना हैप्पी बर्थ डे मनाते रहते- कभी राजू बावरा तो कभी कोई और। कोई नहीं होता तो अपने भतीजे लक्ष्मण के हाथ में पैसे रखकर ‘अद्धधा’ मंगाते और चाचा-भतीजे उसी में निबटान कर लेते। मैं जब उनके (स्वास्थ्य को लेकर) इस तरह के आए दिन की शराबख़ोरी पर ग़ुस्सा करता, वह सफाई देने लग जाते “अरे यार वो फलां पीछे पड़ गया था। बिटचो (गाली देकर) मुझे क़सम दिलाने लगा। मजबूरी में थोड़ी चक्खनी पड़ गई। अब तौबा की। क़सम लेलो।” वह जानते थे कि मैं जानता हूँ कि वह झूठ बोल रहे हैं। उनके भोले चेहरे पर ‘फिस्स’ से मुस्कराहट उभरती। मैं बड़बड़ाता। वह अपना कान पकड़ते “लो भाई, अब कल से नहीं।” एकाध दिन बाद फिर इसी ‘एकांकी’ की पुनरावृत्ति होती। पूरे ज्येष्ठ माह- उनका ‘कल’ कभी नहीं आता।

ख़लीफ़ा आगरा की 400 साल पुरानी मृतप्राय होती लोक नाट्य कला ‘भगत’ के ‘अख़ाड़ा दुर्गदास’ के ख़लीफ़ा (प्रशिक्षक) थे। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक गायकी की इस लोक नाट्यकला की प्रस्तुति 3 दिन से सप्ताह तक (सारे-सारे दिन और पूरी-पूरी रात) चलती रहती थी। ‘भगत’ के कथानक कभी सामाजिक समस्याओं से जुड़े होते तो कभी ऐतिहासिक कार्यकलाप से। कभी इनके ‘प्लॉट’ की पृष्ठभूमि में मिथकीय कथाएं भी होतीं। ‘अखाड़ा’ एक प्रकार की कमेटी को कहते हैं जो शहर में अपने निर्धारित क्षेत्र की सीमा के भीतर ही ‘भगत’ की प्रस्तुतियां करती थी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक आगरा में ‘भगत’ के 18 अखाड़े हुआ करते थे।

1960 के दशक के बाद यह लोक नाट्यकला विलुप्त हो गयी। लगभग पचास साल बाद, जब सन 2007 में नाट्य संस्था ‘रंगलीला’ ने आगरा में इसके पुनरुद्धार के लिए एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन छेड़ा तो ख़लीफ़ा इसमें शरीक़ हुए और आगे चलकर 86 वर्ष की उम्र में वह इस आंदोलन के ‘सुप्रीम कमांडर’ के रूप में उभरे। अपनी 94 वर्ष की उम्र तक वह भगत ‘खेलते’ रहे। अपने जीवन काल का ‘पर्दा गिरने’ से ठीक 2 माह पहले उन्होंने ‘भगत’ के मंच का आख़िरी बार पर्दा उठाया था।

आजीवन कुंवारे ख़लीफ़ा की शोक यात्रा सजाने को 7 सौ से ज़्यादा उनके मुरीदों और चाहने वालों ने जब हारमोनियम के सुर और ढोलक की ताल पर भगत के ‘चौबोले’ और ‘बहर-ए-तबील’ गाते शहर की सड़कों को एक कोने से दूसरे कोने तक नाप दिया था तो दूर-दूर तक ट्रैफिक थम गया था। आगरा के ताजगंज श्मशान तक पहुँचते- पहुँचते शवयात्रियों की भीड़ 4 अंकों में पहुँच गयी थी। ‘लोककला’ के सम्राट को अग्नि के हाथो समर्पित करने से पहले घंटों श्मशान घाट पर भी गायन चला। अपने-अपने परिजनों के पार्थिव शवों के साथ पहुंचे दूसरे शव यात्री इस ‘वीवीआईपी’ को देखकर हैरान थे (और यह सुनकर कि वह एक लोक कलाकार है,) उन्हें इस बात का यक़ीन नहीं हो रहा था कि गर्व और गौरव का एक शिखर यह भी हो सकता है। अगली सुबह आगरा के तीनों प्रमुख दैनिक अख़बारों ने ख़लीफ़ा के अंतिम संस्कार का विवरण कुछ इस तरह से दिया- न भूतो न भविष्यति!

मूल रूप से आगरा से 16 मील दूर अछनेरा के सेंता गाँव के थे ख़लीफ़ा। । यूं सेंता मिश्रित जातियों की आबादी वाला बड़ा गांव था लेकिन ‘बाभनों’ के बाद की सबसे बड़ी आबादी ‘अहीरों’ की थी। बीसवीं सदी की शुरुआत में यहां की अहीर आबादी का व्यापक हिस्सा गरीबी से जूझने वाला था। छोटी कास्त में सक्षम चंद परिवारों को छोड़कर ज्यादातर या तो कृषि मजदूर थे या फिर पड़ौसी कस्बे अछनेरा में जाकर मेहनत-मजूरी से पेट पालते थे। इन्हीं में से एक परिवार में ख़लीफ़ा का जन्म हुआ था। नाम रखा गया- फूलसिंह। माता-पिता और घर-गांव के बुज़ुर्ग ‘फूली’ के नाम से बुलाते थे।

सात वर्ष की उम्र में वह आगरा शहर के अहीरपाड़ा मोहल्ले में अपनी ननिहाल भेज दिए गए। यहां भी वह फूली के नाम से ही पुकारे जाते थे और यही वजह है कि 7 वर्ष की उम्र (जबकि एक बाल कलाकार के रूप में उन्होंने ‘भगत’ परंपरा में अपनी उपस्थति दर्ज करवाई) से लेकर, 18 वर्ष की अल्पायु तक (जबकि लोक नाटकों की परंपरा ‘भगत’ के अखाड़े में उन्हें ख़लीफ़ा की पगड़ी प्रदान की गयी,) वह पूरे आगरा में ‘फूली खलीपा’ के नाम से पुकारे गए। वैसे तो शहर में पचासों ख़लीफ़ा थे। खुद उनके अखाड़े में उन्हें छोड़ 4 ख़लीफ़ा और भी थे लेकिन योग्यता, संगीत और गायकी पर उनकी जबरदस्त पकड़ और ‘भगत’ के प्रति उनके जूनून ने उनके नामकरण से फूलसिंह या फूली हटाकर मूल नाम ही ‘खलीपा’ कर दिया। औरो की बात तो दरकिनार, आने वाले सालों में वह खुद भी अपना नाम भूल गए। सारा शहर उन्हें ‘खलीपा’ के नाम से जानता और पुकारता। वह स्वयं भी कभी खुद को प्रथम वचन में संबोधित नहीं करते, सदा तृतीय वचन में बुलाते- “आज तो ख़लीफ़ा अरहर की दाल और रोटी खाएगा।” याकि “आज ख़लीफ़ा का चोला सई नईं ए भाई।”

