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लखनऊ में ‘ दास्तान ए अशफ़ाक़ ’ 

लखनऊ। पहली जून 2025 की शाम, अदब, आदाब और तहज़ीब के शहर लखनऊ को इपटा (IPTA) की तरफ़ से एक क़ीमती तोहफ़ा पेश किया गया। इसके ज़रिये जंग ए आज़ादी के एक सुनहरे बाब को याद किया गया और दास्तानगोई जैसे फ़न को उसकी आत्मा, मक़सद के साथ तहफ़ूज़्ज़ को यक़ीनी बनाया गया।

‘दास्तान ए अशफ़ाक़’, जिसे असग़र मेहदी ने लिखा है और अवाम के सामने के पेश किया – शहज़ाद रिज़वी और फ़रज़ाना मेहदी ने, उर्दू की मिठास और तहक़ीक़ी स्क्रिप्ट और दोनों दास्तानगो का तर्ज़ ए बयान, सामाईन पर जैसे सहेर कर दिया गया था।

“ क़िस्सा ” अरबी ज़बान का लफ़्ज़ है, जबकि “दास्तान” एक फ़ारसी लफ़्ज़ है, और दोनों के मायने दिलचस्प कहानी के हैं। दास्तान गोई कहानी बयान करने का एक मख़सूस अंदाज़ है जिसमें दास्तानों को ख़ास अंदाज़ में पेश किया जाता है। कहते हैं कि “ क़िस्सा गोई ” का फ़न इतना ही क़दीम है जितनी कि इन्सानी तहज़ीब-ओ-सक़ाफ़्त।

दास्तान गोई 20 वीं सदी के शरुआती दौर तक तक तफ़रीह और मज़ाकिरे  का मक़बूल ज़रीया रही। वक़्त के साथ एक ज़वाल पैदा होने लगा। लेकिन इधर के दौर में इसमें दिलचस्पी बढ़ी और लेकिन दस्तानगोई के उनवान में तब्दीली नहीं हुई। लिहाज़ा अब ज़रूरत है कि संजीदा और नज़रयाती दास्तानों को लिखा जाए जो मौजूदा हालात से हमआहंग होने के साथ अवाम को उसकी गंगा-जामुनी तहज़ीब, अदब ओ आदाब से भी मुतारिफ़ कराए।

9 अगस्त 2025 को ककोरी ऐक्शन केस अपने 100 वाँ साल मुकम्मल करने जा रहा है, यानि हम इस वाक़िये के 100वें साल में हैं। लेकिन इस तारीख़ी और इसी तरह के दीगर वक़ियात को वह जगह कहीं नहीं मिली जिसके वे मुस्तहक़ हैं। यह शिकायत ख़ुद बिसमिल ने भी की थी, उन्हें अवाम और मीडिया की सर्द मोहरी पर काफ़ी अफ़सोस रहा है।

अश्फ़ाक उल्लाह पर दास्तान गोई का यह ख़याल अचानक नहीं आया, बल्कि आज के दौर में इंसानियत  का तक़ाज़ा है कि ऐसे किरदारों को अवाम के सामने लाया जाए।  फ़ारसी में एक मुहावरा है – “सियाही ए लश्कर”। तारीख़ के ऐसे किरदार जो मुनासिब जगह नहीं पाते उन्हें – सियाही ए लश्कर कहा जाता है। अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान जैसे बहुत से किरदार हैं जो इस तारीफ़ में आते हैं।

अशफ़ाक़ के रूप में ऐसा किरदार हमारे सामने है, जो मज़हब और धर्म की पाबंदियों से दूर है। वह मज़बूती के साथ दो क़ौमी नज़रिए को नकारते हैं, वह आज़ादी के लिए क़ुर्बानी की ज़रूरत को ख़त ए राशीदा करते हैं, इसके लिए अपनी लिमिटेड स्टडी के बावजूद वह कॉम्युनिज़म के हवाले से भी कलाम करते हैं और कहते हैं कि वह नज़रयाती तौर पर वह इससे हमआहंग हैं।