गहरा सांवला रंग, 6 फुट से ऊपर की देह और छरहरे बदन वाले ख़लीफ़ा की नज़रें भले ही चली गई हों, सुनने की शक्ति जितनी प्रबल थी, उससे ज्यादा तेज थी उनकी याददाश्त। 86 साल से ऊपर की उम्र हो जाने के वावजूद लड़कपन और जवानी के ‘दंगलों’ और स्टेज पर गाए दोहे, गीत, चौपाई, चौबोला, रसिया, लावनी, ग़ज़ल, क़व्वाली, होली और ख़याल के एक-एक मिसरे और लब्ज़, उनकी जिव्हा पर दौड़ पड़ने को तैयार बैठे रहते थे। निरक्षर होने के नाते वह बहुत से शब्दों का ग़लत उच्चारण करते थे लेकिन उर्दू और हिंदी के जिन सैकड़ों शब्दों को वह बिलकुल सही उच्चारण के साथ बोलते थे उनमें एक शब्द ‘ख़लीफ़ा’ भी था। ‘खलीपा’ कहकर पुकारने वाले सैकड़ों “गंवारों” की तुलना में वह उन्हें ही 24 कैरेट वाला “पढ़ा-लिखा” मानते जो बिलकुल सही उच्चारण के साथ उन्हें ‘ख़लीफ़ा’ कहकर सम्बोधित करते।

साक्षरता के नाम पर भले ही वह ज़ीरो बटा निल थे लेकिन सयाने होते ही गुरू, उस्तादों, कवियों और शायरों के चरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्ति की उनकी ललक ने उन्हें काव्य शास्त्र का अच्छा-ख़ासा ज्ञाता बना दिया था। किसी गन्धर्व विद्यालय में जाये बिना ही राग-रागनियों को गा-बजा पाने की अद्भुत और विलक्षण क्षमता थी ख़लीफ़ा के पास। यही वजह है कि भैया और भाभियां भले ही उनकी इन ‘ऊटपटांग हरकतों’ के लिए उन्हेँ दिन भर लानतें भेजते रहे हों, गाने-बजाने के तमाम शौक़ीनों और लौंडे-लपाड़े का घर में ताँता लगा रहता।

मेरा बचपन लोहामंडी मोहल्ले में गुज़रा था जो ख़लीफ़ा के इलाके से चिपटा हुआ था। मैंने अपने लड़कपन में जो ‘भगत’ देखीं, उनमें कुछ फूली ख़लीफ़ा द्वारा लिखित और निर्देशित भी थीं। तब मैं ख़लीफ़ा को नाम आदि से नहीं जानता था लेकिन उन प्रस्तुतियों के भव्य कलात्मक स्वरुप मेरे ज़ेहन में अब भी ज़िंदा थे। उनसे परिचय होने के बाद उनके ‘रंग’ और उनकी पृष्ठभूमि परत-दर-परत खुलते चले गए।

अब जबकि मुद्दत हुई, संगीत छूटा, अखाड़ा छूटा, रियाज़ और तालीमों के दिन लद गए, पर लोग कहते हैं कि इस उम्र में भी उनके गले में सरस्वती का वास है। तीज-त्यौहार और ख़ास मौक़ो पर जब कभी मंदिर में ‘बाजा’ लेकर वह भजन की तान छेड़ते तो तमाशबीन मर्द-औरतों की भीड़ जुट जाती।

मेरी ख़लीफ़ा के साथ पहली मुलाक़ात बड़ी दिलचस्प और अविस्मरणीय है। गठन के एक साल बाद सन 2007 में, ‘रंगलीला’ में हम लोगों ने फैसला लिया कि ‘भगत’ के पुनरुद्धार के लिए एक बड़े सांस्कृतिक आंदोलन की शुरूआत की जाय। ‘भगत’ अखाड़ों के कुछ ख़लीफ़ा तब तक मौजूद थे और कलाकार भी लेकिन भगत के विलुप्त हो जाने से वे भी इधर-उधर बिखर गए थे। 45-50 साल का वक़्त, एक लम्बा अंतराल छोड़ जाता है लिहाज़ा वे या तो दीगर काम धंधों में लिप्त हो गए थे या उम्र ज़्यादा हो जाने के चलते घर में रिटायर्ड जीवन गुज़ार रहे थे।

मैंने इन लोगों से मिलना जुलना शुरू किया और उनके सामने ‘भगत’ को दोबारा शुरू करने का प्रस्ताव रखा। ये सब ‘होस्टाइल’ लोक कलाकारों की ऐसी जमात थी जो इस बात पर बिलकुल यक़ीन करने को तैयार नहीं थी कि “मर खप” चुकी ‘भगत’ को दोबारा शुरू किया जा सकता है। मेरे पास उम्मीदों से लबालब भरे तालाब में छपाछप तैरते अपने तर्क थे और उनके पास नाउम्मीदी के समंदर में गहरे डूब चुकी दलीलें। बहरहाल हम मिलते रहे। बार-बार, नए और पुराने सभी लोगों से। मेल मुलाक़ात की इसी श्रंखला में मैं फूली ख़लीफ़ा से मिलने पहुंचा। मैंने पता कर लिया था कि वह अपना पैतृक मकान छोड़ कर 27 वर्ष से पुनियापाड़ा मोहल्ले के ‘बाल भैरों मंदिर’ में रहते हैं।

आगरा-दिल्ली जोड़ने वाली रेल लाइन की पटरी पर बने फाटक को लांघता-कूदता मैं पुनियापाड़ा मोहल्ले में दाख़िल हुआ। वहां से गुज़रते एक नवयुवक से मैंने ‘बाल भैरों मंदिर’ का पता पूछा। लड़के ने अपने दाहिने हाथ के इशारे से मंदिर की दिशा समझा दी। अचानक उसने पलट कर पूछा “मंदिर में किस्से मिलना है?” जवाब में मैंने फूली ख़लीफ़ा का ज़िक्र किया। उसने बांए हाथ पर दूर एक झुण्ड की तरफ इशारा किया। मैंने आंखों को ‘ज़ूम इन’ किया। शोर मचाते बच्चों के झुण्ड के बीचों-बीच एक बुज़ुर्ग हाथ-पाँव चलाता दिखा। नज़दीक पहुंचा तो देखा “खलीपा तुम्हारा नाड़ा लटक रेया है” का उद्घोष करते कोई आधा दर्जन बच्चे हैं और सामने सेंडो बनियान और घुटन्ने (आगरा में घुटने तक लंबे जांघिया को घुटन्ना कहते हैं) में बच्चों से जूझते भद्दी-भद्दी गलियां बकते, हाथ-पाँव चलाते फूली ख़लीफ़ा। मुझे देख बच्चे शांत हुए। मैंने ख़लीफ़ा को नमस्ते कहा और बताया कि मैं ख़ास तौर पर उनसे मिलने आया हूँ। ख़लीफ़ा अभी भी उद्विग्न थे। “परेशान करते है मादर…….” उनके मुंह से झाग और गलियां दोनों बदस्तूर जारी थीं। बच्चे खिसकने शुरू हो गए थे। मेरी उम्मीद से काफी कम समय में ख़लीफ़ा शांत हो गए। “क्या बात है?” अपने दाहिने हाथ से मुंह के झाग पोंछते उन्होंने पूछा।

मैंने उन्हें अपना नाम बताया और कहा कि आपसे ज़रूरी बात करना चाहता हूँ। कब आ जाऊं? ख़लीफ़ा कुछ देर मुझे ताकते रहे। (मुझे यह बाद में मालूम हुआ कि ग्लूकोमा रोग के चलते वह बिलकुल नहीं देख पाते हैं ।) “तुम वही तो नहीं जो भगत फिरकत्ती शुरू करने डोल रये हो?” मैंने मुस्करा कर कहा-हाँ। कुछ ही क्षण उन्होंने लगाए होंगे, फिर इन्कार की मुद्रा में अपने विशालकाय दाहिने हाथ के पंजे को हवा में लहराते हुए बोले “फालतू टैम ख़राब कर रहे हो अपना। भगत तो ख़तम हो चुकी। अब उसकी बात करना, फिजूल टैम बर्बाद करना है।” मेरे यह कहने पर कि क्या हम कहीं बैठ कर बातें कर सकते हैं, वह बोले “यहीं मंदिर में हमारी बैठक है। वहीँ चलते हैं।”

मंदिर में घुस कर उन्होंने टटोल कर एक दरवाज़े का ताला खोला। मैं दरवाज़े के बाहर ही खड़ा रहा इस उम्मीद से कि वह अभी अपनी बैठक में ले चलेंगे। “भीतर आ जाओ। ” उन्होंने अंदर से कहा। मैं बाहर जूता उतार कर अंदर घुसा। “जूते भीतर ही ले आओ, नहीं तो बन्दर ले जायेंगे।” फिर हँसते हुए बोले हमारे मोहल्ले के बन्दर और बच्चे दोनों भैंचो बड़े हरामी हैं।” वह ठहाका लगाकर हँसे। उनकी इस निर्मल हंसी से कुछ क्षण पहले बाहर उन्हें रौद्र रूप में देखने का मेरा तनाव एक झटके में जाता रहा।

यह एक 8 x 6 फ़ीट की कोठरी थी। कहने को यहां कोई ’ज्यास्ती’ सामान नहीं था लेकिन तब भी, रोज़मर्रा की उनकी तमाम चीज़ो से अटी पड़ी थी यह कोठरी। पश्चिम में फर्श के कोने में छोटी सी लोहे की तिपाही पर हारमोनियम रखा था। हारमोनियम के ठीक बगल में चून (आंटे) का कनस्तर था जिसके पेंदे के ठीक एक इंच ऊपर हो चुका सुराख़ चूहों की भरपेट सेवा में तब भी मददगार साबित हो रहा था। दोनों के बीच दीवाल पर ठीक एक फुट ऊपर ठुकी लंबी कील पर ‘चंग’ लटकी थी। आंटे के कनस्तर के किनारे-किनारे चकला-बेलन, भगोना, छोटा सा कुकर, फ्राईंग पेन, कलछुन जैसे जरूरी वारदाने और वारदानों से सटकर थालियां, कटोरियां, चमचे और गिलास रखे थे। पूर्व में प्रवेश द्वार से सटे लकड़ी के स्टूल पर मिटटी के तेल वाला स्टोव रखा था। मुझे लगा यहां से अभी वह (जैसा कि उन्होंने कुछ ही देर पहले कहा भी था) मुझे अपनी बैठक में ले चलेंगे। उन्होंने लेकिन मुझे वहीँ नीचे बिछी दरी पर बैठने को कहा। आगे की मुलाक़ातों में साफ़ हुआ कि वह अपनी इसी कोठरी को ही ‘बैठक’ कहा करते थे।

मैंने उनसे उनकी ‘भगत’ के दौर के कुछ क़िस्सों को उगलवाने की कोशिश की। काफी देर वह शून्य में भटकते रहे। मैं नहीं समझ पा रहा था कि वह कुछ सोच रहे हैं याकि अभी अगले क्षण इंकार करने की भूमिका साध रहे हैं। काफी देर की उहापोह के बाद उन्होंने गला खंखारा और शुरू हो गए। उन्होंने क़िस्से शुरू किये। वह क़िस्से सुनाते रहे। अपने, अपनी भगत के, अपने चेलों के, अपनी भगत की क़ामयाबियों के, अपनी नाक़ामयाबियों के, आगरा के दूसरे अखाड़ों और उनकी भगत के, उनके ख़लीफ़ाओं के, उनके ‘ज्ञानी’ और ‘अज्ञानी’ होने के। उनके चेहरे पर भाव आते-जाते रहे। वह डूबते रहे-उतराते रहे। इस बीच वह अगल-बगल से किसी लड़के को बुलाकर दो बार अपने स्टोव पर चाय बनवाकर पेश कर चुके थे। हर क़िस्से का उनका तोड़ होता-अरे सुकला जी, क्या-क्या बताएं तुम्हें? हार (थक )जाओगे। हक़ीक़त यह है कि न वो ‘हारे’ न मैं।

हमने दोपहर में शुरू किया था, अब शाम ढलने लगी थी। वह जैसे पुराने दिनों के कला संसार के ग्लैमर में पहुँच गए थे और जम कर उसका रस भोग रहे थे। तीन-चार घंटे की उनकी क़वायद के बाद मैंने उनसे पूछा “आपको नहीं लगता, ऐसी शानदार दुनिया फिर से वापस लौटनी चाहिए?” मेरे सवाल पर जैसे उन्हें करंट लगा। वह चौंके। उन्होंने मेरी तरफ घूर कर देखा, जैसे शिक़ायत कर रहे हों कि मैंने उन्हें उनके सपनों के संसार से वापस क्यों घसीट लिया?

“मेरा मतलब है कि…ऐसे शानदार दिनों की वापसी तो होनी चाहिए।” कुछ अचकचाते हुए मैंने कहा।

“कैसी बातें करते हो? वो क्या दिन थे, ये क्या दिन हैं। वो भगत आज कैसे हो सकती है? कौन देखेगा उसे?” एक लंबी सांस छोड़ कर वह बोले।

“यही तो मेरा कहना है। उन दिनों जैसी भगत आज नहीं हो सकती लेकिन आज के दिन जैसी भगत तो आज हो सकती है?”