यह दास्तान गोई अशफ़ाक़ उल्लाह की ज़िंदगी के साथ उनके अफ़कार को भी माक़ूल जगह देती है। इरादा यह है कि इसे रवायती अन्दाज़ से थोड़ा हटकर पेश किया जाए, इसलिए इसकी शुरुआत साक़ी नामा से न करके अशफ़ाक़ के उस कलाम से की गई जो उन्होंने अपने केस के फ़ैसले की पूर्व संध्या यानी 12 जुलाई 1927 की रात को रचा था, इसके रावी ख़ुद शचिंदरनाथ बक्शी हैं।

इस दास्तानगोई में यह बताया गया है कि काकोरी ट्रेन एक्शन कोई रूमानियत के तहत या जज़्बाती काम न था, इसके पीछे एक फ़लसफ़ा था, अंग्रेज़ों के बाद का देश कैसा होना चाहिए, इसका एक ख़ाका था। दोस्ती, ईसार, माँ की ममता, मादर-ए- वतन से मुहब्बत और सबसे अहम था रूसी इन्क़िलाब की रौशनी में दुनिया को देखते हुए उस वक़्त की सबसे मज़बूत साम्राज्यवादी ताक़त के सामने न झुकने का अज़म, इसके साथ शहीद का मर्तबा और फ़लसफ़ा, जिसे अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान फांसी से 2 दिन पहले अपने भाई से यूं बयान करते हैं:

फ़ना है सब के लिए मुझ पे कुछ नहीं मौक़ूफ़

बक़ा है एक फ़क़त, ज़ात ए किबरिया के लिए

भाई जान आप तो मुझसे बेहतर जानते हैं कि क़ुरान में भी लिखा है, “यह मत कहो कि शहीद मुर्दा है, कहो ज़िंदा हैं, लेकिन तुम उनकी ज़िंदगी का शऊर नहीं रखते। मुझको तो इतमीनान है कि मैँ एक बड़े और ऊंचे मक़सद के लिए फांसी पा रहा हूँ ”

अशफ़ाक़ उल्लाह का इत्मीनान देखें, 19 दिसंबर को फांसी दी जानी है, मालूम है कि दफ़न के लिए लाश को बज़रिए ट्रेन फैज़ाबाद से शाहजहाँपुर जाएगी और जो रास्ते में लखनऊ में रुकेगी। 17 तारीख़ को उनके भाई मुलाक़ात के लिए आते हैं, वह भाई को गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम एक तार में लिखते हैं, और ताकीद करते हैं कि मुलाक़ात के बाद बाहर निकल के इसे ज़रूर कर दें। तार में लिखा था “ मैं 19 तारीख़ को दो बजे दिन को लखनऊ आ रहा हूँ। स्टेशन पर मुलाक़ात कर लीजीएगा।”

दास्तान शुरू होने से पहले तनीषा ने दीप जलाकर सद्भावना का संदेश दिया। इसके बाद शहजाद रिज़वी और फ़रज़ाना महदी ने दास्तान की शुरुआत अशफाक उल्ला खान के लिखे आखिरी कलाम को बतौर सकीना पेश करते हुए की। उन्होंने पढ़ा ‘सुनाए ग़म की किसे कहानी, हमें तो अपने सता रहे हैं /वह सब के सब लूट के उल्टा, हमीं को डाकू बता रहे हैं ‘। बताया कि 1857 में शाहजहांपुर में मौलवी अहमद उल्लाह शाह हुए जिन्होंने क्रांति की अलख जन-जन में जगाई। आगे वहीं से निकले अशफाक उल्ला खान ने देश के लिए बलिदान दिया।

अशफाक के बड़े भाई बिस्मिल के सहपाठी थे। अशफाक ने बिस्मिल के शौर्य की कहानी अपने बड़े भाई से सुनी और उनसे मिलने की इच्छा उनके मन में जागी। उनकी और बिस्मिल की मुलाकात बनारसी लाल ने करवाई। इसके बाद दोनों का मिलना, साथ में अंग्रेजों की जड़े हिलना और काकोरी ट्रेन एक्शन का प्लान बनने से घटना को अंजाम देने और दोनों के शहीद होने तक की दास्तान को दोनों दास्तानगो ने सुनाई। कई ऐसे मार्मिक क्षण भी आए और सुनने वालों को उसे दौर में पहुंचा दिया। कैफ़ी आज़मी का सभागार खचाखच भरा था। अलग से कुर्सियां भी लगाई गई थीं।

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