कुछ देर रुक कर उन्होंने पूछा “मतबल?” और फिर मैंने उन्हें ‘भगत’ के पुनरुद्धार की अपनी परिकल्पना के बारे में विस्तार से बताया। मैंने उनसे कहा कि बेशक परंपरागत भगत गायकी हो लेकिन क़िस्से आज के दौर के हों, आज की समस्याओं से जुड़े हों। वो आज के लड़के-लड़कियों के सवालों को उठाने वाले हों, वो आज की औरत की, आज के पुरुष की बात करने वाली हो, वो आज की इंसानियत के मसलों को सम्बोधित करती हो।

मैंने उन्हें बताया कि ‘भगत’ के मूल ढाँचे को छेड़े बिना कैसे इसमें बहुत सारे नए प्रयोग हो सकते हैं। कैसे उनकी पाड़ (स्टेज क्राफ्ट) को आज के संदर्भों से जोड़ा जा सकता है, कैसे उनकी वेशभूषा, उनकी रूपसज्जा और उनके आभूषणों को आज के युग के इंसान से जोड़कर बनाया जा सकता है।“ मैंने कहा कि ”इनमें से कोई कलाकार हाथ में कागज़ लेकर ‘जवाब’ नहीं गाएगा बल्कि ये सभी गा-गाकर अभिनय भी करेंगे, जो कि ‘भगत’ की पुरानी परंपरा है और जिसे बंद होने के आख़िरी 20-30 सालों में भुला दिया गया था। कोई घंटे भर से ज़्यादा मैं बोलता रहा और वह बिलकुल ख़ामोश होकर मुझे सुनते रहे। जब मैं बोल चुका तो उन्होंने बेहद आहिस्ता से कहा “पता नहीं भाई, हमने इसे कभी इस तरह से नहीं सोचा।


“तो सोचिये” मैंने कहा। मेरा यह बयान भी ख़ासा लम्बा चला। अब तक बाहर घना अँधेरा पसर आया था। मेरी बात ख़तम होने पर ख़लीफ़ा ने आहिस्ता से कहा “बाह भाई सुक्ला जी बाह! जे तुमने खूब कई।“ वह जैसे स्वीकार्यता के भाव से मुस्कराते हुए आहिस्ता-आहिस्ता गर्दन हिला रहे थे। “क्या बज गया?” कुछ देर बाद उन्होंने पूछा। मैंने घड़ी देखकर टाइम बताया। ‘जल्द ही मिलेंगे’ के हम दोनों के संकल्प के साथ मीटिंग ख़त्म हुई।

बाहर निकला तो मैं ‘एक्साइटेड’ था। मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी थी कि कम स कम एक ख़लीफ़ा तो मिला जिसने ‘नए दौर की नयी भगत’ की हमारी संस्थापनाओं के प्रति ज़ाहिरा असहमति नहीं दर्शायी। रेलवे लाइन पार करते ही मैंने फ़ोन करके चुन्नू (योगेंद्र) की ख़ोज-ख़बर ली। ‘रंगलीला’ में ‘भगत के पुनरुद्धार’ की मेरी स्थापनाओं को सबसे बेहतर तरीके से जानने-समझने वालों में वह थे। कुछ ही देर बाद हम आमने-सामने थे। मैंने उन्हें ख़लीफ़ा से हुई बातचीत का ब्यौरा तफ़सील से दिया साथ ही कहा कि अगली बैठक में उन्हें भी साथ होना है।

इसके बाद ख़लीफ़ा के साथ हम लोगों की निरंतर बैठकें होती रहीं। मनोज सिंह, तलत, मनोज शर्मा और दूसरे हमारे कई युवा सहयोगी, जब-जब मैं किसी नए साथी के साथ उनके यहाँ पहुँचता, पहली मुलाक़ात के ‘बच्चा कांड’ की धमक मेरे भीतर गड़गड़ाती रहती, ऊपर वाले की दुआ से ऐसा कुछ घटा नहीं। ख़लीफ़ा बड़ी गर्म जोशी से हम लोगों का स्वागत करते। हर बार उनके पास बहुत सारे सवाल होते। हम जवाब देते। अगली मीटिंग में फिर नए सवालों की झड़ी होती। मैं समझ रहा था कि बहुत कुछ है जो उनके अंदर उमड़-घुमड़ रहा है। न जाने क्यों, मुझे यह सब कुछ ‘पॉज़िटिव’ लग रहा था।

वह हममें से किसी को ‘हुक्म’ देते कि उनके कनस्तर (टिन) को खोला जाय। कनस्तर खोला जाता तो कभी मिठाई, कभी ख़स्ता, कभी कुछ और…. ख़लीफ़ा खाने के बहुत शौक़ीन थे (उनकी अपनी ज़बान में “बड़ा चट्टो हूँ “), तब वह कैसे हम लोगों के लिए यह सब कुछ सहेज कर रख पाते होंगे, यह हमारे लिए हमेशा गुत्थी बना रहा। मुझे अंदाज़ होने लग गया था कि कला की उनकी ‘अकालग्रस्त’ ज़िंदगी में हमारी एंट्री, हरे-भरे उपवन की मानिंद उग रही थी जिसके समक्ष वह अपना सर्वश्रेष्ठ ‘हाज़िर-नाज़िर’ कर डालना चाहते थे।
उन्होंने हमें ‘गुरु पूर्णिमा’ के दिन का न्यौता दिया। इस दिन को वह अपने लिए बहुत ‘शुभ’ मानते थे। इस दिन वह अपने ‘गुरु’ का आराध्य करते थे। (बाद के बहुत साल हम लोग हर गुरु पूर्णिमा पर उनके पास जाते रहे लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं बताया कि उनका गुरु कौन है।)

हम जब पहुंचे तो मंदिर के मुख्य सभा कक्ष में हारमोनियम के साथ उनका गायन चल रहा था। मंदिर में स्त्री-पुरुषों का भारी जमावड़ा था। गायन की समाप्ति पर वह उठे। हम लोग उनके साथ-साथ उनकी ‘बैठक’ में आए। वह ठीक से बैठ भी नहीं पाए थे कि उन्होंने सवाल दाग़ा “अच्छा चलो जे बताओ कि जे सब होगा कैसे? इस भगत के लिए तो भौत से लोग चइये? भौत सा पैसा चइये?” गहरी सांस छोड़ते हुए उन्होंने पूछा।

“यक़ीनन! इसके लिए एक बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन छेड़ना होगा ख़लीफ़ा। बहुत से लोग चाहिए। बहुत से कलाकार- पुराने और नए, बहुत से साजिंदे, बहुत से कवि, बहुत से लेखक, पत्रकार, कहानीकार, बहुत से दर्शक-युवा, अधेड़, छात्र, बस्तियों के रसूखदार लोग, मीडिया, सरकारी कर्मचारी और अफ़सर। इस सबसे पहले लेकिन आप और हम चाहिए जो इसे समझें, समझ के कर सकें और करके बाकियों को समझा सकें। जब यह सब होने लगेगा तो यक़ीन मानिये पैसा भी जमा होने लगेगा।“ जवाब में मैंने कहा।

“अच्छा तो चलो, आज का दिन बड़ा सुभ है। आज से अपने इस आंदोलन में हमें भी सामिल समझो।” मुस्कराकर उन्होंने कहा।

इसके बाद उन्होंने कई मीटिंगों में अपने पुराने चेलों से मुझे मिलवाया। “जे हरिमोहन हैं। सुनारी का काम करते हैं…… बड़े आदमी हैं…… इनकी बला से, इनका ख़लीफ़ा जिये या मरे, इनकी कोई जिम्मेवारी नहीं। बड़े मादर….. हैं जे ।” चेलों के परिचय वह कुछ इसी अंदाज़ में कराते। ये सब आस-पास की बस्तियों में रहने वाले लोग थे। कोई सुनार का धंधा कर रहा था, कोई चाय की थड़ी लगा रहा था, कोई हलवाई के पेशे में जम गया था तो कोई ‘पेटी’ लेकर मोहल्ला-मोहल्ला हजामत बना रहा था। मैंने पाया कि उन सबके मन में ख़लीफ़ा को लेकर बड़ा प्रेम और सम्मान है। लम्बे समय से अपना ‘थोबड़ा’ न दिखाने की एवज़ में उन्होंने ढेर सी गालियां सुनायीं।

चेले मुस्कराते रहे। कान पकड़ कर अपने व्यस्त हो जाने की मजबूरियों की टूटी-फूटी दास्तान सुनाते रहे और ख़लीफ़ा “…….बहाने मती न बना भैनचो…..” गालियां सुना सुना कर बोलने से रोकते। गालियां उनकी ज़बान से चिपकी रहती थीं। ग़ुस्सा और दुलार-दोनों में वह इनका जम कर इस्तेमाल करते। काफी बाद में मुझे पता चला कि ख़लीफ़ा के चेलों और मुरीदों के भीतर यह ‘विश्वास’ भरा था कि यदि ख़लीफ़ा की गालियां खा लो तो दिन बड़ा शुभ गुज़रता है। बहुत से लोग सुबह-सवेरे उनके दर पर आकर उन्हें भड़काने की कार्रवाई करते ताकि वह गाली-गुफ़्ता पर आमादा हो जाएँ। कई तो अपने इस स्वार्थ में उनका बीपी भी बढ़ा जाते।

“अच्छा चल, माफ़ कीना भैन के….अब हमारी सुन। पता है आज तेरे दरवज्जे पे किसको लाया हूं?” फिर वह मेरा हद ज़े ज़्यादा लंबा चौड़ा ‘सीवी’ पेश करते। चेले उठ-उठ कर मेरा भी चरण स्पर्श करते। कई तो मुझसे उम्र में बड़े थे। मुझे बड़ी झेंप लगती। मैं उन्हें रोकता।

“अरे तुम्हारा आसिरवाद मिलेगा तो ढी का……. इंसान बन जाएगा।” इसके बाद ख़लीफ़ा हम लोगों की मीटिंग का मक़सद बताते।
“तैयार होज्जा। कमर कस ले। अब फिरकत्ता भगत होगी! नए टाइप में होगी! आगे तुम इसे ज्ञान दो।” वह बॉल को मेरी पिच पर उछाल देते। कोई एक पखवाड़े तक हम लोग उनके शागिर्दों से मिलते रहे।

एक शाम उनके यहाँ पहुंचे तो वह बड़े उदास थे। पूछने पर बोले “चेलों में तो भैन….. कोई हाथ ही नहीं धरने दे रहा। सालों के पास न करने के बहाने हैं। ख़लीफ़ा का कोई भी चेला भगत करने को राज़ी नहीं था। मुझे इस ‘अनहोनी’ का हल्का-फुल्का आभास था। दरअसल ‘भगत’ छोड़े उन्हें पचासेक साल बीत चुके थे। इस बीच वे दीगर काम-धंधों में उलझ गए थे। उनकी नयी दुनिया आबाद हो चुकी थी और अब वे उसे छोड़ कर वापस ‘भगत-वगत के झंझट’ में नहीं पड़ना चाहते थे। सबसे तो उन्हें भी उम्मीद नहीं थी लकिन उन्हें भरोसा था कि आधे तो ज़रूर लौट आएंगे। दुर्भाग्य से सबने हाथ झाड़ लिए। उन्हें ‘सदमा’ सा लगा। माहौल में कुछ तनाव जैसा ठहर गया था।

काफी देर बाद मैंने इस सन्नाटे को तोड़ा “ख़लीफ़ा, बुड्ढों को भूल जाईये। भगत में बच्चों को ट्रेंड करने की तो बड़ी पुरानी रवायत है, क्यों न हम बच्चों के साथ शुरू करें?” वह कुछ देर शून्य में भटकते रहे। “क्या कहते हो ख़लीफ़ा?” कुछ देर ठहरकर मैंने फिर दोहराया।

“अरे यार उसमें तो बहुत टेम लगेगा।” वह जैसे चिड़चिड़ाकर बोले।

“जाने की जल्दी में तो आप दीखो नहीं……… और मेरी तो अभी उमर ही क्या है।” मेरी बात सुनकर उनके चेहरे पर मुस्कान उभरी। माहौल कुछ ढीला हुआ। स्टोव पर चाय का पानी चढ़ाया गया। वह 7 साल की उम्र में भगत में शामिल होने के अपने क़िस्से सुनाते रहे। फिर उन्होंने नंदू का ज़िक्र छेड़ा। बहुत बचपन में वह उनकी शाग़िर्दी में आया था और सयाना होते-होते शहर का ‘भगत स्टार’ बना।

“उसके गले में सुरसती बसती थी।” उन्होंने भर्राये गले से कहा। नंदू बहुत जल्दी चल बसा था। उनकी बातचीत से लगा कि वह उनका बहुत प्रिय था। नंदू की दास्तान सुनाते- सुनाते वह भावुक हो गए।

तीसरे दिन मंदिर के पुजारी गणपत पंडित का फ़ोन आया। ख़लीफ़ा ने याद किया था। शाम का बुलौआ था। पहुंचा तो 5-6 बच्चे बैठे थे. सबने लपक कर मेरे पैर छुए। ख़लीफ़ा ने सबका परिचय दिया। “जे दीपक है, जे आकास, जे सिबम, जे लाला, जे संभू और जे अर्जुन।” ख़लीफ़ा ने बताया कि ये 6 बच्चे अपनी ‘नयी भगत’ की तालीम (प्रशिक्षण) लेंगे। सभी 9 से 11 साल की उम्र के बीच के थे। सुंदर, गोल, चिकने-चुपड़े चेहरे, उत्साह से लबरेज़। शंभू और आकाश सांवले थे, बाकी सभी गहरे गौर वर्ण वाले। सभी आस-पास की बस्तियों के थे। ख़लीफ़ा ने एक दिन पहले ही इनकी ‘तालीम’ शुरू भी कर दी थी।

“चल रे आकास, बाजा निकाल।”

उनके कहते ही कई बच्चे एक साथ हारमोनियम उठाने को दौड़ पड़े। छोटी सी कोठरी में भगदड़ मच गयी।

“ओये……….!” ख़लीफ़ा ज़ोर से दहाड़े। “…….. अब जरा शऊर की भी तालीम लेते चलो। जिसको जो कहा जाय बोई उसे करो।” हारमोनियम खुला। ख़लीफ़ा ने ‘दोहे’ की तान छेड़ी। इसके बाद बच्चों से एक-एक कर गवाया। बच्चों की एक दिन की तालीम। भला सुर तो क्या पकड़ पाते! अलबत्ता गले सबके बड़े मीठे थे। कोई पौन घंटे बाद बाजा बंद किया गया। ख़लीफ़ा ने ज़ोर का ठहाका लगाया। “आते रहे तो चल निकलेंगे।” बच्चे होशियार थे, उस दिन की चाय उन्हीं लोगों ने बनाई और हम लोगों के साथ पी। मेरी तरफ इशारा करके बोले “अब एक दो दिन में सर जी तुम्हें एक्टिंग की तालीम भी देनी शुरू करेंगे।” एक्टिंग का नाम सुनकर सभी के चेहरे खिल गए।

ख़लीफ़ा की तालीम महीनों-महीनों चली। मैं उन्हें अभिनय का प्रशिक्षण दे रहा था। मेरे अलावा वहाँ ‘रंगलीला’ का कोई न कोई और भी मौजूद रहता। यह हम लोगों के ‘भगत’ पुनरुद्धार आंदोलन का आग़ाज़ था जो आगे चलकर अपने उरूज़ पर आया हुए और समूचे आगरा शहर को इसने अपने आगोश में ले लिया। देखते-देखते खलीफा इसके लामुहाला कमांडर-इन-चीफ बन गए। यह सब बड़ा दिलचस्प है लेकिन इसकी चर्चा आगे।

इस दौरान बच्चों के साथ-साथ मैं भी ‘भगत’ की परम्परागत गायकी सीख रहा था। हालांकि ख़लीफ़ा ने मेरा कभी ‘मोंह नहीं भरा’ था (भगत परंपरा में नए शागिर्द को चेला बनाते समय सम्बंधित ख़लीफ़ा उसका ‘मुंह’ लड्डू से भर देते थे, जिसे ‘मोंह भरने की रसम’ कहते हैं।) लेकिन तालीम के दौरान या कभी भी, मुझे ‘भगत’ गायकी की बारीकियां बताते रहते थे।

मैं उन्हें बदलते देस की तस्वीर का अक़्स दिखाता रहता। उन्हें अख़बार की ज़रूरी ख़बरों से लेकर संपादकीय पन्ने के तमाम तरह के लेख पढ़कर सुनाता। मैं उन्हें हिंदी साहित्य देश की संस्कृति में चल रहे तमाम ‘अप एंड डाउन’ से वाक़िफ़ कराता। अक्सर वह कहते “यार तुम अगर चालीस साल पहले मिल गए होते, मैं पढ़ा लिक्खा बन जाता।” अनेक नए लोगों से परिचय में वह मेरी तरफ इशारा करते हुए कहते-हम दोनों एक दूसरे के गुरू और चेले हैं।“ यद्यपि मैंने ख़ुद को उनका गुरू कहने की धृष्टता कभी नहीं की। मैं उनका परिचय अपने गुरू के रूप में ही देता, क्योंकि मैं उनसे परंपरागत ‘भगत’ सीख रहा था।

इस दौरान उनका अलग तरह से विकास हो रहा था जो मेरे इस यक़ीन को पुख़्ता कर रहा था कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। किसी भी नए व्यक्ति से मुलाक़ात में, अगर ज़रूरी लगता तभी वह प्रभावित होते, सामने वाले को तो वह प्रभावित कर ही डालते थे। कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल से लेकर कथाकार असग़र वजाहत तक और नाट्यशिल्पी बंसी कॉल से लेकर अरविन्द गौड़ तक, बहुत से लोगों से वह प्रभावित हुए और उन्होंने अपने लोक कला ज्ञान से उन्हें प्रभावित किया।

बच्चों को ‘भगत’ की तालीम हासिल करते साल भर से ज़्यादा हो गया था। 6 में से 5 थे जो बेहद सुरीला गायन करते थे। अलग-अलग सुरो की पकड़ वे सीख चुके थे। ‘दोहा’ हो, ‘चौबोला’ हो, ‘लावनी’ हो या बहर-ए-तबील, याकि फिर ‘ग़ज़ल’ अथवा ‘क़व्वाली’, वे हर राग- रागनी का गायन पांचवे काले से शुरू करते और इस तरह पूरा मंदिर हिला डालते थे।

ऐसे ही एक दिन हम लोग बैठे थे, बात उठी कि अब इन बच्चों को लेकर एक ‘भगत’ की जाय। “नयी भगत आएगी कहाँ से? लिक्खेगा कौन?” ख़लीफ़ा ने अचकचाकर पूछा।“आप लिखेंगे।“ मैंने झटपट जवाब दिया। “मैं तो पुरानी भगत का आदमी हूँ, नयी कैसे लिक्खूँगा?” वह तपाक से बोले।

मैंने उन्हें गैंग रेप की थीम पर एक कहानी बुन कर सुनाई। एक बाहुबली समूह द्वारा बलात्कार की शिकार एक लड़की और उसकी दुखिया मां की कहानी थी यह। पुलिस, कोर्ट, कहीं से उन्हें जब न्याय नहीं मिलता तो वे समाज को गोलबंद करती हैं। थीम ख़लीफ़ा को बहुत पसंद आयी। उन्होंने आकाश और शिवम को बोल-बोल कर सप्ताह भर में पूरी स्क्रिप्ट लिखवा दी। भगत का उन्होंने शीर्षक रखा- आज का नेता। शीर्षक मुझे पसंद नहीं था, तब भी मैंने कोई दख़लंदाज़ी नहीं की। रेसकोर्स के घोड़ों की तरह बच्चे छूट पड़ने को तैयार थे, लिहाज़ा तालीम शुरू होने के 2 हफ्ते में ही उन्होंने पूरी स्क्रिप्ट याद कर ली। वे मस्त होकर गा रहे थे, वक़्त लगा उन्हें अभिनय वाले भाग को तैयार करने में। बहरहाल, कोई डेड़ महीने की तैयारी के बाद, सन 2009 की दीपावली से ठीक 2 दिन पहले, पुनियापाड़ा के चौक में कई सारे तख़्तों को बाँध कर पाड़ (मंच) तैयार हुआ। 4-5 सौ दर्शकों की मौजूदगी और हेलोजन की तेज़ रोशनी में ‘भगत’ का मंचन हुआ।

यह सही है कि ख़लीफ़ा ‘नए दौर की नयी भगत’ का खेल रचाने निकल पड़े थे लेकिन थे तो वह मूलरूप से पुरानी भगत के ही वाशिंदे। भीतर ही भीतर उन्हें धुकधुकी लगी थी कि इस क़िस्म की भगत दर्शकों को स्वीकार्य होगी कि नहीं। ख़ैर ‘भगत’ अच्छे से संपन्न हो गई हालाँकि उसमें ढेर सी खामियां थीं फिर भी वहाँ मौजूद दर्शकों ने (जिसमें ज़्यादातर ने अपने जीवन में पहली बार ‘भगत’ देखी थी )इसे जम कर सराहा। पचास साल बाद ‘भगत’ का मंच सजा था लिहाज़ा आगरा के अख़बारों ने उसका ज़बरदस्त स्वागत किया। अगली सुबह मोहल्लों की स्त्रियों और लड़कियों ने ख़लीफ़ा को घेर लिया। वे सभी ‘बाबा’ को धन्यवाद देने आई थीं जिन्होंने उनकी ज़िंदगी के सबसे बड़े ख़तरे को मंच पर उजागर किया था। वे ख़लीफ़ा के नाश्ते के लिए गरमागरम बेड़ई, आलू का साग और जलेबी लायी थीं। ख़लीफ़ा भावुक हो गए। दोपहर जब मैं उनके पास पहुंचा तो सुबह का विवरण देते-देते उनकी आँख से आंसू भर आये। “बई सुकला जी, तुम्हे तो नयी भगत का साटीफिकट मिल गया। तुम तो पास हो गए।” अपनी आँख की पोरों पर बह आए आंसू पोंछते हुए वह बोले।

ख़लीफ़ा का यह उत्साह कई दिनों तक बरक़रार रहा और उत्साह की इसी बेला में उन्होंने एक दिन नयी ‘भगत’ की घोषणा कर दी। वह बोले “पढ़ाई-लिखाई कित्ती जरूरी है, मुझसे ज्यादा कौन जानेगा।?” उन्होंने एक सप्ताह में साक्षरता पर एक भगत ‘लिख’ डाली। सुनने के बाद मैंने कहा “ख़लीफ़ा यह है तो अच्छी लेकिन गौरमेंट का साक्षरता अभियान प्रोपेगंडा वाली लगती है, आधी अधूरी।” वह चुपचाप मेरी बात सुनते रहे। “अगर गौरमेंट पढ़ने की कहे तो क्या बुराई?” उन्होंने पूछा। उनके स्वर से लगा कि उनको मेरी आलोचना पसंद नहीं आयी।

मैंने उन्हें समझाया ” हम लोग कलाकार हैं ख़लीफ़ा। हमारा कर्तव्य समाज में जाग्रति का सन्देश देना है। इसमें चाहे सरकार का फ़ायदा हो या न हो। एक अशिक्षित व्यक्ति साक्षर क्यों बने? इसलिए नहीं कि वह साक्षर बन कर नीम की दातुन की जगह टूथपेस्ट पकड़ ले और विदेशी कंपनियों को नफ़ा पहुंचाए। वो इसलिए पढ़ाई लिखाई सीखे ताकि लिख पढ़ कर अपने अधिकारों को जान सके और फिर हासिल न कर पाने पर उनके लिए लड़ाई लड़ सके।”
वह काफी देर हूं हां करते रहे।

दो दिन बाद जब मैं उनके पास पहुंचा तो ख़लीफ़ा फिर पुरानी रंगत में थे। उन्होंने कहानी को नए सिरे से ‘लिख’ डाला था। “अब बताओ तुमने मुझे फेल किया कि पास।” मैं मुस्कराया। ज़ाहिर है वह मुझे मुस्कराता देख कहाँ पाते। उन्होंने फिर पूछा “तुमने मेरे सवाल का जवाब न दिया?” मैंने उनके कंधे पर धौल जमाते हुए कहा ” अरे ख़लीफ़ा आपको फेल करने की औक़ात मेरी कहाँ ? इस बार आपने लेकिन डिस्टेंकशन नम्बर लाने का काम किया है।”
“बो क्या होता है ?”

“मतलब सौ में पचहत्तर को कहते हैं, आप ने तो इस बार पिच्चानबे नंबरों वाला काम कर दिया है।”

वह फिस्स से हंस कर बोले “मर भैंचो, पांच नम्बर फिर भी कट गए।”

मैं ठहाका मार कर हंसा।

“कसम से, परसों तुम्हारी बात मुझे अच्छी न लगी। फिर सोचा कि तुम दरअसल जो बात कह रहे हो उसक मतलब क्या है। साम तक मेरे ज्ञान चच्छु जागे। अरे मैंने कई, सुकला जी तो बड़ी बात कह गए ख़लीफ़ा और तू मूरख उसे समझा ई नहीं। बस कल इतवार था, सुबेरे से ही सिबम को बुला लाया। रात तक छोरे ने लिख डाली।”

भगत ‘कल का इंडिया’ बड़ी धूमधाम से पुनियापाड़ा की आलीशान ‘गांडे वाली बगीची’ में भव्य मंच बनाकर खेली गयी। लगभग 2 हज़ार दर्शकों से खचाखच भरे ‘बगीची’ के मैदान में सजाये गए दिव्य और भव्य मंच पर भगत हुई। पहली और इस ‘भगत’ के कलात्मक स्तर में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था।

अगली घटना ‘भगत’ के 4 सौ साल के इतिहास की जो अनहोनी थी, वह था भगत में महिला अभिनेत्री का प्रवेश। एक मीटिंग में जब ख़लीफ़ा के सामने महिला अभिनेत्री का प्रस्ताव आया तो सुनकर वह ‘ऊल’ गये। “अरे यार तुमसे तो कोई कुछ कहेगा नहीं, स्साले (दूसरे अखाडों के ख़लीफ़ा) मुझ पर जूत बरसायेंगे।“ बहरहाल, इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में उन्होंने शुरूआती ना नुकुर ही की थी। पहले भी वह कहते थे कि “लौंडिया जब चाँद पे जा सकें तो भगत चों ना खेल सकें।”

इस तरह हिमानी ‘भगत’ के 4 सौ साल के इतिहास की पहली ‘शागिरदिन’ थी जिसका ‘मोंह भरने’ की रस्म अदा हुई। हिमानी चतुर्वेदी ‘रंगलीला’ से जुडी थी और अद्भुत गले की मालकिन थी। वह अक्सर ख़लीफ़ा के यहां आती-जाती थी और वह उसे बड़ा स्नेह करते थे। उसके नाम का जब प्रस्ताव आया तो वह सहर्ष तैयार हो गए।

आगरा के मशहूर ‘ताज महोत्सव’ में भगत ‘कल का इंडिया’ की प्रस्तुति हुई। कल्लू की मां की भूमिका में हिमानी ने अकल्पनीय अभिनय किया। खचाखच भरे ‘सूरसदन’ ऑडिटोरियम के दर्शक पहली बार ‘भगत’ देख रहे थे और वह भी ऐसी लाजवाब हो रही थी।
सिनेमा की भाषा में जिसे ‘बॉक्स ऑफ़िस हिट’ कहते हैं, कुछ-कुछ वही बात हमारी भगत ‘मेरे बाबुल का बीजना’ पर लागू होती है। यह मूल रूप से हमारी पहली भगत ‘आज का नेता’ का ‘रीमेक’ ( परिवर्धित और भव्य रूप) थी। अतिरिक्त संवाद और गीत वरिष्ठ कवि शलभ भारती ने लिखे थे जो हमारी मण्डली के स्थाई सदस्य हैं। इस ‘भगत’ की प्रस्तुतियां दिल्ली और लखनऊ साहिर अनेक शहरों में कई-कई बार हुई थी। दिलचस्प बात यह है कि गैंग रेप की इस मार्मिक कहानी को देखने वाले अपने आंसुओं को रोक नहीं पाते थे। यह महज़ इत्तिफ़ाक़ है कि इसकी प्रस्तुतियां दिल्ली के ‘निर्भया काण्ड’ से 2 साल पहले शुरू होकर अभी भी होती हैं।

‘बीजना’ ब्रज भाषा में हाथ से झलने वाले पंखे को कहते हैं। शीर्षक मेरा खोज हुआ था लेकिन यह ब्रज के एक अत्यंत लोकप्रिय गीत ‘जाने को ले गई है चुराय, मेरे बाबुल को बीजना’ की अनुकृति था। समूचे ब्रज अंचल में करौली देवी (सवाई माधोपुर, राजस्थान) की ‘जात’ में जाने वाली लाखों महिलाओं के समूह आज भी 145 किमी के सारे रास्ते इसे गाते हुए जाती हैं और गाते हुए ही लौटती हैं। 60 के दशक में मशहूर रिकॉर्ड निर्माता कम्पनी ‘एचएमवी’ ( हिज़ मास्टर्स वॉइस) ने इसे लोकगीत बताते हुए इसका रिकॉर्ड भी जारी किया था। कोई नहीं जानता कि 1950 के दशक के इस लोकप्रिय गीत को किसने रचा था। हमारी भगत के ‘ब्रोशर’ और मीडिया की कवरेज से ही लोग पहली बार जान सके कि इस शानदार लोकगीत के रचयिता स्वयं ख़लीफ़ा फूलसिंह यादव हैं। इस लोक गीत के मुखड़े को आधार बनाकर ‘भगत’ के लिए एक नए गीत की रचना की गयी है जो ‘कर्टेन कॉल’ के रूप में गाया जाता है। गीत में ‘बीजना’ शब्द का उपयोग नारी शक्ति के ‘मेटाफ़र’ (रूपक) के रूप में सुन्दर तरीक़े से किया गया है।

और फिर जैसे इतिहास का चक्र आगे बढ़ता ही गया। मोहल्लों, स्कूलों और कॉलेजों में ‘भगत’ की कई सारी ‘वर्कशॉप’ हुईं। बहुत से नए लड़के शामिल हुए। नेहा, काजल, कोमल, जिस भगत में लड़कियों का आना निषेद्ध था, वहां शानदार गायन और अभिनय वालियो का समूह खड़ा हो गया। आगरा से बाहर निकल कर प्रस्तुतियां देने का सिलसिला शुरू हुआ। लखनऊ, दिल्ली…. हम शहर दर शहर नापने लगे।

साल दर साल गुज़रते गए। हमारी प्रस्तुतियों में एक ओर जहां ख़लीफ़ा के पुराने बुज़ुर्ग कलाकार पतोलाराम और लक्षमण जैसे लौट आये थे, वहीँ योगेंद्र दुबे जैसे आधुनिक रंगमंच के अभिनेता और राकेश यादव जैसे शानदार और जानदार गले वाले अभिनेता इसे बुलंदियों पर ले जा रहे थे। ख़लीफ़ा 94 बरस को पार कर चुके थे। उनका स्वस्थ अक्सर उन्हें परेशान करता रहता था। उनकी किडनी ‘’सुसरी’’ दिक़क़त कर रही थी।

चोट लगने से मेर कूल्हे की हड्डी टूट गयी थी। वह रवि के साथ रिक्शे में बैठकर मुझे देखने आये। “ऐसा करते हैं, के तालीम यहीं तुम्हारे यहाँ ही डाल लेते हैं। तुम लेटे लेटे देखते रहना।” मुझे चिंतातुर देख कर वह बोले। दूसरे दिन उनके पेट में ज़ोरों का दर्द उठा। उन्हें सरोजिनी नाइडू अस्पताल के ‘इमरजेंसी वार्ड’ में दाख़िल करवाया गया। उनकी किडनी उन्हें परेशान कर रही थी। तीसरे दिन यानी सन 2015 की 4 अगस्त, दिन मंगलवार को सुबह 6 बजकर 20 मिनट पर, रवि का फ़ोन आया। वह ज़ोर ज़ोर से हिचकियाँ ले रहा था।

“क्या हुआ?” मैंने चीख कर पूछा।

ख़लीफ़ा विदा ले चुके थे।

 

(अनिल शुक्ल : हिंदी पत्रकारिता में 4 दशकों की जीवंत पारी। ‘रविवार’ (आनंदबाजार पत्रिका प्रकाशन समूह), ‘संडे मेल’ और ‘अमर उजाला’ में 80 और 90 के दशक में नौकरियाँ। दूरदर्शन के लिए ‘क़ामयाब’ और ग्रेट मास्टर्स, नाम से डॉक्युमेंटेशन की श्रंखलाओं का निर्माण और निर्देशन, दर्जन भर से ज़्यादा चर्चित डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों का निर्माण। स्वतंत्र पत्रकारिता के साथ-साथ इन दिनों आगरा में रहकर ब्रज की 400 वर्ष पुरानी लोक नाट्य कला ‘भगत’ के पुनरुद्धार को सक्रिय।)

 

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